आचार्य प्रशांत: रिलेशनशिप (सम्बन्ध) में और रिलेट (सम्बन्धित) करने में क्या अन्तर है? सवाल आप नहीं भी समझे हों तो जो बात है उस पर ग़ौर करिएगा, कुछ खुलेगा।
उन्होंने कहा, एक आईना है, आप उसमें अपनी शक्ल देखने गये और पहले से ही मन बना कर गये कि फ़लाने तरह की शक्ल अच्छी मानी जाएगी और वैसी शक्ल नहीं है तो हमें पसंद नहीं आएगी।
आईने ने तो जो दिखाना था वो दिखा दिया तो आपने आईने पर गुस्सा निकाल दिया; दो-तीन जगह से तोड़ दिया उसको और फिर उस पर कालिख मल दी, ठीक? अब दोबारा देखने गये उसको, उसी के सामने अब आप दोबारा पड़े दो दिन बाद, तो उसमें क्या दिखाई पड़ेगा? उसमें कुछ टूटा-फूटा ही नज़र आएगा, अपनी शक्ल दिखायी भी देगी तो विकृत दिखायी देगी। अब आईना कुछ भी साफ़-साफ़ बता नहीं पाएगा आपको।
जिस आईने पर मैल चढ़ गई या जिसमें दरार आ गई, वो आगे के लिए सच्चाई बताने में अक्षम हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिस आईने पर अतीत चढ़ गया, जिस आईने पर अतीत की कोई घटना चढ़ गई, वो अभी सामने क्या है, ये आपको नहीं बता पाएगा।
मन हमारा आईने की तरह है। आप मिले किसी से, आपका सम्पर्क हुआ किसी से और उस सम्पर्क के फलस्वरूप आपने अपने मन पर चोट चढ़ा ली या आपने अपने मन पर कोई अनुभव चढ़ा लिया और अगली बार जब आप उससे मिलेंगे तो सामने क्या है, ये दिखाई नहीं देगा।
सामने जो कुछ भी है उसको देखने में अतीत की मैल, अतीत की चोट, अतीत का अनुभव बाधा बन जाएगा। हम जिस भी इंसान से दूसरी बार मिलते है, उससे हम वास्तव में मिलते ही नहीं। पहली बार जो कुछ हुआ था, हम उसकी गठरी लादे रहते हैं, तो दूसरी मुलाक़ात पहली मुलाक़ात का विस्तार मात्र हो जाती है। दूसरी मुलाक़ात दूसरी नहीं होने पाती, अगर दूसरी होती तो नयी होती।
दूसरा यानि पहले से जुदा, तो उस अर्थ में दूसरा यानि अपनेआप में पहला। पहला पहला था और पहले की कहानी पहले के साथ ही ख़त्म हुई, फिर दूसरा माने तो दूसरा होना चाहिए था न! दूसरा माने दूसरा और दूसरे की शुरुआत दूसरे के साथ होती और दूसरे के साथ ही वो ख़त्म भी हो जाता।
पर हमारी कोई दूसरी मुलाक़ात नहीं होती है। हमारी दूसरी मुलाक़ात हमारी पहली मुलाक़ात का ही एक संस्करण हो जाती है, वर्ज़न वन पॉइंट वन। पहली बार मिले थे, अब उसके बाद एक दशमलव एक, एक दशमलव दो, एक दशमलव तीन चल रहा है। तीसरी मुलाक़ात में पहली और दूसरी दोनों शामिल हैं। दूसरी में पहली शामिल है और पहली में हमारी वृत्तियाँ शामिल हैं, नतीज़ा? न हम किसी आदमी को जान पाते हैं, न किसी औरत को, न किसी जगह को, न अनुभव को, घटना को, संसार को; कुछ जान नहीं पाते।
सबसे ज़्यादा हमारी इस वृत्ति का शिकार वो लोग बनते हैं जिनसे हम लगातार मिलते रहते हैं। जिनसे मिलना-जुलना अक्सर ही होता रहता है, उनका तो कुछ भी पता लगना बड़ा मुश्किल हो जाता है क्योंकि उनको लेकर हमारे पास अतीत का पूरा एक भंडार होता है। आप कहते हो — इस व्यक्ति को मैं इतना जानता हूँ, इतना जानता हूँ, आगे अब और कुछ जान पाने की ज़रूरत ही क्या है; न ज़रूरत है, न सम्भावना है।
आईना अब आईना रह ही नहीं गया, आईना चित्र बन गया है और वो चित्र क्या है? वो बिल्कुल स्थायी है। उसमें अब किसी फेर-बदल की, किसी सुधार की, किसी नवीनता की कोई गुंजाइश नहीं है। आईने में और चित्र में अंतर समझते हो न? आईना सदा वो दिखाएगा जो सामने है और चित्र सदा वो दिखाएगा जो वो है।
आईना वो, जिसके पास अपना कुछ नहीं। चित्र वो, जिसका संसार से, तथ्य से, कोई सम्बन्ध नहीं।
दिन हो, चित्र चित्र है। दिन है तो चित्र प्रकाश नहीं बन जाता। रात हो, चित्र चित्र है। चित्र के सामने स्त्री है, चित्र तो चित्र है। चित्र के सामने बच्चा है, चित्र तो चित्र है।
आईने का ऐसा नहीं है। उसके पास अपनी कोई ज़िद, अपना आग्रह नहीं होता। उसके सामने जो कुछ आता है, उसे साफ़-साफ़ दिखायी पड़ता है। हमारा मन दर्पण की तरह नहीं, चित्र की तरह हो गया है। चित्त चित्र बन गया है, उसमें छवियाँ बैठ गई हैं।
देखो, छवि का होना समस्या नहीं है, छवि का स्थायी हो जाना, बैठ जाना समस्या है। मन में बात बैठ गयी है और वो उतर ही नहीं रही, क्यों नहीं उतर रही? क्योंकि अहंकार ने उसको पकड़ लिया है, उसे अपनी पहचान बना ली। तुम्हें एक बात मिल गयी है न अब पकड़ने के लिए, खेलने के लिए, हँसने के लिए, रोने के लिए, संजोने के लिए; अब तुम उसे छोड़ कैसे दोगे? जैसे आईने ने काई पकड़ ली हो, जैसे आईने ने मैल पकड़ लिया हो और तादात्म्य कर लिया हो उससे — साझा।
हम खाली नहीं है, हम बहुत भर गये हैं, इस भरे होने की अवस्था को कहते हैं — रिलेशनशिप (सम्बन्ध) में होना। दर्पण जैसे होने को कहते हैं — रिलेट (सम्बन्धित) कर पाना।
रिलेट कर पाने में ताज़गी होती है, नूतनता होती है। रिलेट कर पाने के लिए बहुत स्वस्थ मन चाहिए। चोटिल मन के साथ नहीं काम चलेगा। अगर आप चोट लेकर घूम रहे हैं, डर लेकर घूम रहे हैं, संदेह लेकर घूम रहे हैं, तो आप रिलेट नहीं कर सकते। रिलेट करने के लिए तो बड़ा निर्भय मन चाहिए जो कहे कि जो कुछ भी सामने है उसको देख लेंगे, जैसे आईना देख लेता है।
हम यह कहाँ कह पाते हैं कि देखेंगे। तुम्हारे सामने ही ज़िन्दगी की कोई स्थिति आती है, तुम क्या बेबाकी से कह पाते हो, 'देखेंगे'? 'देखेंगे' कौन कह पाएगा? दर्पण। दर्पण ही है जो कहता है, देखेंगे। सामने शेर आएगा दर्पण क्या कहता है?
प्र: देखेंगे।
आचार्य: और सामने चूहा आया तो वो भी देखेंगे। दर्पण का क्या काम है? देखना। तुम थोड़े ही कह पाते हो, देखेंगे। तुम्हें बता दिया गया है, चूहा आएगा, तुम कहते हो, 'फिर ठीक है!' बता दिया, शेर आएगा तो तुरन्त भागते हो कि पहले से तैयारी हो।
दर्पण कभी पहले तैयारी करता है? दर्पण तो कहता है, 'जब होगा तब देखेंगे; हम देखेंगे।' जब होगा सामने तो देखेंगे और सामने नहीं है तो देखने से हमें कोई प्रयोजन नहीं है। शेर अभी ज़रा पाँच फीट दूर है, दर्पण देखने के लिए कोई उत्सुक नहीं हो रहा; 'जब सामने आएगा तो देख लेंगे, सामने आया नहीं तो हमें क्या करना है!'
दर्पण साहस से भरा हुआ है, दर्पण श्रद्धा से भरा हुआ है, दर्पण को कोई अस्तित्वगत शक या समस्या नहीं है। दर्पण याद करके नहीं बैठा है कि पिछली दफ़े शेर सामने आया था तो बड़ी गड़बड़ हुई थी, इस बार पहले से ही बन्दूक तैयार रखो।
हम चोटों का पुलिंदा हैं और चोट के अलावा कुछ नहीं हैं जो आपको तैयारी के लिए, योजनाबद्ध जीवन जीने के लिए विवश करते हैं। और चोट के साथ-साथ जानते हो क्या चलता है? मन का सुन्न हो जाना। उसको आलस कहते हैं, एक आन्तरिक सुन्नता।
देखा है, जिन जगहों पर चोट लगी होती है, उन जगहों पर कई बार कुछ भी अनुभूति होनी बन्द हो जाती है — दोनों अनुभव होते हैं — या तो बहुत ज़ोर की अनुभूति होगी, उसको क्या कहते हैं? दर्द। जहाँ अनुभूति होनी ही नहीं चाहिए, वहाँ अनुभूति हो रही है।
हाथ है, हाथों को हल्का और खाली होना चाहिए पर हाथ कुछ भारी-सा हो गया, अपना एहसास करा रहा है, इस अवस्था को क्या कहते हैं? दर्द। और दर्द का ही दूसरा रूप होता है, दर्द का ही विपरीत रूप होता है नंबनेस , सुन्नता, संवेदनहीनता। तो जब दर्द होगा तब भी आप तैयारी करके बैठोगे। और जब संवेदनहीनता हो जाएगी तो आप कहोगे, 'सामने कुछ भी होगा देखकर करना क्या है! पहले देखा था न, उसको पकड़कर के सोते रहो, कौन श्रम करे, कौन चैतन्य रहे, कि सामने चीज़ क्या है। पहले से तो पता है।'
चेतना भी एक श्रम माँगती है, अगर आप आलसी और तामसी हो गए हो। और अगर आप आलसी और तामसी हो गये हो तो ज़ाहिर सी बात है आप श्रम करना चाहोगे नहीं; ऐसी स्थिति में भी रिलेशनशिप हावी हो जाती है — कौन पता करे कि यथार्थ क्या है, दुनिया क्या है, लोग क्या हैं, घर क्या है, संसार क्या है, परिवार क्या है; मुझे पता तो है। और तुम्हें क्या पता है? तुम्हें अपना कुछ पता नहीं पर दावा यह है कि दुनिया का सब पता है।
रिलेट कर पाने के लिए दर्पण जैसा खालीपन और हल्कापन चाहिए। हल्कापन समझ रहे हो न? वो कुछ ढो नहीं रहा। खालीपन समझ रहे हो न? जब उसके सामने कुछ नहीं है तो वो भी कुछ नहीं है। जब दर्पण के सामने कुछ नहीं है तो दर्पण भी कुछ नहीं है। हमारा चित्त, हमने कहा दर्पण जैसा होता नहीं।
उदाहरण देख लीजिए — आपके घर में कोई नहीं है पर आप पाये जाते हैं दीवारों से बातें करते हुए, होता है कि नहीं? देखा होगा आपने लोगों को कि वो अपनेआप से ही बड़बड़ा रहे हैं; और दर्पण की क्या प्रकृति है? कि यदि उसके सामने कोई नहीं तो दर्पण में कोई नहीं।
लेकिन हमारे सामने कोई नहीं भी हो तो भी हमारे मन में बहुत कुछ चलता रहता है। हम खाली होने ही नहीं पाते, हमें हल्कापन उपलब्ध ही नहीं होता। जो सब अतीत में अनुभव हुआ वो हम ही में समा गया है, अब कोई सामने आये न आये फ़र्क नहीं पड़ता। हम अपने साथ लेकर के घूम रहे हैं सारा ज़माना।
अब सारा ज़माना आपके साथ ही है तो फिर संवाद चलता रहता है, लड़ाई झगड़ा चलता रहता है, प्यार मोहब्बत चलती रहती है और ये सब चल रहा है और किसके साथ चल रहा है? अपने ही मन में घूमती दुनिया के साथ चल रहा है।
जिस व्यक्ति का चित्त दर्पण जैसा होगा वो बिलकुल ख़ाली रहने से घबराएगा नहीं, वो ये नहीं कहेगा कि मुझे सदा कुछ पकड़े रहना है, सदा किसी चीज़ में व्यस्त रहना है।
जब तक बातचीत हो रही है, बातचीत हो रही है, जब बातचीत नहीं हो रही तो उसे मौन हो जाने से कोई परहेज़ नहीं। कोई दूसरा व्यक्ति सामने मौज़ूद है, भली बात है। दर्पण के सामने कोई दूसरा मौजूद है, दर्पण में उसकी छवि उभर आयी और जब दूसरा मौजूद नहीं है तब भी भली बात। हम खाली रह लेंगे, हमें अकेलेपन से डर नहीं लगता। न हमें अकेलेपन से डर है, न हमें किसी की संगत से डर है।
दर्पण दर्पण है तब भी जब उसके सामने तुम खड़े हो और तब भी जब उसके सामने तुम नहीं खड़े हो। ठीक इसी तरह से साफ़ चित्त का आदमी मौन है तब भी जब वो किसी से बात नहीं कर रहा और मौन है तब भी जब वो सघन संवाद में लिप्त नज़र आता है।
न उसे चुप होने से समस्या है, न उसे बहुत बोलने से समस्या है। न उसे अकेलेपन से समस्या है, न उसे भीड़ से समस्या है। भीड़ में भी वो अपनी आत्मिक स्थिति पर क़ायम है और एकांत में भी। मौन में भी वो आत्मस्थ है और संवाद में भी। यह आदमी अब जानता है कि रिश्ता कैसे बनाना है।
जब रिश्ता स्वस्थ हो तो उसको तुम नाम दे सकती हो रिलेटिंग का। जब रिश्ता अस्वस्थ हो तब तुम उसको नाम दे सकती हो एक जमी हुई रिलेशनशिप का; सीधे-सीधे उसे रिलेशनशिप भी कह सकते हो। रिश्ता स्वस्थ तभी होगा जब मन स्वस्थ है, मन स्वस्थ तभी होगा जब मन चोटों को पकड़े रहने का आग्रह छोड़ दे।
इस बात को भी समझ लेना — चोट खाना एक बात है और चोट को पकड़े रह जाना बिलकुल दूसरी बात है। चोट खायी, ये प्रारब्ध है; कोई नहीं जानता चोट कहाँ से लग जाएगी? शरीर पर चोट, मन पर चोट कहीं से भी लग सकती है। पर तुम चोटिल घायल रहे आये ये तुम्हारा चुनाव है और उसकी सज़ा मिलती है।
यूँ ही जो हो गया, तक़दीर से, किस्मत से वो कभी सज़ा नहीं होता; वो संयोग मात्र होता है। तुम कहोगे, संयोग से भी तो सज़ा मिल सकती है। नहीं, संयोग से सिर्फ़ घटना घट सकती है, सज़ा तो तुम्हारा चुनाव होती है।
कोई आकर के तुमको दस बातें बोल गया, ये बात संयोग हो सकती है। तुम बेगुनाह थे, किसी ने आकर के तुम पर तमाम लांछन लगा दिए, ये संयोग हो सकता है और किसी का इस पर कोई बस नहीं। हमें नहीं पता कब कहाँ क्या घट जाएगा लेकिन जो घटा तुम उसकी गाँठ ही बाँधकर बैठ गये, तुमने उसको गठरी की तरह संजो ही लिया, यह तुम्हारा चुनाव था।
चोट को पकड़ लेना, अपना नाम ही घायल रख देना — ये चुनाव है तुम्हारा। और ज़माने में बहुत घूम रहे हैं, जिन्होंने चेहरे पर चोट पोत रखी है, जिन्होंने अपने बाज़ुओ पर खुदवा लिया है, 'मैं घायल हूँ।' यही उनकी पहचान है, यही उनका ईंधन है और इसी पहचान को लेकर वो ज़माने भर से दुश्मनी निकालते फिरते हैं क्योंकि अगर यह पहचान नहीं पकड़ी आपने तो किसी से भी दुश्मनी कर पाना बड़ा मुश्किल होगा। आप कैसे समझाओगे अपनेआप को कि आप किसी को क्यों दुश्मन मानते हो?
आप किसी का बुरा करने निकलते हो, अहित करने निकलते हो, कुछ तर्क अपनेआप को भी तो देते होगे न? नहीं तो अपनी ही नज़रों में गिर जाओगे। किसी को पत्थर मारने, गोली मारने निकले हो, कुछ तो अपनेआप को बोलोगे? नहीं तो अपनी नज़रों में गिर जाओगे कि व्यर्थ ही किसी को पत्थर मार रहे हो, अनैतिक हो जाओगे अपनी ही दृष्टि में, बुरा लगेगा। तो आदमी अपनेआप को क्या कहकर समझाता है? मैं किसी को पत्थर मारने क्यूँ निकला हूँ?
प्र: हिसाब बराबर कर रहा हूँ।
आचार्य: हिसाब बराबर कर रहा हूँ, भाई। 'याद है न मुझे पाँच सौ साल पहले पत्थर मारा था तूने, मुझे अतीत में पत्थर मारा था, आज मैं तुझे पत्थर मारूँगा' — इसको कहते हैं चोट को संजो लेना, इसको कहते हैं यह चुनाव करना कि मैं तो घायल रहा आऊँगा।
मैं बिलकुल इनकार नहीं कर रहा कि चोटें लगती हैं; इसमें कोई शक नहीं। आदमी पैदा हुए हो, शरीर पर भी घाव लग सकता है और मन पर भी घाव लग सकता है, पर ये तो बताओ कि उस घाव की मियाद कितनी होगी? तुम कितने दिनों तक अपनेआप को घायल ठहराते रहोगे?
और मुझे तो एक बात का और भी अन्देशा है, कोई भी घाव जो तुम्हें संयोगवश लगा हो, वो अपनी उम्र पूरी करके सूख जाता है। तुम्हारे घाव अगर सालों-साल चलते हैं, दशकों-दशक चलते हैं तो भाई, ऐसा तो नहीं कि तुम अपने घावों को अपने ही नाखूनों से उकेरते रहते हो, नोचते रहते हो? क्योंकि घायल रहे आने में अब पहचान बन गई है, अब सुख बन गया है किसी के साथ।
जब आनन्द मिला हो तो — ध्यान से सुनना — स्मृति नहीं बनती क्योंकि आनन्द हल्कापन है, एक अर्थों में आनन्द है चित्त की शून्य हो जाने की दशा, स्मृति नहीं बनेगी। स्मृति बनती ही है या तो सुख की या दुख की, चोट की, घाव की। सुख को भी एक प्रकार का घाव ही मानो क्योंकि वो चित्त से चिपकता है, क्योंकि वो याद रह जाता है, क्योंकि वो भी मन में घूमता है, बोझ बनता है।
जिसके साथ तुमने दुख का या सुख का रिश्ता बना लिया उसके साथ तुम्हारा रिश्ता झूठा हो गया। जिसके साथ तुम्हारा रिश्ता मुक्ति का, बोध का, निर्भरता का, हल्केपन का है सिर्फ़ उसके साथ तुम यूँ मिलोगे ज्यों हवा का झोंका छू गया, तुम्हें बस कुछ अच्छा-सा लग गया। न उसको पकड़ने की ज़रूरत है, न उसका नाम पूछने की, न उसको याद करने की। जिसने सुख दिया अगली बार उससे मिलोगे पाओगे कि उसको बंधक बना लेना चाहते हो क्योंकि जिस चीज़ से सुख मिलता हो, उसे कौन छोड़ना चाहता है। जिससे सुख मिला हो अगली बार मिलो और वो तुम्हें सुख न दे तो उसे दुश्मन मान लोगे, कहोगे — ये दुख दे रहा है मुझे।
वो दुख नहीं दे रहा, वो बस तुम्हें वो अनुभव दोबारा नहीं दे रहा, जो उसने पहली बार दिया था और इतना भर करने से वो बेचारा अब तुम्हारा दुश्मन हो गया। और जिससे दुःख मिला हो उससे तो अगली बार मिलोगे तो ज़ाहिर ही है कि बन्दूक होगी जेब में कि तू आ सामने आज चलती है गोली। रिश्ता यदि स्वस्थ रखना हो तो मन ऐसा रखो जो चोटों में रस न लेता हो।
जिसको चोट लगी हो, उसकी दो गतियाँ होती हैं — पहला, वो उसकी तरफ़ भागता है जो मरहम लगाये, इसको कहते हैं सुख; और उससे दुश्मनी बनाता है जिसने चोट दी थी, ये है दुःख।
मन ऐसा रखो जो चोट पकड़ने का क़ायल न हो। देखो, समझो। शरीर पर तो सम्भव है कि कोई बहुत गहरी चोट लग जाए जो सालों ले ठीक होने में। शरीर पर तो यह भी सम्भव है कि कोई ऐसी चोट लग जाए जो ठीक ही नहीं हो सकती है। हाथ कट गया तुम्हारा, अंग भंग हो गया, अब ये कभी ठीक नहीं होने वाला है पर शरीर में और मन में अंतर है। मन पर कभी ऐसी कोई चोट लग नहीं सकती जो अक्षम्य हो।
अगर मन पर तुमने ऐसी कोई चोट पकड़ रखी है तो ये तुम्हारी चाल है तुम्हारे ख़िलाफ़। तुम ये तो कह सकते हो कि शरीर में चोट लगी थी, वो आज तक ठीक नहीं हुई, ये हो सकता है। हालाँकि शरीर की भी अपनी प्रक्रियाएँ होती हैं, चोट यदि बहुत ही घातक न हो तो एक अवधि के बाद शरीर की चोट भी ठीक हो जाती है।
पर माना कि शरीर की कोई चोटें ठीक नहीं हो सकती, मन की ऐसी कोई चोट होती ही नहीं है जो लाइलाज़ हो। मन पर कभी कोई असाध्य घाव लगा ही नहीं। जो कुछ भी तुम ज़हर, कचरा, बोझ ज़ेहन पर उठाये घूम रहे हो, उसका ज़िम्मेदार अपनेआप को मानना। उस कचरे के साथ रहते-रहते तुमने उससे रस लेना सीख लिया। देखते नहीं हो, रसों में निंदा रस कितनी उच्च कोटि का होता है — निंदा रस, आलोचना रस।
शिकायत का मज़ा देखा है कभी, दस लोग बात कर रहे हों और डूबे हुये हों, तुम्हें क्या लगता है वो श्री हरी की चर्चा कर रहे हैं? दस जने बात कर रहे हों और लगे कि बिलकुल ध्यान में गहरे डूबे हैं, समाधि लग गयी है दसों की, तो निन्यानवे प्रतिशत सम्भावना क्या है? चल रही है किसी की आलोचना, निंदा। इसी से तुम्हें ज़ाहिर हो जाएगा कि हम क्यों स्वस्थ रिश्ते बनाने में अब असमर्थ हैं। चित्त ने शिकायत में रस लेना शुरू कर दिया है।
इसीलिए फिर संतो, फ़कीरों ने बहुत बार ज़ोर दे-देकर समझाया कि भाई, निंदा से बचो। इसलिए नहीं कि दूसरे-दूसरे की बुराई करना बुरी बात है, इसलिए कि अगर तुमने बुराई करने में रस लेना शुरू कर दिया तो तुमने बुराई से रिश्ता ही बना लिया और मन में जिस किसी से भी तुमने रिश्ता बना लिया, वो बोझ ही रख लिया तुमने।
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