स्वामी विवेकानन्द के नाम का ऐसा इस्तेमाल?

Acharya Prashant

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स्वामी विवेकानन्द के नाम का ऐसा इस्तेमाल?
स्वामी विवेकानन्द के जीवन का केन्द्र था —धर्म। जब तुम्हें धर्म से कोई मतलब नहीं, तो तुम उनके पास गये किस लिये हो?तुम उनके जीवन में ताका-झाँकी करने सिर्फ़ इसलिए गये हो कि कुछ ऐसा मिल जाये जिसका तुम दुरुपयोग कर सको, है न? वो तो लगातार ऊपर से नीचे तक भगवा ही धारण करे रहते थे, तुम्हें इस बात से मतलब है? नहीं। भगवा भी तुम्हारे लिए पिछड़ेपन का प्रतीक है, गुरु के सामने सर झुकाना भी तुम्हारे लिए पिछड़ेपन का प्रतीक है। तो तुम स्वामी विवेकानन्द का नाम भी क्यों ले रहे हो? यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी! मैंने एक समाचार पत्र में लेख पढ़ा था, जिसका शीर्षक था — ‘द अनएक्सप्लोर्ड साइड ऑफ़ स्वामी विवेकानन्द इज़ लव फॉर फ़ूड।’ (स्वामी विवेकानन्द का अनछुआ पक्ष भोजन के प्रति प्रेम) तो इस लेख में स्वामी जी को एक खाने के शौकीन व्यक्ति के रूप में दिखाया गया था।

इसी लेख के उपखंड में यह भी लिखा हुआ था कि स्वामी विवेकानन्द शाकाहारी नहीं थे और यह उनके प्रगतिशील दृष्टिकोण को दर्शाता है। तो आचार्य जी इस लेख में लिखी गयी बातों के पीछे क्या मानसिकता हो सकती है?

आचार्य प्रशांत: जो बहुत ही पिछड़ी हुई सोच का होगा आज के समय में सिर्फ़ वही माँस खा सकता है, समझ रहे हो? आज जैसे तुम ये कहते हो न कि जो बहुत पिछड़ी हुई सोच के होते हैं वो लोग रेसिज़्म (नस्लभेद) में यकीन रखते हैं, कहते हो कि नहीं?

इसी तरह कहते हो कि नहीं कि आज जो बहुत पिछड़ी हुई सोच के होते हैं, वही लोग कास्टिस्ट (जातिवादी) होते हैं, जातिवादी होते हैं, कहते हो न ऐसे? या जो आज बहुत कहते हो, बहुत जो बहुत पिछड़ी हुई सोच के लोग हैं वही औरतों को हीन समझते हैं, इस तरह से कहते हो कि नहीं?

और ये बात अब हम सब मानते हैं कि हाँ भई, अगर कोई ऐसे सोचे तो वो पिछड़ा हुआ आदमी है। कोई अगर रंगभेद करे, नस्लभेद करे, जाति भेद करे तो वो पिछड़ा हुआ आदमी है। हकीकत ये है कि आज सबसे पिछड़ा हुआ आदमी वो है जो माँस खाने को प्रोग्रेसिव (प्रगतिशील) बात समझे।

माँस खाने से ज़्यादा बड़ा पिछड़ापन आज कोई दूसरा हो नहीं सकता, आज जो आदमी माँस खा रहा है वो दिखा रहा है कि उसका दिमाग कितना जाहिल है, कितना पुराना है जानकारी से कितना रिक्त है और आज के यथार्थ से कितनी दूर है, इसी को तो पिछड़ापन कहते हैं न।

तुम न जाने किस दुनिया में जी रहे हो कि तुम्हें आज का यथार्थ कुछ पता ही नहीं है और तुर्रा ये, अहंकार ये कि तुम लिख रहे हो कि स्वामी विवेकानन्द माँस खाते थे और इससे पता चलता है कि वो प्रगतिशील थे। तुमने स्वामी विवेकानन्द का नाम भी क्यों लिया मैं तो ये जानना चाहता हूँ, तुम्हें उनसे मतलब क्या है? तुम्हें उनसे बस इतना ही मतलब है कि किसी तरीके से कोई मिल जाए उनके जीवन का पक्ष जिसका गंदा इस्तेमाल करके तुम अपने नापाक इरादों को आगे बढ़ा सको। तुम्हें उनके राजयोग से मतलब है विवेकानन्द के? तुम्हें उनके कर्म योग से मतलब है? तुम्हें उनकी गुरु भक्ति से मतलब है?

जैसी गुरु के प्रति श्रद्धा उनमें थी, उस चीज़ को तो तुम आज पिछड़ेपन का ही द्योतक मानते हो कि नहीं? बोलो! वो तो लगातार ऊपर से नीचे तक भगवा ही धारण करे रहते थे, तुम्हें इस बात से मतलब है? नहीं। भगवा भी तुम्हारे लिए पिछड़ेपन का प्रतीक है, गुरु के सामने सर झुकाना भी तुम्हारे लिए पिछड़ेपन का प्रतीक है। आस्तिकता भी तुम्हारे लिए पिछड़ेपन की बात है, धर्म की बात करना तो तुम्हारे लिए महा पिछड़ेपन की बात है तो तुम स्वामी विवेकानन्द का नाम भी क्यों ले रहे हो? उनके जीवन का केन्द्र तो ये सब था न।

स्वामी विवेकानन्द के जीवन का केन्द्र था —धर्म। जब तुम्हें धर्म से कोई मतलब नहीं, तो तुम उनके पास गये किस लिये हो?तुम उनके जीवन में ताका-झाँकी करने सिर्फ़ इसलिए गये हो कि कुछ ऐसा मिल जाये जिसका तुम दुरुपयोग कर सको, है न? अगर तुम समझते स्वामी विवेकानन्द को, तो तुम उनको फूडी की तरह चित्रित करते? तुम ये दुस्साहस करते? एक ऊँचे आदमी की ऊँची ज़िन्दगी में तुम्हें कुल ये एक चीज़ मिली थी लेख लिखने के लिए?

लेकिन नहीं ठीक वैसे, जैसे स्वामी विवेकानन्द के गुरु रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे न कि घटिया आदमी कितनी भी ऊँची बात करे उस ऊँची बात का लक्ष्य घटिया ही होता है। तो होगा कोई ऊँचा समाचार पत्र और ऊँचे समाचार पत्र में होंगे कोई ऊँचे लेखक या स्तम्भकार, लेकिन वो जो पूरा उन्होंने लेख लिखा है, उसका पूरा उद्देश्य तो घटिया ही है।

रामकृष्ण कहते थे कि चील कितनी भी ऊँची उड़ ले उसकी नज़र हमेशा नीचे मरे हुए चूहे पर ही रहती है। अब कहने को चील है, चील! एकदम राजसी चील और इतनी ऊँची उड़ान उड़ रही है लेकिन उसका उद्देश्य क्या है? एक सड़ा हुआ मरा हुआ चूहा नीचे कहीं दिख जाए। बल्कि वो इतनी ऊँची उड़ान उड़ी इसीलिए रही है कि जितना ऊँचा उड़ूँगी उतने ज़्यादा बड़े क्षेत्र में देख पाऊँगी कि चूहा कहाँ मरा पड़ा है?

तो उसी तरीके से ये सब समाचार पत्र और उनके लेखक वगैरह होते हैं कि इनको हमेशा किसी मरे हुए चूहे की तलाश रहती है। वो मरा हुआ चूहा मिल गया तो बढ़िया बात, नहीं मिला तो ये उसको आविष्कृत करते हैं। जब नहीं मिलता तो ये उसका ईजाद करते हैं, जैसे यहाँ पर कर रहे हैं, कि बता रहे हैं कि स्वामी विवेकानन्द माँस खाते थे; इससे पता चलता है कि वो कितने प्रगतिशील और आधुनिक विचारों के थे, वाह!

और मैं अभी इस मुद्दे पर देखो आना भी नहीं चाहता हूँ कि फिर स्वामी जी माँस खाते क्यों थे? इसलिए क्योंकि इंसान थे, सत्य और ब्रह्म जो कि पूर्ण और परफेक्ट होते हैं, न पैदा होते हैं, न मरते हैं। समझ में आ गयी बात? इंसान पैदा होता है, इंसान मरता है और जो पैदा हुआ है वो पूर्ण नहीं है, वो परफेक्ट नहीं है, तभी वो इंसान है, तभी वो पैदा हुआ है।

तो तुमसे किसने कह दिया कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में तुम परफेक्शन (पूर्णता) ढूँढ़ने लग जाओ? तुमसे किसने कह दिया कि तुम्हें उसकी अगर कोई खोट मिल जाये तो तुम नारा लगाने लग जाओ कि अरे देखो इसमें तो खोट है, खोट होनी नहीं चाहिए? खोट बिलकुल होनी चाहिए, बल्कि महानता इस बात में है कि इंसान पैदा हुए, तमाम तरह की प्राकृतिक वृत्तियाँ और विकार साथ लेकर पैदा हुए लेकिन उसके बाद भी सच के प्रति जितनी निष्ठा रख सकते थे, रखी। धर्म को जितना आगे बढ़ा सकते थे बढ़ाया, इसमें महानता है विवेकानन्द की।

लेकिन नहीं, खोट ढूँढ़ने वाले सिर्फ़ खोट ही ढूँढ़ेंगे। इनको तो बड़े-से-बड़े मन्दिर में भी ले जाया जाए न तो इनकी नज़र ऐसी ही रहेगी कि उधर देखो फ़लाने कोने में धूल का एक कण पड़ा हुआ है।

और फिर बड़े खुश होंगे कि देखो हमने इतने साफ़ और इतने पवित्र मन्दिर में भी देखो धूल का एक कण खोज लिया। बहुत खुशी मनाएँगे कि देखो ये तो गंदी जगह है तो फिर अब हम भी गंदे हैं, मन्दिर भी गंदा है बात बराबर हो गयी, हा हा हा! हमें अब मन्दिर जाने की कोई ज़रूरत नहीं। हा, हा, हा! ये इनका कुल मिलाकर तर्क रहता है और अगर गंदगी न मिले तो गंदा कर दो।

प्रश्नकर्ता: परमजीत सिंह आनंद हैं कह रहे हैं कि ज़माना बदल गया है, धर्म में तो सब नई बातें की जाती हैं न; आप ख़ुद कहते हैं कि पुराने से और परंपरा से चिपकने की कोई विशेष ज़रूरत नहीं है लेकिन फिर भी आप भी पुरानी ही बातों की नक़ल करते रहते हैं, जैसे कि मीट मत खाओ?

आचार्य जी! मेरा नाम परमजीत आनंद है। मेरा प्रश्न ये है कि एक ओर आप खुद परम्पराओं और पुरानी बातों से चिपकने को मना करते हैं तो फिर आप माँस मत खाओ जैसी पुरानी बातों की नकल क्यों करते हैं?

आचार्य प्रशांत: परमजीत सिंह आनंद, होश में आओ, मीट न खाना कोई पुरानी बात नहीं है। वो आज की, इस पल की आपकी सबसे महत्वपूर्ण और पहली ज़िम्मेदारी है। ये कोई पोंगा-पन्थी और पारम्परिक बात नहीं है कि अरे जो पुराने लोग होते थे न दकियानूसी, अन्धविश्वासी, वो कहते थे मीट मत खाओ, मीट मत खाओ। और जो प्रोग्रेसिव और फॉरवर्ड लुकिंग (आगे की ओर देखने वाले) और आधुनिक लोग होते हैं, वो कहते हैं, ‘मटन चबाओ, मटन चबाओ।’

ये तुमने क्या दिमागी फ़ितूर पाल रखा है? ये क्या मानसिक कहानी है, मेंटल-मॉडल है? कि पुराने लोग कैसे होते हैं? जो बोलते हैं, ‘नहीं-नहीं बेटा मीट-मच्छी मत खाओ।’ और जो नये लोग होते हैं, प्रोग्रेसिव, यंग , डायनेमिक (गतिशील), लिबरल , (उदार) वो क्या बोलते हैं? बकरा चबाओ, बकरा चबाओ।

नाम तो है परमजीत सिंह आनंद और बातें ऐसी कर रहे हो, जिससे दुनिया में जो बचा-खुचा आनंद है वो भी नष्ट हो जाये। मैं चाहता हूँ आप मुझसे बातचीत करें, पर बातचीत करने से पहले से पहले थोड़ा सा शोध-कार्य थोड़ा सा गृहकार्य कर लिया करें, अंग्रेज़ी में रिसर्च और होमवर्क। उसके बाद आकर के कुछ भी बोला करें।

फिर कह रहा हूँ, मॉडर्न होने का, आधुनिक होने का इस वक्त ये है कि आप हर तरह के माँस और अंडे आदि से परहेज़ करें और ये भी समझें कि माँस और अंडे आदि का उत्पादन और भोग चलता ही रहेगा, जब तक दूध और दुग्ध पदार्थों का उपयोग चल रहा है। तो इस नाते अगर आपको पशुओं को बचाना है बल्कि पूरी मानवता को बचाना है तो आपको माँस और अंडे वगैरह के साथ-साथ जानवरों से आने वाले दूध से भी परहेज़ करना पड़ेगा। जो आधुनिक होगा आज, जो वास्तव में प्रगतिशील होगा, प्रोग्रेसिव होगा — वो ये बात बोलेगा। क्योंकि आधुनिक होने का मतलब है — आज के समय का होना।

आज के समय का होने का क्या मतलब है? कि तुम आज के समय के यथार्थ और चुनौतियों को समझते हो। तो आज का यथार्थ समझो; अभी इतनी लम्बी तुम्हें राम कहानी सुनाई, बी रियली मॉडर्न ( वास्तव में आधुनिक बनो ) और ये माँस वगैरह ये सब छोड़ो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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