स्वधर्म-परधर्म क्या? पाप का उद्गम क्या? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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स्वधर्म-परधर्म क्या? पाप का उद्गम क्या? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

आचार्य प्रशांत: अभी हम पहुँचे हैं पैंतीसवें श्लोक तक, और जो आख़िरी बात अर्जुन से कह रहे हैं कृष्ण, वो है – स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः। तुम्हारा धर्म है आत्मा की ओर जाना, किसी भी और रास्ते पर अगर चलोगे तो वो परधर्म है। जानो कि अपना क्या है, पराया क्या है। सबकुछ पराया है आत्मा के अतिरिक्त। पराए की राह पर चलोगे तो भयावह जीवन मिलेगा – परधर्मो भयावह:। और अपनी राह पर चलोगे तो मर भी गए तो बढ़िया है – स्वधर्मे निधनं श्रेयः।

इस बात का अर्जुन पर कुछ असर पड़ता दिख रहा है। निष्काम कर्मयोग को ही अर्जुन को कई-कई तरीके से कृष्ण समझा रहे हैं – कभी सांख्य योग के माध्यम से, कभी आत्मा और अहंकार में भेद बताकर के, कभी यज्ञ के प्रतीक के माध्यम से। लेकिन यहाँ जो बात कही, वो लगता है अर्जुन के क्षत्रिय संस्कारों को जँच गई है।

‘अपनी राह पर मृत्यु भी बेहतर है अपनी राह से विमुख होकर के कोई और जीवन जीने में...‘ जो सही है तुम्हारे लिए वो करो, निष्काम होकर करो, मृत्यु भी आए तो सोचो ही मत कि क्या आया, क्या नहीं, क्या मिला, क्या खोया। जो सही है वो किया न? सही जीवन जीवन जिया न? उसमें मृत्यु भी आ गई तो क्या हुआ! हमने नहीं सोचा, सोचा ही नहीं!

तो अर्जुन पर लगता है कुछ प्रभाव पड़ा, अर्जुन कुछ खुलते हैं, छत्तीसवें श्लोक में जिज्ञासा करते हैं।

अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:।।३.३६।।

हे कृष्ण! बात तो सब ठीक है आपकी, और मुझे समझ में भी आने लग गयी। लेकिन फिर ये बताइए कि किसके विवश होकर, किसके द्वारा परिचालित होकर, किसके द्वारा नियंत्रित होकर, किसके चलाए चलकर फिर मनुष्य इच्छा न रहते हुए भी बलपूर्वक नियुक्त होकर पाप-कर्म करता है।

~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३६)

'आपने जो बातें बोलीं, मुझे समझ में आ रहीं हैं, ठीक लग रहीं हैं। लेकिन फिर ये बताइए कि आदमी आत्मा को भूलकर, विवश होकर के पाप में क्यों धँसता है? जब हमारे लिए अच्छा यही है कि हम स्वधर्म का पालन करें, निरंतर आत्मा की ओर बढ़ते रहें, निष्काम कर्म में जीवन बिताएँ – जब हमारे लिए यही सही है, तो फिर वो कौनसी बला है जो हम पर छा जाती है और पाप करवाती है? वो क्या है?’

तो कृष्ण मुस्कुराए होंगे, बोले होंगे, ‘चलो तुमने पूछा तो सही!’

वेदान्त में जिज्ञासा पर बहुत ज़ोर है। श्रीकृष्ण की यहाँ बड़ी-से-बड़ी कोशिश ही यही है कि अर्जुन खुलें। प्रवचन का काम नहीं है ये, उपदेश देने का खेल नहीं है। तुम खुलोगे तभी तो हम तुममें प्रवेश कर पाएँगे, तुम खुलोगे तभी तो तुम्हारे विकार बाहर आ पाएँगे। खुले बिना तो कुछ भी नहीं होगा, द्वार अगर बंद रहा तो भीतर वाला भीतर और बाहर वाला बाहर। तुम खुलो; और खुलना नहीं संभव है संवाद, प्रश्न-प्रतिप्रश्न के बिना। तर्क आएगा, तर्कों में कुछ वितर्क भी होंगे, कुछ कुतर्क भी होंगे; कोई बात नहीं, तर्क करो! तुम कोई पूर्ण तो हो नहीं, निर्विकार, परफ़ेक्ट तो हो नहीं, कि तुम जो तर्क दोगे वो सब सुगढ़ ही होंगे; तुम्हारे बहुत सारे तर्क बिलकुल व्यर्थ होंगे, लेकिन फिर भी तुम तर्क करो।

कहीं डाँटते देखा है अर्जुन को, कि ‘अर्जुन चुप! जो बोल रहा हूँ बस सुन, मैं कृष्ण हूँ’? एक भी बार अर्जुन से ये कहा क्या, 'अर्जुन, तू किसके सामने ज़बान चला रहा है? मैं कोन हूँ? मैं कृष्ण हूँ। हम बातचीत नहीं करते, हम सिर्फ़ प्रवचन करते हैं।‘ ऐसा कहीं कह रहे हैं क्या कृष्ण?

समझ में आ रही है बात?

तो कृष्ण के लिए ये बड़े आनंद का क्षण है – अर्जुन खुले हैं, अर्जुन ने कुछ पूछा है।

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