उपरमः कः? स्वधर्मानुष्ठानमेव।
उपरम क्या है? स्वधर्म का अनुष्ठान ही उपरम है।
—तत्वबोध, श्लोक ५.५
आचार्य प्रशांत: स्वधर्म क्या है और स्वधर्म का जीव के पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों से क्या लेना-देना है — इसको बहुत ध्यान से समझेंगे सभी, क्योंकि इस विषय पर भ्रम बहुत हैं और यहीं पर आकर बहुतों की साधना की गाड़ी रुक जाती है।
जब स्वधर्म की बात हो रही है तो बात हो रही है आपके धर्म की। आप हैं अहम्-वृत्ति। आपका धर्म है शांति की ओर बढ़ना। साफ़ समझ लीजिए। आत्मा का कोई धर्म नहीं होता। सत्य का कोई धर्म नहीं होता।
धर्म का अर्थ है वह जिसको आप अपने ऊपर धारण करो, जिसको आप अपने ऊपर मान्यता दो। वह जो आपके लिए करणीय हो, वह जिसको आप अपना जीवन बना लो, वह पग-पग पर, पल-पल पर आपको मार्गदर्शन दे, उसका नाम है धर्म।
सत्य को धर्म नहीं चाहिए। आत्मा के लिए कोई धर्म होता नहीं। तो धर्म किसके लिए है? मन के लिए। मन भी ज़रा धुँधली बात हो गई। साफ़-साफ़ कहा जाए तो धर्म है अहम् के लिए। धर्म की उपादेयता मात्र अहम् के लिए है और किसी के लिए नहीं।
तो स्वधर्म क्या है?
वह जो आपको शांति तक ले जाए। वह जो आपको वहाँ तक ले जाए जिसके लिए आप बहुत परेशान हैं। वह जो आपकी मंज़िल ही है, जिसके लिए आपकी सारी प्यास है। वह जो आपका होना ही मिटा दे, वह जो इस आंतरिक चीख-पुकार, कलह-क्लेश का पूर्ण निवारण कर दे। उस बिन्दु तक जाना ही धर्म है। तो यह हुआ स्वधर्म।
अब स्वधर्म का क्या ताल्लुक़ है नियोजित, आयोजित धर्म से, संस्थागत धर्म से?
संस्थागत धर्म सबको एक राह बता देता है, कि तुम सब हिन्दू हो, तुम सब मुसलमान हो तो तुम्हारे सबके लिए एक राह है। और स्वधर्म क्या है? स्वधर्म कहता है — तुम देखो तुम्हारे लिए क्या राह है, क्योंकि तुम्हारी जो स्थिति है, वह तुम्हारे पड़ोसी की स्थिति से भिन्न है। तुम्हारे पड़ोसी के लिए जो राह अनुकूल है, वह तुम्हारे लिए नहीं होगी, हालाँकि मंज़िल तुम्हारी और तुम्हारे पड़ोसी की एक ही है, लेकिन राह दोनों को थोड़ी-थोड़ी अलग चुननी पड़ेगी।
जो तुम्हारी राह है, वह तुम्हारे पिता की राह नहीं हो सकती, क्योंकि तुम तुम्हारे पिता नहीं हो, स्थितियाँ अलग हैं। जो तुम्हारी राह है, वह आज से दो सौ वर्ष पहले के आदमी की नहीं हो सकती और जो राह तुम चुन रहे हो, वह तुम अपने बच्चे पर मत थोप देना, उसकी राह दूसरी होगी, हालाँकि मंज़िल एक ही है।
तो स्वधर्म कहता है कि ईमानदारी से देखो कि कहाँ खड़े हो और फिर कौन-सा रास्ता है जो तुम्हें यहाँ से मंज़िल की ओर ले जाता है। मंज़िल तक तो वह पहुँचेगा न जिसे पहले पता हो कि वह कहाँ खड़ा है? तो स्वधर्म के अनुष्ठान में, स्वधर्म के पालन में ये दो चीज़ें आती हैं − बड़ी सत्यता से स्वीकार करना कि तुम्हारी वर्तमान स्थिति क्या है और फिर बड़ी लगन से, बड़े प्रेम से सत्य की ओर बढ़ चलना − यह स्वधर्म है। वह लगन तभी उठेगी जब तुम्हें शांति से कुछ लेना-देना हो। जब तुम जानो कि तुम्हारे लिए, जीव के लिए शांति कितनी केंद्रीय, कितनी प्राथमिक चीज़ है, तभी स्वधर्म का अनुष्ठान होगा।
अब आते हैं कि स्वधर्म का बाकी रिश्ते-नातों से क्या लेना-देना है — आदमी स्वधर्म निभाए या सामाजिक कर्तव्य निभाए, रिश्ते-नाते निभाए?
जब तुम यह जान जाते हो कि तुम्हारे लिए, जीव के लिए कितनी आवश्यक है शांति, कितनी प्राथमिक है मुक्ति, तो तुम यह भी जान जाते हो कि दूसरों के प्रति तुम्हारा कर्तव्य क्या है। ग़ौर से समझो − आमतौर पर हमें कैसे पता है कि हमारा किसी के प्रति क्या कर्तव्य है? तुम्हें कैसे पता कि तुम्हारे भाई के प्रति तुम्हारा क्या कर्तव्य है? कैसे पता, बताओ।
दुनिया ने बता दिया कि अगर भाई है तुम्हारा, तो भाई के साथ इस प्रकार का व्यवहार रखना, यही कर्तव्य है। समाज ने व्यवहार ही नहीं बता दिया, भावनाएँ भी बता दीं, कि भाई है तो भाई के साथ ऐसी भावनाएँ रखो, यही कर्तव्य है। पत्नी है तो पत्नी के साथ ऐसा रखो, पड़ोसी के साथ ऐसा रखो, पिता के साथ ऐसा रखो, देश के साथ ऐसा रखो, अपने नियोक्ता के साथ ऐसा रखो, अपने समाज के साथ ऐसा रखो।
कैसे रिश्ते रखने हैं, कैसा व्यवहार रखना है, कैसी बोलचाल रखनी है, इन्हीं सब बातों को कर्तव्य बता दिया गया है न? और कर्तव्य भी सबके प्रति अलग-अलग बाँध दिए गए हैं। तुम्हारा भाई तुमसे पैसे माँगे तो ठीक है, उसको दस लाख दे सकते हो, पड़ोसी माँगे तो भी देना है, पर एक लाख, और कोई अपरिचित माँग रहा है तो सौ रुपया। तो कर्तव्य की भी सीमाएँ इत्यादि तय कर दी गई हैं। उनसे कम करोगे तो भी लानत है, उनसे आगे जाओगे तो बेवक़ूफ़ कहलाओगे। कोई अपरिचित आ करके पैसे माँगे, तुम उसे लाखों थमा दो, तो यह नहीं माना जाएगा कि तुम बड़े कर्तव्यशील हो, कहा जाएगा बड़े भोंदू हो।
ऐसे हमारे कर्तव्य निर्धारित होते हैं। ऐसे हमारे कर्तव्य निर्धारित होते हैं, क्योंकि हम अंधे हैं, क्योंकि हम ख़ुद को जानते ही नहीं। दूसरे आ करके हमें बता जाते हैं कि पत्नी से रिश्ता कैसा रखो, बच्चे से रिश्ता कैसा रखो, और इसीलिए हमारे रिश्तों में कोई जान भी नहीं होती। बहुत सारे काम हैं जो हम कर रहे हैं क्योंकि हमें बताया गया है कि ऐसा करना चाहिए।
लेकिन जिसे स्वधर्म पता है, जो जानता है कि आदमी के लिए अच्छी-से-अच्छी, ऊँची-से-ऊँची चीज़ क्या है, वह फिर यह भी जानता है कि उसके भाई के लिए, बहन के लिए, माँ के लिए, बाप के लिए, बीवी के लिए, बच्चे के लिए भी ऊँची-से-ऊँची चीज़ क्या है। वह जानता है कि जो उसको चाहिए, वही उसके पिता को चाहिए, वही उसके पड़ोसी को चाहिए।
समझना, जिसको स्वधर्म पता है, उसको यह भी पता है कि जो उसको चाहिए वही तो दुनिया में सबको चाहिए न। तो अब इस बात से उसके कर्तव्यों का निर्धारण हो जाता है। उसके कर्तव्य ऐसे नहीं आते कि कोई आ करके उसको पढ़ा गया कि भाई का भाई के प्रति फर्ज़ क्या होता है। ना! ऐसे नहीं आते उसके कर्तव्य। उसके कर्तव्य ऐसे आते हैं कि तुम कहते हो, “जो मुझे चाहिए, वही तो मेरे भाई को चाहिए। तो फिर मेरा भाई के प्रति कर्तव्य क्या है? कि जो मुझे मिल रहा है, वह मैं अपने भाई को भी बाँटूँ और किसी भी तरीक़े से भाई को भी उसी मंज़िल तक पहुँचाऊँ जहाँ पहुँचने के लिए मैं आतुर हूँ।" यह कर्तव्य हुआ।
स्वधर्म है शांति और मुक्ति की तरफ़ बढ़ते रहना, और दूसरों की तरफ़ तुम्हारा एक ही कर्तव्य है − उनको शांति और मुक्ति की दिशा में बढ़ाते रहना।
अब बताओ कि स्वधर्म में और कर्तव्य में कोई विरोध, कोई लड़ाई है क्या? पर लोग तो वैसा ही सवाल पूछते हैं जैसा कि तुमने पूछा। लोग कहते हैं कि, "अगर हम स्वधर्म का पालन करते हैं, तो फिर परिवार के प्रति कर्तव्य कैसे निभाएँ?" लोग कहते हैं कि, "अगर हम स्वधर्म का पालन करें, तो फिर अपनी नौकरी कैसे करें?"
जो लोग यह सवाल कर रहे हैं, जो लोग यह कह रहे हैं कि स्वधर्म और कर्तव्य के बीच में उनको विरोध और संघर्ष दिखाई पड़ रहा है, वे कर्तव्य तो जानते ही नहीं हैं, स्वधर्म भी नहीं जानते, क्योंकि जो स्वधर्म को जान जाएगा, वह अपने सारे कर्तव्यों को स्वधर्म की दिशा में ही मोड़ देगा, पर ऐसा होता दिखता नहीं।
लोग कहते हैं कि, "हम तो मुक्ति की तरफ़ बढ़ रहे हैं, पर हम मुक्ति की तरफ़ बढ़ रहे हैं तो फिर हम दुकान कैसे चलाएँ अपनी?" अरे बाबा! अगर तुम जान ही गए होते कि जीव को मुक्ति कितनी प्यारी चीज़ है, तो फिर तुम यह भी जान जाते कि तुम्हारे ग्राहकों को तुम्हें क्या बेचना चाहिए। फिर ग्राहकों को तुम कुछ ऐसा बेचोगे ही नहीं जो उनके बंधनों का कारण बने। फिर ग्राहकों भी तुम बेचोगे तो मुक्ति ही बेचोगे। अब बताओ, स्वधर्म में और कर्तव्य में विरोध कहाँ है?
तुम्हें मुक्ति से प्रेम होना चाहिए। उसके बाद तुम यह कैसे कर पाओगे कि जिनसे तुम कहते हो कि तुम्हें अपनापन है, उन्हें तुम बंधनों में स्वीकार कर रहे हो, कर पाओगे? तुम ऐसा कह पाओगे क्या कि, "मुझे तो मुक्ति बहुत प्यारी है, पर मेरा बाप, मेरा बच्चा, ये बंधन में हैं तो उन्हें मैं बंधन में पड़ा रहने देता हूँ। मैं उन्हें सुबह चाय पिला देता हूँ, शाम को दवाई दे देता हूँ क्योंकि कर्तव्य तो इतना ही होता है"?
समाज ने तुम्हें जो भी कर्तव्यों की परिभाषा दी है, क्या उसमें कभी भी मुक्ति देना शामिल है? ईमानदारी से बताओ।
इसीलिए दुनिया जो तुम्हें कर्तव्य सिखाती है, वो सब झूठे हैं, और इसीलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, “सारे कर्तव्यों को छोड़कर, ये दुनियाभर के जितने तुमको ऊटपटाँग धर्म बता दिए गए हैं, सब छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ, एकमात्र यही धर्म है तुम्हारा।” बाकी जितनी बातें तुम्हें सिखा दी गई हैं, सब फ़िज़ूल हैं, कि माँ के साथ ऐसे रहना है, बाप के साथ ऐसे रहना है, भाई के साथ ऐसे रहना है, पड़ोसी के साथ ऐसे, सब बेकार हैं। धर्म एक ही है − “आओ, मेरी तरफ़ आओ, बाकी सब छोड़ दो।”
तुम्हें बता दिया जाता है पत्नी की यह माँगे पूरी करो, पति की यह माँग पूरी करो, बाप की ऐसे सेवा करो, माँ को ऐसे आदर दो, पर कर्तव्यों में यह तो कभी बताया ही नहीं गया कि बाप तड़प रहा है मुक्ति के लिए, मुक्ति में उसकी सहायता करो। बताया गया है? तुम्हें दिख नहीं रहा कि यह कर्तव्यों की पूरी पाठशाला कितना बड़ा षड्यंत्र है? यह तुम्हें सब बताती है, बस वही चीज़ नहीं बताती जो सबसे आवश्यक है। यह तुम्हें बता रही है कि प्यासे को हीरे-जवाहरात दे दो, रुपया-पैसा दे दो, उसके पाँव दबा दो, उसको सम्मान दे दो, उसको मुकुट पहना दो, बस उसको पानी मत दो। यह तुम दूसरे की मदद कर रहे हो, या उसे नर्क दे रहे हो?
तुम्हारे माँ-बाप, बीवी-बच्चे, यार-दोस्त, इस पूरे संसार को, पूरे समाज को क्या चाहिए? सब मुक्ति के अभिलाषी हैं, सब मुक्ति के लिए प्यासे हैं और तुम उन्हें बाकी बहुत चीज़ें देने को तैयार हो, मुक्ति के अलावा। तुम उनके सगे हो, या उनके शत्रु हो?
जो स्वधर्म की तरफ़ बढ़ता है, जो उपराम हुआ, उसके सारे कर्तव्यों में जान आ जाती है, अब वह अपने कर्तव्य सतही तौर पर नहीं निभाता, काग़ज़ी कार्यवाही नहीं करता, कि बीवी का फर्ज़ होता है कि सुबह उठकर पति को चाय दे देना, बच्चों के लिए नाश्ता दे देना, टिफ़िन बाँध देना। कर्तव्य पूरे हो गए, टीवी चालू करो; कार्यवाही पूरी हुई, फ़ाइल बंद करो। फिर वह अपने कर्तव्य ऐसे नहीं निभाता।
जो उपराम हुआ, जो स्वधर्म के अनुष्ठान को समर्पित हुआ, उसके कर्तव्यों में प्राण आ जाते हैं। वह कहता है, "दूसरों के प्रति मेरा बहुत बड़ा फ़र्ज़ है और वह फ़र्ज़ मुझे पूरा करना पड़ेगा। इस पूरे संसार के प्रति एक ही फ़र्ज़ है मेरा, बहुत बड़ा, क्या फ़र्ज़ है? जो मुक्ति मुझे इतनी प्यारी है, वही मैं इनको लाकर दूँ। हर तरह से इनकी सहायता करूँ कि ये भी उधर को ही बढ़ें।" यह सहायता ही बन जाती है असली कर्तव्य। अब समझे असली कर्तव्य क्या है?
पत्नी के प्रति यह नहीं कर्तव्य है कि उसे गहने ला करके दो, पत्नी के प्रति यह कर्तव्य है कि उसे पंख दो, उड़ान दो, मुक्ति दो, यह असली कर्तव्य है। और यह असली कर्तव्य तभी समझोगे जब तुम्हें स्वधर्म समझ में आएगा।