आचार्य प्रशांत: आज का सत्र होने तो बोध स्थल में वाला था। फिर आनन-फानन में यहां की व्यवस्था की गई। अब आधी रात को तो कोई अपना ऑडिटोरियम देने को तैयार होगा नहीं। तो येन केन प्रकारेण साम दाम दंड भेद; साम दाम दंड भेद में दाम ही ज्यादा। इसको आधी रात को खुलवाया गया है अच्छा लग रहा है। बस एक बात का थोड़ा खटका था कि सबकी वापस लौटने की व्यवस्था है पूरी? आज की रात हो-हुलड़ रहेगा काफी। बेवजह नहीं रहता है मेरा।
संस्था की दो लड़कियां भी आ रही थी स्कूटी से। उन्हें टक्कर मार दीया है किसी ने। एक को मामूली चोट है एक को शायद फ्रैक्चर होगा पांव में। हम जिस जगह पर हैं वहां मैं थोड़ा सा घबराया करता हूं। सब कुछ बहुत फ्रजाइल है। किसी किस्म का बड़ा आयोजन या रिस्क, अभी पूरी व्यवस्था ऐसी नहीं है कि झेल सके। चलिए अच्छा लग रहा है।
आज वर्ष 2024 का अंतिम दिन भी है, अंतिम सत्र भी है, अंतिम रात भी है और आखिरी दो घंटे भी हैं। और और किसी बात को भी आज गजब संयोग है कि श्रीकृष्ण अंत की ओर ले जा रहे हैं। किस बात का अंत कर रहे हैं? अपने आप को प्रकृति से दुनिया से संबंधित मानने का। अपने आप को संसार पर आश्रित मानने का।
कह रहे हैं तुम वो हो जिस पर तुम्हारे किसी भी कर्म का, किसी भी भाव का, किसी भी रूप का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। बहुत तुमने ऊंच-नीच करी होगी जीवन में अपनी दृष्टि में, पर तुमने जो कुछ भी करा है उस उसका तुम्हारी सच्चाई पर कोई असर नहीं होता। दुनिया के लिए, दुनिया के संबंध में, दुनिया की दृष्टि में तुम बहुत बड़े ज्ञानी हो सकते हो। इससे तुम्हारी आत्मा और विस्तृत नहीं हो जाएगी। और जगत में हो सकता है तुमने बड़ी गलतियां कर दी हो, पाप कर दिए हो, बहुत तुमने संकुचित जीवन जिया हो, बहुत अपनी संभावनाओं का गला घोटा हो लेकिन उससे भी तुम्हारी संभावना जरा भी दूषित कलुषित नहीं हो जाएगी।
पिछले सत्र में श्री कृष्ण ने कहा था ‘प्रभु’; आज कह रहे हैं ‘विभु’ दोनों में धातु है मूल वो एक ही है क्या? भू! ‘भू’ माने वह जो वास्तव में अस्तित्व मान है। जिसके होने से बाकी सब कुछ है। वहीं से भव भी संबंधित है। भव माने ‘होना’। तो प्रभु हमने कहा था कि प्र दीर्घता का द्योतक होता है जब आप प्रारंभ में आरंभ को प्रारंभ कर देते हैं अपने से। तो जब आप शुरू में ही प्र लगा देते हैं तो माने वो जिसने उठा रखा है धारण कर रखा है और थोड़ा बहुत कुछ नहीं धारण कर रखा सब कुछ ही धारण कर रखा है उसे कहते हैं प्रभु। तो आत्मा का सूचक है प्रभु और वैसे ही विभु, ‘वि’ विस्तार को इंगित करता है व्यापकता तो विभु माने जिसने इस पूरे विस्तार को अपने ऊपर उठा रखा है। जो सिर्फ है नहीं अनंत है तो वो हो गया विभु। तो प्रभु और विभू दोनों ही आत्मा की ओर इशारा कर रहे हैं।
आत्मा जो तुम वास्तव में हो वो ना कुछ करती है ना किसी कर्म के फल को ग्रहण करती है। तो उसके लिए ना पुण्य है ना पाप है। जो कुछ भी तुमने कमाया गवाया है वो व्यवहारिक तल पर होगा। परमार्थिक तल पर तुम पूरे अनछुए के अनछुए हो। तुम्हारी सच्चाई पर तुम्हारा सांसारिक जीवन कोई अधिकार नहीं रखता। बहुत बड़ी मुक्ति दे रहे हैं यह कहकर कि तुम्हारी सच्चाई पर, तुम्हारा सांसारिक जीवन, तुम्हारी उपलब्धियां, तुम्हारी विफलताएं कोई अधिकार नहीं रखते। वो वास्तव में कह रहे हैं कि संसार तुम पर कोई अधिकार नहीं रखता। आत्मा कभी पाई नहीं जाती वह है। और उसके ऊपर एक सपने जैसा हमने संसार चला रखा है।
जैसे हीरे को किसी ने लाल रंग के कागज से ढक रखा हो। किसी ने चांदी के कागज से ढक रखा हो। किसी ने धूल से ढक रखा हो। एक का जीवन धूल जैसा लगता है। एक का जीवन चांदी जैसा लगता है। एक का जीवन किसी रंग का लगता है। लेकिन यह जितना भी है ऊपर ऊपर वो एक झूठा ज्ञान है अज्ञान है। उसके नीचे जो है वो कभी अपने खोल से उस झूठे ज्ञान से जिसने उसको ढक रखा है कंबल की भांति लपेट रखा है उससे वह कभी प्रभावित नहीं हो जाता।
अलग अलग व्यक्तियों को देखेंगे तो किसी का सत्य हम कह रहे हैं कीचड़ से ढका हुआ हो सकता है। किसी का सत्य फूलों की पंखुड़ियों में लिपटा हुआ हो सकता है। कहीं धूल हो सकती है। कहीं कागज हो सकता है कहीं कुछ प्लास्टिक मोम हो सकता है कहीं कुछ हो सकता है और यह सब विभिन्नताएं हैं जो अलग-अलग लोगों के जीवन में पाई जाती हैं। कोई राजा हो जाएगा, कोई रंक हो जाएगा, कोई पापी हो जाएगा, कोई पुण्यत्मा हो जाएगा। कृष्ण कह रहे हैं, तुम ऊपर ऊपर से जो भी बन रहे हो, भीतर पहली बात तुम्हारी सच्चाई एक है, दूसरी बात तुमने बाहर कितनी भी अपनी दुर्दशा कर ली हो, तुम्हारी भीतरी सच्चाई उससे प्रभावित नहीं होती। वह सदा तुम्हें उपलब्ध है। हटाने की बात है।
तुमने गुलाब की पखुड़ियों से अपने आप को ढक रखा है तो वो गुलाब हटाना पड़ेगा। तुमने चांदी के वर्क से अपने आप को ढक रखा है तो वह हटाना पड़ेगा। बस हटाने जितनी दूरी है उससे ज्यादा कोई दूरी नहीं है। मतलब? जो कुछ भी चला है अभी तक उसका अंत तत्काल संभव है क्योंकि पाना समय लेने वाली बात हो सकता है। पर हटाना एकदम तत्काल हो सकता है। पाने के लिए कुछ अतिरिक्त करना पड़ता है हटाने के लिए कुछ अतिरिक्त करना छोड़ना पड़ता है। कुछ और करने जाओगे तो समय लगेगा। कुछ छोड़ने में क्या समय लगना है?
ज्ञान भी अगर पाना हो तो समय लग जाएगा पर झूठा ज्ञान पकड़ रखा हो को छोड़ने में क्या समय लगना है? जैसे 12:00 बजे आप कहते हो कि साल बदल गया वैसे ही एक पल में इंसान बदल सकता है। अपनी ही तो मान्यता थी। 12:00 बजने से 1 सेकंड पहले मान्यता क्या थी? 2024 और 12:01 सेकंड पर क्या मान्यता है? 2025। कितना समय लगा छोड़ने में? पूरा साल बदल दिया एक पल में इतनी जान है हम में। क्योंकि कुछ बदलना था ही नहीं, कुछ बदलना था ही नहीं। एक मान्यता थी अपनी ही थी, घर की खेती जब चाहो बदल दो बदल दी। फरवरी बेचारी के पर कतर दिए हैं उसके 28 ही होते हैं और जब वह धरना प्रदर्शन करती है तो हर चौथे साल उसका दिल रखने के लिए एक और दे देते हैं उसको। फरवरी में कोई बुराई है? नहीं। मान्यता है आपने करा है। आप चाहते तो यही सुलूक मार्च के साथ भी कर सकते थे। नहीं किया। फरवरी जली जा रही है। इधर जनवरी उधर मार्च दोनों 31 उसको 29 के भी लाले पड़े हैं। मान्यता है ना? अपनी ही मान्यता है ना? सत्य कुछ नहीं है ना? बड़ा मुश्किल होता है यह देख पाना कि जो हमें रोके हुए हैं, वह हमारी ही मान्यता है। और चूँकि आपकी मान्यता है इसीलिए खतरा भी है और अवसर भी है।
खतरा यह है कि आपकी मान्यता के साथ आपका नाम आपकी पहचान जुड़ी होती है। मान्यता छोड़ने में ऐसा लगता है हम ही छूट गए। और अवसर यह है कि चुकि अपनी मान्यता है तो जब चाहे छोड़ दो जब चाहे छोड़ दो। समझ में आ रही है बात यह कृष्ण कह रहे हैं भाड़ में जाए वह सब कुछ जो तुमने किया है और जिया है। तुम्हारे अपने पैमाने कोई अर्थ नहीं रखते संसार तुमको किन पैमानों पर तोलता है वह भी कोई अर्थ नहीं रखता। किसी चीज का कोई अर्थ नहीं है तुम जो कुछ करते आ रहे हो वह बस यूं ही है। हम उसे खेल कह देते अगर उसमें इतना दुख ना शामिल होता।
वो इस तरह से कह रहे हैं समझ लो कि कहीं कोई स्टेडियम हो जैसे। उसमें 15-20 एकदम उधमी उदंड बच्चे। कोई दौड़ लगा रहा है कोई बास्केटबॉल लेके उससे टेनिस की सर्विस कर रहा है कोई टीटी की बॉल से क्रिकेट की बाउंसर मारने की कोशिश कर रहा है। कुछ भी कर रहे मर्जी है और इस चक्कर में कोई आउट भी हो गया और रो भी रहा है। किसी ने बास्केटबॉल से एस मार दी है। उसको बहुत बड़ा पुरस्कार दे रहा है संसार। ये सब चल रहा है बहुत देर से चल रहा है। और तभी अचानक कोई आता है और कहता है तुमने यह सब कुछ जितना भी करा है सबका स्कोर जीरो है। जिसने बहुत जीत लिया वो भी शून्य है जिसने कुछ नहीं जीत लिया वो भी शून्य है। क्यों शून्य है? क्योंकि तुम खेल को समझते ही नहीं। तुम ना जाने क्या कर रहे हो? बास्केटबॉल से 6 घंटे से आप टेनिस खेल रहे हैं। बताइए आपका स्कोर कितना हुआ? जितना भी हुआ उसका कोई अर्थ नहीं है। श्री कृष्ण कह रहे हैं तुमने जो कुछ भी किया उसका कोई अर्थ नहीं है। खेला होगा तुमने 6 घंटे तक या खेला होगा 60 साल तक पूरी उम्र बिता दी होगी खेलने में। स्कोर जीरो है कुछ लोग रो पड़ेंगे। बड़ी मेहनत की बहुत हासिल किया यह कह रहे हैं कि स्कोर जीरो है। पर जो ईमानदार होंगे वो हंस पड़ेंगे। वो कहेंगे इसका मतलब यह है कि जितना दुख इकट्ठा करा वो भी जीरो है।
करी होगी अपनी ओर से बहुत मेहनत, बास्केटबॉल से सर्विस करोगे टेनिस की तो मेहनत तो बहुत लगेगी। या हॉकी की गेंद से फुटबॉल खेलोगे तो टांग भी बहुत टूटेगी। टूटेगी! गोलफ की गेंद से पिकल बॉल खेल रहे थे या गोलफ स्टिक ले क्रिकेट खेल रहे थे। बार-बार बोल्ड हो रहे हैं। कोई बात नहीं कृष्ण कह रहे हैं। इससे तुम्हारे करियर पर रिकॉर्ड पर कोई धब्बा नहीं लगेगा। यह जितना स्कोर है यह सब अमान्य है। यह तुमने जो कुछ भी लिखा है, इसकी गिनती गणना नहीं होनी वाली यह स्लेट पछ दी जाएगी इसका कोई अर्थ नहीं है इसे अपने ऊपर लेकर मत चलो। श्री कृष्ण कह रहे हैं तुम जो हो उसे यह सब कुछ ग्रहण करने की कोई जरूरत नहीं है। ना अतीत ना स्मृतियां ना पहचान ना कर्म ना कर्तव्य ना कर्म फल कुछ भी नहीं। आत्मा कुछ ग्रहण नहीं करती। आत्मा माने तुम तुम्हारी सच्चाई। यह सब कुछ तुम पर लागू नहीं होता तुम मुक्त हो इससे अपने आप को किसी भी दायित्व या कर्तव्य में बंधा मत मानो। समझ में आ रही है बात?
दो जने खेलने पहुंच गए थे कुछ खेलेंगे। बैडमिंटन। वो बोले जो हारेगा वो 10,000 देगा। और बैडमिंटन खेल रहे हैं हॉकी स्टिक्स से, उसमें एक हार भी गया। दूसरा कह रहा है इसी नेट में मुंह देके तार गले में बांध के जिंदगी खत्म कर लूंगा 10,000 मेरे पास है ही नहीं। श्री कृष्ण कह रहे हैं यह जो भी हुआ था यह खेल था और बड़ा भद्दा खेल था। ना वह हारा है ना तुम जीते हो। दोनों को खेल पता ही नहीं है तो हम कैसे कह दें कौन हारा कौन जीता? जिसको खेल पता होता वह खेल से मुक्त हो जाता जिसको खेल पता होता वह खेल में दुख नहीं पाता। तुम में से किसी ने इस खेल में खूब भोग भोग करके सुख पाया है, किसी ने दुख पाया है पर दोनों बातें बताती हैं कि दोनों को समझ नहीं आया है।
वाइप आउट साफ कर दो मिटा दो कोई अर्थ नहीं है। प्रकृति के क्षेत्र में जो कुछ भी हो रहा है उसका आत्मा के लिए कोई अर्थ नहीं है। आप बड़े हो, छोटे हो, नर हो, नारी हो, युवा हो, वृद्ध हो, अमीर हो, गरीब हो, अच्छे हो, बुरे हो आप इन सारी बातों से मुक्त हो। पाप अगर है तो बस यही कि तुम अपने आप को मुक्त नहीं संयुक्त मानो। हम बार-बार कहते हैं कि अतीत से सीखना होता है। यहां पर भी वेदांत का जो महावाक्य मौजूद है हम में से कई लोग उसका यही अर्थ लगा रहे होंगे, अतीत से सीखो। अतीत से सीखने का वास्तविक मतलब होता है अतीत को भूल जाना। अतीत का कोई भी दाग धब्बा अपने ऊपर ना पड़ने देना। जिसने अतीत को बहुत महत्व दे दिया उसका अतीत उसके भविष्य का निर्धारण करने लग जाता है। कभी पुनरावृति करके और कभी विपरीत बनकर। अतीत बहुत अच्छा लगा तो कहोगे दोहराना है और अतीत अगर बुरा लगा अतीत से घृणा है तो कहोगे जैसा अतीत सा उससे बिल्कुल विपरीत भविष्य बनाना है। दोनों ही स्थितियों में आप अतीत के गुलाम हो गए। अतीत से सीखने का मतलब यह नहीं है कि भविष्य को अतीत का विपरीत बना देंगे। हम में से बहुत लोग यही अर्थ लगाते हैं। अतीत की गलतियां मत दोहराना माने अतीत में जो करा उससे उल्टा करना। उल्टा नहीं करना। अतीत से सीखने का मतलब है मैं अतीत से मुक्त हुआ अब भविष्य में पूरी आजादी है सब दिशाओं में उड़ सकता हूं।
2024 से मुक्त होना चाहेंगे? या ऐसा है कि जो सपना चल रहा है उसकी धारा बहती ही रहेगी। एक बहुत ही वाहियात सी गंदी पिक्चर देखने बैठ गए हैं। साल भर से देखे जा रहे हैं। जितनी उम्र है ठीक उतने सालों से देखे जा रहे हैं। देखते ही रहना है या यह स्वीकार करना है कि देखना अनिवार्य नहीं है। कि आप बंधे नहीं हुए हैं कुर्सियों से? आप बस जन्म के पहले ही क्षण से वही पिक्चर चल रही है तो ऐसा लगता है फिल्म नहीं है, जिंदगी है। जो चीज सदा से देख रहे हो वो अनिवार्यता सी लगने लग जाती है ना। सदा से सांस ले रहे हैं। सदा से आकाश है, सदा से पृथ्वी है, सदा से फूल पौधे हैं, सड़क है, लोग हैं। तो लगता है यह सब तो हैं ही, तथ्य हैं। नहीं ऐसा नहीं है। मन की धारा में जो बह रहा है वो तथ्य नहीं है। तथ्यों का कोई विकल्प नहीं होता। मन में जो है उसका विकल्प मौजूद है। उठा जा सकता है, छोड़ा जा सकता है।
श्री कृष्ण कह रहे हैं तुम्हें पता नहीं है लेकिन तुम आज भी अनछ हो तुम पर कोई धब्बा नहीं लग रहा है तुम आत्मा हो। आत्मा ने कुछ भी ग्रहण करा ही नहीं है। किसी ने डाल दी होगी बहुत गंदगी तुम्हारे ऊपर या तुमने स्वयं ही डाल ली होगी बहुत गंदगी अपने ऊपर। पर यह तुम्हारे भी अधिकार में नहीं है कि तुमने जो कुछ अपने साथ किया वो तुम्हें भीतर से मैला कर दे। तुम वो हो ही नहीं जो भीतर से मैले हो सकते हो। मनुष्य की गरिमा उसे लौटाने का वक्तव्य है यह। मनुष्य को यह चेताने का वक्तव्य है कि तुम्हारी संभावना कहीं नहीं चली गई, कहीं नहीं खो गई। भले ही तुमने घोर अज्ञान में एकदम गर्हित जीवन बिताया हो तो भी। समझ में आ रही है बात ये?
खेल लिए होंगे खेल सपने में बहुत कुछ हम कर लेते हैं उसका कोई बकाया थोड़ी चुकाते हैं जगने के बाद या चुकाते हो? सपने टूट जाते हैं आप जग जाते हैं, आप आगे बढ़ जाते हैं। सपने को ढोना थोड़ी ही होता है। कौन ढोता है जगने के बाद? हां कुछ हो सकते हैं ऐसे सुरमा जो पंडितों के पास पहुंच जाए कि ऐसा सपना देखा इसका अर्थ बताइए। कृष्ण कह रहे हैं कोई अर्थ नहीं है। जागरण मात्र चाहिए। उस एक शब्द को पकड़ो जगना है। जिस चीज से जग गए उसमें क्या था, यह नहीं याद रखना है। जो
जो चीज ऐसी थी कि पीछे छोड़ने लायक थी उसमें था क्या? क्यों याद रखोगे? उसमें कुछ होता ही अगर अर्थवान महत्वपूर्ण उसको पीछे क्यों छोड़ा होता? निर्ममता का संदेश है। जगना माने छोड़ना और जो छोड़ दिया उसको क्या याद रखना? और याद अगर अभी रख रहे हो तो जगे ही नहीं हो।
एक मूर्ख अज्ञानी वो हो जाएगा जो अपनी अच्छाइयों से, अपनी उपलब्धियों से, अपनी पहचान जोड़ लेगा। दूसरा वो हो जाएगा जो अपनी कमजोरियों से, अपनी हारों से, अपनी असफलताओं से अपनी पहचान जोड़ लेगा। श्रीकृष्ण कह रहे हैं तुमने क्या हारा, क्या जीता? उसमें से कुछ भी तुम्हें स्पर्श नहीं कर सकता। बात सिर्फ हार या दुख को पीछे छोड़ने की नहीं है। तुम्हारी जीत भी तुम में ना कुछ जोड़ सकती है ना घटा सकती है। एक बार यह जान जाते हैं तो फिर स्थितियों शरीर और समाज का गुलाम बनना आवश्यक नहीं लगता। क्योंकि कोई देगा भी तो दी हुई चीज बहुत महत्व की नहीं होगी जब वो हमें छू ही नहीं सकती तो उसका कितना महत्व है? और अगर कोई कुछ छीन भी लेगा तो छीनी हुई चीज भी बहुत महत्व की नहीं हो सकती। छीनने वाले ने हमें बिना छुए ही को छीना होगा। कृष्ण कह रहे हैं सूत्र है अस्पर्शित रहने का। तो क्या उसने बड़ा छीन लिया होगा? यह मुक्ति है यह गरिमा है। इसमें स्वामित्व है। नहीं तो सर झुका रहता है डर बहुत रहता है। हमें उसका ही नहीं डर रहता जो कुछ ले जाएगा। बड़ा भारी डर लगता है उससे जो कुछ देने वाला है।
इसी मंच से मैं घोषणा करूं कि आप में से जो सबसे होनहार छात्र रहे हैं उनको आज सम्मानित किया जाएगा। तो ऐसा नहीं है कि आपको अचानक कुछ बहुत हर्ष हो जाएगा। देखिए कैसे दिल की धड़कनें तेज हो जाएंगी कई लोगों की। आंखें सी जलने लगेंगी। एक नाम पुकारा जाएगा वह आपका नहीं है। थोड़ा डर उठेगा। अगला नाम पुकारा जाएगा वह भी आपका नहीं है और डर उठेगा। चार पांच नाम हो गए आप का नाम आया ही नहीं। आप ऐसे हाथ रखेंगे आपको महसूस होगा कुछ बहुत भड़भड़ कर रहा है भीतर। हम सबसे डर कर रहते हैं। जो ही प्रकृति माने संसार माने समाज से संबंधित रहेगा और संबंधित होने का अर्थ ही होता है आश्रयता। क्योंकि हम संबंध बनाते ही हैं पूर्णता के लिए। जो ही संबंधित रहेगा वह डरा हुआ रहेगा। दिल की धड़कनें एक बराबर होंगी।
यहां मंच से घोषणा हो जाए कि पांच नाम मैं बताने वाला हूं। पांच चोर पकड़े गए हैं। पहला नाम बताया जाएगा। आप पाएंगे धड़कनें तेज हो रही हैं। दूसरा बताया जाएगा वहां भी तेज होंगी और मैं कहूं पांच लोगों को पुरस्कृत किया जाएगा उसमें भी धड़कनें तेज होंगी। दोनों में साझी बात क्या है? आपने अपनी हस्ती को किसी के द्वारा दिए गए सम्मान या अपमान पर आश्रित बना लिया है। यह गरीबी है। यह गरिमाहीनता है। कृष्ण आपको इससे मुक्त कर रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं तुम्हें कुछ मिल जाए वह भी तुम्हें स्पर्श नहीं कर सकता। तुम हो ही वो नहीं जिसको अधिकार है संसार से कुछ भी ग्रहण करने का। अनंत बेचारे पर यह बड़ी पाबंदी लगी हुई है ना वह अनंत है तो उसमें कुछ जुड़ नहीं सकता।
कुछ जुड़ा तभी माना जाएगा जब जुड़ने के पश्चात कुछ परिवर्तन आ जाए, है ना? आठ में दो जोड़ा तो आठ आठ नहीं रहा। आठ क्या हो गया? तो हम कह सकते हैं आठ में कुछ जुड़ा। क्योंकि जब कुछ जुड़ जाता है तो आप परिवर्तित हो जाते हैं। आठ में दो जुड़ा आठ परिवर्तित हो के दस हो गया। अनंत में कुछ भी जोड़ दो अनंत क्या रह जाता है? तो अनंत के ऊपर यह शर्त लगी हुई है। तुझ में कुछ जुड़ नहीं सकता। वो शर्त आपके ऊपर है। आप में कुछ नहीं जुड़ सकता कृष्ण कह रहे हैं। तो कौन से पुरस्कार से तुम बड़े आदमी बन जाओगे? तुम वह हो जिसके बड़प्पन को और विस्तृत करा ही नहीं जा सकता।
इसी तरीके से घटाने में भी यह शर्त होती है कि जिससे घटाया गया हो उसमें कुछ परिवर्तन आ जाए। आठ में से दो घटाया तो आठ क्या हो गया? अनंत में से कुछ भी घटा दीजिए, अनंत कितना रहेगा? कितना रहेगा? क्या कहते हैं उपनिषद?
श्रोता: ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
आचार्य प्रशांत: तो पूर्ण में से घटाने पर भी पूर्ण रहता है। उतना बताइए ना बस वहां पर क्या कहते हैं? “पूर्णमेवावशिष्यते” पूर्ण ही बचेगा। छह नहीं बचेगा। क्या कितना बचेगा? पूर्ण ही बचेगा। आप वो हैं जिसके दिल की धड़कन बढ़नी नहीं चाहिए कोई कुछ देने आ रहा है। आप वो हैं जिसको डर नहीं होना चाहिए कोई कुछ लेने आ रहा है। तुम मेरा सब कुछ भी ले।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
मेरा तुम सब कुछ भी ले लो मैं उतना ही रहूंगा जितना अभी हूं। ऐसे वह कहते हैं उनके सामने मौत आ रही होती है वह ऐसे खड़े होते हैं कुछ नहीं आ रहा। मैं उतना ही रहूंगा जितना अभी हूं। और यहां अब समझ में नहीं आता कि कृष्ण बोल रहे हैं कि बुद्ध बोल रहे हैं। क्योंकि मौत तो सब कुछ ले जाती है सिर्फ एक है जिससे मौत कुछ नहीं ले जा सकती। जिसके पास कुछ हो ही ना। तो ऐसा लगता है जैसे बात शून्यता की हो रही हो पर वही बात पूर्ण पर भी लागू होती है। शून्य के पास कुछ है नहीं देने के लिए और पूर्ण से कुछ भी ले लो वो पूर्ण ही रहेगा। तो बात दोनों पर एक ही लागू हो जाती है। क्या कोई ले जाएगा? आप समझ रहे हैं?
कुछ लेना ना देना मगन रहना। ऋषियों के सूत्रों को ही तो संतों ने आगे गा दिया है ना लोक भाषा में? वो यही बात है। व्यापार करने नहीं आए हैं जगत में कि लेंगे देंगे कि मुनाफा गिनेंगे कि नुकसान को रोएंगे। यह सब बाहर बाहर चल रहा है। भीतर हम अपने आप में संपूर्ण हैं। जिनको स्वयं को संपूर्ण देखने में तकलीफ होती हो बहुत ज्यादा विनम्रता हो। वो अपने आप को शून्य बोल सकते हैं। हम कुछ नहीं है बाहर जो चल रहा है भीतर बस एक रिक्तता है। रिक्तता माने अनछुआपन।
जैसे हम दो हो एक बाहर वाला जो सब तरह के खेल खेलता रहता है और एक भीतर वाला जिस पर किसी खेल का कोई असर नहीं होता। वो भीतर बैठा बस क्या करता है? देखता है। तो आप लोग नए साल में पहली एक्टिविटी यह करेंगे कि बताएंगे कि यह दो पक्षियों का उदाहरण किस उपनिषद से आता है?
बिल्कुल एक से पक्षी हैं। साथी एक दूसरे के सुंदर-सुंदर उनके पंख हैं और एक ही वृक्ष पर अगल-बगल बैठ गए हैं सुपरना सखाया। एक है जो मस्त इधरउधर देख रहा है। फल कहां है? वह खा रहा है और दूसरा बस देखे जा रहा है वह दोनों हम ही हैं। कृष्ण कह रहे हैं वो जो दूसरा है जो कुछ करता नहीं बस देखता है। याद करो कि वो तुम हो। बाहर देखने में फल खाने में नहीं समस्या है। समस्या तब है जब तुम सोचो कि तुम बस फल खाने वाले ही हो। सब फल चल जाते हैं कोई विषैला नहीं रहता खाना खिलाना सब खेल हो जाता है। जब भीतर कोई होता है जो कुछ खा पी नहीं सकता वह मात्र देखता रहता है। उसका पेट भरा हुआ है। वह कौन है? वह पूर्ण है, वह पूर्ण है।
जैसे किरदार निभा रहे हो, जैसे अभिनय कर रहे हो। अभिनय करने के लिए भी अभिनेता चाहिए ना। जो अभिनीत किरदार से अलग होता है। वह अलगाव बना रहे। उसी अलगाव का अर्थ है आत्मा कुछ ग्रहण नहीं करती वह अलग है। किरदार तो कुछ भी दिखा सकता है। खेल है अब उतर आए हैं मैदान में या मंच पर तो क्यों ना जमकर खेलें। चल रहा है खेल हम उसमें बाधा नहीं बनेंगे। प्रवाह है एक बहेंगे उसमें बाधा बनना तो अहंकार होता है। चलो ठीक है चल रहा है खेल।
लेकिन चलते खेल में यह याद रहे कि किरदार को मंच पर जो कुछ भी हो रहा है उससे अभिनेता पर लेश मात्र भी अंतर नहीं पड़ता। बहुत अच्छा हो गया तो भी नहीं, बहुत बुरा हो गया तो भी नहीं। किरदार को गोली लग गई क्योंकि पटकथा में लिखा है गोली लगेगी। गोली लग गई वो गिर पड़ा। उसको उठा रहे तो उठ ही नहीं रहा। अभिनेता क्या बोल रहा है? मैंने गोली ग्रहण कर ली है। श्री कृष्ण कह रहे हैं तुम वो ओ हो जो कुछ ग्रहण नहीं कर सकता। किरदार ग्रहण करता है। तुम नहीं ग्रहण करते। नहीं तो एक्टर को गोली लगेगी फिर वो दोबारा कभी उठेगा ही नहीं। उसने गोली ग्रहण कर ली है। और यह तो मामला व्यक्तिगत हो गया। जैसे गोली ग्रहण होता है वैसे पाणि ग्रहण भी तो होता है। पाणि माने क्या होता है? हाथ तो अब किरदार ने ब्याह कर लिया। थोड़ी देर में डायरेक्टर बोलता है कट कट। बोलता है काहे का कट? मैंने तो कर लिया ग्रहण। अब तू घर चल। ऐसे नहीं है।
तुम वो हो जो कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकता। हां बाकी ठीक है। मंच है, पर्दा है, खेल है। वहां जो है सो है ठीक है। भीतर हम ऐसे हैं जैसे, जैसे जब बच्चों का स्कूल खुलता है तो नई कॉपियां आती हैं घर में अभी भी आती होंगी। तो आप नई कॉपी खोलते हैं तो देखते हैं उसका कागज कैसा रहता है? भीतर से वैसे रहिए। बिल्कुल कोरा कागज। इधर-उधर आगे पीछे ऊपर नीचे गुदाई चलती रहे दुनिया आकर के गोद जाती है। लोगों के हाथों के निशान पड़ जाते हैं। जैसे साल भर इस्तेमाल करने के बाद कॉपी कैसी हो जाती है? हम वैसे हो जाते हैं। बाहर बाहर वैसा रहेगा। भीतर ऐसे रहिए जैसे एकदम नई नवेली कॉपी का पन्ना।
ऐसा पन्ना जो कुछ भी ग्रहण नहीं करता और चुकि कभी उसने कुछ ग्रहण करा ही नहीं तो उसके पास त्यागने के लिए भी कुछ..? वो क्या त्यागे उसके पास कुछ है ही नहीं तो आत्मा ना लेती है ना देती है ना ग्रहण करती है ना त्यागती है। बात आत्मा की नहीं हो रही है बात आपकी हो रही है वो आत्मा आप हो “तत तत्व असि” वो तुम हो। आत्मा के बारे में ज्ञान मत इकट्ठा कर लेना कि हां आत्मा एक चीज होती है उसको कुछ लेना देना नहीं होता बढ़िया है। बाकी मैं तो सब लेता देता रहता हूं। कोई आकर मुझे डांट गया वो डांट मैंने ले ली। कोई आकर मुझे इज्जत दे गया वो इज्जत मैंने ले ली। यह आपके बारे में बात हो रही है।
देखो भीतर एक ऐसे बिंदु का होना बहुत बहुत जरूरी है जिंदगी में, जिसे कोई कभी छू ना सके जिसे आप भी चाहो तो आप भी ना छू सको। नहीं होगा ऐसा बिंदु तो बड़ी बेचारगी की हालत रहेगी दुनिया सर पर चढ़ के नाचेगी। बहुत कुछ तो हमारे पास है ही ऐसा जिसको कोई भी गुलाम बना सकता है जिस पे कोई भी हक कर सकता है। अभी कोई आ जाए हमें नहीं मालूम कौन आ सकता है वो आ जाए और वो हथकड़ियां लगा दे हथकड़ियां लग गई ना। लो हाथ किसी ने बांध दिए कोई मच्छर आके काट जाए मच्छर तक को नहीं रोक सकते इंसान तो छोड़ दो। न जाने कौन धुआं फैला रहा है यहां धुआ है वो धुआ सीधे मेरे फेफड़ों में चला गया मैं वो नहीं रोक सकता उसको। बड़ी बेचारगी है ही हर तरीके से हम गुलाम है। कृष्ण कह रहे हैं होगे तुम 100 तरीके से गुलाम एक बिंदु ऐसा रखना जिसे कोई छू ना पाए। उतना पर्याप्त हो जाएगा।
तुम्हारी सारी दासता का प्रतिकार वो एक बिंदु कर देगा। वो दासताएं पटकथा में पहले से ही हैं। जिस दिन आप पैदा हुए उस दिन आप दास हो गए। नहीं हम तो दास नहीं है अच्छा तुम दास नहीं हो तो शीर्षासन करो और चल के दिखाओ। अब पहली चीज तो न जाने किसने यही तय कर दी है कि ये जो दो लंबी लंबी ऐसी एक गाजर एक मूली है इसी पर चलोगे। खुद तय करा था? नहीं हो दास तो गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध उड़कर दिखा दो। अब वो हम इतना ज्यादा करते हैं। बंधे बंधाए तरीके से नियमबद्ध जमीन पर चलना कि हमें पता नहीं चलता पर यह भी है तो किसी और की लिखी पटकथा का पालन ही ना? आपने थोड़ी तय करा था कि इतनी ही ग्रेविटी होनी चाहिए और आपकी इतनी ही ऊंचाई होगी और इसी तरह आप संतुलन बना के दो टांगों पर चलोगे, करा था?
पैदा होना माने दूसरों के इशारों पर खेलना। पैदा होना माने हर तरीके से बंधे हुए रहना। कुछ आजादी है भी तो दायरों के भीतर है और दायरों को तय आपने नहीं करा है। ना उसकी परिधि, ना उसका व्यास आप नहीं जानते वो दायरा कहां से आ गया? आप में से किसने-किसने खुद तय करा था कि 60 70 80 साल ही जिएंगे? आप में से किसने तय करा था कि स्त्री या पुरुष हो के ही पैदा होना है? रंग किसने तय करा था? अमीरी गरीबी किसने तय करी थी? बीमारियां किसने तय करी थी? तो फिर बचा ही नहीं कुछ। आदमी जिए काहे को? गुलामी झेलने को जिए? कृष्ण कहते हैं नहीं यह सब कुछ जो है जो तुम्हें बांधे हुए हैं बाहर से वो बाहर बाहर है कोई दिक्कत नहीं। किसी ने नियम बना दिया है कि रेड लाइट है उस पर रुकना है रुक जाओ। बाहरी बात है। कोई तुम्हारा बड़ा अपमान नहीं हो गया अगर तुमको लाल बत्ती पर रुकना पड़ रहा है।
कई कानून हो सकते हैं देश में जिनसे आप राजी नहीं होते। कोई बड़ी बात नहीं अगर आपने उन कानूनों का पालन कर लिया। भीतर कुछ ऐसा होना चाहिए जो किसी कानून को नहीं मानता। अब बाहर बाहर ठीक है ये छोटी बातें हमने कर लिया ना कानून का पालन। जो भीतर एक बिंदु होता है। उसी को कभी शून्य कभी आत्मा बोलते हैं, हृदय बोल देते हैं। शायरी में जब गहराई आती है वो फिर उसी का नाम दिल भी हो जाता है। सब जगह नहीं, वैसे तो दिल का मतलब कुछ बहुत फालतू की चीज होता है। पर जब शायर ऋषि बनने जैसा होता है तब जब वो कहे दिल तो दिल का अर्थ आत्मा ही होता है।
दो तरह के मूर्ख होते हैं। एक वह जो हर छोटी-छोटी चीज में कहते हैं कि मुझे पटकथा का पालन नहीं करना क्योंकि मैं तो आजाद हूं। तुम काहे के आजाद हो? उसे कहते हैं ना रिबेल विदाउट अ कॉज। बिना बात की क्रांतियां करने निकल पड़ते हैं। नहीं यह जो कुर्सी है लाल क्यों होनी चाहिए? मैं पीली पोतूंगा। और यह निश्चित रूप से पूंजीवादी वर्ग की साजिश है। लाल हमारा निशान है और उस पर हमारा पिछवाड़ा टिका दिया। अपमान है यह लाल का। तुम को पता भी है कि तुम कितने नियमों से बंधे हुए हो? कितने नियम तोड़ लोगे? व्यर्थ ही नियमों को तोड़ने का प्रयास नहीं करना चाहिए। पर जो बात दिल की हो उसमें किसी नियम को मानना नहीं चाहिए। बाहर बाहर सब चलेगा। भीतर हम कुछ ग्रहण नहीं करते। श्री कृष्ण कह रहे हैं।
हां, प्लॉट है मेरा वो मुझे अथॉरिटी से अप्रूव कराना पड़ेगा कैसा नक्शा रहेगा इस पर। ठीक। प्लॉट का नंबर क्या है? वह भी मैं नहीं तय करूंगा। यह तो नहीं कर सकता कि बाया वाला 100 नंबर है और दायाँ वाला 102 नंबर है और मैं कहूं मैं 105 हूं। अगर इधर 100 है और इधर 102 है तो आपका नंबर तो 101 ही होगा। वहां पर क्रांति करने की कोई जरूरत नहीं है। दुनिया कौन होती है मेरे प्लॉट के नंबर को तय करने वाली? इसी तरह अगर नियम बना हुआ है कि भाई बाहर की दीवार आप इससे ज्यादा ऊंची नहीं कर सकते तो आप नहीं कर सकते। आ रही है बात समझ में?
बहुत तरीकों से वह तय कर लेते हैं आपके घर की बातें। लेकिन घर के भीतर क्या हो रहा है यह किसी को तय मत करने देना। कुछ ऐसा होना चाहिए जीवन पर जिसका जिस पर किसी का बस ना चले। जो किसी से कोई आदेश ग्रहण ना करे।
सॉफ्टवेयर में जब मैं अपनी पहली नौकरी में गया था तो वहां मैंने कुछ लिखा था। उसमें से दो बातें यह भी थी कि हजार दायरों में बांध लो तुम जिंदगी मेरी, मैं बस एक दायरा अपना चाहता हूं। वो मेरे लिए बड़ी विवशता के वर्ष थे। जो मुझे चाहिए था उसको पाना मेरे हाथ में नहीं था। और जो मुझे मिला हुआ था वो मुझे चाहिए नहीं था। कितने बजे आना है ऑफिस यह कोई और तय करता था। मैं रात का खिलाड़ी वो कहे 9:00 बजे आ जाओ सुबह, खैर पहुंच जाता था। कॉफी पी पीकर किसी तरह से जगा रहता था। मेरा काम का तरीका कि जो जल्दी से जल्दी हो सकता है उसको एक झटके में निपटा दो। उसके बाद अपना समय अपना है काम पूरा कर दिया। वह चाहते थे कि आप दिखाई दो कि आप दिन भर काम कर ही रहे हो। तो मजबूरी की हालत लगती थी। तो मैं ऑफिस में ही बैठकर के उन्हीं के सिस्टम पर शायरी करता था क्योंकि मैं जितनी आपको आज की कोडिंग करानी है मैंने कर दी। अब मैं वहां से उठ के लाइब्रेरी में बैठना चाहता हूं। मेरा बॉस उसको खुजली हो जाए। ये नया-नया फ्रेशर ये सीट पर क्यों नहीं है? आधे घंटे में लाइब्रेरी में हूं नहीं कि वो सूंघता सूंघता पहुंच जाए। ले आए कि वापस सिस्टम पर बैठो। उन्हीं के सिस्टम पे शायरी और उन्हीं के कागज पर प्रिंट आउट। उसी में लिखा था कि हजार दायरों में बांध लो तुम जिंदगी मेरी, मैं बस एक दायरा अपना चाहता हूं। और उस दायरे के लिए तो मरने को भी तैयार हूं। वहां तुम्हें घुसने नहीं दूंगा। आ रही है बात?
मैंने कहा दो तरह के मूर्ख होते हैं। एक जो हर छोटी चीज में कहते हैं आजादी और दूसरे वो जो वहां भी आजादी नहीं रखते जहां रखनी चाहिए जहां कभी नहीं छोड़नी चाहिए। प्रकृति के पूरे क्षेत्र में स्वतंत्रता जैसी आत्मनिर्भरता जैसी कोई चीज नहीं हो सकती। एकदम नहीं हो सकती। आपका पूरा शरीर ही पूरे वायुमंडल पर आश्रित है आप कहां से स्वतंत्र हो जाएंगे? वहां स्वतंत्रता मत मांगिए मूर्खता हो जाएगी। वहां सर झुका देना चाहिए। और आत्मा जब बात हृदय की होती है, जब बात आपके केंद्र की होती है, वहां सर कभी झुकना नहीं चाहिए। अध्यात्म का मतलब यह जानना नहीं है कि कहां-कहां सर झुकाना है। सर कहां झुकाना है वह तो हमें पहले ही पता है। सर झुका ही रहता है। अध्यात्म का मतलब है उस बिंदु को अनावृत करना जो सदा अस्पर्शित रहता है। उस एक चीज को जानना जिस पर कभी कोई समझौता नहीं हो सकता। जिसके पास वो एक चीज है उसके पास सब कुछ है। और जिसके पास वो एक चीज नहीं है उसके पास होगा बहुत कुछ ये वो कुछ भी नहीं है उसके पास।
एक सवाल यह होता है कि पाया कितना कमाया कितना और दूसरा सवाल यह होता है कि जो पाया जो कमाया उससे अछूते रह पाए या नहीं। दोनों बातें बहुत जरूरी होती हैं। खुलकर खेलना भी जरूरी है और खेल से अस्पर्शित रहना भी जरूरी है। दोनों सवालों का आपको जवाब देना पड़ेगा। पहला सवाल है प्रकृति में जीवन में खुलकर बहे या नहीं बहे? और दूसरा सवाल है गीले तो नहीं हो गए? बहना भी जरूरी है और गीला भी नहीं होना है। जो बुद्धू गीला होने के डर से बहे ना उनको भी कुछ नहीं मिलना। वो भी परीक्षा में फेल और जो ऐसे कि ऐसा बहे ऐसा बहे कि एकदम गीले हो गए पानी उनके केंद्र तक घुस गया दुनिया का वो भी फेल।
जो बहा ही नहीं वो भी फेल जो ऐसा बहा कि सब होता है ना तैरने रहे थे और पानी फेफड़ों में ले लिया। वह भी डूबा। पानी जब तक आपके बाहर है तब तक वो आपको सहारा देता है तैरने में। बॉयएंसी और पानी जैसे ही आपके भीतर गया आपको बर्बाद कर देता है।, है ना? जो तैरा ही नहीं उसकी तो कहें क्या? मैं बोरा डूबन डरा रहा किनारे बैठ, उनकी तो कोई बात ही नहीं। फिर वह हैं जो पानी में ऐसे कूदे हैं कि नाक में, पेट में, फेफड़े में पानी ही पानी ले लिया है वो भी फेल। तो हमें कैसा चाहिए? जिसके बाहर पानी रहे भीतर बिल्कुल नहीं। ग्रहण नहीं करना है अस्पर्शित रहना है। बाहर की चीज को भीतर नहीं ले लेना है। और बाहर की चीज से ऐसा डर भी नहीं जाना है कि राह किनारे बैठ। ऐसा खिलाड़ी चाहिए। दरिया सो न्यारा रहे, दिखे दरिया माही। ऐसा खिलाड़ी चाहिए। प्रकृति के प्रवाह में दिखाई देता है। तैर रहा है, खेल रहा है छपछप लेकिन फिर भी न्यारा है। दरिया से न्यारा है। न्यारा माने अलग अंछुआ। बात समझ रहे हो?
पूरी तरह दुनिया का होना जरूरी है बहुत। और पूरी तरह दुनिया के आप तभी हो सकते हो जब आपके भीतर दुनिया ना घुस जाए। यह पूरी तरह दुनिया का नहीं है बहुत डरा हुआ है। ना जाने क्या बचा रहा है कि दुनिया छीन लेगी, बचो बचो। वो खुल के खेल ही नहीं रहा, जी ही नहीं रहा।
मैं पहले उदाहरण दिया करता था पंखे का। कॉलेजेस के ऑडिटोरियम में बोलूं तो वहां पंखे लटक रहे होते थे। अच्छा उदाहरण है। उसकी धुरी उसकी गति से एकदम अस्पर्शित रहती है, है ना? और इसीलिए उसकी पत्तियां इतनी गति कर पाती हैं। डर के मारे कि ना जाने क्या हो जाएगा उसकी पत्तियां अगर घूमे ही ना तो? बेकार पंखा। हममें से बहुत लोग इतना डर जाते हैं नैतिक किस्म के, धार्मिक किस्म के कि वो दुनिया में घूमते ही नहीं वो अनुभवों में उतरते ही नहीं। वो कहते हैं हाय हाय गंदे हो जाएंगे गंदे हो जाएंगे। उनका पंखा कभी चालू ही नहीं होता। और दूसरे वो होते हैं जिनका पंखा चालू हुआ तो जो गति है वह पत्तियों तक सीमित नहीं रही। वो गति कहां तक चली गई? वो धुरी तक चली गई। तो ऐसे ऐसे पंखा घूमा और उसका एक्सिस भी ऐसे ऐसे घूमने लग गया। पंखा नहीं छत पे लट्टू हो गया। लट्टू देखा है कभी टॉप? यह भी बर्बादी है।
(हाथ से गोल गोल लट्टू की तरह घुमाते हुए)
इंसान वो चाहिए जो बाहर जबरदस्त गति कर रहा हो और उसकी धुरी किसी भी गति से अछूती हो। कृष्ण कह रहे हैं आत्मा कुछ ग्रहण नहीं करती। प्रकृति को उसका काम करने देती है। प्रकृति का काम ही क्या है? गति। आप बाहर से प्रकृतिस्थ भीतर से आत्मस्थ। बाहर गति ही गति और भीतर पूर्ण अगति पूर्ण अचलता। यह दोनों एक साथ होंगे। भीतर अगर अगति नहीं होगी तो बाहर गति करने से बहुत घबराओगे। जिस पंखे की धुरी पर भरोसा ना हो उसको कभी पांच नंबर पर चलाओगे? वैसे हम अपनी जिंदगी कभी पांच नंबर पर नहीं चलाते। कभी भी अनुभवों का सामना नहीं कर पाते। लगता है कहीं कुछ ऐसा ना हो जाए जो हमारे केंद्र को ही झकझोर दे।
आदमी वह चाहिए जो तूफानों में उतर जाए सीधे क्योंकि उसको पता है कि बाहर कितना भी तूफान चलता रहेगा भीतर उसे रत्ती का फर्क नहीं पड़ेगा। अचल केंद्र इसीलिए चाहिए होता है। गाड़ी स्पीड तभी ले सकती है ना जब उसका जो एक्सेल है वो स्टेबल हो। तो भीतर वो स्टेबिलिटी चाहिए होती है ताकि बाहर स्पीड आ सके। जो स्पीड गति वाला क्षेत्र है वह सब किसका है? प्रकृति का। और अगति अचलता वाला जो है वो बिंदु किस क्या बोलते हैं उसे? आत्मा बोलते हैं।
जो हमें डर लगता है ना जिंदगी जीने में सही काम को भी करने में कितना घबराते हैं हम। जितना हम व्यर्थ के कामों से ना घबराते हो उससे ज्यादा अच्छे काम से घबराते हैं। क्यों घबराते हैं? क्योंकि संसार पर आश्रित है। और लगता है कि बाहर जो चोट पड़ेगी दुनिया से वह बस बाहर की नहीं रहेगी। वह भीतर तक चली जाएगी। कृष्ण कह रहे हैं याद करो याद करो। भीतर तुम वह हो जिस तक कोई चोट कभी पहुंच ही नहीं सकती। कुछ नहीं हो सकता। आप कहते हो याद तो आ ही नहीं रहा याद तो आ ही नहीं रहा। तो फिर कृष्ण कहते हैं तो ऐसा करो। थोड़ा भरोसा करो और चोट खा कर देखो। चोट खा कर देखो। यह तुम्हारी कल्पना मात्र है कि चोट पड़ेगी तो तबाह हो जाओगे बर्बाद हो जाओगे। तुम झेल लोगे। तुम कर लोगे बर्दाश्त क्योंकि भीतर कुछ है ऐसा सचमुच जिस पर नहीं असर पड़ता। तो आप कहते हो याद नहीं आता तो कृष्ण कहते हैं तो परख लो ना, परख लो। कैसे परखोगे? अब चोट खाने के अलावा कोई तरीका नहीं है ना परखने का। भीतर कुछ ऐसा है जो किसी चोट से नहीं टूट सकता, यह कैसे पता चलेगा? चोट खा के ही पता चलेगा। मत खाओ बहुत बड़ी चोट। थोड़ा-थोड़ा तो प्रयोग करके देखो। थोड़ा प्रयोग करके देखो। बड़ा आनंद आता है यह जान करके कि भीतर हम ऐसे हैं जिस पर किसी बात का कोई अंतर पड़ नहीं सकता। और उस आनंद से मालूम है क्या होता है? आप चोटों को बुलावा भेजते हो। आप चोटों को बुलावा भेजते हो। क्योंकि पता है कुछ होना नहीं है।
मैं आपको बताऊं ये ये है क्लग गिलास। यह टूट नहीं सकता। ठीक है? पहले तो आप मानोगे नहीं। फिर मैं प्रयोग करके देखो मैंने गिराया टूटा नहीं, गिराया टूटा नहीं फिर मैं इसे थोड़ा सा पटक के गिरा के भी आपको दिखा दूं टूटा नहीं। तो आप जो पहले थोड़ा चिंतित हो रहे थे कि अरे यह गिलास है पटक रहे हैं सब कांच कांच हो जाएगा अब आप मुस्कुराने लग जाओगे। उसके बाद अगर मैं ये गिलास आपको दे दूं तो आप बताओ आप क्या करोगे आप आपस में होड़ लगाओगे उसको और जोर से पटकने की। ये होता है मुक्त आदमी का जीवन। उसको पता है वह टूट नहीं सकता। तो अपने आप को और जोर से पटकता है जानबूझ के। उसको पता है उसकी धुरी स्थिर है। वो कहता है पांच नंबर पे नहीं पंखे को 15 नंबर पर चलाऊंगा। आप सोच कर देखो यह आपको मिल जाए जो यहां जवान पहलवान बैठे हो, वो कहेंगे जरा मुझे देना। वो लेंगे और पूरी जान लगा के यहां दीवार पे मारेंगे। एक बार मारेंगे, दो बार मारेंगे, तीन बार मारेंगे फिर देखेंगे कुछ नहीं हुआ एक दूसरे को देखेंगे हंसेंगे फिर कहेगा यार मुझे दे कोई बाहर से ईंट उठा लाएगा। यह होती है जिंदगी, इसको आप कितना भी धक्का दे दो चोट दे दो यह उसको ग्रहण नहीं करता।
जब पता होता है मेरे पास कुछ ऐसा है जिस पर समय समाज संसार संयोग कोई असर डाल ही नहीं सकते तो आप कहते हो अब आया मजा खुल के खेलेंगे क्योंकि कुछ बिगड़ तो अपना सकता ही नहीं है और जिसको यह लगता रहता है कि मेरा ना जाने क्या बिगड़ जाएगा वो क्या खुल के खेलेगा वो खेलता नहीं है वो उसकी तरह छुप छुप के समय काटता है कि मौत आ जाए भाई सकुशल मर जाए। बाप रे बाप यमराज अच्छा हुआ आप आ गए। बड़ी मुश्किल से 80 साल तक आपके लिए अपने को बचा के रखा है। जान में जान आई मौत को देख के। ऐसे ही तो हम जीते हैं। कितना अपने आप को बचा के रखते हैं। किसके लिए? मौत के लिए।
भारत देश में यह दो बड़ी विडंबनाएं चलती हैं आयरनीज। हम किसी भी तरह का जीवन में कोई खतरा नहीं उठाते। बहुत कम नई दिशाओं का अन्वेषण करते हैं। खोज खेल इन सबसे जरा कतरा कर चलते हैं। पूरा बिल्कुल पाक साफ रहते हैं एकदम कुछ हुआ नहीं है। हमने कुछ भी नहीं किया। किसके लिए अपने आप को बचाया? मौत के लिए। जिंदगी से अपने आप को पूरा बचाया मौत के लिए। और इसी की झलक हमको हमारे पारिवारिक जीवन में भी देखने को मिलती है।
बाप लोग बेटियों से कहते हैं सब अनजान पुरुषों से अपने आप को बचा के रखना। किसके लिए? एक अनजान पुरुष के लिए।
देखो मैं बिल्कुल अनछुई कली कुंवारी हूं किसके लिए? जिनसे अपने आप को बचाती आ रही थी वो तुम्हारे लिए जितने अनजान थे ये जो अब आया है कली को फूल बनाने, ये भी बस उतना ही अनजान है। ऐसे ही तो जिंदगी है हमारी?
ना जाने क्या हो जाएगा। ना जाने क्या हो जाएगा। श्री कृष्ण कह रहे हैं कुछ नहीं हो जाएगा। ‘गो प्ले।‘ तुम वो हो जिसे कुछ हो नहीं सकता और यह तुम्हें तभी पता चलेगा जब तुम कुछ होने तो दो। बहुत चोट लगेगी बड़ा दर्द होगा। कहोगे आज ये मिल जाए असुराचार्य, इसी ने भेजा था कि जाओ यह होगा वो होगा दीवारों में सर दे दो, हां? बड़ा दर्द हो रहा है अब तो कहां फंसा दिया पर थोड़ी देर बाद धीरे-धीरे पता चलना शुरू होगा सारे दर्द के बीच भी कुछ ऐसा है जिसे दर्द नहीं हो रहा वह आप हो। जिसे दर्द हो रहा है वह है तन और मन। जिसे दर्द नहीं हो रहा वह आप हो। अपना पता तब तक नहीं चलेगा जब तक दर्द को न्योता नहीं दोगे। क्योंकि अगर दर्द आया ही नहीं तो आपको कैसे पता चलेगा कि आपको दर्द नहीं हुआ? हुआ भी पर नहीं भी हुआ। जिस हद तक आप प्रकृति हो दर्द हुआ। पर आप मात्र प्रकृति नहीं हो। एक दूसरी चिड़िया भी है जो सब दर्द की दृष्टा है। अनुभोक्ता नहीं। वो दर्द को देख पाती है उसे दर्द होता नहीं।
यह बात एकदम शाब्दिक रह जाएगी कागजी रह जाएगी अगर अनुभव में नहीं उतरेंगे। इसलिए मैंने कहा कि पता नहीं संयोग है या क्या है कि आज एकदम चुन करके कृष्ण आपके लिए सूत्र लाए हैं। और नया साल अब या तो आ गया होगा या आने वाला होगा। कृष्ण आपसे कह रहे हैं देखो ना मुझको। मुझे तो जब पाबंदी भी थी कि शस्त्र नहीं उठाऊंगा। मैंने तो तब भी कहा इतना मस्त खेल चल रहा है। सब भांति भांति के खिलौनों से खेल रहे हैं, वो देखो कितनी क्यूट गधा है। वो भाला लेकर घूम रहा है उधर। सब बच्चे अपने-अपने तरीके से खेल रहे हैं। मैं ही काहे को चूक जाऊं। तो मैंने यही तो कहा कहा था कि शस्त्र नहीं उठाऊंगा पहिया तो उठा सकता हूं। वो पहिए ही उठा के खेलने निकल पड़े।
आपकी संस्था कृष्ण की उसी छवि को पारिभाषिक मानती है। पारिभाषिक समझते हैं? डेफिनेटिव या डेफिनेशनल। हमारे कृष्ण वही हैं। वह सब नहीं है - मालाधारी। लहूलुहान है रक्त चू रहा है अर्जुन की ओर जो बाण आते थे वह कृष्ण को भी लगते होंगे। केश उड़ रहे हैं हवा में, चेहरे पर धूल है, थकान है, क्रोध भी है पूरी काया संघर्ष के आवेग से कांप रही है। गतिमान कृष्ण। और इतनी गति वो इसीलिए कर सकते हैं क्योंकि भीतर गीता है। गीता माने अचलता भीतरता जब अचलता है तो बाहर आदमी फिर धुनी रमा के नहीं बैठा नजर आता। यही मैं आपसे चाहता हूं। 2025 आपके लिए जबरदस्त गति का वर्ष रहे। दौड़ा दीजिए अपनी गाड़ी को। और जो टूटता हो टूट जाए वो टूटने लायक ही है। भरोसा रखिए कुछ ऐसा है जो कभी नहीं टूटे।
गाड़ी बचाने के डर से गाड़ी आपने गैराज में खड़ी कर रखी है। कभी उसको 10-20 की स्पीड पर चलाते हैं कभी धीरे-धीरे धक्का देकर ठेलते हैं। ठेला चलाने को थोड़ी पैदा हुए हो। दौड़ा दो टूटफूट होगी, कोई दिक्कत नहीं। यह पहले से पता है टूटफूट होगी। कृष्ण कह रहे हैं कुछ है जो एकदम नहीं टूटेगा। चिंता मत करो। जो नहीं टूटेगा तत त्वम् असि वह तुम हो। तो जो टूट गया फिर उसकी फिक्र क्या वो तो हम है ही नहीं। आ रही है बात?
लजाए लजाए घबराए घबराए बंधे बंधे नहीं 2025। सामने आना है खुलकर खेलना है। क्या सूत्र है? खुलकर खेलेंगे। और यह उम्मीद नहीं है बिल्कुल। ऐसी कोई धारणा, कोई कामना नहीं है कि खुलकर खेलेंगे तो बड़ी खुशियां या बड़ी उपाधियां या बहुत जीत हासिल हो जाएगी। हम पहले ही तैयार हैं कि खुलेंगे खेलेंगे तो आज तक जो कमजोरियां बचा रखी थी वो टूटेंगी तो टूटफूट तो होगी। कोई वजह ही थी कि अभी तक खुल के नहीं खेलते थे। खुलकर नहीं खेलते थे क्योंकि पता है कि हमने जो पूरा अपना ढांचा तैयार कर रखा है। खुले नहीं, खेले नहीं, गति करी नहीं कि वो क्यों चर्र करने लगेगा और फिर थोड़ी देर में बिखरने लगेगा। हमें पता है ये। तो जब बिखरेगा तो रोएंगे नहीं। जब बिखरेगा तो शिकायत नहीं करेंगे। जब बिखरेगा तो नहीं कहेंगे कि कुछ अनपेक्षित हो गया है। हमें पहले ही पता है हम खुलकर खेलेंगे तो अंजर पंजर इधर-उधर बिखरेगा। पर अब हमें एक बात और पता है। पहले बस इतना ही पता था कि खेलेंगे तो बिखरेंगे। अब एक बात और पता है। क्या पता है? कुछ है जो बिखर सकता नहीं। सब जब बिखर रहा होगा तब भी हमें पता होगा यह बिखर रहा ठीक है। अगर मुझे पता है यह बिखर रहा है तो इसका मतलब मैं नहीं बिखरा ना।
और यह जानने भर से ऐसा नहीं कि दर्द कम हो जाता है दर्द तो होगा बड़ी जोर का होगा। हाय हाय हाय। दर्द भी होगा। भाग्य को भी कोसेंगे, कौन सा मनहूस पल था। लेकिन उसके बाद भी खेलेंगे एकदम खेलेंगे। बहुत साधारण सी किसी की उक्ति है और वो आम तौर पर लोगों को थोड़ा हौसला देने के लिए इस्तेमाल की जाती है। पर अगर समझे तो उसके अर्थ बहुत गहरे भी जाते हैं। हिंदी में अनुवाद करे देता हूं। वो यह है कि एक जहाज सबसे ज्यादा सुरक्षित बंदरगाह पर होता है। पर जहाज बंदरगाह के लिए तो नहीं होता है। हार्बर - एक जहाज पानी का जहाज सबसे ज्यादा सुरक्षित कहां होता है? बंदरगाह पर। सेफली एंकरर्ड, कुछ नहीं हो सकता। पर जहाज वहां खड़े होने के..? तो क्या कर करना है? खोल दो कश्ती बहने दो लगेंगे थपड़े होगी टूटफूट पहले ही पता है। इतनी कमजोरियां इतने सालों तक इकट्ठा करी हैं। तो जैसे ही आप थोड़ा बाहर आओगे एक्सपोज करोगे तो उन कमजोरियों पर चोट तो पड़ेगी। पहले से ही पता है। हम कह रहे हैं हम तैयार हैं। हमें पता है हम कभी पूरी तरह तैयार नहीं हो सकते। क्योंकि जब चोट पड़ेगी तो हाय-हाय तो होगी। कितनी भी तैयारी करके रखो पूरी तैयारी कभी नहीं हो सकती। पर हम जा रहे हैं। समझ में आ रही है?
बंदरगाह से याद आया। गुजराती में आया था ना वो गाना। यहां पर है प्रदीप जी? हां बैठे तो हैं वो कौन सा था गाना मुझे उसका मतलब नहीं समझ में आता था पर उसकी धुन बड़ी मस्त थी।
श्रोता: गोतिलो
आचार्य प्रशांत: हां। सुनाएंगे? दीप्ति जी सुनाएंगी, ले जाओ भाई माइक वहां। उसका मतलब ही शायद यही है, मैं जानता नहीं आपने ही बताया था कि अब... । इससे मिलते जुलते और बहुत सारे फिल्मी भी हैं और साहित्य में भी हैं गीत और अध्यात्म में भी हैं। पहले खुद सुनाइए उसके बाद उसमें सुन लेंगे। गुजराती तो बहुत कम लोगों को आती है। किसको-किसको आती है? कितने लोगों को आती है? अरे आती है समझ? समझ में किस-किस को आती है? ठीक है। एक दर्जन लोग तो हैं। 12 की ऑडियंस है आपकी। प्रदीप जी सुनाइए। 12 बोलते ही इन्होंने दिखा दिया कि 12:00 बज गए ये देखिए।
श्रोता: गोतिलो, गोतिलो, गोतिलो।
आचार्य प्रशांत: तो ये आपके नव वर्ष की गीता है। आपके नए साल का आगाज इन महावाक्यों से हो रहा है। ठीक 12 अभी-अभी बजा है। देखो ये भी अच्छा संयोग है। नया साल पहले ही शब्द आपके लिए क्या लेकर आया है। अर्थ क्या है इनका प्रदीप जी?
श्रोता: ढूंढ लो ढूंढ लो।
आचार्य प्रशांत: हंस ही लीजिए आप दोनों लोग। जहाज को बंदरगाह से आगे समुद्र में छोड़ दो, कुछ ऐसा है ना इसका कि नहीं है? तो बस यही है आपके लिए भी। जिस तरीके से आप मुझे देख रहे हैं मतलब मैं समझ रहा हूं। गाना सुनना है। लाओ गाना सुना दें फिर। समझेंगे आप क्या गुजराती तो आती नहीं?
(गाना बजता है)
गोथि लो गोमा खाली जा प्रवासी गोती लो गो गोती लो गोती लो गोती लो गोती लो गोती लो
आचार्य प्रशांत: ये सब ऐसे सुनने में लगता है बड़ी हौसला अफजाई होती है। जिंदगी में जब निकल कर के अपनी कमजोरियों का सामना करा जाता है तो वहां पर ऐसे बीट्स नहीं होती हैं। वहां पर वहां बीट होती है और वहां इतने सारे लोग एक साथ नहीं होते हैं जो एक ही तरह सोच रहे हो, जिनके साथ थोड़े सहायता का बंधुत्व का अनुभव हो। ये सब लड़ाईयां अक्सर अकेले लड़ी जाती हैं और उस वक्त बहुत यह लगेगा कि क्यों कहते फालतू का पंगा? बेकार कर राड़ा लगेगा। बड़े अच्छे से याद रखिएगा साल भर भी आगे भी कि कमजोरियों को प्रकट करके कमजोरियों का सामना करके चोट खा ली, वह दर्द कहीं बेहतर है उस जिंदगी से जिसमें आप कमजोरियों को दबाए छुपाए छाती से लगाए सुरक्षित रखते हो।
जो अपनी कमजोरियों को बचा रहा है वो बड़ा फेथलेस आदमी है ना? अश्रद्धा वही है। मगर कमजोरी प्रकट तभी करी जा सकती है जब आत्मा हो, अगर गति तभी पाई जा सकती है जब अगति हो तो कमजोरी को जो फिर ढक रहा है छुपा रहा है वो क्या मान रहा है? वो मान रहा है कि आत्मा नहीं है वो मान रहा है कि यह सब जो टूटने लायक बिखरने लायक असुरक्षित वलनेरेबल चीजें हैं कुल मिलाकर के यही मेरी हस्ती है और अगर यह टूट गई बिखर गई तो इसके अलावा मैं कुछ भी नहीं हूं। तो यह अश्रद्धा है। यह अनात्मा है। यह आत्मा के प्रति द्रोह है। कितनी श्रद्धा है आप में सत्य के प्रति आत्मा के लिए वो इसी से पता चलता है कि कितना तैयार हैं आप बाकी सब कुछ दांव पर लगाने के लिए।
जिसको पता होता है कि उसके पास एक करोड़ है वह ₹10-20 दांव पर लगाने से घबराता है क्या? लगाता है घबराता है? और जो अपना ₹10 का माल मामला दांव पर लगाने से घबरा रहा हो इससे उसके बारे में क्या पता चलता है? उसे बिल्कुल भरोसा नहीं है अपने करोड़ का। समझ में आ रही है बात ये। और अच्छे से समझिए कि टूटफूट कोई दुर्भाग्य नहीं है।
टूटफूट ही वो जरिया है जो आपको बताएगा कि आपके पास कुछ ऐसा भी है जो टूट नहीं सकता। जब सब बिखरा पड़ा होगा उसके बीच ही अचानक आपको पता चलेगा, अरे एक ऐसी चीज है जो नहीं बिखरी बड़ा मजा आएगा। उसके बाद यही लगेगा कि इसको और बार-बार पटको और जितना बार-बार पटको और जितना यह नहीं टूटता उतना इसमें विश्वास और गहरा होता जाता है और आदमी और खुलकर खेलता है। यह सबके पास है। यह सबके पास है। हमें इसका पता इसीलिए नहीं है क्योंकि हमने इसको कभी आजमाया ही नहीं। अगर मैं इसे पटकू नहीं सिर्फ यहां पड़ा रहने दूं बल्कि पड़ा भी नहीं रहने दूं। इसको ऐसे..(टेबल पर रखे गिलास के माध्यम से समझाते हुए) तो मुझे जीवन भर क्या लगता रह जाएगा? यह कमजोर है। यह आप हैं। आप कितने मजबूत हैं? आजमाएंगे तो ही पता चलेगा। नहीं आजमाओगे तो जैसे कृष्ण यहां पर कह रहे हैं कि अज्ञान से जीव ढका रहता है यही भ्रम है। यही मोह है। आप भी उसी अज्ञान से ढके रहो अज्ञान यही है कि मैं तो कमजोर हूं। उस कमजोरी को चुनौती दो तो पता चलता है कि कमजोरी है, ऐसा नहीं कि कमजोरी नहीं है। ऐसा नहीं कि दर्द नहीं है। कमजोरी है पर सिर्फ कमजोरी... उस कमजोरी के अलावा भी कुछ है। दर्द है, पराजय है पर दर्द और पराजय के अलावा भी कुछ है। वह जो अलावा कुछ है वह कौन है? वह आप हैं। ठीक है।