प्रश्नकर्ता: अपने आध्यात्मिक जीवन में नित्यता कैसे लाएँ?
आचार्य प्रशांत: नित्यता तो कसौटी है। नित्यता कसौटी है जिस पर तुम अनित्य को वर्जित करते हो, अनित्य को गंभीरता से लेने से इन्कार करते हो। जब भी कुछ लगे कि मन पर हावी हो रहा है, तो कसौटी का प्रयोग करना होता है, पूछना होता है, “क्या यह नित्य है? और अगर नित्य नहीं है, तो फिर मैं क्यों उलझ रहा हूँ?” जिस समय कोई चीज़ बहुत महत्वपूर्ण लग रही हो, उस समय तुम यह सवाल पूछ लो, “क्या यह चीज़ नित्य है?” जो उत्तर आएगा, वह तुम्हारी गंभीरता को कम कर देगा, तुम्हें गंभीरता से, महत्व से मुक्ति दिला देगा, यह पहली बात।
दूसरी बात, तुम कह रहे हो कि अध्यात्म भी अन्य शिक्षा की शाखाओं जैसा लगने लगा है, धर्मग्रंथ भी अन्य किताबों जैसे लगने लगे हैं। तो उसके लिए तो जो पढ़ रहे हो, किताबों में जो शब्द हैं, उनका स्वाद भी लेना पड़ेगा न। किताब ने लिख दिया 'मुक्ति', मन को झलक भी तो मिले मुक्ति की। शंकराचार्य बता गए 'मुमुक्षा', तुम्हें दिखे भी तो कोई जो मुमुक्षा से भरा हुआ है। उसके लिए तुम्हें संगति चाहिए, उसके लिए तुम्हें संत समाज की, संघ की संगति करनी पड़ेगी।
दूर-दूर बैठोगे तो काम नहीं बनेगा। दूर-दूर बैठोगे तो ये सब शब्द, क़िस्से-कहानियाँ, अफ़साने ही बने रहेंगे। उपरति, तितिक्षा, कैसे-कैसे अलंकृत शब्द हैं! वाह वाह वाह! उपरति। ठीक, उप-रति। ठीक, उपरति हो गई। कभी ऐसे माहौल में भी तो रहो जहाँ उपरति दिखाई दे, जहाँ तितिक्षा दिखाई दे, जहाँ एक बेख़ुदी दिखाई दे, बेपरवाही दिखाई दे। झलक मिलेगी, तब यक़ीन आएगा न कि जिसकी झलक मिल रही है, वह है। होगा, तभी तो थोड़ी-सी झलक दिखाई है। बिलकुल ही नहीं होता, तो झलक भी कहाँ से आती?
एक दफ़े हुआ था ऐसा। एक सज्जन इतने भूखे थे, वे मेन्यू कार्ड ही चबा गए। ना स्वाद था, ना पोषण, शब्द भर थे। तुमको दिया काहे को गया था मेन्यू कार्ड ? कि जो लिखा है, उसे हासिल करो, बाक़ायदा उसकी माँग करो और क़ीमत अदा करो। पर तुम्हारी भूख इतनी थी और बेसब्री इतनी, और बोध इतना कम कि तुमने मेन्यू कार्ड ही चबा डाला। बोले, “सब कुछ तो इसी पर है। एक-आध चीज़ क्या मँगवाएँ? यहाँ तो सब कुछ ही उपलब्ध है। तो जितने शब्द हैं, सब खा जाओ।” कुछ हुआ नहीं, दर्द और हो रहा है। प्लास्टिक फँस जाएगा, और कुछ नहीं होगा।