स्वधर्म का पालन करते हुए आजीविका कैसे चलाएँ? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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स्वधर्म का पालन करते हुए आजीविका कैसे चलाएँ? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, स्वधर्म क्या है? क्या स्वधर्म का पालन करते हुए आजीविका चलायी जा सकती है?

आचार्य प्रशांत: स्वधर्म का कोई सम्बन्ध आपके रोटी-पानी के जुगाड़ से नहीं है‌, कि ये ऑक्युपेशन (व्यवसाय) कि वो ऑक्युपेशन। आप जिसको वर्क (काम) बोलते हैं, वो और क्या होता है? आजीविका का स्रोत, रोटी-पानी। तो आपको क्या लग रहा है, कि जब कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि स्वधर्म इतनी ऊँची बात है कि उसमें मर जाना भी श्रेयस्कर है, तो वो रोटी-पानी की बात कर रहे हैं अर्जुन से? तो ये ऑक्युपेशन कहाँ से बीच में आ गया?

पर चूँकि हम इतने ज़्यादा देहाभिमानी लोग हैं, हम इतने ज़्यादा देहासक्त लोग हैं, कि हम दिनभर काम करते ही रोटी-पानी के लिए हैं, तो इसीलिए जब ‘स्वधर्म’ शब्द भी हमारे सामने आता है तो हमको लगता है कि उसका सम्बन्ध रोटी-पानी से ही होगा।

मन बेड़ियों में है, उधर को बढ़ना जिधर वो बेड़ियाँ टूटती हों, गलती हों - ये स्वधर्म है। स्वधर्म का कोई सम्बन्ध न आपकी दुकान से है, न दफ़्तर से है, न आपकी जाति से है, न व्यापार से है।

इस तरह की व्याख्याएँ भी बहुत चल रही हैं, कि अपनी जाति इत्यादि को देखो, अपनी उम्र को देखो, उससे पता चल जाएगा कि तुम्हारा स्वधर्म क्या है, और बड़ी मूढ़ता की व्याख्याएँ हैं ये सब। वो कहते हैं कि अर्जुन क्षत्रिय था न, तो इसलिए अर्जुन का स्वधर्म था लड़ना; पागल हैं!

कृष्ण क्या अर्जुन को लड़ने के लिए इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वो क्षत्रिय है? कृष्ण क्या अर्जुन को लड़ने के लिए इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वो राजा है? कृष्ण अर्जुन को लड़ने के लिए इसलिए कह रहे हैं क्योंकि कौरवों के ख़िलाफ़, दुर्योधन के ख़िलाफ़ लड़ना ज़रूरी है धर्म की संस्थापना के लिए। बात न क्षत्रिय होने की है, बात न राजा होने की है, बात न जाति की है, बात न पेशे की है, बात ‘धर्म’ की है।

धर्म किसके लिए होता है सबसे पहले समझो। धर्म उसके लिए होता है जो धारणाओं में जीता है, धर्म अन्तिम धारणा है। वास्तव में ‘धर्म’ और ‘धारणा’ शब्द भी दोनों एक ही मूल धातु से निकले हैं। धर्म वो अन्तिम धारणा है, धर्म वो अन्तिम कर्म है जो तुम्हारे सारे कर्मफल को काट देता है, तुम्हारी पीछे की सारी धारणाओं को मिटा देता है, वो है धर्म।

तड़पते हुए मन को शान्ति मिले, यही एकमात्र धर्म है, उसका कोई सम्बन्ध तुम्हारे जातिगत या व्यवसायगत कर्तव्य से नहीं है। कोई कहे कि ब्राह्मण का धर्म है शिक्षा देना और वैश्य का धर्म है व्यापार करना, तो पागल है, फिर वो धर्म को समझ ही नहीं रहा। धर्म सबका एक है - मुक्ति। मुक्ति की ओर बढ़ना ही परम और एकमात्र धर्म है।

तो प्रश्न उठता है कि फिर स्वधर्म क्या हुआ। धर्म एक है, पर दुनिया में जितने लोग हैं, सबकी स्थितियाँ अलग-अलग हैं। कोई कहीं फँसा हुआ है, कोई कहीं फँसा हुआ है, कोई इस गड्ढे में गिरा हुआ है, कोई उस पेड़ पर टँगा हुआ है। तो मुक्ति का शिखर एक ही है, जहाँ सबको पहुँचना है, लेकिन रास्ते सबको अलग-अलग लेने हैं। वो जो सबका अपना रास्ता है, वो उसका स्वधर्म कहलाता है।

(अलग-अलग श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए) यहाँ जितने लोग बैठे हैं, आख़िरी लक्ष्य सबका एक ही है, लेकिन विधियाँ और रास्ते सबको अलग-अलग अपनाने पड़ेंगे; क्योंकि उसकी जो हालत है वो आपकी हालत नहीं है, और इसकी जो हालत है वो इनकी हालत नहीं है।

तो कृष्ण समझा रहे हैं अर्जुन को कि स्वधर्म का पालन करो, अपनी हालत को देखो और फिर देखो कि क्या है जो तुम्हें इस हालत से मुक्त कराएगा, वही स्वधर्म है तुम्हारा। और “स्वधर्मे निधनं श्रेय:” - ‘उस स्वधर्म का पालन करने में अगर तुम्हें अपने शरीर की आहुति भी दे देनी पड़े, तो भली बात!’ क्योंकि जीवन का लक्ष्य शरीर को बचाकर रखना नहीं है, जीवन का लक्ष्य मुक्ति है। मुक्ति के लिए अगर शरीर की बलि देनी पड़े, तो कोई बात नहीं।

ये ऑक्युपेशन और कॉलिंग और ये रोटी-पानी, ये बहुत छोटी बातें हैं। हमें ये बड़ी लगती हैं क्योंकि हमें जीवन में और कुछ मिला ही नहीं, तो हमें यही बहुत बड़ी बात लगती है कि दस घंटे काम करके रुपया कमा लिया। ये बात बड़ी उसी को लग सकती है जिसका जीवन बहुत रूखा-सूखा हो। जिसके पास जीने के लिए और कोई वजह ही नहीं, वो और करेगा क्या? वो कमाएगा और पेट फुलाएगा।

जीने के लिए अगर कोई ऊँचा कारण ही नहीं, कोई ऊँचा लक्ष्य नहीं, तो आप क्या करोगे? आप आठ-दस घंटे यही करोगे। कोई कपड़े बेच रहा है, कोई गहने बेच रहा है, और कुल मिला-जुलाकर पा क्या रहे हो ये कपड़े बेचने से और गहने बेचने से और जूता बेचने से और रोटी बेचने से? पा क्या रहे हो ये सब करके? ये प्रश्न हम कभी पूछते ही नहीं। महीने भर दिन के दस-दस घंटे काम करते हो, उससे मिला क्या? पैसा। करोगे क्या उसका?

और जब मैं पूछूँगा कि करोगे क्या इसका, तो तुम बहुत सारे उत्तर दे लोगे, क्योंकि तुम जो कुछ कर सकते हो तुम पैसे से ही कर सकते हो। वो चीज़ें जो पैसे पर निर्भर ही नहीं करतीं, उनसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध ही नहीं बना कभी, तो ले-देकर के तुम पैसे के ही पीछे भागते हो, ये मजबूरी है तुम्हारी। जो आदमी पैसे के पीछे भाग रहा हो, इसे उसकी होशियारी या क़ाबिलियत मत समझना, ये उसकी बड़ी मजबूरी है। वो और कुछ जानता ही नहीं जीवन में, तो वो एक ही काम जानता है, वही कर रहा है, नहीं तो वक़्त कैसे कटेगा!

कॉलिंग जिसको कह रहे हो, वो क्या होती है? वो काम जो तुम जीवनयापन के लिए नहीं करते, वो काम जो तुम इसलिए करते हो क्योंकि वो काम तुम्हें आज़ाद कर देगा। तो सामान्य प्रोफ़ेशन (पेशा) और कॉलिंग में यही अन्तर है।

सामान्यतः तुम जो कोई काम करते हो वो इसलिए करते हो कि उससे रोटी-पानी चलेगी, घर बन जाएगा, गाड़ी खरीद लेंगे, पैसा जमा कर लेंगे, इत्यादि-इत्यादि। और कॉलिंग उनके लिए होती है जो कहते हैं कि इससे पैसा आ गया तो ठीक है, नहीं तो पैसे का कोई बड़ा भारी उपयोग हमारे पास वैसे भी नहीं है, हम काम कर रहे हैं क्योंकि वो काम स्वधर्म है, मुक्ति दे देगा हमको।

हाँ, जिस हद तक मुक्ति के लिए ही तुम्हें पैसे की आवश्यकता हो, पैसा कमाओ, पर पैसा कमाते वक़्त अपनेआप से ईमानदारी से पूछ लेना - ‘ये पैसा मुझे मुक्ति देगा या और बन्धन देगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये पैसा कमाने के लिए ही मैं और बँधा चला जा रहा हूँ?’ पैसा बहुत बढ़िया चीज़ है अगर उससे तुम्हें मुक्ति मिलती हो। मुक्ति मिलती हो तो और कुछ मत करो, हटाओ ग्रन्थ इत्यादि सब, सब आध्यात्मिक साधना ख़त्म करो, बस पैसा कमाओ, अगर पैसा कमाने से ही मुक्ति मिलती हो।

पर अगर पैसा सिर्फ़ तुम्हारा समय लिये जा रहा है, तो ये तुम्हारे समय की बर्बादी है, क्योंकि अन्ततः तुम भी पैसा कमाने के लिए नहीं जी रहे हो, पैसा कमाने की मशीन थोड़े ही हो तुम! पर अपने जीवन को देखो तो और कुछ नहीं कर रहे, कमाने की मशीन हो। एक आम कर्मचारी अगर अपनेआप से पूछे कि आज के दिन मैंने क्या पाया काम करके, तो बस अपनेआप को यही उत्तर दे पाएगा - ‘पगार’। जेब में पगार, पेट में डकार, यही पाया काम कर-करके, तो फिर तो तुमने दिन ही गँवा दिया।

भाई पैसा अपनेआप में तो कोई वस्तु होता नहीं न, उसका उपयोग ही कर सकते हो। पैसा न खा सकते हो, न पी सकते हो, न पहन सकते हो, न ओढ़ सकते हो, पैसे का उपयोग करते हो न? तो पैसे का उपयोग करके कपड़े ले आते हो, गाड़ी ले आते हो, घर ले आते हो। तो प्रश्न ये है कि तुम्हारे पास पैसे का कोई सार्थक उपयोग है भी या नहीं है, उसका कोई सार्थक उपयोग हो तो खूब कमाओ। सार्थक उपयोग ही जब नहीं, तो पैसा कमाने में अपनी ज़िन्दगी क्यों ख़राब कर रहे हो?

सार्थक उपयोग क्या हैं पैसे के? रोटी के लिए किसी पर आश्रित न होना पड़े, ये पैसे का सार्थक उपयोग है; अपने साधारण खर्चों के लिए हाथ न फैलाना पडे़, ये पैसे का सार्थक उपयोग है; ज्ञान के लिए अगर पैसे की आवश्यकता पड़ती है, यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) की फ़ीस देनी है, तो ये पैसे का सार्थक उपयोग है। जहाँ तक सार्थक उपयोग है पैसे का, कमा लो, पर तुम्हारे पास सार्थक उपयोग बहुत कम हैं। अधिकांश लोगों के पास पैसे के सार्थक उपयोग बहुत कम हैं, उनके लिए पैसा कुछ नहीं है एक लत है; कुछ और है ही नहीं करने को, तो दुकान पर बैठो।

कॉलिंग माने वह काम जिसके केन्द्र में मुक्ति है, और पेशा या व्यवसाय माने वह काम जिसके केन्द्र में पेट है, बहुत बड़ा पेट।

प्र: ‌वो जो एक बात बोली जाती है, कि चार लोग क्या कहेंगे, तो वो चार लोग क्या कहेंगे इस चीज़ का डर अपने दिल से कैसे निकालें? क्योंकि हम लोग शुरू से ही उसी चीज़ में रहते हैं, कि अरे ऐसा कर लिया तो, अरे वो क्या बोलेगा। उस चीज़ से कैसे बचें?

आचार्य: उन चारों लोगों की धमाधम पिटाई करो, इतना मारो कि बोलने लायक़ ही न रहें।

ये चार हैं कौन, नाम बताओ इनके! नहीं, कौन है, कौन, किससे डर रहे हो?

प्र: कोई भी।

आचार्य: नहीं, कोई भी नहीं, सबसे नहीं डरते हम। अब जो ख़ौफ़नाक पहलू है इस पूरी चीज़ का, उसको समझो। हम सबसे नहीं डर रहे हैं, ये चार लोग वाक़ई चार लोग हैं; चार नहीं होंगे तो छः होंगे, छः नहीं होंगे तो आठ-दस, बारह-चौदह होंगे। पर ये कोई खाली, अपरिचित, अनजान चेहरा नहीं हैं, हम इस चेहरे को जानते हैं हम जिससे डर रहे हैं, सबसे नहीं डर रहे हैं हम।

यहाँ मुझसे प्रश्न पूछ रही हैं, सोच रही हैं क्या कि चार लोग क्या कहेंगे? क्यों? क्योंकि वो चार लोग यहाँ मौजूद नहीं हैं। अगर वो चार लोग भी आपके साथ यहाँ आ गये होते, तो फिर आप प्रश्न नहीं पूछतीं। वो चार लोग कौन हैं, उनके नाम लिखिए, और उसके बाद ... (आस्तीन ऊपर चढ़ाते हुए)। यही अध्यात्म है, दे दना-दन।

वो कहते हैं, ‘वो बच्चा है हमारा, बड़ा शर्मीला है। बहुत सकुचाता है, कहीं बोलता नहीं है।‘ खेल के मैदान पर जाकर देखो तो वही बच्चा बिल्लू-पिंकी, चाचा चौधरी खेल रहा है, इधर से उधर दौड़ लगा रहा है, सब कर रहा है। सीधे ये बोलो न, कि तुमने घर में माहौल ऐसा बना रखा है कि बच्चा घर में नहीं बोलता है। ये बताने की जगह कि मैंने घर का माहौल विषाक्त कर रखा है, बच्चा घर में डरा रहता है, दबा रहता है, घर में नहीं बोलता, तुम कहते हो, ‘नहीं, बच्चे में कुछ खोट है, बच्चा बोलता नहीं है।’ बच्चा खूब बोलता है, तुम्हारे सामने नहीं बोलता, क्योंकि तुमने उसे डरा रखा है, उन चार लोगों में एक तुम हो।

आत्मा अभिव्यक्ति पसन्द करती है, अलग-अलग, पचासों, हज़ारों तरीक़ों से वो अपनेआप को अभिव्यक्त करती है, ये पूरा संसार ही उसकी अभिव्यक्ति है। अहंकार, डर, तमाम तरह के दोष अगर आत्मा को ढक नहीं रहे, तो ये हो ही नहीं सकता कि वो अपनेआप को अभिव्यक्त न करे, एक्सप्रेस न करे। उसका काम ही है एक्सप्रेशन, और तो उसके पास कोई काम नहीं, कुछ पाना तो उसे है नहीं। उसे कुछ हासिल तो करना है नहीं, तो फिर उसे क्या करना है? उसे बस अपनेआप को अभिव्यक्त करना है।

और आप पाएँ कि आप अभिव्यक्ति ही नहीं कर पा रहे, डर जाते हैं, बन्द हो जाते हैं, सहम जाते हैं, सिकुड़ जाते हैं, तो इसका मतलब है कि आपके ऊपर कुछ है जो काले कम्बल की तरह पड़ा हुआ है, उसको हटाइए!

अभिव्यक्ति तो सहज है। ये चिड़िया सुन रहे हैं बाहर, ये क्या कर रही है? ये अभिव्यक्त कर रही है अपनेआप को। आकाश में बादल क्या है? अभिव्यक्ति है एक। नदी भी बहती है तो आवाज़ करती है, वो एक अभिव्यक्ति है। ऐसा कैसे है कि इंसान ही डरा-सहमा रहता है? क्योंकि इंसान के इर्द-गिर्द वो चार लोग हैं।

वास्तव में आपने उन चारों से जो सम्बन्ध बना रखा है न, वो उत्तरदायी है। आपने उनसे सम्बन्ध ही बना रखा है लेन-देन का, लाभ-हानि का, इसलिए उनसे डरकर रहती हैं। मैं चाहता हूँ वो सम्बन्ध टूटे, नया सम्बन्ध बने। अभी तक जो सम्बन्ध था वो लाभ-हानि, लेन-देन का था, अब डंडे का बने। ये नया सम्बन्ध हो गया न? अभी तक क्या सम्बन्ध था? ‘जी, जी, जी।‘ (डंडे का इशारा करते हुए) अब नया सम्बन्ध बनेगा।

और डंडा महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण ये है कि पुराना सम्बन्ध तो टूटा न, वो पुराना सम्बन्ध ज़हरीला था। तो पुराना टूट जाए, उसके बाद डंडा भी तोड़ देना, क्या ज़रूरत है किसी को डंडा दिखाने की?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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