सुन्दर लड़की के सामने छवि बनाने की कोशिश

Acharya Prashant

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सुन्दर लड़की के सामने छवि बनाने की कोशिश

प्रश्नकर्ता: एक विचार बरक़रार ही रहता है कि 'क्या लोग सोचते हैं या क्या है छवि?' कभी थोड़ा कम दिखता है पर रहता ही है। फिर ये क्यों है, ऐसा सब के साथ तो नहीं है, जैसे अभी कोई छोटा कुत्ता है, तो उसके लिए तो मैं नहीं सोच रहा कि वो मेरे बारे में क्या सोचता है, या मेरे से कोई कमज़ोर है जिससे मुझे बिलकुल कोई डर ही नहीं है, तो उसके बारे में तो मैं नहीं सोच रहा कि मेरे बारे में क्या सोच रहा है; या जैसे कोई ख़ूबसूरत लड़की हो, उसके बारे में तो ज़रूर सोचूँगा पर मेरी नज़र में जो बदसूरत है, मेरे को जिससे कोई लेना-देना नहीं है, जिससे सेक्सुअल अट्रैक्शन (यौन आकर्षण) नहीं है जैसे, तो वहाँ पर वो चीज़ नहीं रहेगी। तो मतलब ये है और डर है और कुछ सामने वाले को इस्तेमाल करने का विचार है। समझ नहीं आ रहा है सर कि क्या है ये?

आचार्य प्रशांत: समझ तो गए ही हो, समझ तो गए ही हो! जो तुमने बात बोली वो सब समझदारी की है, कि जिसके साथ स्वार्थ जुड़ा होता है उसी की कद्र करते हो और उसी से डरते हो।

प्र: पर फिर भी वो है ही!

आचार्य: क्योंकि स्वार्थ है और स्वार्थ है तो डर है। इतना समझ लिया कि स्वार्थ बराबर डर? अब आगे बढ़ो, अब पूछो कि उस स्वार्थ से मुझे हाँसिल क्या हो रहा है? डर तो हाँसिल हो रहा है, ये तो स्पष्ट है, नुकसान स्पष्ट है, "लाभ कौन सा है जिसकी मुझे आशा है?" ये भी पूछो। क्या वो लाभ इतना बड़ा है कि उसकी ख़ातिर डर बर्दाश्त किया जाए? अगर है इतना बड़ा, तो डर बर्दाश्त करो, बेशक़! नहीं है, तो काहे का डर!

प्र: हाँ, ज़्यादा-से-ज़्यादा क्या होगा! मतलब, फिज़िकल पेन (शारीरिक दर्द) ही होगा।

आचार्य: उतना भी नहीं होता है। देखो, ऐसा नहीं है कि हम सब ये समीकरण जानते नहीं है, पता तो हमें है ही। किसी की कद्र तुम कर रहे हो स्वार्थ की ख़ातिर, ठीक? इसको कहते हैं भाव देना, देते हैं न? किसी स्वार्थ की ख़ातिर किसी की कद्र कर रहे हो, तुम उसे भाव दिए जा रहे हो, भाव दिए जा रहे हो, और वो और ऐंठता जा रहा है, ऐंठता जा रहा है, एक बिंदु तो आता है जब तुम कहते हो, "धत तेरे की!" होता है कि नहीं? तुम कहते हो, "जितना सर पर चढ़ा रहे हैं उतना चढ़ रहे हो, जाओ, नहीं चाहिए जो तुम देने वाले थे।" उससे तुम्हें कुछ मिलने वाला था, उसी के लालच में तुम उसे भाव दिए जा रहे थे। तुम उसे भाव दिए जा रहे थे लालच में और वो अपने भाव बढ़ाए जा रहा था, तो एक बिंदु पर आकर तो कहते हो न कि, "नहीं चाहिए, जा"? करते हो न? एक सीमा पर आकर के करते हो, मैं कह रहा हूँ कि वो बिंदु ज़रा पहले आ जाए, मैं कोई नई बात नहीं सिखा रहा हूँ। जानते ही हो कि डर झेलना दुःख की ही बात है, जानते ही हो कि जितना दबते हो उतनी ही तकलीफ़ होती है, और एक बिंदु ऐसा आता है जब तुम स्वयं ही इनकार कर देते हो दबने और डरने से, मैं कह रहा हूँ वो मुक़ाम थोड़ा पहले ही आ जाए, उस सीमा को थोड़ा पहले खींच दो।

मान लो, कोई चार गाली सुनाए, उससे तुम्हारा स्वार्थ बहुत है और वो चार गाली सुनाए तो तुम कहते हो कि "नहीं, अब हमारा ज़मीर जाग गया है, कुछ नहीं चाहिए तुझसे, चला जा यहाँ से", क्योंकि उसने चार गाली सुनाई हैं। तो साधना ये है कि अगली बार जब तीन सुनाए तभी कह देना, "तू जा!" उसके अगली बार दो में ही कह देना कि, "नहीं, जा!" उसके अगली बार एक में और उसके अगली बार उस व्यक्ति और उस जैसे व्यक्तियों के आसपास नज़र ही मत आओ। ले देकर बात इतनी सी है कि झेलना बन्द करो, बहुत झेलते हो। हम बड़े मज़बूत लोग हैं, रोज़ पिटते हैं, रोज़ झेलते हैं; हमारी सहिष्णुता, हमारी सहनशीलता भगवान की माया की तरह अनंत है, अपरंपार! कोई कहता है न कि इस संसार में कुछ भी असीम नहीं है, कैसे नहीं है? हमारा धैर्य देखो, रोज़ पिटते हैं और अगले दिन पिटने के लिए फिर हाज़िर हो जाते हैं, "जी जनाब!" अनंत धैर्य कैसे नहीं है हमारा! है ही है। आख़िरी साँस तक पिटेंगे और पिटते ही रहेंगे। कम धैर्य रखो। बेवकूफ़ी को, उदंडता को, शोषण को 'ना' बोलना सीखो और जल्दी 'ना' बोलना सीखो, बहुत इंतज़ार, बहुत बर्दाश्त मत किया करो। अरे, यहाँ तो धड़कन तेज़ हो गई! अरे, 'ना' ही तो बोलना है।

प्र: उसमें फिर जैसे मैं कुछ 'ना' बोलने लगा या कुछ ऐसा करने लगा, तो फिर वो भी बाद में दिखेगा कि बेवकूफ़ी कर रहा था।

आचार्य: तो फिर कुछ और करना। तुम्हें अभी से ही आगे का भी दिख रहा है, तुम त्रिकालदर्शी हो? देख रहे हो? चालाकियाँ! कि, "मैं अभी तो 'ना' बोल दूँ, फिर आगे मुझे पता चलेगा कि 'ना' ग़लत बोली।" अभी का जो है, वो इन्हें पता चलता नहीं, आगे का इन्हें पहले से पता है! हमारी पीड़ा में भी हमारी दुष्टता छुपी है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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