प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, शत्-शत् नमन। अभी दो वर्ष पूर्व मेरी मुलाक़ात एक मेरे मित्र से हुई, पुरुष मित्र हैं वो मेरे। उनकी ओर आकर्षित हुई, कुछ उनके मन में भी मेरे प्रति भाव थे, और मैं कुछ इस प्रकार आकर्षित हुई कि मैंने आतुरतापूर्वक उनसे एक रिश्ते में आने की कोशिश की। मैं चाहती थी कि हम एक रिश्ते में रहें, प्रस्ताव रखा उनसे। पर उनकी कुछ व्यस्तताएँ या जो भी मजबूरियाँ रही होंगी, उसके चलते उन्होंने मना किया। उन्होंने कहा कि हम अच्छे मित्र रहेंगे। जिस पर मुझे कुछ क्रोध आया, मुझे लगा कि उन्होंने मुझे ठुकराया है या रिजेक्ट किया है। मन में काफ़ी एक खिन्नता सी आ गयी।
परन्तु फिर भी एक लगाव सा हो गया था कुछ दिनों में उनसे, तो उनके साथ रही मैं। कुछ समय बीता पर धीरे-धीरे मन में एक डर आने लगा कि दूर हो जाएँगे। बातें होती थीं, मिलते थे हम। तो अब स्थिति ये है कि उन्होंने मुझसे दूरियाँ बना ली हैं, क्योंकि उनको भी कहीं-न-कहीं ये चीज़ें आहत कर गयीं। और वो चाहते हैं कि दूरी इसलिए रहे ताकि उनके और मेरे मन में भेद न हो। एक सेफ डिस्टेंस (सुरक्षित दूरी) बना रहे कि कल के दिन हम एक-दूसरे के सामने आयें तो दुश्मन की तरह न रहें। तो कृप्या इसी पर मार्गदर्शन दें।
आचार्य प्रशांत: रिश्ते शुरू तो सब प्रकृति से ही होते हैं। जीव का जो पहला सम्बन्ध होता है वह भी पूरी तरह प्राकृतिक ही होता है। माता-पिता की कोशिकाओं के रिश्ते से ही जीव की शुरुआत होती है। फिर जो उसका अगला घनिष्ठ रिश्ता बनता है वो बनता है माँ से, वो भी पूरी तरह शारीरिक ही होता है। वास्तव में वो शरीर के अलावा और कुछ होता ही नहीं।
तो प्रकृति जीव को सम्बन्धित देखना चाहती है। लेकिन उस पूरी सम्बन्धों की व्यवस्था में कहीं भी जीवन के उच्चतर मूल्य निहित नहीं होते। बच्चा माँ के गर्भ में है, सम्बन्धित तो है ही। उस सम्बन्ध के अलावा उसका जीवन ही कुछ और नहीं है। लेकिन वो सम्बन्ध किसलिए है? वो बस शरीर के भरण-पोषण और विकास भर के लिए है। उस सम्बन्ध में कहीं भी, कोई उदात्तता, आनन्द, करुणा, किसी भी तरह की ऊँचाई तो है नहीं। यही शुरुआत जीवनभर क़ायम रहती है। हर जीव, हर व्यक्ति रिश्ता बनाने को आतुर रहेगा ही और रिश्ता बनाएगा ही। लेकिन रिश्ता बनाने का जो आवेग उठेगा, रिश्ता बनाने की जो आन्तरिक प्रेरणा उठेगी, वो सर्वप्रथम प्राकृतिक माने शारीरिक केन्द्र से ही उठेगी, ये तथ्य है।
तथ्यों की न तो पूजा की जाती है न भर्त्सना की जाती है, तथ्यों को बस स्वीकार किया जाता है। तो हम ऐसे ही हैं, इस बात से हम इनकार नहीं कर सकते और इस बात से हम झगड़ भी नहीं सकते। हम ऐसे ही हैं। जैसा हमें बनाया गया है, जैसी हमारी प्राकृतिक संरचना है, उसके कारण, उसके चलते, हम लगातार अपने चारों ओर की दुनिया से लगातार सम्बन्ध बनाते ही रहते हैं।
आपने तो एक विशेष सम्बन्ध की बात करी। उसके अलावा भी हर व्यक्ति लगातार सम्बन्ध बना ही रहा है। सब इन्द्रियों से, मन से, स्मृति से हम रिश्ते स्थापित कर ही रहे हैं। किसी-न-किसी से जुड़ ही रहे हैं, किसी-न-किसी से कुछ लेन-देन, कुछ नाता रख ही रहे हैं। और जब भी किसी से जुड़ते हैं, कोई सम्बन्ध, कोई नाता रखते हैं, उसमें पहली प्रेरणा यही रहती है कि प्रकृति का चक्र चलता रहे।
अब प्रकृति के चक्र के चलते रहने में अपनेआप में कोई बुराई नहीं हो गयी। घास उगती है, ये कोई पाप की बात है क्या? नारियल के पेड़ पर नारियल लगते हैं, इसमें कौनसी बुराई होनी है? जंगल चले जाइए, वहाँ लगातार प्रकृति का ही खेल चल रहा है, समुद्र में लहरें उठ रही हैं, गिर रही हैं, चन्द्रमा की कलाएँ देख लीजिए। पूरा विश्व और क्या है, प्रकृति का ही तो खेल है। तो इसमें कोई बुराई नहीं हो गयी। चुम्बक लोहे को खींच रहा है अपनी ओर, ये कोई निन्दनीय बात है? नहीं, कुछ नहीं। ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र सब अपनी-अपनी कक्षा में चक्कर काट रहे हैं, आप इस बात की निन्दा करना चाहते हैं? नहीं, कुछ नहीं।
शरीर के भीतर एक पूरी प्राकृतिक व्यवस्था चल रही है, रसायनिक प्रक्रियाएँ चल रही हैं, रसों का उत्सर्जन हो रहा है, दिल धड़क रहा है, रक्त धमनियों में दौड़ रहा है। ये सब कोई बुरी या गन्दी बातें हैं? नहीं, कुछ भी नहीं। प्रकृति का खेल अपनेआप में मूल्य निर्पेक्ष है। वो किसी चीज़ को मूल्य नहीं देता। वो मूल्य जानता ही नहीं है, वो बस अपनी तन्त्रता जानता है, वो बस अपनी व्यवस्था जानता है कि मैं ऐसे चलता हूँ, और वो व्यवस्था चलेगी। आप कोई हों, आप घास के तिनके हों, आप गुलाब का फूल हों, आप समुद्र किनारे की रेत हों, आप बुद्धिमान-से-बुद्धिमान मनुष्य हों, कि आप कोई कीट-पतंगा हों, प्रकृति की व्यवस्था तो चलेगी।
तो फिर अध्यात्म किसलिए है, अगर प्रकृति की व्यवस्था चलती ही रहती है और उसमें कोई बुराई भी नहीं है? तो अध्यात्म का क्या करना है भाई? बात ये नहीं है कि अध्यात्म का 'क्या' करना है, बात ये है कि अध्यात्म का 'किसे' करना है। इस पूरी प्राकृतिक व्यवस्था में एक विचित्र जन्तु फँस गया है, जिसका क्या नाम है? इंसान। पूरे ब्रह्माण्ड को देख लीजिए, आपको कुछ ऐसा नहीं मिलेगा जो अपनी हस्ती को लेकर के ही बेचैन, परेशान हो, जो इसी बात से उलझा हुआ हो कि मैं हूँ ही क्यों। कोई नहीं मिलेगा जो ये सवाल पूछता हो, 'मैं कौन हूँ? कहाँ से आया? कहाँ को जाना है? जीवन क्या है? उद्धेश्य क्या है?' कोई नहीं पूछता न। इंसान पूछता है।
तो इंसान की हालत बड़ी विचित्र है। है प्रकृति में, लेकिन प्रकृति की व्यवस्था से वो सन्तुष्ट नहीं हो पाता। बिलकुल ध्यान से समझिएगा, हमारी हालत ये है कि हम प्रकृति में हैं, चूँकि हम प्रकृति में है इसीलिए प्रकृति में जितने ज्वार-भाटे आते हैं, उनका असर हम पर पड़ता है। घास का एक तिनका आकार में बढ़ता है, आदमी का बच्चा आकार में बढ़ता है, बढ़ता है न? सब जानवरों के साथ जीवनभर जो जैविक घटनाएँ घटती हैं, वो इंसानों के साथ भी घटती हैं। तो प्राकृतिक तौर पर हम बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि शेष विश्व। लेकिन अपनी प्रकृतिगत व्यवस्था से हम कभी सन्तुष्ट नहीं हो पाते। अब ये भी तथ्य है, इसकी भी कोई निन्दा इत्यादि नहीं की जा सकती। भई, ऐसे ही हैं हम।
प्रकृति जैसी है वैसी है। और प्रकृति में ये एक विचित्र जन्तु है, इंसान, ये भी जैसा है वैसा है। ये है तो प्राकृतिक, कम-से-कम दिखने में तो प्राकृतिक ही है, बन्दर की ही तरह इसकी भी नाक होती है, हाथ होते हैं, बाल होते हैं, उछल-कूद करता है, खाता है, पीता है, जन्मता है, मरता है। है तो प्राकृतिक लेकिन प्रकृति से सन्तुष्ट नहीं होता। अब मामला फँसता है, अब समझना पड़ेगा कि क्या करें भई! और सिर्फ़ इंसान को समझना पड़ेगा, किसी और को कुछ समझने की ज़रूरत नहीं है। नदी, पहाड़, कीड़े-मकोड़े, जीव-जन्तु, मछली, पक्षी सब अपनी जगह बिलकुल ठीक हैं। कोई किसी यात्रा पर नहीं है, किसी को बदलना नहीं, किसी को कहीं पहुँचना नहीं। पर आदमी अलग है, न्यारा है बिलकुल!
समाज आपको न भी सिखाये कि आपको कुछ बनना है तो भी आपके भीतर एक बेचैनी रहेगी। आपको पता है कि आपको कुछ बनना है, जो अभी आप हो नहीं। बल्कि समाज तो आपको जो बातें सीखा देता है कि ऐसे बन जाओ और वैसे बन जाओ, वो बातें अक्सर व्यर्थ की होती हैं, उल्टी, भारी पड़ती है। कोई कुछ बन जाता है, कोई कुछ बन जाता है, जो बन जाता है वो फँस जाता है बनकर। पर जब समाज नहीं था, जिस रूप में आज है, इंसान जब बिलकुल अकेला भी था तब भी उसके भीतर कुछ कचोटता तो था ही कि कुछ बनना है। मैं वो नहीं हूँ जो मेरी सम्भावना है, जो मेरी नियति है, मुझे कुछ बनना है।
अब प्रकृति की कोई रुचि नहीं कि आप कुछ बनें। प्रकृति की रुचि बस इसमें है कि आप जो हैं वो आप बने रहें। आप क्या हैं प्रकृति की दृष्टि में? शरीर भर हैं। तो आपको वो शरीर की तरह ही सम्बोधित करती है, आपसे वो शरीर की तरह ही काम लेती है। आदमी की आँखें भी वैसी ही चलती हैं जैसे बन्दर की आँखें चलती हैं। मूल वृत्तियाँ आदमी की मस्तिष्क की भी वही हैं जो किसी भी अन्य जीव-जन्तु के मस्तिष्क की हैं — डर, लालच, असुरक्षा, वासना।
अब प्रकृति हमें वैसे ही लेकर चल रही है जैसे कि किसी और को लेकर के चलती है। और हम वैसे हैं नहीं। लेकिन हम कैसे भी हों, प्रकृति तो हमारे साथ व्यवहार वही करेगी जो सबके साथ करती है। आप उसे रोक भी नहीं सकते। आप प्रकृति को जाकर नहीं कह सकते कि मैं बहुत बड़ा ज्ञानी हूँ, मेरे नाखून नहीं बढ़ने चाहिए। ज्ञान और नाखून का क्या सम्बन्ध है? अब मैं ज्ञानी हो गया न, अब मेरे नाखून बढ़ना बन्द कर प्रकृति। प्रकृति कहेगी, 'ज्ञान गया भाड़ में, नाखून तो बढ़ेगा और तू तो मरेगा। कितना भी ज्ञान हो तेरा, शारीरिक मृत्यु से तुझे कोई नहीं बचा सकता।' कि कोई आये और कहे, 'हम तो मुक्त हो गये, हमें मोक्ष मिल गया या हम बहुत बड़े भगत हैं, हमें तो बीमारी नहीं लगनी चाहिए। आत्मा तो निरामय होती है, हमें बीमारी क्यों लग रही है?' प्रकृति कहेगी, ‘आत्मा इत्यादि जो होती होगी सो होती होगी, जहाँ तक शरीर, मस्तिष्क इत्यादि की बात है वो तो पूरी तरह से मेरे कब्ज़े में है। बुद्ध हों, महावीर हों, रामकृष्ण हों, रमण महर्षि हों, बीमारी सबको लगेगी।
ये हमेशा याद रखना होगा। आप कितना पढ़-लिख लें, आप कितने समझदार हो जाएँ, प्रकृति आप पर उसी तरीक़े से अंकुश लगाकर चलेगी जैसे वो किसी और पर लगाकर चलती है। आप प्रकृति को मना नहीं कर सकते। आपकी देह उसके कब्ज़े में है, उसके हवाले है। क्या करे इंसान फिर? इंसान ये कर सकता है कि इंसान के भीतर जो बेचैनी है, वो ये तय कर सकती है कि प्रकृति के निर्देशों का जवाब कैसे देना है।
इंसान की विशिष्टता क्या है? इंसान की ख़ासियत किसमें है, न्यारापन किसमें है? बाक़ी जीवों के पास अस्तित्वगत बेचैनी नहीं है, हमारे पास है। उसी को हम बोलते हैं, आदमी की विशिष्ट चेतना। चेतना के तल पर हम सब जानवरों से अलग हैं, शरीर के तल पर नहीं अलग हैं। तो प्रकृति जब आपसे बात करने आये, प्रकृति जब आपको सम्बोधित करे, प्रकृति जब आपमें भावनाएँ उठाये, विचार उठाये, वृतिययाँ उठाये, तो अब इस चेतना को देखना होगा कि अब क्या करना है। प्रकृति को मना नहीं करा जा सकता, वो करेगी।
आप होंगे बहुत बड़े विद्वान, भूख तो लगेगी, नींद तो आएगी। प्रकृति के जो सब कारिंदे हैं न, रसायन वगैरह जो भीतर बैठे हुए हैं, वो तो अपना काम करेंगे, उनको आप कैसे रोक लोगे। आपके बस में ये है कि आप जो हो, जो आपकी मूल पहचान है, जिसका नाम चेतना है, वो ये देख ले कि करना क्या है उन सब लहरों का, उन गतियों का जो प्रकृति के इशारे पर आपके भीतर उठ रही हैं और गिर रही हैं, क्या करना है उनका।
अन्धेरा हुआ नहीं कि डर लगा। क्यों डर लगा अन्धेरा होते ही? क्योंकि भाई हर जानवर को लगता है। जंगल के अधिकांश जानवर रात होते ही क्या करते हैं? एक सुरक्षित जगह पर जाकर के सुबह तक के लिए छुप जाते हैं। और कुछ जो निशाचर होते हैं, वो रात हुई नहीं कि निकल पड़ते हैं। अब आदमी जब जंगल में था तब तक आदमी रात को छुपने वालों में से था। तो जंगल बहुत पीछे छूट गया है, लेकिन रात अभी भी होती नहीं है कि भीतर के विचार बदलने लगते हैं।
आप कहीं बैठे हों, किसी मुद्दे पर विचार कर रहे हों, आप देखिएगा साँझ को विचार कुछ और रहेगा, और सूरज डूबा नहीं कि विचार दूसरा हो जाएगा। हम कहेंगे हमारा विचार है, वह हमारा विचार इत्यादि तो कम ही है, उस पर प्रकृति का कब्ज़ा है। और हमें ये बात पता भी नहीं चलेगी कि हमारे ख़याल इसलिए बदल गये हैं क्योंकि सूरज ढल गया है। हम पुराने जानवर हैं और पुराना जानवर अन्धेरा होते ही बिलकुल दूसरे तरीक़े से सोचने लगता है। उसके विचार का केन्द्र ही बदल जाता है। ख़ासतौर पर जहाँ वो बैठा है वहाँ अगर रोशनी कम हो तो। आप कोई साहसिक योजना बना रहे हों कहीं बैठकर के, एक ऐसी योजना जिसमें ख़तरा भी है और साहस की बड़ी ज़रूरत है।
आपकी योजना बिलकुल दुरुस्त बन रही होगी, दोपहर तक, शाम तक और आप वहीं बैठे-बैठे लिख रहे हैं, फिर ये करेंगे, फिर ये करेंगे। और लिखते-लिखते आपको पता नही चला सूरज कब ढल गया और आप मगन थे लिखने में तो आपने बत्ती नहीं जलायी। और थोड़े देर में आपने सिर उठाकर के देखा तो अन्धेरा सा है। आप पाएँगे आपकी योजना बदलने लगेगी। आपको लगेगा कि लगता है कि कुछ ज़्यादा ही मैं ऊँची उड़ान का सोच रहा हूँ, कहीं पंख न कट जाएँ। ये जो मैं योजना बना रहा हूँ, कहीं भारी न पड़ जाए, पिट-पिटा न जाए, तो ऐसा करते हैं कि योजना को थोड़ा कतर कर इसका ख़तरा कम कर देते हैं। और इस बात को आप कहेंगे आपने अपना मन बदल दिया है, 'आई चेंज्ड माई माइंड , मेरे विचार बदल गये हैं।' आपके विचार नहीं बदल गये, घड़ी की सुइयाँ बदल गयी हैं।
सुबह उठोगे फिर देखोगे उषा को और गेरूए आसमान को, फिर साहस से भर जाओगे। फिर कहोगे, 'नहीं-नहीं!' तो हमारे भीतर जो कुछ भी हो रहा होता है, ज्ञान की पहली बात ये है कि हम समझें कि वो बहुत हद तक हमारे जंगली अतीत से संचालित है। और जब मैं जंगली कह रहा हूँ तो मैं कोई निंदा इत्यादि नहीं कर रहा, जंगल हमारा पुराना घर है भाई, उसकी कौन निंदा कर सकता है। कोई अपने पैतृक गाँव वगैरह की निंदा करता है? तुम कहते हो, हमारे दादाजी फ़लाने गाँव में कोठी में रहते थे। गाँव की वो कोठी अब ध्वस्त हो रही है, लेकिन उसकी निंदा करते हो क्या? तो वैसे ही जंगल हमारा सबसे पुराना घर है।
तो मैं जंगली कहूँ तो ये कोई अपमानजनक बात नहीं कह दी। अपने भीतर जो कुछ भी उठ रहा हो, उसको जल्दी से ये न कह दें कि ये मेरी भावना है, ये मेरा विचार है, मेरा प्रेम है। नहीं है, वो तो प्रकृति के इशारे पर होने वाली हलचल है। इस बात को आप शास्त्रों से समझ सकते हों तो शास्त्रों से समझ लें, नहीं तो यही बात विज्ञान आपको बता देगा। किसी भी अच्छे विश्वविद्यालय में चले जाएँ, वहाँ पर जानकार प्रोफेसर्स से बात कर लें, जो बात मैं कह रहा हूँ, जो बात जानने वालों ने हमेशा से जानी है, वो उसकी पुष्टि कर देंगे। हाँ, वो जो पुष्टि करेंगे तो वैज्ञानिक प्रमाण के साथ कर देंगे। वो बताएँगे, 'देखिए, इस-इस प्रकार की स्टडी हुई थी, रिसर्च हुई थी और उसमें ये-ये नतीजें निकले हैं और ऐसा-ऐसा होता है। फिर मानना आसान हो जाएगा।
लेकिन हर चीज़ की वो पुष्टि तो कर भी नहीं सकते, क्योंकि हर चीज़ को लेकर के शोध किया नहीं जा सकता। तो शोध इत्यादि का इन्तज़ार न करें, ख़ुद ही हमेशा याद रखा करें कि भीतर जो भी लहर, तरंग उठी वो क्या है, वो प्रकृति का खेल है। और प्रकृति के खेल में अपनेआप में कोई बुराई नहीं, दिक्क़त बस ये है कि हम मनुष्य हैं जिसकी चेतना प्रकृति मात्र से सन्तुष्ट नहीं है, बेचैन है।
समय सीमित है, अगर प्रकृति के खेल को खेलने में लगा दिया तो बेचैनी जैसी थी वैसी ही रह जाएगी, बस ये दिक्क़त है। बात समझ रहे हैं? वो खेल बुरा नहीं है, वो खेल अच्छा भी नहीं है। लेकिन आदमी के लिए उस खेल में एक ख़तरा है, क्या ख़तरा है? वो खेल समय खा जाता है। अन्यथा उस खेल में कोई बुराई नहीं है। सुन्दर बात है भई! पत्ते झड़ते हैं, फूल खिलते हैं, ये प्रकृति का खेल है, कुछ बुरा हो गया? बारिश होती है, कभी सूरज आग के, गोले की तरह तपता है, इसमें बुरा क्या हो गया? अच्छा भी क्या हो गया? शेर हिरण का शिकार करता है, शेर का पेट भर गया, हिरण जान से गया। अब क्या बोलें क्या अच्छा हुआ, क्या बुरा हुआ? ये तो खेल है, चल रहा है।
लेकिन आदमी जब इस खेल में फँसता है तो आदमी के लिए ये खेल नुक़सानदेह है। भूलिएगा नहीं, इस खेल में हमारा समय ख़राब हो जाता है। हमें समय चाहिए, किसी और जानवर को समय नहीं चाहिए। किसी और जानवर को इसीलिए अतीत की और भविष्य की इतनी फ़िक्र भी नहीं होती। हमें समय चाहिए, हमें समय क्यों चाहिए? क्योंकि हम क्या हैं? नाम क्या है हमारा? हम परेशान हैं! बाद में बोलिएगा कि हम इंसान हैं, पहले बोलिए हम परेशान हैं। और जो परेशान हो, अपनी ज़िन्दगी को लेकर के, वो बच्चों का विडियो गेम खेलने लग जाए तो अपने साथ कोई इन्साफ़ या उपकार तो नहीं कर रहा, या कर रहा है?
परेशान हो बहुत चीज़ों को लेकर, ज़िन्दगी के झंझट हैं, ये है, वो है, और लग गये कोई गेम खेलने। वो जो गेम खेल रहे हो तुम, वो थोड़ी देर के लिए नशे की तरह तुम्हें ये भुलवा देगा कि तुम कितने परेशान हो। लेकिन कोई भी नशा हो, दिक्क़त ये है कि उतर जाता है। नशा करने में दिक्क़त ये नहीं है कि चढ़ जाता है, भाई चढ़ गया था तो चढ़ा ही रहता। जब तक चढ़ा था तब तक तो मौज ही लग रही थी, सब उपद्रव भूल गये, गम ग़लत हो गया। सारी चीज़ें भुला गयीं। नशे के साथ दिक्क़त क्या है? उतर जाता है। और जब उतर जाता है तो बड़ा श्मशान, बड़ा बंजर, बड़ा वीरान छोड़ जाता है। और जब छोड़ जाता है वीरान तो आप कहते हो, ’अब दुबारा नशा चाहिए’, ये फिर गन्दी लत लग गयी।
प्रकृति के खेल में जो फँसेगा वो वैसे ही फँस गया जैसे नशे में फँसा जाता है। थोड़ी देर के लिए सुकून मिल जाएगा, उसके बाद फिर चिड़चिड़ाहट, तनाव, बेचैनी, पागलपन, खिसियाहट।
किसी विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित होने भर की बात नहीं है, मुद्दा ज़्यादा व्यापक है। हम कुछ भी कर रहे हों, आमतौर पर नब्बे-पंचानवे प्रतिशत बार हम प्राकृतिक उद्वेगों को अपनी मर्ज़ी का नाम देकर के उन्हें सत्यापित कर देते हैं, प्रमाणित कर देते हैं, जायज़ ठहरा देते हैं और उनके पीछे-पीछे चिपक जाते हैं, लग लेते है। भीतर से कोई भी लहर उठ सकती है भाई, कुछ भी।
आप अभी रात में बहुत ज़बरदस्त तला-भुना खाना खा लें और मिर्च वगैरह खाने की आपकी आदत न हो, ठूँस-ठूँसकर आपको मिर्च खिला दी जाए, उसके बाद बिलकुल हो सकता है कि एक आदमी जो आपको आमतौर पर ज़रा पसन्द नहीं आता था, अब नागवार हो जाए। पहले तो वो सिर्फ़ नापसन्द था, अब क्या हो जाए? नागवार हो जाए। नागवार समझते हो न? बर्दाश्त ही नहीं हो रहा। पहले तो वो बगल में बैठता था तो बस मुँह ऐसे कर लेते थे कि इसको कौन देखे, कौन इससे बात करे, और अभी-अभी बिलकुल पेट भी जल रहा है, मुँह भी जल रहा है, ऊपर से लेकर नीचे तक हर दिशा में आँत जल रही है, अब वो आकर के बगल में बैठेगा तो भीतर से विचार उठ सकता है कि अब इसको थप्पड़ क्यों न मार दूँ।
और आपको लगेगा कि ये विचार आपका है, ये विचार आपका नहीं है, ये मिर्च का काम है। ये काम मिर्च का है। अब जैसे ही कहा जाता है कि काम मिर्च का है तो बड़ा बेइज्जती-सी लगती है। कहे, 'मिर्च नचा रही है हमें?' हाँ, ऐसा ही है। केला खा लिया, व्यवहार बदल जाएगा, विचार बदल जाएगा। सेब खा लिया, कुछ और हो जाएगा। ऐसा नहीं कि बिलकुल उल्टे हो जाएँगे, कि पूरब जा रहे थे, केला खाया तो पश्चिम चलने लगेंगे। ज़रा सूक्ष्म तरीक़े से परिवर्तन आता है और समय के साथ वो जो सूक्ष्म परिवर्तन है, वो जो ज़रा-ज़रा से अन्तर हैं, वो जुड़-जुड़कर बड़े हो जाते हैं, स्थूल हो जाते हैं, बहुत ज़्यादा प्रभावी हो जाते हैं।
ऐसे ही थोड़े ही होता है कि कवि कविता लिखने के लिए महीने के कुछ ख़ास दिनों की प्रतीक्षा करते हैं कई बार। कई बार कहते हैं कि हम पहाड़ पर चढ़ेंगे तो होगा। कोई कहता है, 'नहीं, वो पूर्णिमा आएगी तब कविता आएगी।' ये क्या बात है? ये यही बात है। समझो कि मामला बहुत हद तक प्रकृति से प्रभावित हो रहा है। ये हुआ नहीं कि समझ लो अपने नब्बे प्रतिशत दुखों से तो छुट्टी मिल गयी। क्योंकि नब्बे प्रतिशत हमारे दुख बिलकुल बेवजह होते हैं। होते तो शत प्रतिशत हैं, पर ये जो नब्बे प्रतिशत वाले हैं इनको तो एक झटके में ख़ारिज किया जा सकता है, ये बिलकुल ही बेकार के हैं।
ये ऐसा है कि जैसे आप बैठे हैं और आपके बगल में कोई है, और उसको आपने आज बढ़िया मूली-चना ये सब खिला दिया है, आप ही ने खिला दिया है, होशियारी हमारी! और फिर वो आपके बगल में बैठकर के डकार मार दे ज़ोर से और आप रो पड़ें कि इतना बड़ा अपमान हो गया हमारा, इसने हमारे बगल में बैठकर डकार मारी और बिलकुल हमारे मुँह पर मार दी! और उसके बाद आप दौड़ रहे हैं इधर-उधर कि ऍफ़आईआर कर दूँगा या इसको गोली मार दूँगा। दुख झेल रहे हैं न?
अभी जिस तरीक़े से मैंने बताया, आप कहेंगे कि हम इतने बुद्धू थोड़े ही हैं कि कोई डकार मारे तो हम ऍफ़आईआर कर दें। पर ज़्यादातर ऍफ़आईआर ऐसे ही होते हैं। हमें पता भी नहीं चलता कि दूसरा व्यक्ति जो कर रहा है वो डकार सदृश ही है, वो किसी प्राकृतिक लहर में बहता हुआ कर गया जो कर रहा था, उसे होश ही नहीं है, आधे नशे में है। प्रकृति पहला नशा है। जीव का पहला नशा प्रकृति है, वो कर गया, अब काहे इतना ख़फ़ा होते हो? लेकिन वो जो कर गया, वही आप भी कर रहे हैं। न वो समझा कि ये खेल प्रकृति का है, न आप समझे कि आपके भीतर जो क्रोध उठ रहा है वो भी प्रकृति का ही खेल है। समझ में आ रही है बात?
ऊँचा कुछ करने से वंचित रह जाएँगे। और बहुत ताक़त है प्रकृति की व्यवस्था में, टूटेगी नहीं। टूटेगी नहीं, कुछ ऐसा भी नहीं होगा कि आप उसमें फँसे रह गये तो आप बिलकुल ज़लालत की ज़िन्दगी जिएँगे, ऐसा कुछ नहीं होने वाला, बस वंचित रह जाएँगे। जैसे कोई रेलवे स्टेशन पर बैठकर के, गुड्डे-गुड़िया का खेल खेलने लग गया और उसके सामने से एक-एक करके ट्रेन निकलती जाए। मनोरंजन तो उसने अपना कुछ कर लिया, सस्ता, लेकिन जहाँ उसे जाना था वहाँ पहुँचने से वंचित रह गया।
कोई बताने नहीं आएगा, बिलकुल कोई बताने नहीं आएगा कि आप ग़लत खेल में फँसे हुए हैं। क्यों कोई बताने नहीं आएगा? क्योंकि अधिकांश लोग आपके ही जैसे हैं, वो भी उन्हीं खेलों में फँसे हुए हैं जिनमें आप फँसे हुए हैं, तो कौन आएगा सावधान करने कि फँसे हुए हो? कोई नहीं आएगा। एकदम कोई नहीं बताएगा कि एक-एक पल करके ज़िन्दगी बीतती जा रही है। और जो नुक़सान हो रहा होगा, चूँकि वो एक झटके में नहीं होता तो इसीलिए कभी भी झटका लगेगा ही नहीं। आपको अचानक कोई आकर के बता दे कि आपका दस लाख का नुक़सान हो गया है तो आप उठकर बैठ जाते हैं, कहते हैं कि बताओ कहाँ है, क्या है, कैसे हुआ, बताओ!
आपके बैंक से दस लाख रुपये बिना आपकी अनुमति के निकाल दिये गए, आपको तुरन्त झटका लग जाता है न? और यही कुछ ऐसा प्रबन्ध किया जाए कि किसी तरीक़े से आपके खाते से दो-पाँच-दस रुपये बीच-बीच में धीरे-धीरे किसी बहाने से निकलते रहे। हर दूसरे दिन, तीसरे दिन, कभी दस रुपया, कभी पन्द्रह रुपया निकल रहा है, कभी इस बहाने से, कभी उस बहाने से। तो आप आपत्ति करने जाएँगे ही नहीं, ख़ासतौर पर तब नहीं जाएँगे आपत्ति करने अगर उसी तरीक़े से वो रुपये सबके खातों से निकल रहे हों, आप कहेंगे, ‘ये तो प्रथा है, ऐसा तो होता ही है।’ और आपको पता ही नहीं चलेगा कि कुछ साल बीतते न बीतते, ब्याज के साथ वो सब राशि दस लाख हो गयी है। इस दस लाख के नुक़सान पर आप कोई आपत्ति नहीं करेंगे, बल्कि ये कहेंगे कि ये तो जीवन की सामान्य व्यवस्था है, ऐसा तो सबके साथ होता है। इसीलिए प्रकृति को जानने वालों ने माया भी कहा है।
प्रकृति को ही माया कहा गया है। वो झटका नहीं मारती, वो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे लगातार आपके जन्म के पहले क्षण से लेकर के मौत के क्षण तक, आपको वंचित रखती जाती है, बस वंचित रखती जाती है, और कुछ नहीं। जिएँगे आप, पूरा जिएँगे। बस कुछ रहेगा जीवन में जो हो सकता था, होने नहीं पाया, क्योंकि निचले तल के खेलों में फँसकर रह गये, एक सम्भावना थी जो अपूर्ण चली गयी।
बात समझ रही हैं?
इसीलिए अध्यात्म प्रति पल का ध्यान है। एक झटके में दस लाख नहीं लिये जा रहे आपसे, कब लिये जा रहे हैं? लगातार, धीरे-धीरे-धीरे। लगातार अगर सतर्क नहीं हो, तो रोक नहीं पाओगे वो जो नुक़सान हो रहा है, पता ही नहीं लगेगा। खुश रहोगे, कहोगे, ’मस्त चल रही है ज़िन्दगी।’
इसीलिए साहब गा गये हैं, "लागा गठरी में चोर, तोरी गठरी में लागा चोर मुसाफिर।" वो ये नहीं कह रहे हैं कि चोर आया है और गठरी चुराकर, या लूटकर, डकैती करके भाग गया है। वो कह रहे हैं, ‘वो जो चोर है न, वो गठरी में लगा हुआ है, वो गठरी में ही जैसे घुसकर बैठ गया है, और धीरे-धीरे प्यार से गठरी साफ़ होती जा रही है।’ हाँ, उस गठरी में हमेशा इतना रहेगा कि आपका काम चलता रहे। तो आपको कभी अचानक चेतावनी नहीं महसूस होगी, अचानक आपको कभी झटका नहीं लगेगा, कोई अचानक असुविधा नहीं लगने वाली। एक दिन पहले गठरी का जो वज़न था, एक दिन बाद गठरी का जो वज़न है आप लेंगे तो उसमें मामूली-सा अन्तर रहेगा। ऐसा लगेगा ही नहीं कि चोर लगा हुआ है गठरी में। वो चोर गठरी में ऐसे ही लगा होता है, वो रोज़ लूटता है, हर घंटे लूटता है। जितनी बार आप शारीरिक तरंगों को अपने विचारों का, अपनी भावनाओं का नाम देती हैं, उतनी बार वो लूटता है।
तो आपने जो मुझे पूरा क़िस्सा बताया, उसका समाधान ये है कि वो क़िस्सा ही बदल दीजिए। वो किस्सा वो था ही नहीं जो आपने बताया। आपने कहा कि आपको आकर्षण हो गया। क़िस्सा बदलिए, आपको आकर्षण नहीं हुआ, आँखों को हो गया, मस्तिष्क को हो गया, स्त्री हैं आप तो जो शरीर की स्त्रैण ग्रन्थियाँ हैं, उनको पुरुष के प्रति आकर्षण हो गया। ये ऐसा ही है। ये लोग क्यों इधर-उधर फुस-फुस डालकर महकते हुए घूमते हैं? क्योंकि उनको पता है, आकर्षण ऐसे ही होता है, आँख से हो गया, नाक से हो गया। क़िस्सा ही बदलिए, वो सब हुआ ही नहीं जो आपको लग रहा है कि हुआ। आप कहेंगे कि प्रेम हो गया। अरे! प्रेम हुआ कहाँ था?
आपने तो अपनी स्थिति का ख़ुद ही निदान कर लिया है, आपने तो अपना चिकित्सक बनकर ख़ुद ही अपनेआप को बता दिया है कि मेरी बीमारी का अमुक नाम है। आपको जो बीमारी लग रही है कि हुई, वो हुई ही नहीं थी, वो प्रेम था ही नहीं। प्रेम और प्रकृति साथ-साथ नहीं चलते भाई! प्रकृतिगत आकर्षण या विकर्षण का प्रेम से कोई लेना-देना नहीं है।
आपको लगेगा कि मुझे धोखा हो गया है या अपमान हो गया है या कुछ और हो गया, ये सब बातें हमारे भीतर जन्म से पहले से भरी हुई हैं। और इन सब बातों का, इन सब भावनाओं का कुल औचित्य एक है — शरीर बना रहे, और शरीर की जो धातु है, कोशिकाओं में जो केन्द्रीय तत्व है, उसे डीएनए बोलना है तो डीएनए बोल लो, या गुणात्मक सामग्री बोलनी है तो वो बोल लो, वो बढ़ती रहे आगे और ज़्यादा प्रसारित होती रहे, फैलती रहे, यही है।
प्रकृति का यही खेल आनन्द की बात हो सकता है, अगर आप उससे उलझें नहीं, उसको समझें। हमने बार-बार कहा, प्रकृति हेय नहीं है, उसकी निंदा वगैरह नहीं करनी है। ये नहीं करना है कि छी-छी-छी गन्दी बात है, शरीर गन्दी चीज़ है, ये सब नहीं करना है। बस उलझना नहीं है। और उलझना क्यों नहीं है? कोई नैतिक कारण नहीं है। मैं वो सब नहीं कह रहा हूँ कि शरीर मल-मूत्र का घर है, इससे उलझो मत इत्यादि, इत्यादि। मैं कह रहा हूँ उलझना इसलिए नहीं है क्योंकि उलझ गये तो क्या नष्ट करेंगे? समय। इसलिए नहीं उलझना है। बाक़ी कोई गन्दगी नहीं है प्रकृति में। प्रकृति कुल है क्या? रसायन ही तो है।
ये कहाँ की बुद्धि है कि कह दो कि कोई रसायन अच्छा होता है, कोई रसायन गन्दा होता है? कोई आये और बोले, 'नहीं, जितने एसिड्स होते हैं वो गन्दे होते हैं, छी-छी, सलफ्यूरिक एसिड , और एल्कलाइन मामला सब बढ़िया होता है, सोडियम हाइड्रोऑक्साइड नमो नमः।' तो ये मूर्खता की बात है न? जब सब रसायन-ही-रसायन हैं, तो उसमें क्या किसी का पक्ष लें, क्या किसी को नीचे करें। बस बात ये है कि ये जो पूरी रासायनिक खेलबाज़ी है उसमें हम नहीं उलझ सकते, हमें कुछ और करना है। जो काम हमें करना है वो काम हम पूरा कर लें और पूरा करते चलें, तो फिर ये प्रकृति का खेल अच्छा है। कि देख रहे हैं, सामने देवी नाच रही हैं। ठीक है, नाचो, हम देख रहे हैं। दृष्टा भर हैं हम, फिर ठीक है।
जैसे बचपन में होता था न कि पहले पढ़ाई पूरी कर लो फिर टीवी देखना, होता था न? और पढ़ाई पूरी कर ली है फिर टीवी गये देखने तो ठीक है, और पढ़ाई छोड़कर टीवी देख रहे हो तो ऐसा नहीं है कि पाप-वाप लग जाएगा, बस वंचित रह जाओगे।