सुन सुन कर भी नहीं समझते? || आचार्य प्रशांत, श्री अष्टावक्र पर (2014)

Acharya Prashant

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सुन सुन कर भी नहीं समझते? || आचार्य प्रशांत, श्री अष्टावक्र पर (2014)

मन्दः श्रुत्वापि तद्वस्तु न जहाति विमूढ़तां|

निर्विकल्पो बहिर्यत्नादन्तर्विष्यलालसः||

~अष्टावक्र गीता (अध्याय-18, श्लोक-76)

अज्ञानी तत्त्व का श्रवण कर के भी अपनी मूढ़ता का त्याग नहीं करता| वह बाह्य रूप से तो निसंकल्प हो जाता है, पर उसके मन में विषयों की इक्षा बनी रहती है|

वक्ता: “मूर्ख उस आत्मा को सुन कर भी मूढ़ता को नहीं छोड़ता है, वह बाह्य पर्यत्न में निर्विकल्प होकर मन में विषयों की लालसा वाला होता है|”

ठीक है, ऐसा ही है| और क्या है ?

बाहर बाहर कुछ नहीं करेगा मन मन दौड़ लगाएगा और क्या करेगा, उसी को मूढ़ कह रहे हैं| मूर्ख उस आत्मा को सुनकर भी मूढ़ता को नहीं छोड़ता है| इससे यह मत समझ लीजिएगा कि किसी-किसी को आत्मा सुनाई देती है, सत्य की पुकार किसी-किसी को सुनाई देती है| वह सबको है और निरंतर है, तो मूर्ख कौन हुआ ?

श्रोतागण : जिसको सुनाई नहीं देती|

वक्ता : जिसको सुनाई नहीं देती|अष्टावक्र ने मूर्ख की परिभाषा दे दी है, अब अपने विषय में आपको कोई संदेह न रह जाए| मूर्ख कौन? जिसको आत्मा की आवाज सुनाई नहीं देती| मूर्ख कौन? जिसको सत्य प्रकट ही दिखाई नहीं देता, बस वही मूर्ख है और कोई नहीं है| पूरे अट्ठारहवें अध्याय में अष्टावक्र बार-बार बताते रहे मूर्ख कौन है, ज्ञानी कौन है, मूर्ख कौन है, ज्ञानी कौन है – परिभाषा भी हम उसी अध्याय से लिये लेते हैं, मूर्ख कौन? जिसको उसकी (सत्य)आवाज सुनाई नहीं देती|

ऐसा नहीं कि आवाज कभी आती है कभी नहीं आती है, आवाज है और निरंतर है| ‘उसके’ अलावा और किसी की आवाज है ही नहीं, उसके अलावा और किसी का दृश्य है ही नहीं| पर जिस को नहीं दिखाई दे, जिसको नहीं सुनाई दे, जो उसको स्पर्श न कर पाए उसी का नाम? मूर्ख है| अरे! फक्र से बोलना चाहिए, अपनी ही बात कर रहे हैं, “अहम् मूर्खास्मि| (हँसते हुए)” बस उस क्षण तक जब तक लगे की कुछ भी और सुनाई दे रहा है|

मूढ़ में और ज्ञानी में यही अंतर है| एक सी तरंगे दोनों के कान में पड़ती हैं| एक कहता है, “यह तो चिड़िया की आवाज है”, दूसरा कहता है, “नहीं परमात्मा बोला”| एक ही दृश्य दोनों को दिखाई देता है एक कहता है, “यह देखो, यह संसार की माया है”, दूसरा कहता है, “माया सो है ठीक, पर हमें कुछ और भी दिख रहा है”|उसी ने देखा जिसको कुछ और भी दिख रहा है| जिसको आप माया कह रहे हैं उसको तो एक कैमरा भी देख लेगा, जिसको आप कह रहे हैं कि आप मेरे शब्द सुन रहे हो उसको तो यह वॉइस रिकॉर्डर भी सुन रहा है|

सुना आपने तभी जब आपने उसको सुना जिसे यह वॉइस रिकॉर्डर नहीं सुन सकता, देखा आपने तब जब आपने उसको देखा जिसे कोई कैमरा नहीं देख सकता, यही अंतर है संसारी में और संन्यासी में| ऐसा नहीं की संन्यासी को शब्द नहीं सुनाई देते हैं, वह सुनता है, पर वो वैसे नहीं सुनता है जैसे यह रिकॉर्डर सुन रहा है|

संसारी वो जो रिकॉर्डर है, संसारी वह जो कैमरा है|

संन्यासी वह जो दृश्यों के पीछे का दृश्य देख लेता है, जो शब्दों के पीछे का मौन सुन लेता है|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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