सुबुद्धि क्या? कुबुद्धि क्या? || तत्वबोध पर (2019)

Acharya Prashant

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सुबुद्धि क्या? कुबुद्धि क्या? || तत्वबोध पर (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कृपया मन और बुद्धि के सम्बन्ध पर प्रकाश डालने की कृपा करें। क्या बुद्धि मन को सही विकल्प चुनने हेतु दी गई है?

आचार्य प्रशांत: मन है अहम् की गति। अहम् एक तड़प है, वो शांत नहीं बैठ सकती। उसे नाचना है, और उसका ये नृत्य कोई सुंदर कलात्मक नृत्य नहीं है, उसका यह नृत्य विरह का, तड़प का नृत्य होता है।

मन क्या है?

कि जैसे कोई व्यक्ति दस तेज़ रोशनियों के नीचे नाचता हो, तड़पकर इधर-उधर भागता हो, और तुम उसकी छायाओं को देखो। गति तो है उसमें, पर सार्थकता कुछ नहीं। वो हर समय चलनशील तो दिखाई देगा, पर पहुँचता वो कहीं नहीं है। उसको बस एक बात पता है कि वो जहाँ भी है और जैसा भी है, ठीक नहीं है। कहाँ होना है उसे, इसकी उसको कोई सूचना नहीं है। हाँ, एक बात पक्की है, जहाँ है, वहाँ संतुष्ट नहीं है; नतीजा – निरंतर गतिशीलता।

जहाँ भी है, उसे वहीं से हटना है। किधर को हटना है? किधर को भी हटना है। संयोगवश जो कुछ भी प्रतीत हो जाए, जो कुछ भी सामने आ जाए, जो भी राह दिखाई दे जाए, जो भी संयोग या मौक़ा उपलब्ध हो जाए, उधर को ही गति करने लग जाओ। कोई तीर-तुक्का नहीं, कोई आयोजन नहीं, कोई संरचना, कोई योजना नहीं, बस गति करनी है, एक छटपटाती हुई विक्षिप्त गति - ये मन है।

बुद्धि क्या है?

बुद्धि है उस गति को सार्थकता दे देना, प्रयोजन दे देना, उद्देश्य दे देना। बुद्धि है मन की गति को एक सार्थक मंज़िल दे देना। चल तो रहे ही हो, चलो उधर को चलते हैं। अगर रुक सकते तुम, तो अब तक रुक गए होते। अभी भी अगर रुक सकते हो, तो जहाँ हो, वहीं रुक जाओ। पर ऐसे तो तुम हो नहीं कि जहाँ हो, वहीं रुक सको। तुम तो चलोगे, क्योंकि चंचलता तुम्हारा नाम है, क्योंकि चलनशीलता तुम्हारी प्रकृति है। तुम्हें तो निरंतर कम्पन करना-ही-करना है। तो ऐसा करते हैं कि किसी ऐसी दिशा चलते हैं जहाँ अंततः तुम्हारा ये हिलना-डुलना, कम्पन करना शांत हो सके। ये बुद्धि है।

बुद्धि है मन की गति को दिशा दे देना। मन की गति को दिशा देना बुद्धि है, इंद्रियों की गति को दिशा देना बुद्धि है और जीवन की गति को भी दिशा देना बुद्धि ही है। जीवन चल तो रहा ही है, ऊर्जा भी व्यय हो रही है, समय भी व्यय हो रहा है। जैसे तुम मन की गति को नहीं रोक सकते, वैसे ही तुम समय की गति को भी नहीं रोक सकते। चूँकि दोनों ही गतियों को रोका नहीं जा सकता, इसीलिए जानने वालों ने कभी-कभार ये भी कह दिया है कि मन ही समय है, मन की गति ही काल है।

तो जीवन बीत तो रहा ही है, तुम कुछ ना भी करो तो अगला दिन लग ही जाएगा। तुम व्यर्थ बिताते चलो समय को, तो भी कल आएगा-ही-आएगा। तो बुद्धि इसमें निहित है कि समय जब बीत ही रहा है, तो उसका सार्थक उपयोग कर लो।

क्या है समय का सार्थक उपयोग?

कि समय, जोकि एक बैचेनी मात्र है, उसका उपयोग कर लिया जाए चैन तक पहुँचने के लिए — ये बुद्धि है। लेकिन अहम् इतना डरा हुआ होता है कि वो स्वयं को भी धोखा दे लेता है, इसीलिए तुम पाते हो कि लक्ष्य तो सभी बनाते हैं, बुद्धि का उपयोग तो सभी करते हैं, लेकिन सबके लक्ष्य ऐसे नहीं होते जो उन्हें शांति दे जाएँ।

समझना, हमने कहा, मन एक तितर-बितर अस्त-व्यस्त विक्षिप्त गतिशीलता, चंचलता का नाम है, ठीक? और हमने कहा कि बुद्धि का अर्थ है मन को, मन की गति को सही लक्ष्य और लक्ष्य की तरफ़ दिशा दे देना। लेकिन हम तो पाते हैं कि लक्ष्य सभी के पास हैं दुनिया में, वो लक्ष्य तो ऐसे नहीं लगते कि उनसे किसी को शांति मिले।

लोग आमतौर पर जो लक्ष्य बनाते हैं और उनका पीछा करते हैं, वो लक्ष्य अधिकांशतः ऐसे ही होते हैं कि शांत क्या करेंगे, और अशांत कर देंगे। ये अहंकार की आत्म प्रवंचना है, ये अहम् का ख़ुद को दिया गया धोखा है। कि बुद्धि तो है ही, और बुद्धि की शक्ति लक्ष्य माँगती ही है—आदमी को जीने के लिए लक्ष्य चाहिए-ही-चाहिए।

जानवरों की सीमित बुद्धि होती है, तो सीमित लक्ष्यों से भी उनका काम चल जाता है। बंदर से पूछोगे, “तेरा लक्ष्य क्या?” वो कोई लक्ष्य बता नहीं पाएगा। अधिक-से-अधिक इतना कहेगा कि, "वो अमरूद।" उसके पास लक्ष्य होगा भी तो अमरूद से आगे का नहीं होगा। चिड़िया से पूछोगे, “तेरा लक्ष्य क्या?” तो अधिक-से-अधिक इतना ही कह पाएगी कि, "घोंसला!" इससे आगे का लक्ष्य नहीं होगा।

आदमी की विवशता है कि उसे लक्ष्य बनाना पड़ेगा, क्योंकि आदमी के पास बुद्धि है। पर अहंकार अपनी रक्षा के लिए लक्ष्य भी ऐसे बना लेता है जो शांति की जगह अशांति और बढ़ा दे। इसीलिए बुद्धि भी फिर दो तरह की हो जाती है। अहम् से रहित बुद्धि को कहते हैं सुबुद्धि और अहम् से युक्त बुद्धि को कहते हैं दुर्बुद्धि या कुबुद्धि।

बहुत बड़े-बड़े बुद्धिमान हैं जिनकी बुद्धि ख़ूब चलती है, लेकिन उनकी ज़िंदगी नर्क है, क्योंकि उनकी तीक्ष्ण बुद्धि पर अहम् का साया है। दिमाग उनका चलता तो बहुत है, पर अशांति की दिशा में ही चलता है। तो बुद्धि का होना मात्र पर्याप्त नहीं है, बुद्धि हो तो सुबुद्धि हो, नहीं तो निर्बुद्धि होना बेहतर है कुबुद्धि होने से।

संसार की इस वक़्त जो हालत है, वो ना तो अबोध पशु-पक्षियों ने कर दी है, ना निर्बुद्धि लोगों ने कर दी है, संसार की वर्तमान नारकीय स्थिति के उत्तरदायी हैं?

श्रोतागण: कुबुद्धि जीव।

आचार्य: कुबुद्धि, तीक्ष्ण बुद्धि वाले लोग। उनकी बुद्धि बड़ी कुशाग्र होती है, बड़ी तीखी होती है। उनकी बुद्धि ऐसी होती है कि सामान्य आदमी पार ही ना पा पाए; वो आपको नचा दें। वो दुनिया के ऊँचे-ऊँचे पदों पर बैठे हैं, व्यापार उनके हाथ में है, सत्ता उनके हाथ में है, तमाम तरह की ताक़त उनकी मुठ्ठी में है। उनकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण है। उतनी प्रबल बुद्धि अगर सही मार्ग पर लग पाती तो ये धरा स्वर्ग हो जाती। पर खेद की बात ये है कि अहंकार तीक्ष्ण-से-तीक्ष्ण, तीव्र-से-तीव्र, प्रबल से भी प्रबल बुद्धि को भी अपना ग़ुलाम बना लेता है। फिर बुद्धि का इस्तेमाल होता है विध्वंस के लिए, फिर बुद्धि का इस्तेमाल होता है उन कामों के लिए जिन कामों के लिए आज हो रहा है।

पिछले दस वर्षों में ही दुनिया में वन्य जीवन घट करके आधा रह गया है। आप एक बार इस घोर विनाश को सोचकर तो देखिए – सिर्फ़ पिछले दस साल में दुनिया से वन्य जीवन, वाइल्ड लाइफ़ आधी रह गई है। ये काम निर्बुद्धि लोगों ने नहीं किया है, ये काम किसने किया है? बहुत बुद्धिमान लोगों ने। इतना विनाश वो ही कर सकते हैं। उनके पास विज्ञान है, गणित है, अर्थशास्त्र है; वो सब हिसाब-किताब और जुगाड़ जानते हैं। इतना विनाश वो ही कर सकते हैं।

वैज्ञानिक हमें बता रहे हैं कि पृथ्वी जीवों के छठे व्यापक विनाश की ओर बढ़ रही है, *'सिक्स्थ मास इक्सटिंक्शन ऑफ़ ऑल स्पीशीज़'*। ये घटना पहले भी पाँच बार घट चुकी है, इस बार अंतर बस इतना है कि ये घटना प्राकृतिक नहीं है, आकस्मिक या संयोगवश नहीं है; इस बार इस घटना का कर्ता है मनुष्य। हम पृथ्वी से सारा जीवन विलुप्त करने जा रहे हैं और बहुत-बहुत शीघ्र। करने नहीं जा रहे हैं, कर रहे हैं। ये है दुर्बुद्धि मानव।

इसीलिए आदमी थोड़ी कम बुद्धि का रह जाए तो ठीक है, कोई बड़ा नुक़सान नहीं हो गया। बुद्धि, जिसको आप आमतौर पर आईक्यू से नापते हो, वो थोड़ी कम भी रह गई तो कोई बात नहीं, लेकिन दुर्बुद्धि ना हो। सुदामा रह जाए, कोई बात नहीं, शकुनि ना हो जाए। सुदामा रह जाएगा तो अधिक-से-अधिक गरीब ही रह जाएगा, शकुनि हो गया तो महाभारत कराएगा। और बुद्धि बड़ी तीखी थी शकुनि की, शकुनि की बुद्धि का कोई पार नहीं पाता था।

तुम्हें अगर परमात्मा ने बुद्धिबल दिया हो, तो इसको उसका वरदान भी मानना और ख़तरा भी मानना। बुद्धिबल बहुत बड़ा ख़तरा भी होता है क्योंकि अहंकार जहाँ कहीं भी बल देखता है, वहीं पर हाथ डालता है। जब वो पाएगा कि तुम्हारे पास बुद्धि काफ़ी है, तो वो सबसे पहले तुम्हारी बुद्धि ही उलटेगा। बुद्धि का काम है लक्ष्य बनाना, वो (अहंकार) तुमसे ऐसे लक्ष्य बनवा देगा कि तुम अपने लिए और सबके लिए नर्क की रचना कर डालो। और लगता तुमको यही रहेगा कि तुम बड़े बुद्धिमान हो, तुम बड़ी अक्ल का काम कर रहे हो।

बेवक़ूफ़ तो ख़तरनाक होते ही हैं, अक्ल वाले बेवक़ूफ़ों से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं। अक्ल वालों से बचना।

पशुओं को हम कहते हैं कि पशु बुद्धिहीन होते हैं। कभी सुना है कि किसी पशु की वजह से किसी दूसरे पशु की प्रजाति ही मिट गई? कभी सुना है कि शेर की वजह से हिरणों का वजूद ही ख़त्म हो गया? सुना है? और शेर के तो बुद्धि नहीं, फिर भी इतना वो जानता है कि हिरण को ख़त्म ही नहीं कर देना है। आदमी अकेला है जो शेर और हिरण…?

श्रोतागण: दोनों को ख़त्म कर रहा है।

आचार्य: दोनों को साफ़ कर रहा है, कर ही डाला। और अब कह रहा है कि अब हम जा करके मंगल ग्रह पर बसेंगे। “ये पृथ्वी तो अब वैसे भी बर्बाद हो गई, राख हो गई, धुँआ-धुँआ और कचरा हो गई। चलो भाई, मार्स मिशन लगाओ ज़रा!” मंगल ले लो, बुध ले लो; तुम जहाँ जाओगे, वहाँ बर्बादी ही ले जाओगे।

अभी तक विश्व पूरी तरह उभर नहीं पाया है २००८ के आर्थिक झटके से। आर्थिक मंदी का जो दौर २००८ से शुरू हुआ, वो अभी भी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है, और उसने दुनिया को बड़ा दुःख दिया। आपने अगर उसके बारे में पढ़ा होगा तो आपको पता होगा कि वो जो पूरी क्राइसिस (आपदा) थी, वो दुनिया के सबसे बुद्धिमान लोगों की बेवक़ूफ़ी ने पैदा करी थी। दुनिया के अग्रणी एमबीए , बड़े-बड़े बैंकों में पदासीन अधिकारी, दुनिया के सेंट्रल बैंको, रिजर्व बैंको के गवर्नर, इन लोगों की धन लोलुपता से, पूँजी लोलुपता से वो मेल्टडाउन आया था।

बुद्धि तो थी उनके पास, पर बुद्धि से ज़्यादा लालच था। तो लालच के कारण ऐसे लोगों को बैंक कर्ज़ा देते रहे जो कभी उस कर्ज़े को लौटा पाने की स्थिति में ही नहीं थे। ऋण दिए जा रहे हैं, बैंकों की किताबें बड़ी और लम्बी होती जा रही हैं। देखने में ऐसा लग रहा है जैसे व्यापार कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है।

जैसे कि आपकी शराब की दुकान हो और आप शराबियों को ऋण पर शराब पिलाना शुरू कर दें, तो व्यापार तो बढ़ेगा ही न। आप अपने खाते में तो यही लिखोगे कि, "दिन-रात मेरी बिक्री बढ़ रही है।" और एक से बढ़कर एक शराबी आपकी दुकान की ओर आकर्षित होंगे, क्योंकि आप कर्ज़े पर शराब पिलाते हो। आप किसी को दिखाओगे, कहोगे, “ये देखो, १२०० से बढ़कर बिक्री हो गई है १२००० की, धंधा बहुत तेज़ी से चल रहा है।” ये बुद्धि है।

उसके बाद आप अपना वही बही खाता ले करके जाते हो किसी अन्य व्यवसायी के पास, और उससे कहते हो कि “देखो, मेरा इतने का व्यवसाय है। तुम एक काम करो, मुझे ऋण पर घर दे दो।” और वो कहता है, “बिलकुल! अभी देता हूँ। इतना बड़ा आपका व्यवसाय है। आपको घर नहीं दूँगा तो किसको दूँगा?” और वो भी दे देता है।

जिन लोगों से तुम शराब का आयात करते हो, उन लोगों से भी तुम यही कहते हो कि “देखो, मेरा धंधा बढ़ रहा है, तुम मुझे ज़रा कर्ज़े पर शराब देते जाओ। देखो, तुम दे रहे हो, बिक्री भी हो ही रही है, तो शराब की आपूर्ति बढ़ाए चलो। और वो बढ़ाता ही जाता है।”

इस तरह से गुब्बारा फूलता जाता है, फूलता जाता है। और फिर एक दिन आता है जब कोई कहता है, “भाई, थोड़ा-सा नकद भी दिखा दो! कुछ पैसे मिलेंगे?” तो फिर तुम जाते हो अपने सब ऋणी लोगों के पास, उनसे कहते हो, “कुछ लौटा भी दो।” वो कहते हैं, “माल अंदर! अब हम हुए?”

प्र: “बंदर।”

आचार्य: “बंदर।” “तेरी गलियों में ना रखेंगे क़दम आज के बाद।” (व्यंग्य करते हुए)

“ये तुमने क्या कर दिया, पैसे माँग लिए?” और फिर वो हुआ जिसको तुम कहते हो *'वर्ल्ड इकोनॉमिक मेल्ट डाउन'*।

लेमेन ब्रदर्स, दुनिया का अग्रणी इन्वेस्टमेंट (निवेश) बैंक झड़कर गिर गया, बंद ही हो गया। तुम्हें क्या लगता है, उसमें दुर्बुद्धि लोग नहीं थे तो और कौन था? साधारण लोगों को तो उस बैंक में प्रवेश ही नहीं मिलता था। तुम्हें बहुत शार्प (तीक्ष्ण) होना चाहिए अगर तुम्हें वहाँ प्रवेश चाहिए तो। दुनिया के सबसे शातिर और मँझे हुए दिमाग के लोग वहाँ काम करते थे। और वो बैंक डूब गया। ये होती है दुर्बुद्धि।

दुर्बुद्धि − बुद्धि जिस पर लालच की छाया पड़ गई, बुद्धि जिसको अहंकार ने अपने वश में कर लिया। बुद्धि जो न जानें क्या-क्या कर सकती थी, पर अंततः सिर्फ़ आत्मघात कर बैठी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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