प्रश्नकर्ता: कोई जन्म से ही सात्विक विचारों वाला होता है, कोई जन्म से ही राक्षसी विचारों वाला होता है और कोई जन्म से अंधा और कोई जन्म से अपाहिज भी होता है। यह इतना भेद क्यों होता है? आत्मा तो एक है फिर यह इतना भेद क्यों?
आचार्य प्रशांत: यह भेद इसलिए है क्योंकि आप अपने सामने वाले से भी अलग हो और पीछे वाले से भी अलग हो। आप अपने आपको अलग कैसे कहोगे अगर आपके सब गुण, रूप, रंग, आकार, प्रकार आगे वाले जैसे ही हों या पीछे वाले जैसे ही हों। जीव तभी तक जीव है जब तक वह अन्य जीवों से भिन्न है और भिन्न होने के हज़ारों तरीके हैं तो उनमें से एक तरीका यह भी है कि किसी की बुद्धि कम होगी किसी की ज़्यादा होगी। किसी की आँखें नीली होंगी, किसी की आँखें काली होंगी। भिन्न होने का एक तरीका यह भी है कि हो सकता है कोई अपंग पैदा हो।
भिन्नता प्रकृति के विधान में है। जितने तरीकों से भिन्न हुआ जा सकता है उतने तरीकों से तुम्हें भिन्नता मिलेगी। जितने तरीकों से भिन्नता संभव है उतने तरीकों से भिन्नता होकर रहेगी क्योंकि यही प्रकृति का विधान है और इसी कारण तुम जीव हो। भिन्नता ना होती तो तुम भी नहीं होते। तुम दूसरों से अलग हो तभी तो कह पाते हो "मेरा नाम राजेश है", राजेश माने कौन? जो ना रमेश है ना सुरेश है। राजेश माने कौन? जो रमेश भी नहीं है और जो सुरेश भी नहीं है। माने वह इससे भी भिन्न है और उससे भी भिन्न है। अब अगर भिन्न होना है तो और कैसे भिन्न होओगे? रंग अलग होगा, रूप अलग होगा, आकार-प्रकार अलग होगा, देह अलग होगी, वैसे ही भिन्नता में फिर यह भी आ जाती है कि कोई सात्विक वृत्ति के साथ पैदा होता है, कोई तामसिक के साथ पैदा हो जाता है।
प्रकृति में कितने रंग देखने को मिलते हैं? कितने? गिनो, प्रकृति में कितने रंग हैं?
प्र: चार।
आचार्य: छह तो यहीं पर होंगे, आपको प्रकृति में चार मिल गए? चार से ज़्यादा तो आपने पहन रखे हैं। अनंत रंग हैं, अनंत। कोई रंग बता दो जो प्रकृति में ना मिले तुम्हें। आकार बताना कितने हैं प्रकृति में? अनंत आकार हैं। छोटे-से-छोटी चीज़ क्या है प्रकृति में? वह कितना छोटा है? बहुत ही छोटा है और बड़े-से-बड़ा क्या है? वह कितना बड़ा है? बहुत ही बड़ा है। और इस छोटे से बड़े के बीच में जो कुछ हो सकता है, सब कुछ है। काले से गोरे के बीच में जो कुछ हो सकता है सबकुछ है। अतिशय ठंडे से लेकर के अतिशय उष्ण के बीच में जो कुछ हो सकता है सबकुछ है।
जितने तरीकों से भिन्नता हो सकती है, है ब्रह्मांड में। इतनी (छोटी) सी वनस्पति भी होती है, जीव इतना छोटा भी होता है। अमीबा, कुल एक कोशिका का, फिर और थोड़े बड़े होते हैं, एलगे हो गए, फंगस हो गए। और बड़े-से-बड़ा जीव कितना बड़ा होता है? वह याद है न बड़े वाले, जुरासिक पार्क में जो देखे थे। और कोई भरोसा नहीं कि वही सबसे बड़े हैं, अभी ब्रह्मांड में और जीवन की खोज हो तो वहाँ पता नहीं क्या आकार मिले। जो कुछ हो सकता है सब है। भरी-पूरी दुनिया है, हम ही बस उसको नष्ट किए दे रहे हैं।
प्र: किसी को कैसा होना है, इसका निर्धारण कौन करता है?
आचार्य: पूर्वजन्म जानना है? यह था असली सवाल। कुछ नहीं, कोई निर्धारण नहीं करता। कह लो कि मामला यूँही है या कह लो कि इफैक्ट के पीछे, कार्य के पीछे इतने कारण हैं कि उनका निर्धारण नहीं हो सकता। दोनों तरीके से कह सकते हो। यह भी कह सकते हो कि जो हो रहा है वह यूँही है, अकारण है, या यह कह सकते हो कि जो हो रहा है उसके पीछे बहुत-बहुत सारे कारण हैं, कितने कारणों की गिनती करें?
समुन्द्र में एक लहर उठती है। एक लहर में कितने, बताना मुझे, परमाणु होंगे? कितने होंगे? टेन टू द पवार ट्वेंटी थ्री (दस के घात तेईस) की रेंज के होते हैं, वो तो तुम्हें पता ही है न? एक मोल में ही इतने होते हैं तो एक लहर में टेन टू द पवार ट्वेंटी थ्री या और आगे के ही होंगे। समझ रहे हो कितने हैं? एक के आगे तेईस शून्य लगा दो इतने हैं, कम-से-कम इतने हैं, इससे ज़्यादा ही हैं। यह सब कहाँ से आए? भाई, लहर के बनने से पहले भी, लहर के उठने से पहले भी यह सब थे न? ये कहाँ थे? समुद्र में थे और समुद्र तो कभी शांत रहता नहीं। माने, यह सब भी पहले किसी-न-किसी लहर में ही थे। समुद्र माने लहरें, तो यह जो इतने परमाणु हैं वह इस लहर में आने से पहले कितनी लहरों में रहे होंगे? अनंत लहरों में रहे होंगे और अनंत लहरों से किसी लहर से सौ, किसी लहर से चार-सौ, किसी से पाँच-सौ परमाणु आए और उससे इस लहर का निर्माण हो गया। अब तुम पूछ रहे हो, "बताइए यह लहर कहाँ से आई, बताइए इस लहर का कारण क्या है?" तो इस लहर के फिर कितने कारण हैं? अनंत कारण हुए।
अगर तुम गिनती करने लगो कि इस लहर में इतने परमाणु थे और परमाणुओं से ही लहर बनी है। भाई, मैं पानी के एट्म्स की बात कर रहा हूँ, मोलिक्युल्स की बात कर रहा हूँ, पानी के मोलिक्युल्स से ही लहर बनी है न? हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के एटम्स ही उसमें मौजूद हैं न? इसी से तो लहर बनी है, कुछ और होगा उसमें थोड़ा बहुत, नमक होंगे, मिनरल्स होंगे, यही सब। वह कितनी जगहों से आ रहे हैं, वह अनंत जगहों से आ रहे हैं न? किसी से कुछ आया, किसी से कुछ आया और सबके मिश्रण से फिर इस लहर का निर्माण हुआ। वैसे ही आदमी है।
तुममें भी न जाने कहाँ-कहाँ से कुछ-कुछ आया है। हो सकता है कि तुम्हारी नाक आठ पुश्तों पहले की तुम्हारी दादी जैसी हो। मैं अभी घर वाली दादी की बात नहीं कर रहा, मैं पूर्व अति पूर्व पूर्वजों की बात कर रहा हूँ। ना जाने कब की चीज़ तुममें अब आकर अभिव्यक्त हो रही हो। कि आठ पुश्तों पहले वाली जैसी दादी थी उसके जींस अब जाकर के तुम्हारी नाक में अभिव्यक्त हुए हैं।
कितनी बीमारियाँ होती हैं जो आनुवांशिक होती हैं, जेनेटिक ; जेनेटिक मतलब तुम्हें मिली ही होंगी जींस से। अब डॉक्टर हैरत में पड़ जाते हैं। मरीज़ आएगा, उसको बीमारी निकल गई। डॉक्टर पूछते हैं, "बाप को थी?" कहेगा, "नहीं।" "माँ को थी?" "नहीं।" "नाना को थी?" "नहीं।" "नानी को थी?" "नहीं।" "दादा को थी, दादी को?" "नहीं।" "ज़रा और पहले का पता कर।" अब वह एक-दो पीढ़ी तक ही तो पता कर सकता है। तो वह जाएगा, पता कर के आएगा, कहीं नहीं निकली, और यह बात पक्की है कि आती तो जींस से ही है। तो माने कहाँ से आ रही है? भाई, वह बहुत पहले से आ रही है, न-जाने कहाँ से आ रही है।
तो अब तुम्हें कैसे बताएँ कि कोई आदमी जैसा है वैसा वह क्यों है। क्या बताएँ? तुम्हें पता है, हम सबमें अफ्रीका के बंदरों की सामाग्री मौजूद है। अब बताओ तुम कहाँ से आए? यहाँ कोई नहीं ऐसा बैठा जिसके डीएनए की जाँच की जाए तो उसमें से अफ्रीका के बंदरों की कुछ सामग्री ना निकले, बोलो कहाँ से आए? कैसे बताएँ कि कहाँ से आए? तुम पूछ रहे हो, "बताइए मेरे होंठ बारीक क्यों हैं?" आज से आठ-सौ-लाख साल पहले नाइजीरिया के जंगलों में एक बंदर था उसके भी होंठ बारीक थे इसलिए तुम्हारे होंठ बारीक हैं।
कोई कैसे बताए? अनंत कारण हैं भाई, हम न-जाने कहाँ-कहाँ से आ रहे हैं। पूरी पृथ्वी की सामग्री आकर के हमारे डीएनए में घुसी हुई है। और कौन जाने कि सिर्फ़ पृथ्वी की ही है? हो सकता है दूसरे ग्रहो, उपग्रहों की भी हो। तो यह बात कि मैंने अपने पूर्वजन्म में कुछ किया था जिसका मुझे अभी फल मिल रहा है बिलकुल बेकार की बात है।
तुम्हें आज बीमारी हो रही है वह इसलिए हो रही है क्योंकि आठ पुश्तों की पहले तुम्हारी दादी को वह बीमारी थी, इसमें तुम्हारा क्या योगदान है भाई? तुम अपने ऊपर क्यों ले रहे हो कि, "मैं अपने पूर्वजन्म में पापी रहा होऊँगा, तो मुझे बीमारी हो रही है।" तुमने थोड़े ही कुछ किया है। इसलिए नहीं किया क्योंकि पूर्वजन्म व्यक्तिगत होता ही नहीं। क्योंकि तुम जो हो, जीव, उसका कोई पूर्वजन्म नहीं होता। पूर्वजन्म पूरी लहर का है। लहर का पिछला जन्म है पूरा और लहर पिछले जन्म में कोई एक लहर नहीं थी। जो अभी ताज़ी लहर उठ रही है उसमें क्या सारे परमाणु किसी एक पिछली लहर के हैं? ना। तो पूर्वजन्म में तुम थे भी तो तुम एक चीज़ नहीं थे, तुम एक ही समय में लाखों चीज़ें थे।
वह लाखों चीज़ें इकट्ठा होकर के यह एक चीज़ बनी, अब तुम बताओ पिछले जन्म में तुम क्या थे? तुम्हारे भीतर गधा भी बैठा हुआ है, घोड़ा भी बैठा हुआ है, भारतीय भी बैठा हुआ है, चीनी भी बैठा हुआ है, अफ्रीकी भी बैठा हुआ है, स्त्री भी बैठी हुई है, पुरुष भी बैठा हुआ है। इन सबकी सामग्री तुम्हारे जिस्म में मौजूद है, तुम्हारे भीतर आग भी बैठी हुई है, राख़ भी बैठी हुई है। सब तुम्हारे जिस्म में मौजूद है। तुम बताओ पिछले जन्म में क्या थे? तुम सबकुछ थे।
तो पूर्वजन्म होता है लेकिन यह मत समझना कि एक चीज़ से दूसरी चीज़ पैदा हो गई। हमारे मन में छवि कुछ ऐसी ही रहती है कि यहाँ कोई चीज़ थी वह यह बन गई, नहीं ऐसा नहीं होता।
पूर्वजन्म समझ लो ऐसा होता है कि जैसे गंगा के तट पर तुम टहलने जाओ और लौटकर आओ तो पाओ कि तुम्हारे पाँव में रेत के बहुत सारे कण चिपके हुए हैं। गंगा के तट पर तुम टहलने गए नंगे पैर, लौटकर आए तो पाया कि तुम्हारे पाँव में कण चिपके हुए हैं, बताओ वह कण तट पर किस स्थान के हैं? वह किसी भी विशेष स्थान के नहीं हैं। पूरा तट उन कणों में मौजूद है, हर जगह से कुछ-कुछ कण आ गए हैं। तो अब तुम उन कणों को लो और बोलो ये इस खास जगह के हैं तो तुम पागल हो, हर जगह के हैं। वैसे ही तुममें भी सबकुछ मौजूद है, तुम्हारा कोई एक विशिष्ट पुनर्जन्म या पिछला जन्म नहीं हो सकता।
जैसे कोई आदमी मर जाए, मर कर मिट्टी हो गया। वह मिट्टी तो बहुत जगह पहुँच जाएगी न? अब कहीं पर कोई फूल खिला है, तो क्या तुम कहोगे कि वह आदमी यह फूल बन गया? मिट्टी से फूल खिला, आदमी मरा, मर कर क्या हो गया? मिट्टी। वह मिट्टी तो उड़ी बहुत जगह पहुँच गई और जहाँ वह मरा था वहाँ पर भी पचासों जगह की मिट्टी आकर के गिर गई। अब वहाँ फूल खिला तो क्या तुम यह कहोगे कि वह आदमी उस फूल के रूप में पुनर्जीवित हो रहा है? नहीं। उस फूल में उस आदमी की भी मिट्टी है, कुछ कण हैं और न-जाने कहाँ-कहाँ की मिट्टी है। हम सब में न-जाने कहाँ-कहाँ की मिट्टी है। तो अब कैसे बताएँ कि किसी के बाल काले और किसी की नाक चपटी क्यों है।?
एक ही घर में दो भाई पैदा होते हैं दोनों की सूरतें बिलकुल नहीं मिल रही। मामला क्या है? नहीं, कोई गड़बड़ मामला नहीं है, प्रकृति में ऐसा होता है क्योंकि बहुत जगहों से तुम्हारी सामग्री आ रही है।
प्र२: कुछ दिन पहले आपकी एक वीडियो मैं सुन रहा था तो आपने उसमें कहा कि जो बच्चा पैदा होता है वह बहुत कुछ जानता होता है, उसे बड़ा पता होता है। इस जन्म में वह जो साठ-सत्तर साल या सौ साल जीता है, इतने लंबे समय में तो हम उसको केवल दस प्रतिशत ही संस्कारित कर पाते हैं। वह पहले से ही संस्कारित आता है तो अब जो बात हो रही थी कि कोई कण कहीं से, कोई परमाणु कहीं से लहर बनता है, तो जो पहले से संस्कारित होकर आता है वह क्या होता है?
आचार्य: यह जो रूप है, यह जो रूप है न, यह रूप कैसे बन गया? यह जो कण आ रहे हैं इन कणो को कैसे पता कि उन्हें पाँच अंगुलियों के रूप में अभिव्यक्त हो जाना है? कि दो ही आँखें होनी चाहिए? कि ऐसे सिर पर बाल होने चाहिए, दाँत होने चाहिए, यही तो जैवीय संस्कार हैं। भाई, मुँह में दाँतों का होना और पेट में भूख का होना क्या अलग-अलग बात है! ग़ौर से समझिएगा, मुँह में दाँत का होना और पेट में भूख का होना क्या अलग-अलग बात है? हम यह तो कह देते हैं कि भूख वृत्ति है पर हम यह नहीं देख पा रहे हैं कि यह जो संरचना है यही वृत्ति है।
भूख और आँतें, और ज़बान और दाँत क्या अलग-अलग चीज़ हैं? भूख और आँतें और यह पेट और यह ज़बान और यह दाँत और यह लार, यह क्या अलग-अलग हैं? यह एक ही हैं न? तो हम भूख को तो वृत्ति कह देते हैं, हम कहते हैं कि क्षुधा शारीरिक वृत्ति है पर यह हमको नहीं समझ आता कि यह जो बत्तीस का आँकड़ा (दाँत) है यह वृत्ति ही तो है क्योंकि भूख और यह अलग-अलग है ही नहीं।
तो शरीर नहीं पैदा हो रहा, संस्कार ही, वृत्तियाँ ही, कंडीशनिंग ही पैदा हो रही है। जिसको आप कहते हैं बच्चे ने जन्म लिया है, बच्चे ने नहीं जन्म लिया है, वह एक डिज़ाइन ने जन्म लिया है जो डिज़ाईंड है भोग के लिए। वह पैदा होता है, मुँह खोलकर कहता है, "मुझे भोगना है।" वह रोता ही इसलिए है कि व्हेयर इज भोग? बड़ी गड़बड़ हालत है हमारी। सबकुछ यहाँ (शरीर) पर भोगने के लिए ही तैयार बैठा हुआ है। यहाँ (सिर) से लेकर बिलकुल नीचे के नाखून तक, भोगना-ही-भोगना। डिज़ाइन ही गड़बड़ है।
प्र३: जैसा कि आपने अभी-अभी कहा कि अगर हम पूर्णता की तरफ जाएँगे तब तो हम किसी को कुछ सिखाने की शुरुआत ही नहीं कर पाएँगे। और यह जो आध्यात्म है, समय के हिसाब से अलग-अलग युद्ध होते हैं, आज के समय का जो युद्ध है वह सबसे बड़ा युद्ध तो भोग का ही है कि भोगे ही जा रहे हैं, मतलब सुख और सुविधा। और सुख और सुविधाएँ ज़रूरी भी हैं क्योंकि उसके बिना कुछ संभव नहीं है। और सभी लोग सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं। तो यदि हम किसी को अतिभोगवाद के बारे में कुछ कहते हैं तो पहला प्रतिउत्तर यही आता है कि, "यदि तुमको अमेरिका जाना है तो क्या बिना हवाई जहाज़ का प्रयोग किए चले जाओगी? तो फिर तुम प्रदूषण की बात करो ही मत।"
आचार्य: क्यों नहीं करो? अमेरिका क्यों जाना है? तुम्हें अमेरिका किस लिए जाना है? गए थे स्वामी विवेकानन्द भी अमेरिका और जाते हैं फुग्गू लाल भी अमेरिका। वो गए तो कुछ भला हुआ, उनका भी पूरी दुनिया का भी। और फुग्गू लाल काहे के लिए जाते हैं अमेरिका? यह कितना मूर्खतापूर्ण तर्क है कि अमेरिका जाना है तो प्रदूषण करना ही पड़ेगा। क्यों जाना है, उद्देश्य क्या है?
प्र३: वही जो भोग और सुख-सुविधा है उनका उपयोग करने के लिए।
आचार्य: तो वह तो यही कहा जा रहा है फिर कि भोग करना है तो प्रदूषण करना ही पड़ेगा।
प्र३: तो क्या करें फिर? किस तरह से इन चीज़ों को कम करें? पहले तो खुद को ही कम करना पड़ेगा उसके बाद ही हम कह सकते हैं उनको। लेकिन फिर ऐसे बोलने वाले मिल जाते हैं कि एक के कम करने से कुछ नहीं होगा, दुनिया तो भरी पड़ी है।
आचार्य: दुनिया भरी पड़ी है तो दुनिया बच्चों से भी भरी पड़ी है, तुम एक बच्चा पैदा कर दोगे तो क्या होगा? ऐसा करो तुम कोई बच्चा पैदा मत करो। जो तर्क तुम लगा रहे हो वही तर्क मैं तुम्हारे ऊपर लगाए देता हूँ, जैसे तुम कह रहे हो कि एक के कम करने से क्या होगा, वैसे ही एक के बढ़ाने से भी क्या होगा? तुम एक बच्चा दुनिया में क्यों बढ़ाना चाहते हो? ठीक है, दुनिया में बहुत बच्चे हैं तुम अब एक पैदा मत करना।
प्र३: ऐसे उत्तर उस वक़्त मिल नहीं पाते और फिर चुप हो जाना पड़ता है उस वक़्त।
आचार्य: ऐसे उत्तरों का अभ्यास करिए।
प्र३: उस वक़्त फिर चुप हो जाना पड़ता है कि अब क्या कर सकते हैं।
आचार्य: यह सारे उत्तर वहीं हैं जिसकी आज हमने आरंभ में ही चर्चा की, कि वृत्ति उठती है और फिर बुद्धि उसके पक्ष में तर्क ढूँढ लेती है ताकि जायज़ ठहरा सके। है कुछ नहीं, वही पाश्विक वृत्ति है।
प्र४: जो लहर उठी है पहले कई लहरों का मिश्रण है वह, तो फिर मुक्त किसको होना है? लहर तो वैसे ही मिट जाएगी, मुक्ति हो जाएगी तो मुक्त कौन हो रहा है फिर?
आचार्य: ठीक है फिर, आध्यात्म की क्या ज़रूरत है फिर मर तो वैसे भी जाओगे? क्यों बैठे हो यहाँ पर? मुक्ति का अर्थ क्या होता है कि शरीर से मुक्त हो जाओ? मुक्ति का अर्थ है जीवन में जो नर्क है उससे मुक्त होना है। लहर कोई तत्काल मिटी जा रही है क्या? समुद्र की लहर के उदाहरण से बहक मत जाओ, समुद्र की लहर तो उठती है और मिट जाती है और यह जो आदमी की लहर है यह तो सत्तर-अस्सी साल लगाती है न। सत्तर-अस्सी साल लगाती है न मिटने में? शारीरिक रूप से भी मिटने में सत्तर-अस्सी साल तो लगते हैं न? तो मुक्ति का अर्थ होता है यह जो अस्सी साल में नर्क झेलते हो इससे मुक्ति।
मुक्ति का मतलब यह नहीं होता कि शरीर से कब मुक्त होओगे। मुक्ति का मतलब होता है कि यह जो जीते-जी, जी रहे हो ग़लत तरीकों से, आत्मघातक तरीकों से, इन तरीकों से कब मुक्त होओगे।
मुक्ति या तो जीवन रहते है या कभी नहीं। मर कर कोई मुक्ति नहीं मिलती। हमने बड़ी ग़लत परम्परा बना ली है कि कोई भी मर जाता है तो हम कह देते हैं कि, "ये ब्रह्मलीन हो गए", ऐसे कैसे हो गए? या तो जीते-जी होते, नहीं तो साँस टूट जाने से ब्रह्मलीन हो गए? ये तो बड़ा सस्ता ब्रह्म है कि साँस भर उखड़ने से मिल गया। फिर तो जिनको-जिनको ब्रह्म चाहिए हो वह आत्महत्या कर लें। अगर मरने भर से ब्रह्म उपलब्ध हो जाता हो तो आत्महत्या ही कर लो फिर मिल ही जाएगा। इतनी सस्ती नहीं है ब्रह्मलीनता, कि जो भी मरा उसको ही बोल दिया कि स्वर्गवासी हो गए, ब्रह्मलीन हो गए, इत्यादि-इत्यादि। कुछ नहीं हो गए, एक निष्फल जीवन था, अकारथ जीवन था, बर्बाद गया, राख़ हो गए, इतने ही हुए है। ना मुक्त हुए हैं, ना ब्रह्मलीन हुए हैं, ना निर्वाण मिला है, ना मोक्ष।
यह सब बातें कहनी बंद करो। मृत्यु का कोई संबंध नहीं है मुक्ति से। शारीरिक मृत्यु की बात कर रहा हूँ। शारीरिक मृत्यु का मुक्ति से कोई संबंध नहीं है। वास्तविक मुक्ति जीते-जी होती है। उसको महामृत्यु कहा गया है इसीलिए। शारीरिक मृत्यु तो बहुत छोटी घटना है, जो कई बार संयोगवश ही घट जाती है, अनायास। नहा रहे थे, फिसले, मर गए। गए थे छपक-छपक कर नहाने कि, "जल्दी से नहाओ रे! अभी बस आती है, ऑफिस जाना है", इतने में फिसले और मर गए। जानते हो न बाथरूम में बहुत मौतें होती हैं? लोग फिसलते हैं इधर-उधर कहीं, वाशबेसिन में सिर मारा, आधा घण्टा हो गया, पत्नी जी ने फिर खटखटाया कि, "नहा रहे हो या कर क्या रहे हो?" पता चला अंदर मुँह खोले पड़े थे, तो क्या बोलोगे? ये ब्रह्मलीन हो गए हैं? हालत देखो उनकी, नंगे पड़े हैं अंदर शैम्पू लगाए, मुँह खुला है। कौनसी चीज़ तुमको बता रही है कि इन्हें ब्रह्म उपलब्ध हो गया?
या कि गए थे किसी से लड़ने, उसने सिर फोड़ दिया, मर गए। या कि ग़लत ज़िन्दगी जी थी, दिनभर तम्बाकू खाते थे, कैंसर हो गया, मर गए और तुम बोल रहे हो, "अब इनका निर्वाण दिवस मनाएँगे।"
मुक्ति का सही और साफ़ अर्थ समझो। हम ग़लत ज़िंदगी जीते हैं, उस ग़लत ज़िंदगी से आज़ाद हो जाने को ही आध्यात्मिक मुक्ति कहते हैं। शरीर से आज़ाद हो जाने को आध्यात्मिक मुक्ति नहीं कहते। मन की भ्रांतियों, भ्रमों और अंधेरे के मिट जाने को आध्यात्मिक मुक्ति कहा जाता है।
और वह जीते-जी ही मिल सकती है। उसका तुम्हारी शारीरिक मौत से कोई वास्ता नहीं है। वास्ता है भी तो क्या, वह भी सुन लो — वह यह है कि मौत तो आनी ही है शारीरिक, उससे पहले आध्यात्मिक मुक्ति या महामृत्यु, जो दोनों एक ही हैं, उनको पा लो। मौत मुक्ति नहीं है, मौत तो ख़तरा है कि कहीं ऐसा ना हो कि जो मुक्ति जीवन में उपलब्ध हो सकती थी वह उपलब्ध होने से पहले ही मौत आ गई।
तो मौत के इंतज़ार में मत रहना कि एक दिन तो मौत आकर सबको मुक्त कर ही देगी। ऐसे लोग घूम रहे हैं बहुत। उनको पूछो कि, "शास्त्र काहे नहीं पढ़ते, सत्संग में काहे नहीं जाते?" तो कहते हैं, "क्या होगा, शास्त्र पढ़कर भी तो मुक्ति ही मिलेगी और मरना तो वैसे ही है, मुक्ति तो हमें वैसे ही मिल जाएगी।"
प्र२: तो उसी सवाल को उल्टा कर के प्रस्तुत कर देता हूँ कि जब पहले जन्म की बात की तो अब मृत्यु की। जब जीते-जी मुक्ति संभव है, समझ में भी आता है, आपने यह भी कहा कि मर गया, राख़ हो गया, खत्म हो गया, फँसा क्या रह गया?
आचार्य: कुछ नहीं।
प्र२: आवागमन जो बोलते हैं हमारे शास्त्र?
आचार्य: अहं-वृत्ति का होता है, वह एक भ्रम है, भ्रम का आवागमन होता है। अहं कोई असली चीज़ है क्या? शास्त्रों ने क्या यह बताया है कि अहं सत्य है? तो भ्रम ही है, उसी का आवागमन है। सत्य का तो कोई आवागमन हो नहीं सकता, कि सच भी आ जा रहा है, जो आ जा रहा है झूठ ही होगा। सत्य तो अटल-अचल है, वह तो आएगा-जाएगा नहीं। अहंकार ही है जो कभी इससे चिपकता है कभी उससे चिपकता है, वही आवागमन करता रहता है।
प्र२: क्या वह वास्तव में होता है कि नहीं?
आचार्य: भ्रम का ही आवागमन होता है। अहं क्या है? एक भ्रम, जो है नहीं पर उसे लगता है कि वह है। अहं क्या है? एक सपना, जो है नहीं पर जबतक वह है उसे लगता है कि मैं हूँ, पर वास्तव में वह है नहीं। तो अहं वृत्ति का ही आवागमन रहता है। उसी को आप प्रेत कह सकते हो, वही भटकता रहता है, पर वह है नहीं। तो आप यह भी नहीं कह सकते कि भटकने वाली कोई चीज़ है, वह है नहीं। क्योंकि भ्रम मात्र है।
प्र२: फ़र्क़ तो रहेगा न कहीं? एक आदमी जीते-जी मुक्ति पा गया, एक मर गया, खत्म हो गया। जो मुक्त है वह भी वही सज़ा पा रहा है, जो अमुक्त है वह भी। मृत्यु दोनों को मिली।
आचार्य: मौत कोई सज़ा नहीं है, घटिया जीवन सज़ा है। आप जीते-जी आनंद का अमृत चख सकते थे, आप चूक गए, यही सज़ा है, और अब क्या सज़ा चाहिए? जीते-जी मुक्ति मिलती तो आनंद बरसता, आप चूक गए, यही तो सज़ा है, और अब क्या सज़ा? ग़लत जीवन अपनी सज़ा आप है और कोई सज़ा नहीं चाहिए।
प्र५: आपने बोला था कि पुनर्जन्म कुछ नहीं होता।
आचार्य: मैंने यह नहीं कहा कि पुनर्जन्म कुछ नहीं होता, मैंने कहा व्यक्ति का कोई व्यक्तिगत पुनर्जन्म नहीं होता। समष्टि का पुनर्जन्म होता है। हज़ार लहरों से फिर एक लहर पैदा होती है, पुनर्जन्म तो हो ही रहा है, पुनर्जन्म निश्चित रूप से है पर तुम सोचो कि तुम्हारा पुनर्जन्म है तो तुम्हारा नहीं पुनर्जन्म है, समष्टि का पुनर्जन्म है।
प्र५: गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने भी बोला था अर्जुन को कि, "मेरे लाखों-करोड़ों जन्म हो चुके हैं, यह शरीर छोड़कर जाता है वस्त्र की तरह दूसरे शरीर को धारण कर लेता है।"
आचार्य: सागर ही है न जिसके लाखों-करोड़ों पुनर्जन्म होंगे? हर लहर में कौन जन्म रहा है? सागर। तो श्रीकृष्ण सागर हैं, श्रीकृष्ण अनंत सागर हैं तो वह कह रहे हैं, "देखो, पुनर्जन्म होता है।" यह भी कृष्ण से ही आया है, यह भी कृष्ण से ही आया है, यह भी कृष्ण से ही आया है, पूरा ब्रह्मांड ही कृष्ण से आया है।
हम सब क्या हैं? लहरें। और लहर छोटी होती है, अपूर्ण होती है। कृष्ण को जान लो कि जैसे पूरा समुद्र ही, उसी से लहरें उठती हैं और फिर उसी में विलीन हो जाती हैं।