श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम क्यों कहते हैं? || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

8 min
1.4k reads
श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम क्यों कहते हैं? || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, श्रीराम को 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहा जाता है, जबकि उन्होंने सीता जी की अग्नि परीक्षा ली थी, और जब वो गर्भवती थीं तो उन्हें घर से निकाल दिया था। मैं श्रीराम के इस व्यवहार को ग़लत मानती हूँ। कृपया मेरी इस शंका को दूर कीजिए।

आचार्य प्रशांत: मर्यादा पुरुषोत्तम ही तो कहलाते हैं। उनका जो पूरा चरित्र है, जो पूरा आचरण है, वो यह बताता है कि मर्यादा पर चलोगे तो ऐसे हो जाओगे। मर्यादित आचरण करोगे तो यही करोगे कि बीवी को आग में डालोगे, फिर बाहर निकालोगे, यही सब है, मर्यादा से और क्या होगा?

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: इस बात से जो क्रोध आता है, क्या वो सही है?

आचार्य: वो क्रोध राम के प्रति नहीं, मर्यादा के प्रति होना चाहिए। कृष्ण को कोई नहीं कहता – "मर्यादा पुरुषोत्तम"। वो ये सब काम नहीं करते कि किसी को आग में डाल दिया, ये कर दिया, वो कर दिया। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं। राम की महत्ता इसलिए है कि राम से गुज़रेंगे नहीं, तो कृष्ण तक नहीं पहुँच पाएँगे।

राम वो हैं जिन्होंने मन को मर्यादा के अनुरूप चलने दिया, पर एक आख़िरी मालिक फिर भी मन पर छोड़ा। वो आख़िरी मालिक कौन? मर्यादा। कृष्ण वो जिन्होंने मन के ऊपर से वो आख़िरी मालिक भी हट जाने दिया।

हम आमतौर पर न कृष्ण होते हैं न राम होते हैं, हम अमर्यादित होते हैं। राम मर्यादित हैं, कृष्ण मर्यादातीत हैं। राम की इसीलिए महत्ता है। हमारे लिए तो राम भी बहुत हैं। राम का आदर्श इतने लम्बे समय तक इसीलिए टिक पाया है क्योंकि हम में से अधिकाँश इतने बिखरे हुए मन के होते हैं कि उनके लिए मर्यादा भी संभव नहीं हो पाती। मर्यादा माने बेसिक ऑर्डरलीनेस (मूल व्यवस्था)। तो राम का महत्व इसलिए है।

जो भी है उनका, मर्यादित है। पिता ने कहा, "जाओ राजपाठ छोड़कर के," चले गए। प्रजा ने कहा, "हमें शक़ है तुम्हारी पत्नी के आचरण पर," उन्होंने पत्नी को ही रुख़सत कर दिया। ये हमसे न हो पाएगा। इसलिए नहीं कि हम महत्व नहीं देते कि पिता ने क्या कहा या प्रजा ने क्या कहा, बल्कि इसलिए क्योंकि ये कह पाने के लिए भी, ये कर पाने के लिए भी मन की जो दृढ़ता चाहिए, वो हमारे पास नहीं है। राम के पास है, इसीलिए राम महत्वपूर्ण हैं। इसीलिए राम की पूजा होती है।

पर राम आख़िरी नहीं हैं। राम तक जाना है ताकि राम को पार कर सकें। जब आप दशरथनन्दन राम को पार करते हैं, तब आप कबीर के राम तक पहुँचते हैं। जब आप तुलसी के राम को पार करते हैं, तब आप कबीर के राम तक पहुँचते हैं। तुलसी के राम का अपना महत्व है। तुलसी के राम आपको न मिले होते, तो ये सारे प्रश्न भी आप कैसे उठा रही होतीं?

राम की कहानी बड़ी मानवीय कहानी है, सुंदर कहानी है। उसको एक अवतार या किसी दिव्य-पुरुष की कथा न समझ के, एक मर्यादाबद्ध इंसान की कथा की तरह पढ़ें। उसमें बहुत कुछ है जो आपको उठाएगा, लाभ देगा। पर अगर आप उसे एक अवतार की कथा की तरह पढ़ेंगी, तो उसमें आपको (त्रुटियाँ) छेद-ही-छेद नज़र आएँगे।

फिर आप कहेंगी, “देखो, कहने को तो अवतार हैं पर इतनी भी समझ नहीं कि पत्नी के साथ दुर्व्यवहार नहीं करते।”

उन्हें अवतार नहीं इंसान की तरह देखें, फिर कहानी में रस है, बात है। फिर कहानी में मानवता है, फिर उतार है चढ़ाव है। आसमान जैसी ऊँचाइयाँ है तो मिट्टी भी है फिर।

प्र: आचार्य जी, सीता को कैसे देखें फिर?

आचार्य: वैसे ही, इंसान की तरह।

प्र: मतलब तब तो फिर उनके साथ अन्याय ही हुआ न?

आचार्य: हाँ बिल्कुल, तो इंसान की तरह। सीता की भी मर्यादा देखें, सीता की निष्ठा देखें, सीता का कष्ट देखें।

प्र: उन्हें पारिवारिक दृष्टिकोंण से देखें क्या?

आचार्य: जैसे भी देखें, देखें। जो कुछ आपको सीता में मिलेगा, वो सब कुछ आपको अपने भीतर भी मिलेगा।

एक सरल लड़की है, अभी-अभी ब्याही है, चल देती है पति के साथ। शायद सोचकर आयी होगी कि राजपाठ का सुख मिलेगा, मिल क्या गया? जंगल। जैसे किसी भी साधारण स्त्री में होता है, कुछ आकर्षण, कुछ मोह – “हिरण चाहिए, लेकर आओ, सोने का।” जैसे किसी भी साधारण स्त्री में होता है – “क्या सुनना है पति की बात को, देवर की बात को! ये तो घर की मुर्गी हैं!” तो लक्ष्मण रेखा खींची भी गयी है, तो?

किन्हीं और ऋषि-मुनि ने आकर के सलाह दी होती कि ये रेखा मत लाँघना, तो सीता शायद सुन भी लेतीं, पर बात कही किसने है? ऐसे ही घर के किसी इंसान ने, तो जैसे हम नहीं सुनते घर वालों की (वैसे ही सीता ने भी अनसुना कर दिया)। फिर जैसे हमारे साथ होता है कि सत्य से ज़्यादा निष्ठा हमारी व्यक्तियों में हो जाती है, वैसे ही सीता की सत्य से ज़्यादा निष्ठा पति में है। तो कह रहा है पति कि, “इस तरह की परीक्षा से गुज़रो, महल छोड़ दो,” छोड़े दे रहे हैं। कोई दावा नहीं कि, "भई कुछ राजपाठ में हमारा भी हिस्सा है या नहीं?" फिर माँ है, दो बच्चे हैं, उनका पालन-पोषण है।

फिर आगे की कहानी है, सुंदर कहानी है। उसमें आपको अपना जीवन दिखाई देगा। उसे आदर्श की तरह मत लीजिएगा। इस देश का बड़ा नुक़सान ये हुआ है कि यहाँ पर राम आदर्श बने हैं। हर पुरुष किसी-न-किसी तरीक़े से राम लिए घूमता है मन में और हर स्त्री को सीता होना है। उन्हें आदर्शों की तरह नहीं लीजिए, उनको अपनी वर्तमान स्थिति के प्रतिरूप के रूप में लीजिए। जो आप हैं, वही राम हैं। जो आप हैं, वही सीता हैं। फिर जैसे आपके कष्ट हैं, वैसे वो भी कष्ट भोग रहे हैं। राम कष्ट भोगते हैं, क्यों? क्योंकि राम हैं। सीता कष्ट भोगती हैं, क्यों? क्योंकि सीता हैं। आप कष्ट भोगते हैं, क्यों? क्योंकि आप आप हैं।

प्र: आचार्य जी, यह कैसे तय करें कि राम को अवतार के रूप में देखना है या इंसान के रूप में?

आचार्य: जब आप अवतार के रूप में देखते हो, तो आप कहते हो कि, "इन्होंने जो कुछ किया, वो आख़िरी है, और वही होना चाहिए।" और ये बड़ी भूल हो जाती है। संतों, अवतारों, पैगम्बरों के चरित्र को हम आदर्श बना लेते हैं, और कई बार तो उनकी गतिविधियों की हम सीधे-सीधे नकल करना शुरु कर देते हैं। "गुरुओं ने ऐसा करा था तो हम भी वही कर डालेंगे, कर ही नहीं डालेंगे, हम वैसे ही दिखाई भी देंगे। पैगम्बर ऐसा कर गए थे तो हमें भी अनुकरण करना है।"

प्र: अनुसरण न करके अनुकरण करने लग जाते है।

आचार्य: जो भी बोलो, नकल (ही है)। वो होना न पड़े जो वो थे, तो उसकी नकल कर लो जो उन्होंने किया। फिर उससे कई तरह के पाखंड निकलते हैं। धर्म का मतलब ही यह हो जाता है कि इस तरह के आचरण पर चल लो, ऐसी दाढ़ी रख लो, ऐसे कपड़े पहन लो, तो तुम 'धार्मिक' कहला जाओगे। ऐसी भाषा बोल लो, ऐसे तीज-त्यौहार मना लो। ऐसी किताबें पढ़ लो, और जब जीवन में इस इस तरह की स्थितियाँ आएँ तो उनको इस इस तरह के उत्तर दे दो। ये बँधे-बँधाए उत्तर ही धार्मिक उत्तर हैं। और कोई पूछे कि, "ऐसा क्यों कर रहे हो?" तो कहना, “देखिए, उन्होंने भी तो यही किया था न ऐसे मौके पर? तो ऐसे मौके पर फिर यही करना उचित है।”

राम यदि एक मानवीय चरित्र हैं तो बहुत सीखोगे उनसे। और राम यदि अवतार हैं तो तुम भी रहना बीवी के वियोग में। फिर उन्होंने जो किया, तुम्हारे साथ भी वही सब कुछ होना चाहिए। जाना कहीं से धोबी ढूँढ़ के लाना।

प्र: आचार्य जी, यदि आज के परिदृश्य में देखें, तो राम ने जो कुछ किया, उनको तो जेल हो जाता।

आचार्य: जेल का मतलब क्या होता है? कष्ट ही न? तो कष्ट तो मिला उन्हें, ख़ूब मिला। कि नहीं मिला?

प्र: आचार्य जी, आपने कहा कि कृष्ण तक पहुँचने के लिए राम से होकर गुज़रना होगा, तो इस गुज़रने का क्या अर्थ है?

आचार्य:

गुज़रने का मतलब नकल नहीं होता, अनुकरण नहीं होता। गुज़रने का मतलब है कि किसी चीज़ पर अटक नहीं गए, उसके आगे भी गए। गुज़रने का मतलब होता है कि उसको इस छोर से उस छोर तक जान लिया, उसमें फँस नहीं गए – एन्‍ड्‌ टू एन्‍ड्‌, थ्रू एन्‍ड्‌ थ्रू (शुरू से अंत तक हर पहलू से)।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories