'रेप कल्चर' है हमारे समाज में?

Acharya Prashant

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'रेप कल्चर' है हमारे समाज में?
जो हमारी पूरी संस्कृति ही है ना, वो कहीं ना कहीं ऐसी है कि वो रेप को मान्यता दे रही है। बस वो कहती है, "इतने ज़्यादा ना हो, इतने विभत्स ना हो।" क्यों? क्योंकि उसके केंद्र में ही ये बात बैठी हुई है कि महिला के जीवन का मुख्य काम सेक्सुअल है। और जब तक ये बात रहेगी, तब तक जिसको आप टॉक्सिक मैस्क्युलिनिटी कहते हो वो भी रहेगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: एक-दो इंसानों को सलाखों के पीछे डालने से क्या होगा? निर्भया, हाथरस, कठुआ, हैदराबाद, कोलकाता। एक के बाद एक जघन्य हत्याकांड होते रहते हैं, रेप मर्डर केसेज़। हर साल ही होते हैं लगभग कुछ न कुछ, और फिर हम कहते हैं, "अरे भारत की आत्मा हिल गई।" इतना ज़बरदस्त कुछ हुआ। तुम बोल लेते हो दो-चार दिन के लिए, उसके अगले साल फिर कुछ इतना बड़ा मामला सामने आ जाता है।

और सामने आए ना आए, भारत में हर 15 मिनट में एक रेप हो रहा है। ये हम जानते ही हैं। और ये जो 15 मिनट में रेप का आँकड़ा है, ये बस रजिस्टर्ड आँकड़े हैं। जो अनरजिस्टर्ड आँकड़े हैं, जो पर्दों के पीछे हो रहे हैं, जो सम्माननीय जगहों में और संस्थानों में हो रहे हैं, घरों में हो रहे हैं — उनका तो कोई हिसाब ही नहीं है।

तो इस बार जो बंगाल में भूचाल आया है, वो वास्तव में कह रहा है कि, "हमें ये कल्चर ही नहीं चाहिए। नहीं चाहिए ये संस्कृति, जिसमें रेप नॉर्मलाइज़्ड है। जिसमें रेप एक नॉर्मल बात है कि हर साल हो जाता है, ठीक है, ज़िंदगी आगे बढ़ जाती है। फिर कोई मर गया आगे बढ़ जाओ।" आप बात समझ रहे हो, और जब तक ये कल्चर रहेगा तब तक ये रेप लगातार होते रहेंगे। हम वास्तव में जब तक इस कल्चर के अंदर हैं ना — हम रेप रोकने की नहीं बात करते, हम रेप के मैनेजमेंट की बात करते हैं।

जब तक आप इस कल्चर के अंदर रहते-रहते कहते हो, "रेप को रोको। स्टॉप रेप, स्टॉप रेप।" तब तक आप रेप रोकोगे नहीं, आप बस रेप को मैनेज करोगे। आप रेप को रेगुलेट करोगे। आप रेप को लेके बस एक तरह के नियम बनाओगे कि, "ऐसे-ऐसे करो तो रेप नहीं होगा। ऐसे-ऐसे करो तो नहीं होगा। या इन माहौल में थोड़ा बहुत रेप चलता है।"

उदाहरण के लिए — मेरिटल रेप, जो कि भारत में शायद रेप का सबसे बड़ा इंसिडेंट है। अगर सही में गणना की जाए कि जो भारत में बलात्कार होते हैं, वो सबसे ज़्यादा बलात्कार कहाँ होते हैं? वो तो जो वैवाहिक शयन कक्ष है, उसमें होते हैं। इन द मेरिटल बेडरूम। सबसे ज़्यादा रेप तो वहाँ होते हैं, शादी के बाद। तो उस तरह का रेप हम कहते हैं, "ठीक है वो वेल-मैनेज्ड रेप है। उससे हमें कोई समस्या नहीं है।"

जो हमारी पूरी संस्कृति ही है ना, वो कहीं ना कहीं ऐसी है कि वो रेप को मान्यता दे रही है। बस वो कहती है, "इतने ज़्यादा ना हो, इतने विभत्स ना हो।" क्यों? क्योंकि उसके केंद्र में ही ये बात बैठी हुई है कि महिला के जीवन का मुख्य काम सेक्सुअल है। और जब तक ये बात रहेगी, तब तक जिसको आप टॉक्सिक मैस्क्युलिनिटी कहते हो वो भी रहेगा। जिसको आप टॉक्सिक पैट्रिआर्की कहते हो, वो भी रहेगा। वो सब रहेगा।

रेप एक इवेंट नहीं होता। रेप एक कल्चर होता है। और कल्चर माने — मान्यता, व्यवहार, रुख, रवैया, ऐटिट्यूड, ये सब कुछ मिलकर कल्चर बनता है। बिलीफ़्स, अज़म्प्शंस, परंपराएं, ये सब कल्चर में आते हैं।

जो हमारा कल्चर है, वो कहीं ना कहीं रेप की तरफ़ परमिसिव है। ये बात हम मानना नहीं चाहेंगे, मानने में बहुत बुरी लगती है। पर नहीं होता तो भारतीय समाज में इतने व्यापक पैमाने पर नहीं हो रहे होते रेप। और रेप की तरफ़ परमिसिव है हमारा कल्चर। आपने उज्जैन का नाम लिया था ना अपने सवाल में? उज्जैन में आपको पता है ना क्या हुआ था? ऐसा नहीं है, यहाँ पर तो फिर भी ये था कि सेमिनार हॉल बंद था और रात के 3:00 बजे थे और लोगों को पता नहीं चला।

जो बंगाल में हुआ है, वहाँ पर तो दूसरों को पता नहीं चला। पर जो उज्जैन में हुआ है, वहाँ तो मामला बिल्कुल एक फुटपाथ पर हो रहा है और एक बड़ा व्यस्त सा चौराहा था, और वहाँ पर वो हुआ है और आते-जाते लोगों की वहाँ भीड़ उसको देख रही है। और एक आदमी ने बाकायदा उसका वीडियो बनाया है और वो सर्कुलेट हुआ है *वीडियो, वायरल भी हो गया है वीडियो। ये इस बात का प्रमाण है कि हमारे यहाँ रेप चलता है। रेप चलता है नहीं होता, तो इतने सारे लोग खड़े होके खुलेआम चौराहे पर, फुटपाथ पर रेप होता कैसे देख रहे होते? रेप चलता है। ये कल्चर है। रेप चलता है।

एक-दो नहीं शायद दर्जनों, सैकड़ों की भीड़ वहाँ खड़ी रही होगी। वो सब देख रहे हैं खड़े होकर के। एक बिज़ी ट्रैफिक की स्थिति थी वो। एक बिज़ी क्रॉसिंग है वो उज्जैन की, और उज्जैन एक धार्मिक नगरी भी है। और लोग देख रहे हैं। ये चलता है ना, हमारे यहाँ चलता है। इट्स अलाउड।

हम मानेंगे नहीं इस बात को। जैसे ही आप किसी से बोलोगे कि, "साहब, हमने ना अपना जो पॉप्युलर कल्चर है, वो ऐसा बना लिया है कि उसमें रेप इज़ काइंड ऑफ अलाउड," तो लोग गुस्सा हो जाएँगे। कहेंगे, "नहीं साहब, ऐसा थोड़ी है। हमारे कल्चर में रेप अलाउड थोड़ी है।" पर अलाउड नहीं है, तो लोग खड़े होकर देख क्यों रहे थे रेप को? अलाउड है, तभी तो देख रहे थे।

कल्चर क्या होता है? कोई लिखित नियमों का नाम कल्चर नहीं होता। जो आम जनता का व्यवहार होता है, वही कल्चर होता है। आप अगर बाहर जाओ कहीं, आप मान लीजिए आप जाते हो फ्रांस। आप वापस आओ, मैं आपसे पूछूँ, "फ्रांस का कल्चर कैसा है?" तो क्या आप मुझे कोई किताब पढ़कर बताओगे? आपने वहाँ आम लोगों का जो व्यवहार देखा, आप उसी से बता दोगे कि फ्रांस का कल्चर ऐसा है।

तो भारत का कल्चर कैसा है? उज्जैन के लोगों का जो व्यवहार था, वैसा ही भारत का कल्चर है। है ना? कोई उसके लिए हमें किताब थोड़ी पढ़नी पड़ेगी। आम आदमी का व्यवहार देख लो, वही भारत का कल्चर है।

और आम आदमी का व्यवहार ये है कि — न सिर्फ़ उसका बलात्कार देखा गया, बल्कि उसकी बाकायदा वीडियो बनाई गई। वो वीडियो वायरल हो गई। और वीडियो के वायरल होने से एक चीज़ याद आती है। बंगाल की जिस डॉक्टर बेटी की हत्या हुई, बलात्कार हुआ — उसका नाम पॉर्न वेबसाइट्स पर ट्रेंडिंग में रहा है बहुत दिनों तक। ये है हमारा समाज। और ये बात पहली बार नहीं हो रही है।

भारत में जब भी मीडिया में कोई रेप केस आता है, तुरंत भारतीय पुरुष जाकर के पॉर्न वेबसाइट्स पर उस नाम को खोजना शुरू कर देते हैं। हेवी ट्रैफिक जाता है पॉर्न वेबसाइट्स पर कि, "ये जो अभी रेप मर्डर केस हुआ है, मुझे इसकी टिटिलेटिंग, सेक्सुअली अराउज़िंग, इरोटिक क्लिप देखनी है।" अगर भारत ये कर रहा है और ऐसा कर रहा है कि वो वहाँ ट्रेंडिंग पर चला जाता है मामला, तो यही तो कल्चर है ना हमारा।

जब तक ये कल्चर नहीं बदलेगा, रेप के इवेंट्स कैसे बदल जाएँगे? हमको लगता है रेप एक घटना है, एक प्रकरण है। वो प्रकरण नहीं है, प्रक्रिया है। कल्प्रिट पूरा कल्चर है भाई। हम ऐसे लोग हैं कि कल रेप होता रहेगा और उसके मूल में हमारी बहुत गहरी धारणाएँ बैठी हुई हैं। उन्हीं धारणाओं के ख़िलाफ़ आज बंगाल आक्रोशित है। हालाँकि जो लोग आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं, आप उनसे पूछेंगे, तो वो ये इन शब्दों में इस बात को नहीं बोल पाएँगे। लेकिन आप थोड़ा सा इन्फर करिए ना, कि अगर कल्प्रिट को ही पकड़ा जाना था, तो कल्प्रिट तो पकड़ा गया। फिर अब आंदोलन किसके लिए? आंदोलन है ताकि कल्चर बदले। समझ रहे हैं बात को?

भारत में आप कहेंगे — लोगों को बड़ा गुस्सा आएगा। लोग कहेंगे, "आप भारत की गौरवशाली संस्कृति के ख़िलाफ़ ऐसा बोल रहे हो। आप रेप कल्चर बोल रहे हो।" आप भारत की संस्कृति में महिला को ऊँचे से ऊँचा पद कौन सा देते हो? माँ का देते हो ना। माने बिना सेक्सुअल एजेंसी के, तो उसके पास कोई एजेंसी ही नहीं है। है ना? माने बिना रिप्रोडक्शन, बिना सेक्सुअल एक्टिविटी के तो महिला को ऊँची जगह भी नहीं मिल सकती।

प्रश्नकर्ता: सर, इस बात पे मैं कहना चाहूँगा। रिसेंटली राजस्थान में एक ख़बर आई थी, जहाँ पर एक लड़के ने अपनी ख़ुद की माँ के साथ ही बलात्कार कर दिया। तो आप जो कह रहे हैं अभी, मतलब सम्मान के जगह पर इज़्ज़त के जगह पर वो भी अभी नहीं रहा।

आचार्य प्रशांत: वो नहीं रहेगा, क्योंकि आप जब ये भी कहते हो कि माँ है और माँ को आप महिमा मंडित करते हो, उसमें भी सेक्सुअल अंडरटोंस होती हैं।

लड़की पैदा होती है। हम उसको बड़ा करते हैं। हम कभी ये भूल थोड़ी पाते हैं कि वो लड़की है। हमारे लिए वो इंसान कभी होती कहाँ है? मनुष्य थोड़ी होती है वो। वो स्त्री का शरीर होती है। हर तरीक़े से वो हमारे लिए एक फीमेल बॉडी होती है। हाँ, हमें जब उसको रिस्पेक्ट करना होता है, तो हम कहते हैं — "फीमेल बॉडी है, रिप्रोड्यूस करती है, माँ है। माँ को इज़्ज़त मिलनी चाहिए।"

माँ को क्यों इज़्ज़त मिलनी चाहिए? माँ नहीं है, तो इज़्ज़त नहीं मिलनी चाहिए? लड़की कहे "मुझे माँ नहीं बनना," तो इज़्ज़त नहीं दोगे क्या?

पुरुष को क्या इसी नाते इज़्ज़त देते हो, कि पिता है? तो लड़की को इस नाते क्यों इज़्ज़त मिले, कि माँ है? क्योंकि हमारा बहुत-बहुत संबंध उसके रिप्रोडक्टिव सिस्टम से है। प्रजनन डिफाइन करता है औरत की हस्ती को। यह हमारा कल्चर है। कि औरत की हस्ती की पूरी परिभाषा ही किससे निकलती है? प्रजनन से। और जब तक प्रजनन इतना महत्त्वपूर्ण रहेगा हमारी नजरों में, तब तक देखो — ये संस्कृति नहीं बदलेगी। बलात्कार होते रहेंगे। समझ में आ रही है बात?

और यही जो पूरा रेप कल्चर है, इसके बहुत सारे चिन्ह होते हैं छोटे-छोटे। हम उनको नहीं पहचानते। हम उनका कोई उपाय भी नहीं करना चाहते। कोई समाधान नहीं। बस जब कभी कोई इतनी भारी दर्दनाक घटना घट जाती है, तब हमें लगता है यकायक कि ये क्या हो गया। लड़की को आप बोलते हो, "तुम देख-समझ के बाहर निकला करो।" लड़की को आप बोलते हो, "स्टे स्मॉल, स्टे क्वाइट, स्टे ट्रिम ऐंड प्रॉपर।" ये सब उसी रेप कल्चर में आता है।

हम कभी आइडेंटिफाई करते हैं क्या? रेप एक बीमारी है। हम कभी आइडेंटिफाई करते हैं कि कौन से पुरुष हैं जो प्रॉस्पेक्टिव रेपिस्ट्स हैं, और पहले ही उनका इलाज कर दो? सड़क पर कुत्ते घूम रहे होते हैं रेबीज लेकर के, आप उनका इलाज कर देते हो ना? आप ये इंतजार थोड़ी करते हो कि जाकर किसी को काट लें। या करते हो? वैसे ही जब हम जानते हैं कि रेप एक एपिडेमिक की तरह है भारत में, तो ऐसे पुरुषों का हम पहले ही इलाज क्यों नहीं कर देते? हम उनको सड़कों पर घूमने क्यों देते हैं?

पर इस तरह की आप कभी कोई बात भी सुनते हो क्या? कि आइडेंटिफाई करो ना ये कौन से पुरुष हैं। इनको पहले ही पकड़ के ठीक कर दो। या रेबीज़ के कुत्ते को सड़क पर घूमने दें, ताकि वो काटे और मार ही डाले।

प्रश्नकर्ता: ये जो रेप कल्चर है, इट इज़ अ सबसेट ऑफ द कल्चर ऑफ वायलेंस। मुझे जो लगता है कि — वायलेंस, इफ इट्स लाइक अ ट्री, रेप इज़ जस्ट लाइक अ ब्रांच। उसी-उसी टहनी पर ही है।

आचार्य प्रशांत: यू सी, दे आर टू फ्रूट्स फ्रॉम द सेम ब्रांच। सबसेट* नहीं है। वो बिल्कुल उसी सेट का एक और एलीमेंट है। उसकी जो रूट है ना, वो बॉडी आइडेंटिफिकेशन में है। "मैं मेल हूँ और मैं पावरफुल हूँ।" हिस्टोरिकल रीज़न से मैं अभी भी पावरफुल हूँ। अगर ह्यूमैनिटी बची रही, तो 200 साल बाद ये जो पावर एसीमेट्री है, ये कम हो जाएगी।

पर हिस्टोरिकली, मेल पावरफुल रहा है, कैपिटल सारी मेल के पास रही है। क्योंकि पहले एनर्जी का बहुत बड़ा स्रोत मसल पावर होता था। वो मसल पावर ज़्यादा मेल के पास रहा। तो वो जो तब से ट्रेडिशन फ्लो करती आई, वो अभी भी बची हुई है।

दूसरी बात, वुमन के पास वम था और वो इतना ज़्यादा प्रेग्नेंट रहती थी कि वो फिजिकली इमोबाइल और इनकेपेबल हो जाती थी। चाइल्ड बियरिंग और चाइल्ड रियरिंग आपकी फिजिकल एनर्जी पूरी सोख लेते हैं। तो उसको मेल के नीचे रहना पड़ता था — फॉर प्योरली बायोलॉजिकल रीज़ंस।

एक तो ये, कि एनर्जी तब ना तो स्टीम पावर था, ना फॉसिल फ्यूल था, ना न्यूक्लियर एनर्जी थी। तब तो मेनली एनर्जी क्या थी? हाथ से आती थी। हाँ थोड़ा एनिमल पावर था, पर एनिमल पावर के अलावा बाक़ी तो आपकी मसल की जो एनर्जी, उसी से काम होगा। और बायोलॉजिकली, मसल ज़्यादा पुरुष के पास है और वब औरत के पास है। और वूम आपको एक तरह से पैरेलाइज़ कर देता है। 9 महीने तक तो आप गर्भ से हो, उसके बाद आपसे बच्चा चिपका हुआ है और उसके साथ आप हो। और मंथली पीरियड्स हैं — वो भी आपको इमोबाइल करते हैं, इनकेपेबल करते हैं, और दे आर लाइक अ टैक्स ऑन द बॉडी।

तो ये सब पुराने बायोलॉजिकल रीज़ंस रहे हैं और उन्हीं की जो श्रंखला है, वो आज तक चल रही है — "आई एम द मैन, आई एम द कंट्रोलर, शी इज़ द वूमन।" मैं ह्यूमन बीइंग नहीं हूँ और वो भी मनुष्य नहीं है। ना मैं इंसान हूँ, ना वो इंसान है।

जब तक हमारा जो कल्चर है ना — वो कॉन्शियसनेस सेंट्रिक नहीं होगा। जब तक हम एक इंसान को मेल या फीमेल की तरह देखते रहेंगे, तब तक चीज़ों का बदलना बहुत मुश्किल है। क्योंकि अगर वो फीमेल है, तो फिर तो जो मेरी बायोलॉजिकल इंस्टिंक्ट है, वो उसको एक्सप्लॉइट करने की ही है। बिकॉज़ दैट्स हाउ आई एम फिजिकली।

मुझे हर चीज़ एक्सप्लॉइट करनी है। मुझे नेचर को एक्सप्लॉइट करना है। मुझे रिवर को, माउंटेन को एक्सप्लॉइट करना है। मुझे मिनरल्स को एक्सप्लॉइट करना है। मुझे दुनिया में हर चीज़ को एक्सप्लॉइट करना है। तो अगर मैं किसी औरत को एक्सप्लॉइट कर सकता हूँ, तो मैं करूँगा ना। जब तक हमारी जो बेसिक कंडीशनिंग है वही नहीं बदली जाएगी, तब तक ये चीज़ नहीं रुकेगी।

हमको जो पूरा कल्चरल ट्रेनिंग बचपन से मिल रही है ना, वो बहुत गड़बड़ है। "भाई बहन की रक्षा करेगा।" बार-बार यही रहता है ना "भाई बहन की रक्षा करेगा, भाई बहन की रक्षा करेगा।" लड़की की इज़्ज़त इसमें नहीं है कि उसने नोबेल प्राइज जीत लिया। लड़की की इज़्ज़त इसमें है कि वो वर्जिन है, चेस्ट है। और अगर लड़की अपनी वर्जिनिटी खो दे, तो वो सुसाइड फिर कर लेती है बहुत बार। इतना उसके दिमाग़ में भर दी गई है ये बात, "तुम्हारी इज़्ज़त का संबंध तुम्हारे जेनिटल्स से है।” हम इतना ज़्यादा सेक्स-सेंट्रिक लोग हो गए हैं कि दिमाग़ में बस सेक्स ही चलता है। और क्या चलेगा?

एक बात और आप समझना इसमें। ये जो कल्प्रिट को हैंग करने की बात होती है ना, ये जिन लोगों द्वारा की जाती है, कल्प्रिट से सबसे ज़्यादा फायदा भी यही लोग उठाते हैं। नहीं समझ में आ रहा? समझाता हूँ।

मैं इस घर का पैट्रिआर्क हूँ। ठीक है? मेरी दो-तीन लड़कियाँ हैं जो कि पढ़ना चाहती हैं, बढ़ना चाहती हैं, उड़ना चाहती हैं। मैं उनको दबाना चाहता हूँ। वो मेरी बात नहीं सुन रही। मैं लगा पड़ा हूँ जल्दी से इनकी शादी कर दो। अच्छा रेप कल्चर में ये भी आता है — "जल्दी से शादी कर दो, नहीं तो रेप हो जाएगा।" मैं लगा हुआ हूँ कि जल्दी से इनकी शादी कर दो। वो मेरी बात नहीं सुन रही। फिर मोहल्ले में किसी लड़की का रेप हो जाता है। बताओ सबसे ज़्यादा फायदा किसको हुआ? इस पैट्रिआर्क को फायदा हो गया ना।

तो जिन लोगों को फांसी देने की माँग की जा रही है ना, भद्र लोग द्वारा जो जेंटल लोग हैं समाज के — वो बोलते हैं, "उसको फांसी दे दो, उसको फांसी दे दो।"

जिसको ये फांसी देने की माँग कर रहे हैं, वैसे ही लोगों से पैट्रिआर्की को सबसे ज़्यादा फायदा होता है। क्योंकि जब एक रेप की घटना हो जाती है, तो हर घर में माँ-बाप को ये हक मिल जाता है कि अब लड़कियों को और दबाओ। और बोलो, "तू बाहर निकलेगी तो तेरा भी रेप हो जाएगा। चल, चुपचाप घर में बैठ।"

द एंटायर थिंग इज़ रॉटन।

बात ये है ही नहीं कि एक इंसान ने कुछ कर दिया। जिस इंसान ने कर दिया वो पकड़ा गया, उसको फांसी हो जाएगी। लेकिन मुझे ये बताओ, यहाँ कल्प्रिट कौन नहीं है? और कोई घटना घटेगी — कहेंगे, "अरे ये कपड़े ठीक से नहीं पहनती है, इसलिए रेप हो जाता है।" और जो तीन-तीन साल की लड़कियों का रेप हो रहा है फिर? जो 70-80 साल की वृद्धाओं का रेप हो रहा है, उसकी क्या बात है?

“अरे रात में मत निकला करो।” रात में आप सड़कें सैनिटाइज़ करो ना, कि रात में कोई भी निकल सके। इस देश के हर नागरिक का हक़ है, वो किसी भी समय कहीं भी निकल सकता है। आप कौन होते हो उसका हक़ छीनने वाले? पर हम उसे नागरिक की तरह नहीं देखते ना, शी इज़ नॉट अ सिटिज़न। शी इज़ अ वूमन। शी इज़ नोबडी। शी इज़ अ वूमन। उसकी और कोई आइडेंटिटी मैटर ही नहीं करती, बस वो वूमन है।

और हमको नहीं पता है लेकिन हम सब लोग, वी ऐज़ मैन, राइट नाउ टू मेन आर टॉकिंग अबाउट द एट्रोसिटीज दैट वीमेन हैव टू बियर। हमें नहीं पता होता लेकिन इनडायरेक्टली या सबकॉन्शियसली, हम सब उस रेप कल्चर में पार्टिसिपेट करते हैं। ये सारा जो आंदोलन है इसकी उपयोगिता इसी में है कि अगर वो कल्चर बदल पाए तो।

हम अभी दो घंटे तक बात कर सकते हैं और एक-एक करके उदाहरण मेरे दिमाग में आते जाएँगे, कैसे छोटी-छोटी बातों में हमारा जो कल्चर है, वो लड़की को बस एक सेक्सुअल ऑब्जेक्ट की तरह ही देखता है। जिन जगहों पर महिलाएँ एक स्वतंत्र, समान नागरिक की तरह रात में सड़कों पर निकल के जो उनको लगता हो वो काम नहीं कर सकती, वहाँ पर बस रेप की ही संस्कृति है। ये संस्कृति ही पूरी बदलनी पड़ेगी।

एक घटना पर मात्र शोर मचाने की बात है ही नहीं। इसीलिए वो शोर रुक नहीं रहा है। क्योंकि इस बार जो लोग प्रोटेस्ट कर रहे हैं वो बहुत पढ़े-लिखे लोग हैं, बहुत एलिट लोग हैं। कहीं न कहीं उनको ये सेंस हो गया है कि, इट्स नॉट अबाउट दैट वन पर्सन हू हैज़ बीन अरेस्टेड। इट्स अ मच डीपर मलेज़।

देखो, फिर उसी आँकड़े पर वापस आते हैं कि 15 मिनट तो सरकारी आँकड़ा है, कि हर 15 मिनट में एक बलात्कार होता है। आशंका ये है कि शायद वो हर दूसरे मिनट में हो रहा है। और ये चीज़ तब तक नहीं हो सकती जब तक इसको एक वाइडर सोशल सैंक्शन न मिला हुआ हो।

मैं उदाहरण देता हूँ। आपकी जो पार्लियामेंट है और आपकी जो लेजिस्लेटिव असेंबली है, उसमें 150 से ज्यादा ऐसे इलेक्टेड रिप्रेज़ेंटेटिव्स हैं — एमपी और एमएलए, जिन पर महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार के मुकदमे चल रहे हैं। और उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिन पर सीधे-सीधे बलात्कार और हत्या के भी मुकदमे चल रहे हैं।

ये जो इलेक्टेड रिप्रेज़ेंटेटिव्स हैं, इनको वोट किसने दिया है? जनता ने दिया है ना? ये रेप कल्चर है। कि “नॉर्मल सी बात है यार। उसने कर दिया होगा रेप। बॉयज़ विल बी बॉयज़। मेन विल बी मेन। रेप हो जाता है। कोई बात नहीं, वोट दे दो इनको और इलेक्ट कर लो। हो जाता है। क्या फ़र्क़ पड़ता है?"

एक बाबा जो रेप केस में ही जेल में है, उसको न जाने कितनी बार पैरोेल, फरलो ये सब दिया गया कि तुम बाहर चले जाओ। ख़ासकर जब कोई पॉलिटिकल एक्टिविटी का टाइम आता है, तो उसको बाहर जाने देते हैं। और जिस जेलर ने उनको बार-बार बाहर जाने दिया, प्रॉबबली ऑन पॉलिटिकल ऑर्डर्स उसने एक पॉलिटिकल पार्टी भी जॉइन कर ली है। ये है रेप कल्चर — जहाँ रेप को एक सैंक्शन मिला हुआ है कि तुम रेप वग़ैरह करते भी हो तो कोई बात नहीं। क्या हो जाता है?

जब पब्लिक वोट दे रही होती है, तो पब्लिक को पता होता है ना कि ये रेपिस्ट है। मैं इसको वोट दे रहा हूँ। जब पब्लिक को रेप फिर एक्सेप्टेबल है, तो रेप कैसे रुक जाएगा? जो हमारे इज़्ज़तदार लोग हैं, कई बार हमें पता होता है कि वो रेपिस्ट है, तब भी हम उसको इज़्ज़त दे रहे होते हैं। तब चलता है।

प्रश्नकर्ता: एक बात जो आचार्य जी यहाँ पर अकड़ती है — कि पुरुष तो समझ नहीं पा रहे हैं, लेकिन महिलाएँ जो अभी पॉलिटिक्स में हैं या फिर नेतृत्व कर रही हैं। हम तो ये आशा रख सकते हैं ना कि एक महिला दूसरी महिला की मनोभाव या फिर स्थिति समझेगी?

आचार्य प्रशांत: कल्चर, कल्चर जो होता है न — कल्चर ऑल-पर्वेसिव होता है। वो बच्चे में होता है, बूढ़े में होता है, महिला में, पुरुष में, छोटे बच्चे में, छोटी लड़की में, सब में होता है। सब एक साथ उसके शिकार बनते हैं। इट्स अ पैटर्न ऑफ बिहेवियर इन विच एवरीवन पार्टटेक्स। हाँ, उसमें फिर कुछ जो थोड़े कॉन्शस लोग होते हैं, वो एक्सेप्शन्स बनते हैं। हमें उन एक्सेप्शन्स की बहुत-बहुत ज़्यादा ज़रूरत है।

बात रेप की नहीं है। बात इस पूरी संस्कृति को ही बदलने की है। हमारे लिए वुमन एक सेक्शुअल ऑब्जेक्ट है। और जब तक हम इस बात को नहीं मानेंगे, तब तक कुछ बदलेगा नहीं।

आपकी मूवीज़ में महिलाओं की क्या जगह रहती है? अच्छा बताइएगा। कितनी मूवीज़ होती हैं जिसमें महिला के पास कुछ भी करने के लिए होता है? उसकी एक टोकन प्रेज़ेन्स होती है ज़्यादातर, सिर्फ़ शरीर दिखाने के लिए। पूरी मूवी होगी जो मेल-सेंट्रिक होगी, जिसमें सारे मेल कैरेक्टर्स हैं। इट्स अ मूवी अबाउट फाइव बॉयज़, फाइव मेन हैविंग अ गुड टाइम, फाइव गैंगस्टर्स। फिर उसमें बीच में अचानक एक आइटम सॉन्ग आ जाएगा। उसमें एक औरत होगी वो नाच रही है अर्धनग्न हो के।

दैट्स द पोज़ीशन ऑफ वुमन इन आवर कल्चर। यू कम हियर, यू आर अ बॉडी, यू रीमेन अ डीसेन्ट सेक्शुअल ऑब्जेक्ट, ऐंड देन वी विल इन्सेमिनेट यू, देन यू बेअर आवर किड्स ऐंड बिकम अ गुड मदर।

ये जो मदरहुड को भी हमने ग्लोरिफ़ाय किया है, उसका सेक्शुअल डाइमेंशन समझिए ना। हम बार-बार बोलते हैं — माँ, माँ, माँ। माँ तो तभी बनेगी ना जब पहले कोई पुरुष जाकर सेक्स करेगा।

अभी और न जाने कितने ऐसे उदाहरण दिमाग में आते जा रहे हैं, जहाँ पर हम ऐक्चुअली इस बात को ग्लोरिफ़ाय करते हैं कि कोई बंदा महिलाओं पर कितना ज़्यादा चढ़ के बैठ सकता है। हमारे लिए वो बहुत बड़ी बात होती है। और वो छोटे-छोटे सिम्बल्स में होती है।

और छोटी जगहों पर तो इतनी सेंसिटिविटी होती भी नहीं है कि वो इन सिम्बल्स को पकड़ पाएँ कि — ये जो है न, ये टॉक्सिक सिम्बल्स था, अभी-अभी जो किया गया है। और वही जो टॉक्सिक सिम्बल्स है वही अक्युमुलेट हो करके फिर कहीं न कहीं रेप की तरह विस्फोट के रूप में सामने आता है।

मच डीपर चेंज इज़ नीडेड। बात लॉ एंड ऑर्डर की नहीं है। बात इसकी भी नहीं है कि आप क़ानून में परिवर्तन करके कर दो कि रेपिस्ट को फांसी दी जाएगी। ये सब बात ही नहीं है। बात कहीं और है। बात हमारे घरों में है।

हम बोल रहे हैं ना, अभी आपके यहाँ चल रहा है — रिक्लेमिंग द स्ट्रीट्स। नो, नो। इट हैज़ टू बी डीपर दैन दैट। इट्स फर्स्ट ऑफ़ ऑल अबाउट रिक्लेमिंग द हाउस इटसेल्फ़। औरत को सड़क पे तो ख़तरा है ही है, सड़क से ज़्यादा ख़तरा उसे अपने घर के अंदर है।

इट स्टार्ट्स राइट फ्रॉम द हाउसहोल्ड। कल्चर का पालना तो घर होता है ना? संस्कृति तो घरों में बच्चों को दी जाती है ना?

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो सारी गड़बड़ घरों में ही हो रही है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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