प्रश्नकर्ता: सर जी प्रणाम आपको। आपने ही हमें बचा रखा है। आपकी वीडियो सुनते हैं डेली (रोज़) दस से ज़्यादा। सर, सोशल मीडिया पर इतनी बचकाना और घटिया पोस्टिंग ही क्यों करते हैं ज़्यादातर लोग? बिना बात का डिस्ट्रैक्शन (विकर्षण) होता है।
आचार्य प्रशांत: तुम कचरे की पेटी लेकर चल रहे हो अपने साथ तो जगह-जगह क्या बिखराते चलोगे? सोना, चांदी, हीरे, मोती, क्या? कचरा ही तो बिखराते चलोगे। जिसके पास जो है वो जहाँ जाएगा, वही बिखेरेगा।
लोग सोशल मीडिया पर जान-बूझकर घटिया और फिज़ूल बातें नहीं लिखते भाई, उनके पास बातें हैं ही यही। उनसे सहानुभूति रखो। उनके पास और कुछ है ही नहीं। उनकी ज़िंदगी ऐसी है कि उनके यही मुद्दे हैं। जिन बातों को अब तुम कह रहे हो कि बचकाना हैं और घटिया हैं, वो बातें उनकी नज़र में घटिया नहीं हैं जो उन बातों को पोस्ट करते हैं।
और कह रहे हो कि तुम रोज़ वीडियो सुनते हो डेली दस से ज़्यादा। ये जो तुम सवाल भी पूछ रहे हो न, ये सवाल उन्हीं विडियोज़ का ख़ुमार है। पता नहीं कब तुमने मेरे विडियोज़ देखने शुरू करे, मान लो छह महीने पहले।
छह महीने पहले क्या किया करते थे? साल भर, दो साल, चार साल पहले क्या किया करते थे? सोशल मीडिया तो अब दस-पंद्रह साल पुराना हो गया। तुम कौन-सी पोस्टिंग किया करते थे?
तुम भी तो वही सब चीज़ें डालते रहे होगे न सोशल मीडिया पर जिनको आज तुम बड़े ऊँचे होकर के लानत की निगाह से देख रहे हो, कह रहे हो, "छी, हम तो ऊँचे-ऊँचे, अच्छे-अच्छे वीडियो देखते हैं और ये बाकी दुनिया कैसी ज़लील बातों पर पोस्टिंग करती रहती है।" वो बाकी दुनिया तक भी तुमने आचार्य प्रशांत के वीडियो पहुँचा दिए होते तो वो बेचारे भी ना करते व्यर्थ की पोस्टिंग। अब उसकी ज़िंदगी में है ही वही सब कुछ। तो वो क्या डाले?
मैं कह रहा हूँ, उससे सहानुभूति रखने की जगह तुम उसकी शिकायत कर रहे हो। सोचो वो आदमी कितने कष्ट में होगा जो सोशल मीडिया पर आकर गालियाँ बक रहा है। या जो ये पोस्टिंग कर रहा है कि 'ओ, माय गर्लफ्रेंड अगेन डिड नॉट पिक अप माय कॉल।' (मेरी प्रेमिका ने फ़िर से मेरा फोन नहीं उठाया।) उसके पास कुछ है ही नहीं ज़िंदगी में इससे बेहतर।
तुम खौफ़ समझ रहे हो, कितनी भयानक बात है ये? उस आदमी के पास इससे बेहतर कुछ है ही नहीं। अब से जब भी कभी ट्विटर पर, फेसबुक पर, कहीं पर, यूट्यूब पर देखना कोई बहुत ही गिरी हुई पोस्ट, तो उस पर गुस्साने से पहले थमना और कहना, 'इस आदमी की ज़िंदगी कैसी होगी जिस आदमी के पास इससे बेहतर कुछ था ही नहीं लिखने के लिए।' कलेजा धक से हो जाएगा एकदम। और यही बात है, लोग ऐसी ही ज़िंदगियाँ जी रहे हैं।
इसीलिए तो भई, इतनी हमें मेहनत करनी पड़ती है न? क्योंकि समझ रहे हैं कि लोग कैसे ज़िंदगियाँ जी रहे हैं। जब तक तुम्हारे पास कुछ ऊँचा और कुछ सुंदर नहीं होगा, तब तक तुम्हारे पास कोई विकल्प ही नहीं होगा सिवाय इसके कि तुम बहुत छोटी, क्षुद्र और बदबूदार बातों में लिप्त रहो।
छोटे आदमी की पहचान ही ये होती है कि हर छोटा मुद्दा उसके लिए बहुत बड़ा हो जाता है।
और तुम उससे नहीं कह सकते कि तू जिस चीज़ में उलझ रहा है वो बहुत छोटा मुद्दा है। वो कहेगा, 'छोटा कैसे है? मैं इतना छोटा हूँ कि मुझे ये छोटी चीज़ भी बहुत बड़ी लग रही है।' और आदमी छोटा है या बड़ा, उसका निर्धारण कैसे होता है?
उसका निर्धारण होता है तुम्हारे काम, तुम्हारे लक्ष्य से। तुम दिनभर करते क्या हो, तुम किस चीज़ को पाने के पीछे हो, तुम किस चीज़ की सेवा में लगे हुए हो, इससे पता चलता है कि तुम आदमी छोटे हो या बड़े हो। ये सिद्धांत अच्छे से समझ लो।
छोटा आदमी कौन? जिसकी निगाह किसी छोटी चीज़ पर है। बड़ा आदमी कौन? जिसकी निगाह किसी बड़ी चीज़ पर है। छोटा वो नहीं होता जिसके पास कुछ बहुत कम है, पैसा, रुपया या प्रतिष्ठा। वो छोटा नहीं होता। जो ज़िंदगी में छोटे मुद्दों में उलझा हुआ है वही छोटा है।
बड़ा कौन है? जो किसी भी स्थिति में हो, चाहता कुछ बड़ा है। अब बड़े और छोटे की परिभाषा क्या है, ये भी अच्छे से समझ लो। क्योंकि ये नहीं जाना तो जो पिछला सिद्धांत बताया उसका अर्थ का अनर्थ कर लोगे। जो कुछ भी समय के साथ नष्ट हो जाता है वो छोटा कहलाता है। जो कुछ भी समय के साथ बदलता नहीं है, टूटता नहीं वो बड़ा कहलाता है।
जो कुछ भी तुम्हारे अहंकार भर की तृप्ति के लिए होता है वो छोटा कहलाता है। जो कुछ भी तुम्हारे अहंकार को तोड़ता है वो बड़ा कहलाता है। जो कुछ भी बस तुम्हारे व्यक्तिगत सुख के लिए होता है वो छोटा कहलाता है। जो कुछ भी तुम्हारे व्यक्तित्व से आगे निकल कर किसी वैश्विक मिशन के लिए होता है वो बड़ा कहलाता है।
तो जो आदमी किसी छोटी चीज़ में लिप्त है वो छोटा हुआ। जो आदमी किसी बड़ी चीज़ में लिप्त है वो बड़ा हुआ। और छोटे आदमी की सज़ा ये है कि उसकी ज़िंदगी में सब छोटे-छोटे मुद्दे होंगे।
यही मुद्दा होगा उसका — इतने से इतने बजे पानी आता है, हम भर नहीं पाए। और वो इसी बात की पोस्टिंग कर रहा होगा। कि "वो सुबह छह से आठ पानी आया था, आज मैं सोता ही रह गया, आज पानी नहीं भर पाया। पानी नहीं भर पाया तो जाकर पड़ोस के गुप्ता से पानी माँगा पर गुप्ता बड़ा नालायक है। गुप्ता ने आधा मग पानी दे दिया। मैंने कहा, 'ये क्या है?' बोला, 'डूब मरो इसमें, तुम उठ नहीं सकते थे समय पर?' अब गुप्ता को पता क्या, कि गुप्ताइन के सारे किस्से हमें पता हैं, आजतक बाहर नहीं किए।"
ये कहानी चलेगी फिज़ूल की, जैसे कोई घटिया सी-क्लास मूवी हो। चलती रहेगी, यही उसकी ज़िंदगी है। मूवी तो दो-ढाई घंटे में खत्म हो जाती है। तुम सोचो एक बहुत घटिया मूवी किसी की ज़िंदगी बन गई हो, वो आदमी जी कैसे रहा होगा?
उसके साथ यही चलता रहता है अहर्निश, चौबीस घण्टे। "पानी भरा कि नहीं भरा, पोछा लगाया कि नहीं लगाया, भैंस का दूध लेना है, गाय का दूध लेना है, नौकरी में फलाने को नीचा कैसे दिखाना है, ऊपर वाले तल पर वो जो बिट्टी रहती है, वो कल बाहर किस लड़के के साथ घूम रही थी। सब्ज़ी में कौन-सा नया मसाला डाल दें कि थोड़ा और ज़ायका आया करे। पैंट खरीदनी है फलानी जगह पर चौदह पर्सेंट की सेल है, बीस पर्सेंट की सेल कहाँ लगी हुई है?" और ये मुद्दा उसके दिमाग़ में चल रहा है, चल रहा है हफ्तों चल रहा है, महीनों चल रहा है।
और ये मुद्दा ख़त्म होगा तो इससे भी नीचे का कोई और मुद्दा शुरू हो जाएगा। तीन महीने बाद साली की शादी है और साली की शादी में मुझे तो सबको बिल्कुल चकाचौंध कर देना है, कपड़े कहाँ से सिलवाऊँ?
अब कपड़े सिलवाने के लिए इधर-उधर से जानकारी इकट्ठा की जा रही है, ख़ुफ़िया। गूगल ज़्यादा कुछ नहीं बता पाया तो सी.आई.ए. और रॉ और आई.इस.आई. से पूछा जा रहा है कि 'वो संगीत के लिए चोली कहाँ से सिलवाऊँ?' और जवाब भी आ गया कि 'काबुल से अठत्तर किलोमीटर उत्तरपूर्व में एक गुफ़ा है जिसमें तइय्यव नाम का एक बहुत हुनरमंद दर्ज़ी बैठता है। वो ऊँट पर बैठकर सिलाई करता है और वो चोलियों का विशेषज्ञ है।'
अब ये बात फोन पर चल रही है फूफी के साथ, मौसी के साथ, दुनिया भर के साथ विज्ञापित की जा रही है। तस्वीरें चिपकाई जा रही हैं फेसबुक पर। लोग आकर उनपर लाइक का बटन भी दबा रहे हैं। ये हास्यकथा मात्र नहीं है, ये अधिकांश लोगों की ज़िंदगी है। रूह काँप जाए ऐसी ज़िंदगी को जीकर।
पूछो अपने-आप से, तुम्हारे जीवन का उद्देश्य क्या है? सुबह से शाम जो कुछ करते हो, कर क्यों रहे हो? और अगर तुम्हें जवाब ये मिलता है कि सुबह से शाम तुम बस रोटी कमा रहे हो, आमदनी कमा रहे हो ताकि किसी तरह से जीवन चलता रहे, शरीर चलता रहे और घर चलता रहे तो ऐसी ज़िंदगी तुम जी क्यों रहे हो और ऐसी ज़िंदगी में क्षुद्रताएँ नहीं होंगी तो और होगा क्या?
ये कौन-सी ज़िंदगी है कि सुबह उठे, नाश्ता किया नहाए-धोए, चले गए। वापस आए फ़िर खाना खाया, टीवी देखा, इधर-उधर कहीं किसी को नोचा, खसोटा फ़िर सो गए, अगले दिन फ़िर यही।
कुल मिला कर इस पूरे महीने से निकला क्या? कुछ भी नहीं। कुछ भी नहीं। एक महीना बीतेगा, दूसरा शुरू हो जाएगा। एक साल बीतेगा, अगला लग जाएगा। तुम कभी जवान थे, तुम पाओगे तुम्हारे बाल सफ़ेद होने शुरू हो गए हैं, दाँत हिलने शुरू हो गए हैं। एक दिन पाओगे कि मौत सामने खड़ी है, तुम्हारे हाथ ख़ाली हैं, तुमने कुछ कमाया नहीं। मौत भी तुम्हें देख कर हँसेगी — इतने साल तुझे दिए गए, तू जिया क्या, तूने किया क्या?
ये कहलाती है छोटी ज़िंदगी। ये हो सकता है अस्सी साल-नब्बे साल लंबी भी हो लेकिन अस्सी-नब्बे साल लंबी होकर भी ये ज़िंदगी है बहुत छोटी। ज़िंदगी निर्धारित होती है ज़िंदगी के लक्ष्य की गुणवत्ता से।
और मैं नहीं कह रहा हूँ कि ये छोटी इसलिए है क्योंकि इसने कमाई छोटी की या इसने घर छोटा बनवाया। हो सकता है इसने बड़ी कमाई कर ली हो, करोड़ों कमाए हों, पचास करोड़। तब भी इसकी ज़िंदगी रह तो छोटी ही गई। वो पचास करोड़ किसके लिए थे? अपने लिए ही तो थे।
व्यक्तिगत सुख, व्यक्तिगत लाभ के लिए जो कुछ भी करोगे—सिद्धांत भूलना मत, थोड़ी देर पहले बताया था—वो छोटा ही कहलाएगा। पचास करोड़ भी तुमने अपने लिए कमा लिए तो ज़िंदगी तुमने बहुत छोटी जी।