सोचो ज़रूर, पर सोचते ही मत रह जाओ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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सोचो ज़रूर, पर सोचते ही मत रह जाओ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

वक्ता: तुमने कहा कि अगर मैं यहां बैठा भी हूं, तो कुछ सोच रहा हूं; अतीत का। और मुझे लग रहा है कि यदि ऐसा ना किया होता, तो अभी जो होता है, अभी जो रहा है, वो थोड़ा अलग होता। है ना? तो तुम कह रहे हो कि अभी यहां हो कर भी मन में विचार तो अतीत का ही चल रहा है। उसमें कोई दिक्कत ही नहीं है। नहीं, तुमसे ये नहीं कहा जा रहा है कि अतीत को लेकर मन में कोई विचार ना उठे। तुम्हें एक बड़ी मज़ेदार बात बताता हूं। तुमने कहा, ‘अतीत का विचार चल रहा है’। मैं तुमसे कहता हूं, हर विचार कहीं ना कहीं अतीत का ही होता है। अतीत ना हो, तो विचार आएगा कहां से? ये बात समझ लेना। हर विचार या तो अतीत का होगा, या भविष्य का होगा। और कहां के होते हैं विचार? विचारों में कोई गड़बड़ नहीं है। कोई अपराध नहीं हो गया अगर मन में कोई सोच उठ रही है। बस एक बात का ख्याल रख लेना कि ऐसा मत सोचना कि सोचते ही रह गए। अनंत रूप से मत सोचना शुरू कर देना कि प्रोग्राम की एक लाइन बोल रही है, अगली पंक्ति पर जाओ, और अगली पंक्ति बोल रही है पिछले पंक्ति पर वापिस जाओ। अब ये लगातार चलता रहेगा। और यही हमारी हालत रहती है।

हमारा विचार तो उठता है, पर कभी ख़त्म नहीं होता। हमें उसी में सुख मिलना शुरू हो जाता है। ये क्या कर रहे हैं? ये पेशेवर विचारक हैं। ये दिन-रात मात्र सोचते हैं। देखे हैं ऐसे लोग? वो एक ही बात को पांच-सौ बार सोचते हैं। और कहीं आगे नहीं बढ़ रहे। एक ही वर्तुल है, एक ही घेरा है, वो उसी में गोल-गोल घूम रहे हैं, और पांच-सौ बार घूम रहे हैं। एक ही कमरा है, उसके पांच-सौ चक्कर लगा रहे हैं, जैसे कि कहीं नई जगह पहुँच जाएंगे वो। वही चक्कर लगा-लगा कर, उनकी उम्मीद है कि कहीं और पहुँच जाएंगे वो। कैसे पहुंच जाओगे?

विचार आदमी के मन को मिली हुई बड़ी महत्वपूर्ण ताकत है; और विचार होता है अतीत का या भविष्य का ही, इसमें कोई शंका नहीं। सोचो, लेकिन सोचते वक्त ये ध्यान रहे कि इस सोच को अब ख़त्म भी हो जाना चाहिये। गहराई से सोचो, बल्कि गहराई से सोचना तो ध्यान की शुरुआत है।

ध्यान की शुरुआत जानते हो कहां से होती है? गहरी ताकतवर सोच से। हां, वो जब सोच परिपक्व हो जाती है, तो घुल जाती है, खत्म हो जाती है। तब तुम कहते हो कि अब मैं, पूरे ध्यान में हूं, अब सोचने की जरुरत ही नहीं, फिर तुम उसको कहते हो, ‘विचारशून्य ध्यान’। पर विचारशून्य ध्यान की भी शुरुआत तो विचार से ही होती है। तो, विचार बड़ी प्यारी शक्ति है जो तुम्हें उपलब्ध है। उसमें भूल में मत पड़ जाना कि मैं सोचता क्यों हूं। बहुत अच्छी बात है कि तुम सोचते हो। पर सोचो, और सोच कर मामले को जल्दी से ख़त्म करो। सोचते ही मत रह जाओ। विचार, समझ लो एक लिफ्ट की तरह है, ‘एलीवेटर’। वो तुमको निचले तल से ऊंचा ले जाएगा, ऊंचे से ऊंचा, जहां जाना चाहते हो। पर अंततः तुम्हें उससे उतरना भी तो पड़ेगा। लगातार सोचते ही नहीं रह सकते। तुम ऐसे आदमी को क्या कहोगे, जो दिन भर सिर्फ लिफ्ट में ही खड़ा रहता है? लिफ्टमैन या पागल। कभी ना कभी तो सोचना बंद भी करना पड़ेगा। सोचो, और इतनी ताकत से सोचो कि समाधान पर पहुंच जाओ। जो तुम्हारा सवाल है, वो बाकि ही ना बचे, ऐसा सोचो। और फिर सोचने की जरुरत नहीं। अब तुम मज़े में हो। मन हल्का है। कुछ नहीं चल रहा यहां पर, कोई बोझ ही नहीं है। तुम कह रहे हो कि अभी तुम्हें अतीत का ख्याल आ रहा है। वो इसलिये आ रहा है क्योंकि तुमने बैठ कर अपनी पूरी ताकत से कभी उन सब बातों का निवारण किया ही नहीं। मैं कह रहा हूं, बैठ जाओ, और बोलो कि ‘विचार आ, मिस्टर थॉट वेलकम। बोलो क्या चाहते हो? रोज़ चले आते हो, चाहते क्या हो तुम?’ लड़ो मत उससे, उसे आने दो। उसे आने दो, और निडर हो कर उससे बात करो कि तुम चाहते क्या हो कि रोज़ चले आते हो। लड़ नहीं रहे हो, सिर्फ पूछ रहे हो कि क्या चाहते हो, क्या मर्जी है तुम्हारी, और जैसे ही ये करना शुरू करोगे, तुम पाओगे कि बेकार के विचारों की जीवन में अब जगह कम होती जा रही है।

विचार उठता है, तो उसका कोई कारण होता है। उस कारण को देख लो। देखते ही तुम उससे मुक्त हो जाओगे। भी, कोई बहुत महत्वपूर्ण कारण होता ही नहीं है। कारण हमेशा ऐसे ही होते हैं हमारे- छोटे-छोटे, बचकाने- पर उनसे विचार बड़े-बड़े उठते हैं। बड़े-बड़े विचार, ‘ये हो जाएगा, वो हो जाएगा’। किसी का फ़ोन आधे घंटे तक नहीं मिला, तो कैसे-कैसे विचार आते हैं? बात कहां तक नहीं पहुँच जाती? एक दिन प्रेमिका से लड़ाई हो जाए, तो कितनी दूर तक विचार जाते हैं? और हुआ कुछ नहीं है। तुम पन्द्रह मिनट लेट हो गये थे। बस इतनी सी बात थी। लेकिन मन, बड़ी दूर-दूर जाता है। उसे कौन रोक सकता है? वो कहीं भी जा सकता है। और फिर सुलह हो गई अगले दिन, अब कोई विचार नहीं है। पिछले दिन तुमने ब्रेकअप की पूरी तैयारी कर ली थी। कर ही लिया था मन में। ब्रेकअप की ही नहीं तैयारी कर ली थी, तुमने अगली वाली भी तय कर ली थी।

(सभी श्रोतागण हंस देते हैं)

वक्ता: ये तो जायेगी ही अब। अगली ऐसी चुनूंगा कि ये जल मरे।

(सब और ज़ोर से हंस देते हैं)

वक्ता: कितनी दूर तक घोड़े दौड़ जाते हैं। और कारण क्या था? पन्द्रह मिनट लेट पहुंचे थे। वो बैठी हुई है रेस्टोरेंट में, और आप गायब हैं। बस इतना सा था। तो जो कुछ भी हो रहा है, वो गुब्बारे की तरह फूलता जा रहा है, फूलता जा रहा है। तुम उससे कहो, ‘थम, जरा बात करें हम’। ये जो इतना मामला बढ़ा हुआ है, इसकी वजह क्या है? थोडा बात करें हम? और जब बात करोगे तो पाओगे कि इतना कुछ था ही नहीं। जो था, वो ठीक किया जा सकता है। ठीक है ना?

श्रोता १: सर, आपने बोला कि सोचने से अहंकार बढ़ता है।

वक्ता: बढ़ता नहीं, पलता है। उसी पर, पलता है।

श्रोता १: तो फिर अहंकार जो होता है, व्यक्ति का नाश ही करता है? इसके मायने हमें सोचना नहीं चाहिये। पर हमारे जो बुजुर्ग लोग हैं, वो कहते हैं कि हमें जब भी कोई काम करना चाहिये, सोच-समझ कर करना चाहिये।

वक्ता: अभी जब मैं अभिषेक के सवाल का जबाब दे रहा था, तब मैंने क्या कहा था? मैंने कहा था, लिफ्ट का इस्तेमाल करो और छोड़ दो। तुम्हें एक नदी पार करनी है, तो तुम नाव का इस्तमाल करोगे। पर जब दूसरे छोर पर पहुँच गये हो, और तब भी बैठे ही हुए हो नाव में, तो पागल हो कि नहीं हो? कि पहुँच गए हैं और उतरने का नाम नहीं ले रहे हैं। क्यों? क्योंकि मोह हो गया है नाव से। इतनी प्यारी नाव है, अब उतरे कौन? बुज़ुर्गों ने ठीक कहा है, पर उन्होंने बात आधी ही कही है। उन्होंने ये तो कहा कि सोच-समझ कर काम करो, पर उन्होंने ये नहीं बताया कि जब ‘समझ’ आती है, तो सोच अपने आप विलीन हो जाती है।

सोच का काम ही यही है कि वो समझ में परिवर्तित हो जाए। और सोच जैसे ही समझ बनी, अब सोच की क्या ज़रुरत? उन्होंने ये थोड़े ही कहा कि सोचते-सोचते, सोचते ही रहो, सोचते ही रहो और काम कभी मत करो। समझ रहे हो? सोचना शुरू करो, अच्छी ताकत है। और गहराई से सोचो ताकि समझ जाओ। बस बात ख़त्म। और जितनी गहराई से सोचोगे, उतना कम सोचना पड़ेगा। जितनी ताकत से सोचोगे, उतना कम सोचना पड़ेगा। बात समझ में आ गई? उसका अर्थ ये भी है कि अगर अपनी पूरी ताकत से सोचो, तो सोचना पड़ेगा ही नहीं। क्षण भर में बात समझ में आ जाएगी, मिलिसेकंड में। समझ में आ गई, अब सोचना क्या? तुम्हें लगातार-लगातार इसलिये सोचना पड़ता है क्योंकि तुम, अधमने होकर सोचते हो। तुम सोचते भी ठीक से नहीं हो।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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