सर, आप हमसे इतने अलग कैसे? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

14 min
52 reads
सर, आप हमसे इतने अलग कैसे? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, मेरे दो सवाल हैं जो एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। पहला प्रश्न यह है कि आप जो हमें समझाते हैं, उपनिषद् हों या हमारे प्रश्नों के समाधान हों, तो आपकी जो प्रज्ञा है और हमारी जो प्रज्ञा है उसमें बहुत अंतर है। हम ख़ुद से वो चीज़ नहीं समझ पाते। तो पहला प्रश्न यह हुआ कि क्या यह प्राकृतिक डिस्क्रिमिनेशन (भेद) है या क्या है?

आचार्य प्रशांत: अंतर तो देखो अपने-अपने चुनाव का है। अगर यही कहना चाहते हो कि मेरे लिए प्राकृतिक तौर पर कुछ चीज़ें सहयोगी थीं, अनुकूल थीं, तो तुम्हें फिर तस्वीर पूरी देखनी पड़ेगी। तुमने कहा कि आपकी प्रज्ञा और हमारी प्रज्ञा में बहुत अंतर है।

मैं समझना चाहता हूँ। मेरे लिए तो शायद और भी मुश्किल था न भीतरी दिशा में जाना। मैं जिस दुनिया में जा चुका था, वहाँ तो बाहर-बाहर बहुत आकर्षण हैं, जिन चीज़ों के लिए हम साधारण तौर पर लालायित रहते हैं, वो तो सब सामने रखी हुई थीं न। और रखी ही नहीं हुई थीं, कम-से-कम तीन सालों तक मैंने उनका स्वाद भी लिया है।

तुम अपनी एक विवशता बताते हो, तुम कहते हो कि मैं उपनिषद् पढ़ता हूँ मुझे समझ में नहीं आता। मेरी ओर देखते हो तो तुम्हें ये कहने का बहाना सा मिल जाता है कि आचार्य जी को तो उपनिषद् आसानी से समझ में आ जाते हैं। पर मेरे सामने तो दूसरी चुनौतियाँ भी तो थीं और वो बहुत बड़ी चुनौतियाँ थीं।

ये दुनिया हल्की चीज़ नहीं होती, माया अच्छे-अच्छों को खींच लेती है न! और माया जब अपने सारे आकर्षण लेकर के, सारे लालच लेकर के आपके सामने नाच रही हो तो वो बड़ी ख़तरनाक और बेबसी की स्थिति होती है। आप उस समय उससे नहीं जीत सकते — यह मेरी तकलीफ़ थी, यह मेरी कठिनाई थी।

तो सबकी अपनी-अपनी स्थितियाँ, तकलीफ़ें, कठिनाइयाँ होती हैं। आपकी एक होगी; मेरी दूसरी थी। कठिनाइयाँ गिनाने की बात नहीं है, चुनाव की बात है। मैंने चुना और आप भी चुन सकते हैं। बस इतना सा अंतर है और कोई अंतर नहीं हैं। यह सब छोड़ो कि प्रज्ञा और ये और वो, कि ज़्यादा होशियारी है किसी में या ज़्यादा समझदारी है — बेकार की बातें हैं।

ख़ुद ही अभी कहा न कि वेदान्त सदा से कम लोगों को बोधगम्य रहा है, जो सरल संतों की बातें हैं वो ज़्यादा लोगों तक पहुँची हैं, तो इसमें होशियारी का क्या? जो सरल चित्त है उसके लिए तो और सरल रहा है सच्चाई में प्रवेश। तुमको कोई आईआईटी, आईआईएम की डिग्री (उपाधि) थोड़े ही चाहिए है सच्चाई को समझने के लिए! उस मामले में मेरा काम कठिन रहा है। आप तो सरलता से प्रवेश कर सकते हैं। मैं तो बिलकुल माया की चपेट में फँसकर किसी तरह से जान छुड़ाकर भागा हूँ।

मैं यह भी नहीं कह रहा कि मेरी भी तकलीफ़ें आपकी तकलीफ़ों से ज़्यादा बड़ी थीं। मैं बस बताना चाहता हूँ कि आपके सामने एक चुनौती थी या है, मेरे सामने भी एक चुनौती है। सबको अपनी-अपनी चुनौतियों का सामना करते हुए ही सही दिशा बढ़ना होता है। सही दिशा बढ़ोगे या नहीं बढ़ोगे यह बात आपके चुनाव की होती है। चुनाव एक बार नहीं; बार-बार करना पड़ता है। कोई भी सुबह हो सकती है जब आपके सामने सवाल खड़ा हो जाए कि आगे बढ़ना है या नहीं बढ़ना है? यहीं पर रोक दें? क्विट (छोड़ना) कर सकते हो।

यही इंसान होने की मौज है, यही इंसान होने की मजबूरी है। मौज यह है कि चुनाव का विकल्प हमेशा खुला हुआ है। वो ताक़त आपसे कभी छिन नहीं सकती और मजबूरी यह है कि चुनाव का विकल्प हमेशा खुला हुआ है, ग़लती आप कभी भी कर सकते हो; तो चुनना पड़ता है। वो एक फैसला होता है। बस, फैसला होता है। अपनी मौज होती है, आ गयी तो आ गयी।

कोई कारण आप नहीं कह सकते कि फ़लाने व्यक्ति ने चुना, क्योंकि उसके पास ऐसे-ऐसे सहयोगी कारक मौजूद थे — यह सब नहीं है। ऐसे हम कारण ख़ूब खोजते हैं। हम कहते हैं कि देखो कबीर साहब ने, रैदास साहब ने चुना, क्योंकि उनके पास तो कुछ था नहीं जीवन में। एक जुलाहे थे, एक चर्मकार थे; उनके पास ज़्यादा धन इत्यादि नहीं था, तो फिर उन्होंने भगवद-भक्ति का मार्ग चुन लिया। हम ऐसे तर्क दे देते हैं।

फिर हम यह भी तर्क दे देते हैं, हम कह देते हैं कि महात्मा बुद्ध, महात्मा महावीर इन्होंने चुना, क्योंकि ये तो राजा थे इन्होंने सब कुछ भोग लिया था जवानी में ही, तो फिर इन्होंने कहाँ सब कुछ छोड़ था। ये सब फ़िज़ूल के तर्क हैं न। देख रहे हो, हम दो तरफ़ कितने परस्पर विरोधी तर्क देते हैं? एक तरफ़ कहते हैं कि वो ग़रीब थे, इसलिए उन्होंने चुना और एक तरफ़ कह देते हैं कि वो अमीर थे, इसलिए उन्होंने चुना ।

कोई कारण नहीं है, न अमीरी कारण है न ग़रीबी कारण है — चुनाव है चुनाव। जिसे चुनना होगा वो ग़रीबी में चुन लेगा, जिसे चुनना होगा वो अमीरी में भी चुन लेगा; जिसे नहीं चुनना उसे तुम अमीर रखो, ग़रीब रखो, वो नहीं चुनेगा तो नहीं चुनेगा ।

दिल आने वाली बात है, प्रेम की बात है, ज़बरदस्ती नहीं कर सकते, उसे करना है तो करेगा, नहीं होता तो नहीं होता। कोई सूत्र, कोई फॉर्मूला काम नहीं करता इसमें। होता तो कब का आज़मा लिया गया होता कि ऐसी-ऐसी स्थितियाँ निर्मित करो, सब लोग आध्यात्मिक हो जाएँगे, सब मुक्ति की तरफ़ बढ़ जाएँगे; कुछ नहीं।

जो एकदम ग़रीब देश हैं अफ्रीका के अभी भी उनको देखो, सोमालिया को; और जो एकदम अमीर देश हैं उनको देखो, अमेरिका को। समझ में नहीं आएगा कि आध्यात्मिक लोग कहाँ ज़्यादा हैं या कहाँ कम हैं। न अमीरी की बात है, न ग़रीबी की बात है, न बचपन की बात है, न बुढ़ापे की बात है। कम उम्र की बात करोगे तो नचिकेता सामने आ जाएँगे, आचार्य शंकर सामने या जाएँगे। अधिक उम्र की बात करोगे तो फिर वहाँ दूसरे उदाहरण तुम्हारे पास मौजूद हैं।

स्त्रियों की बात करोगे तो वहाँ भी उदाहरण मौजूद हैं, पुरुषों की बात करोगे तो वहाँ भी हैं। लिंग से भी अंतर नहीं पड़ता, काल से अंतर नहीं पड़ता। आप अगर इस इंतज़ार में हो कि हालात ठीक होंगे तब आगे बढ़ेंगे तो साहब! हालात से तो अंतर पड़ना ही नहीं है — आप ग़लत दिशा में देख रहे हो।

आप में से जिन लोगों ने कभी प्रेम जाना हो, हालात देखकर करा था क्या? अब सब कुछ ठीक है, नौकरी लग गयी है, बैंक बैलेंस भी बढ़ गया है, अब आज शाम को निकलते हैं, आज प्रेम करेंगे। फिर शाम को निकले पाँच बजे, साढ़े आठ तक प्रेम हो गया, ऐसे हुआ था? और मेरा दिल धक्क से रह गया है, क्योंकि मुझे पता है ऐसे ही हुआ होगा । (श्रोतागण हँसते हैं)

(आचार्य जी मुस्कुराते हुए) मैं मज़ाक करना चाहता था; उल्टा पड़ गया। हमारा तो ऐसे ही होता है। हम तो शाम को पाँच बजे सिर्फ़ प्रेम करने नहीं निकलते, हाथ में अपनी कुंडली और जाति प्रमाण-पत्र और ये सब लेकर निकलते हैं न। तय हो जाता है थोड़ी देर में मामला। यह सब हम करते हैं तो ऐसे ही हमें यह लगता है कि अध्यात्म में भी कुछ करा जाता होगा, वहाँ भी कुछ सेटिंग होती होगी ।

पहले ज़िंदगी में न थोड़ी-थोड़ी बातों में, थोड़ा जोख़िम उठाना सीखो। ये सब तैयारी की बातें हैं, ये प्रिप्रेटरी स्टेप्स हैं। जो लोग जोखिम से, रिस्क से बहुत डरते हैं, वो आगे नहीं बढ़ पायेंगे। थोड़ा कलेजा कड़ा करना सीखो। गिनती कम करना सीखो। हानि-लाभ का गणित थोड़ा सा पीछे करना सीखो — छोटी-छोटी बातों में ये है, वो है। कुत्ते को रोटी भी डालते हैं, तो कई लोग गिनते हैं कि कितनी डालनी है।

अब कैसे समझाऊँ, कुछ होता तो समझाता मैं, अब मैं कैसे समझाऊँ ये? कुछ और भी पूछ रहे थे?

प्र: कि जब संतों की वाणी सुनते हैं तो वो थोड़े बोधगम्य रहते हैं, थोड़े सरल रहते हैं। तो क्या इसलिए सनातन धर्म में उपनिषदों को स्थान नहीं मिल पाया है कुछ समय से।

आचार्य: नहीं, सनातन धर्म में तो उपनिषदों का स्थान सर्वोच्च है; जनमानस में नहीं हैं। आप किसी ज्ञानी-विद्वान के पास जाएँगे तो वो तो यही बोलेगा कि सबसे ऊपर उपनिषद् हैं। आम लोगों को नहीं पता है। वो बात है। आपको अगर संतों की वाणी से लाभ हो रहा है, तो आप वहीं से शुरुआत करिए न।

देखो, जो संतों ने बात कह दी है सरल दोहों में या प्रतीकों में या कहानियों के माध्यम से; वो बात भी आप पूरी तरह समझ नहीं सकते, वेदान्त के सूत्रों को जाने बिना, क्योंकि वो बात आ तो वहीं से रही है न। अगर आपको वेदान्त का पता नहीं, तो — उदाहरण के लिए — कबीर साहब के दोहों में जो कहा गया है, आप उसका बहुत ही सतही अर्थ निकाल लोगे । जैसे छठी के बच्चे होते हैं उनको बता देते हैं:

"बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।"

~ कबीर साहब

वो छठी में पढ़ रहा है, वो सोच रहा है कि इसका मतलब खजूर के पेड़ से है। जहाँ बात ब्रह्म, माया और अहंकार की हो रही है, वहाँ छठी की हिन्दी की अध्यापिका पढ़ा भी जाती है, "फल लागे अति दूर"। 'देखो, वो फल दूर लगा हुआ है, देखो वो ऊपर दिख रहा है न, वो खजूर, नारियल वहाँ टंगा हुआ है न, यही मतलब है इसका।'

तो संतों की बातें आसानी से प्रसिद्ध और प्रचलित हो सकती हैं। प्रसिद्ध हो जाएँगी पर उनका अर्थ आप नहीं जानोगे क्योंकि वेदान्त आपको पता नहीं। कितने ही दोहे तो आप जानते हैं और अपनी नज़र में आपको उनका अर्थ भी पता है; पर आपको जो अर्थ पता है वो वैसा ही है जैसा आपका जीवन, सतही।

कबीर साहब को क्या रुचि है खजूर में; वो खजूर की बात क्यों करेंगे? तुम सोचते भी नहीं, उन्हें क्या रुचि है तुम्हें फल खिलाने में। कि देखो कितनी दुर्घटना हो गयी, अरे-रे-रे विभीषिका हो गयी — "फल लागे अति दूर"। सबको फल मिलना चाहिए, यही तो समाजवाद है, सबको फल नहीं मिल रहा। वो फल की बात क्यों करेंगे? और एक संत जब एक फल की बात करता है तो वो कौनसा एकमात्र फल है जिसमें उसकी रुचि होती है, यह आपको पता ही नहीं चलेगा अगर आप वेदान्त से परिचित नहीं।

अब वो तो बात कर रहे हैं कि "चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय।" उनकी चक्की में क्या रुचि है? पर आपको तो पता ही नहीं कि द्वैत क्या, अद्वैत क्या। तो आप सोच रहे हैं, 'अच्छा-अच्छा कि चक्की चल रही थी, चक्की को देखा उन्होनें। वो गेहूँ पीस रहा था उन्होंने कहा — 'ये देखो, गेहूँ बेचारा चक्की में फँस के मारा गया।' आपने अर्थ भी कर लिया, आपकी अध्यापिका ख़ुश भी हो गयीं, आपको नंबर भी मिल गये — 'बिलकुल सही, बढ़िया।'

"ऐसी वाणी बोलिए, मन का आप खोय । औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय ।।"

~कबीर साहब

बहुत बढ़िया, इसका मतलब मीठी-मीठी बात सबसे करनी चाहिए, यही आपने सीख लिया है — छठी में पढ़ा था हिन्दी की किताब में। तो बिलकुल झूठी-झूठी, मीठी-मीठी बातें, 'हें-हें-हें, अरे! आप से सुंदर कौन है! अरे वाह-वाह! आप तो।' बताइए न मुझे कि वाणी की शीतलता का क्या अर्थ है?

आपने वेदान्त नहीं पढ़ा और साहब आप से कह रहे हैं, "ऐसी वाणी बोलिए, मन का आप खोय।" मन का आपा क्या होता है? आपा माने 'स्व', मन का अपनापन, मन का केंद्र। ये मन का आपा क्या चीज़ है? किसको खोने की बात कर रहे हैं वो? शीतलता क्या चीज़ होती है? वो कह रहे हैं, "औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।" ये शीतलता क्या है? कौन है जो तप रहा है, अतः शीतल होना चाहता है; तपने का अर्थ क्या है? मुझे बताइए।

अब वो क्या कह रहे हैं, ये आपको तब तक पता नहीं हो सकता, जब तक आपने गीता का वो श्लोक नहीं पढ़ा जिसमें कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि विगत ज्वर हो जाओ।

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्वाध्यात्मचेतसा। निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।

विवेक बुद्धि द्वारा (ईश्वर ही कर्ता हैं, मैं उनके हाथ का यन्त्र बन कर उन्हीं का काम करता हूँ, मन में ऐसा विचार रख कर) समस्त कर्म तथा कर्मफल मुझ परमेश्वर में अर्पित करके निष्काम, ममता-रहित और शोक शून्य होकर तुम युद्ध करो। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ३०)

कबीर साहब का दोहा वेदान्त पर माने श्रीमद्भगवद्गीता पर आधारित है, जहाँ पर कृष्ण, अर्जुन को विगतज्वर, ज्वर माने ताप, ताप से आगे जाने के लिए कह रहे हैं वहीं से कबीर साहब की शीतलता की बात आ रही है। पर आपको वेदान्त तो पता नहीं, तो आपको लग रहा है कि ऐसी बातें बोलो जिसको सुनकर सब खुश हो जाया करें।

'हें-हें–हें' (हँसने का अभिनय करते हुए) नमस्कार, सेठी साहब। आज तो आपका चेहरा चमक रहा है।' ख़ुश हो गये साहब।

और इतना हमको और मिल गया है कि यही बात तो हमें हमारे संत लोग बता गये हैं कि मीठी-मीठी बोला करो ।

कबीर साहब ने ख़ुद कभी मीठी-मीठी बोली है? ये जितनी चीज़ें हैं, सब उन्होंने डंडे से मारा है। और हमें यह भी समझ नहीं आता कि ख़ुद तो वो कभी मीठा बोलते नहीं थे, तुमको काहे को बोलेंगे कि सबको शीतल कर दो, शीतल कर दो! शीतल तो हम ख़ुशामद से ही होते हैं, शीतल तो हम झूठ से ही होते हैं; अब संतजन हमें झूठ के लिए तो प्रेरित करेंगे नहीं। पर इतना भी हम सोच नहीं पाते, क्योंकि वेदान्त से कोई लेना-देना नहीं हमारा।

तो मैं बिलकुल कह रहा हूँ कि संतवाणी मीठी होती है, प्यारी होती है, आप उसे अपनाए; लेकिन सावधान भी कर रहा हूँ कि संतवाणी का वो अर्थ नहीं होता जो आप समझते हैं। उसका भी क्या अर्थ है वो जानने के लिए आपको वेदान्त पता होना चाहिए। वेदान्त कुंजी है, संतवाणी का ताला भी उसी से खुलेगा।

प्र: तो आचार्य जी, अगर जैसे अभी उपनिषद् समझने में थोड़ी कठिनाई आ रही है, तो हमें बार-बार उसको पढ़कर कोशिश करनी चाहिए या कैसे?

आचार्य: पूछ लिया करो, क्या तकलीफ़ हो जाएगी? (मुस्कुराते हुए)

प्र: नहीं, पर अब हर बार इस तरह से पूछना थोड़ा कठिन लगता है ।

आचार्य: क्यों पूछने में क्या होता है? बेइज्जती होती है?

प्र: नहीं, मुमकिन नहीं हो पाता, हर बार पूछना, हर एक श्लोक का अर्थ पूछ नहीं पाते न।

आचार्य: मैं तो हर एक का ही बताता हूँ, क्या तकलीफ़ हो गयी पूछने में? शरमा रहे हो? 'इतना थोड़े ही पूछेंगे। ये थोड़े ही बताएँगे कि हमें एक भी श्लोक नहीं पता! हर श्लोक में थोड़े ही पूछ सकते हैं! हम अच्छे बच्चे हैं न, अच्छे वाले स्टूडेंट (छात्र), जो सिर्फ़ टफ (कठिन) प्रॉब्लेम (सवाल) पूछने जाता है, कैसे बता दें कि किसी श्लोक का कोई शब्द आज तक समझ में नहीं आया।'

प्र: तो फिर अब जैसे गंगा नदी के तट पर जाकर बैठ जाएँगे?

आचार्य: पढ़ लो, ये जानने के लिए कि कुछ समझ में नहीं आया। फिर गंगा तट से कहाँ बुलाते हैं तुमको? यहाँ; यहाँ पूछ लो।

अपने अज्ञान का ज्ञान भी बहुत बड़ा ज्ञान है। इतना ही पता चल जाए तुम्हें कि कुछ समझ में नहीं आ रहा — ईमानदारी से — तो भी बहुत ज्ञानी हो गये।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories