प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी। भारत में जातिगत भेदभाव और अन्याय बहुत हुआ है। और ब्राह्मण सारे बाहर से आए थे, यूरेशिया से आए थे, तो विदेशी हैं। और जो यहाँ के मूल निवासी थे, उनके साथ ब्राह्मणों ने छल करा। और उसी छल को एक वैधानिक रूप देने के लिए सब वेद, मनुस्मृति और बाकी सारे शास्त्र लिखे गए हैं।
और आप बार-बार उपनिषदों की श्रेष्ठता बता करके अप्रत्यक्ष रूप से ब्राह्मणों का समर्थन कर रहे हैं। ब्राह्मणों ने तो बड़ा अन्याय करा है, और ब्राह्मणों के अन्याय के केंद्र में ब्राह्मणों के ग्रंथ रहे हैं, मनुस्मृति और उपनिषद्। और आप उपनिषदों का इतना ज़्यादा नाम लेकर के, इन शोषक ब्राह्मणों को सपोर्ट कर रहे हैं। आपको अगर लोगों को मोटिवेट करना ही है, तो आप उन्हें गीता की जगह साइंस और इन्वेंशन्स की तरफ़ जाने को क्यों नहीं कहते?
आचार्य प्रशांत: देखो, बेटा! बिना जाने समझे कुछ भी नहीं बोलने लग जाते। दो किताबों का नाम ले रहे हो, उन्हें पढ़ लो, फिर उनके बारे में कुछ बोलो। तुमने क्या किया है, तुमने उपनिषदों को और मनुस्मृति को बिलकुल एक ही तराजू में तोल दिया? यह दोनों बहुत अलग-अलग रचनाएँ हैं।
उपनिषद् वैदिक दर्शन का शिखर है। मनुस्मृति की उपनिषदों के सामने कोई वैधता नहीं है। वेद प्रमाण माने जाते हैं, स्मृतियाँ प्रमाण नहीं मानी जाती। जितने भी भारत में दर्शन हुए हैं, उनको थोड़ा भी पढ़ोगे तो सब एकमत होकर के एक स्वर से कहते हैं कि वेद प्रमाण हैं।
तो कहीं भी कोई भी मुद्दा उठे, कहीं भी कोई भी मतभेद हो, स्पष्टता चाहिए हो, क्या धर्म है क्या अधर्म, क्या करना है क्या नहीं करना है; इसका आख़िरी प्रमाण वेद हैं। ठीक है न?
और वेदों का मर्म, वेदों का केंद्र है — उपनिषद्। अब तुम कह रहे हो कि ब्राह्मणों ने मूल निवासियों का शोषण करने के लिए उपनिषदों और मनुस्मृति आदि की रचना की। तुम्हें पता ही नहीं है फिर। मनुस्मृति की तो मुझे लग रहा है फिर भी तुम्हें शायद दो-चार बातें पता हैं, उपनिषदों का तुम्हें कुछ पता ही नहीं है। ऐसा नहीं करते हैं।
उपनिषद् बहुत अलग चीज़ हैं; एक बार उनके पास जाओ तो! अच्छा लगेगा। वज्रसूची उपनिषद् पर एक सत्र है मेरा, उसका वीडियो भी उपलब्ध होगा। थोड़ा-सा सर्च करोगे तो मिल जाएगा। 'वज्रसूची उपनिषद्'। उपनिषद् खुद बताते हैं कि वर्ण व्यवस्था का वास्तविक मतलब क्या है। और बड़ा सुंदर अर्थ है।
साफ़-साफ़ कहते हैं उपनिषद् कि जन्म से कोई किसी वर्ण का नहीं हो जाता। साफ़ बताते है कि तुम जीवन में जो चुनाव करते हो, और जिस तरह के कर्म करते हो, वो निर्धारित करते हैं कि तुम्हें किस पल में, किस जगह पर, किस मुकाम पर, ब्राह्मण कहा जाए, वैश्य कहा जाए, शुद्र कहा जाए।
तो बहुत ऊँचे ग्रंथ हैं उपनिषद्। उपनिषदों का संबंध जातिवाद से मत जोड़ लो। ब्राह्मणों को लेकर तुम्हारे मन में जो भी भावना है, उसकी छाया उपनिषदों पर मत पड़ने दो। फिर मुझसे कह रहे हो, आप इनडायरेक्टली ब्राह्मणों को सपोर्ट कर रहे हैं।
तुम न उपनिषदों को जानते हो, न मनुस्मृति को जानते हो, न मुझे जानते हो। मुझे अगर किसी का समर्थन करना होगा, तो मैं अप्रत्यक्ष रूप से नहीं करूँगा कभी; खुलकर बोलूँगा न! साफ़ बोलूँगा! मुझे छुप-छुप कर या चोरी-चोरी किसी का समर्थन या विरोध करने की क्या पड़ी है भाई? पर न जाने किस दृष्टि से देख रहे हो, तुम्हारी दृष्टि में जैसे जात-ही-जात भर गई है। मुझमें भी तुम्हें बस एक जातिवाला ब्राह्मण दिखाई दे रहा है। तो तुमने इल्ज़ाम लगा दिया कि आप अप्रत्यक्ष रूप से ब्राह्मणों का समर्थन कर रहे हैं।
मैं ब्राह्मणों की नहीं, ब्रह्म की बात करता हूँ। और वो ब्रह्म तुमको भी चाहिए। ब्रह्म मालूम है क्या? ब्रह्म माने सच्चाई। झूठ पसंद है तुम्हें? नहीं पसंद है न। तुम भी सच के लिए ही बेचैन रहते हो। तो तुम भी ब्रह्म के लिए बेचैन हो। उसी ब्रह्म के समर्थन में खड़ा हूँ, उसी ब्रह्म को तुम सब तक लाना चाहता हूँ।
ब्राह्मणों की बपौती नहीं है ब्रह्म। ब्रह्म हम सबके भीतर की बेचैनी का समाधान है। ब्रह्म हम सबकी ये जो जीवन यात्रा है, उसकी मंज़िल है।
आदमी हो, औरत हो, हिंदुस्तानी हो, इरानी हो, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, शूद्र हो, जिसको ही ब्रह्म नहीं मिला, उसी का जीवन अकारथ रह गया। और जिसको ब्रह्म मिल गया, मात्र वही अधिकारी है अपने-आपको ब्राह्मण बोलने का। या कम-से-कम जो ब्रह्म की तलाश में ईमानदारी से जुटा हुआ हो, वो ब्राह्मण कहला सकता है। बाकी थोड़ी ही कोई ब्राह्मण होता है। और यह बात स्वयं उपनिषद् कहते हैं।
तो इस तरह की बातें मत उछाल दिया करो कि शोषणकर्ता ब्राह्मणों ने शोषण करने के लिए उपनिषदों की रचना करी थी। और आपने कहा कि आप लोगों को गीता की तरफ़ क्यों भेज रहे हैं, विज्ञान की तरफ़ क्यों नहीं भेज रहे? बेटा! बहुत ज़ाहिर सी बात है न, विज्ञान तुम्हें थोड़ी ही बताएगा कि क्या चीज़ करने लायक है, क्या चीज़ नहीं करने लायक है। तुम्हारे भीतर डर बैठा हुआ है, बताओ विज्ञान की कौन-सी किताब तुम्हारा डर मिटा देगी? तुम्हारे भीतर जलन बैठी हुई है, जलन, विज्ञान की कौन-सी किताब तुम्हारे भीतर से जलन, डाह, ईर्ष्या मिटा देगी?
तुम्हारे भीतर भयानक कामवासना धधक रही है, बताओ विज्ञान की कौन-सी किताब तुम्हारी कामवासना को शांत कर देगी? तो यह तुमने क्या मुकाबला खड़ा कर दिया कि गीता विरुद्ध विज्ञान, गीता वर्सेस साइंस? गीता का काम है तुम्हारे आंतरिक जगत में तुम्हारी मदद करना, और विज्ञान का काम है बाहरी जगत की गुत्थियाँ सुलझाना। गीता काम नहीं आएगी अगर तुमको कोई वैज्ञानिक अविष्कार करना है। कम-से-कम सीधे-सीधे काम नहीं आएगी।
और निष्काम कर्म क्या चीज़ होती है, और उसकी क्या उपयोगिता है, यह तुम्हें जानना है तो इसमें विज्ञान काम नहीं आएगा; इसमें गीता ही काम आएगी। लेकिन फिर वही बात है, तुमको कुछ ऐसा-सा लगता है कि अगर धर्म की ओर आए तो गुलाम बन जाएँगे, हमारा शोषण हो जाएगा; तो हमें विज्ञान की ओर जाना चाहिए। विज्ञान की ओर जाएँगे तो ताक़त मिलेगी, पैसा मिलेगा, आज़ादी मिलेगी। जो तुम सोच रहे हो, यह बात पूरी तरह ग़लत भी नहीं है। बिलकुल ठीक बात है!
विज्ञान की ओर सबको जाना चाहिए। विज्ञान से बहुत प्रेम है मुझको। लेकिन यह भूलो मत कि बहुत बड़ा एक काम ऐसा है, जो विज्ञान नहीं कर सकता। और उसके लिए तुम्हें अध्यात्म की तरफ़ ही जाना पड़ेगा। विज्ञान तुमको प्रेम नहीं सिखा देगा, न विज्ञान तुमको सच्चे प्यार और झूठे प्यार का अंतर बता पाएगा। इसके लिए तो तुम्हें अध्यात्म की ओर ही जाना पड़ेगा। समझ रहे हो?
विज्ञान भी चाहिए हमें, और अध्यात्म भी चाहिए। और सच्चा अध्यात्म चाहिए, जैसे सच्चा विज्ञान चाहिए। जैसे विज्ञान में कुछ किताबें होती हैं न, जो खरी-खरी होती हैं। 'यह किताब है, यह असली है। यह इसका लेखक है, इसको पढ़ो!' बल्कि वो किताब कॉलेजों में, यूनिवर्सिटीज में, पाठ्यक्रम में लग जाएगी, टेक्स्ट बुक बन जाएगी। वैसे ही अध्यात्म में भी कुछ ही किताबें हैं, जो विशुद्ध सोना हैं, गोल्ड स्टैंडर्ड हैं।
जब हम नहीं जानते कि कौन-सी किताब है जो विशुद्ध है, और कौन-सी किताब है जो यूँ ही है, कम महत्व की है; तो फिर हम यह काम करते हैं कि हम भगवद्गीता और मनुस्मृति की बात एक ही साँस में कर जाते हैं। वो एक ही तल की किताबें नहीं हैं।
अब मैं बताएँ देता हूँ कि किस किताब को आध्यात्मिक ग्रंथ मानना है। जो ग्रंथ अहंकार की प्रकृति की चर्चा करे, विवेचना करे, और अहंकार को मिटाने के उपायों की बात करे, सिर्फ़ वही ग्रंथ आध्यात्मिक ग्रंथ कहलाने योग्य है। बाकी जो किताबें इधर-उधर की बात करती हों, कि समाज में कौन से वर्ण का कौन सा स्थान होगा, और अगर कोई व्यक्ति फलाना अपराध कर दे तो उसको क्या सज़ा मिलनी चाहिए और यह सब; ये पुस्तकें किसी समय में कोई सामाजिक महत्व रखती होंगी, आज हो सकता है ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हों; लेकिन ऐसी किताबें आध्यात्मिक ग्रंथ कहलाने योग्य नहीं हैं। समझ में आ रही है बात?
तो वो जो चुनिंदा आध्यात्मिक ग्रंथ हैं—गीता, वेदांत के ग्रंथ जैसे ब्रह्मसूत्र, उपनिषद्—इनको पढ़ो, इनकी ओर जाओ। मैं कह रहा हूँ, ये खरा सोना हैं। और बिलकुल ऐसा हुआ है कि भारत में तथाकथित निचली जातियों के साथ भेदभाव हुआ है, अन्याय हुआ है, अत्याचार हुआ है; इस बात से इंकार एकदम नहीं किया जा सकता। तो अब क्या करना है? चूँकि अन्याय हुआ, इसीलिए अपने-आपको अब एक सुंदर और ऊँची चीज़ से वंचित रखना है? यह कहाँ की बुद्धिमानी हुई भाई?
यह तो अपने साथ और ग़लत कर लिया न, कि पहले तो जो पंडित-पुरोहित वर्ग था, उसने आपको अधिकार नहीं दिया उपनिषदों को पढ़ने का, तो इसलिए नहीं पढ़ पाए। ठीक, पहले ऐसा ही था न!
कहते हो कि भई! हमको पहले अधिकार ही नहीं था पढ़ने का तो हम कैसे पढ़ें? और बात में दम भी है, बिलकुल ऐसा हुआ है। और आज क्यों नहीं पढ़ रहे? क्योंकि आज हमने यह तर्क दिया है कि साहब! ये सब तो विदेशी लोग हैं, बाहर से आए थे। और इन्होंने जितने ग्रंथ लिखे हैं, वो सब के सब ग्रंथ शोषण करने के लिए लिखे गए हैं, तो हम क्यों पढ़ें? तो आज भी तुम नहीं पढ़ रहे।
पहले इसलिए नहीं पढ़ा क्योंकि ब्राह्मणों ने वंचित रख दिया, और अब इसलिए नहीं पढ़ रहे क्योंकि जो लेफ्ट लिबरल विचारधारा है, वो तुम्हें वंचित रखे दे रही है। दोनों ही स्थितियों में अपना ही नुक़सान कर लिया न। मैं बिलकुल किसी को कभी नहीं कहता हूँ कि कोई भी बात आँख मूंद करके मान लो। बुद्धि बहुत बड़ा उपहार है। विवेक की जो हमें क्षमता दी गई है, वो हमारी बहुत बड़ी ताक़त है। जाओ इन ग्रंथों के पास और पूरे विवेक के साथ, पूरी बुद्धि के साथ इनको पढ़ो; फिर मज़ा न आ जाए तो कहना!