आचार्य प्रशांत: कहानी कहती है कि नारद जी बड़े चक्कर में पड़े। सोलह हज़ार स्त्रियाँ! रानियाँ! और जिसके भी पास जाएँ, उसके साथ श्रीकृष्ण को ही पाएँ। किसी रानी के पास बैठे हुए हैं, किसी रानी के साथ टहलने निकले हुए हैं। किसी रानी के महल में, किसी सभा में रत हैं। किसी रानी के महल में सो रहे हैं। किसी रानी के साथ नृत्य कर रहे हैं। और जहाँ जाएँ, श्रीकृष्ण को ही पाएँ और समूचा पाएँ, एक ही समय पर पाएँ। ये बात क्या है? ऐसा हुआ कैसे? इतने सारे अलग-अलग व्यक्तियों के सामने श्रीकृष्ण निरंतर पूरे-के-पूरे मौज़ूद कैसे रह पाए?
हमारे साथ तो विवशता ये रहती है कि हम जब एक के साथ होते हैं, तो दूसरे के साथ नहीं हो पाते। बड़ी मजबूरी है। अपना समय या तो इसको दें या उसको दें। अपना धन या तो इसको दें या उसको दें। और जितना ज़्यादा इसको मिलेगा, उतना दूसरे को कम मिलेगा। और दूसरे को यदि आप ज़्यादा देना चाहेंगे, तो पहले के हिस्से से देना पड़ेगा। जिसे कहते हैं, “ज़ीरो सम गेम।“ श्रीकृष्ण का ये क्या खेल है कि इधर भी पूरे, उधर भी पूरे, इधर भी पूरे, उधर भी पूरे, इधर भी पूरे, उधर भी पूरे! समझना होगा।
सबसे पहले तो ये जो सोलह हज़ार का आँकड़ा है, ये प्रतीक है। ये प्रतीक है अनंतता का। सोलह हज़ार माने बहुत, बहुत सारे। गिने ना जा सकें, इतने। आपके सामने सोलह हज़ार स्त्रियाँ खड़ी हों, आप गिन नहीं पाएँगे। या गिन पाएँगे? तो गिनती से आगे के, अनगिनत, इनन्यूमरेबल। और फिर कहा जा रहा है कि ये जो पूरी अनंतता है, इस पूरे को श्रीकृष्ण उपलब्ध हैं और पूरे-के-पूरे उपलब्ध हैं। बात आपको अब कुछ-कुछ खुलने लगी होगी।
रानियों की श्रद्धा है। और श्रीकृष्ण ही ऐसे हैं, मात्र श्रीकृष्ण ही, जिनमें सैंकड़ों, हज़ारों, लाखों लोग पूर्ण श्रद्धा रख सकें। कहानी हमसे कहती है कि तुम यदि सत्य के प्रेमी हो, तो सत्य तुम्हें पूरा-का-पूरा उपलब्ध हो जाएगा। ये बात बस तुम्हारे और सत्य के बीच की है। इसमें कोई और शामिल है नहीं।
उपनिषद् हमें सिखा गए हैं कि जब पूरे-से-पूरे को उद्भूत भी कर दिया जाए, तो भी शेष पूरा ही रह जाता है। पूरे-से-पूरे को यदि हटा भी दिया जाए, तो भी बच पूरा ही जाता है। पूर्ण वो जो कभी खत्म होने पर न आए यदि उसमें से पूर्ण भी निकाल दिया जाए। श्रीकृष्ण अपनेआप को जब पूरा दे देतें हैं, तो भी पूरे ही बच जाते हैं।
तो रुक्मणी हैं मान लिजिए और श्रीकृष्ण हैं, इनके मध्य कोई तीसरा आ ही नहीं सकता क्योंकि रुक्मणी की श्रद्धा पूरी है। रुक्मणी की यदि श्रद्धा अधूरी हो तो फिर ये ज़रुर हो जाएगा कि इस रिश्ते में, इस संबंध में किसी तीसरे के लिए जगह बन जाएगी। और तीसरा आया नहीं कि कलह शुरु, उपद्रव शुरु।
जब आपके भीतर श्रीकृष्ण होते हैं, तब आप जिधर भी देख रहे होते हैं और जिसको भी देख रहे होते हैं, संसार आपके लिए श्रीकृष्णमय हो जाता है। क्योंकि श्रीकृष्ण सर्वप्रथम आपके हृदय में हैं, आपकी आँखों के पीछे हैं। आपकी आँखों के पीछे हैं, तो आँखों के आगे भी आपको दिखाई ही देते हैं।
रानियों के सामने श्रीकृष्ण शरीर रूप में खड़े हों, ये आवश्यक नहीं है। वो किसी पौधे को देखेंगी, वहाँ श्रीकृष्ण हैं। वो रनिवास के पर्दों को देखेंगी, वहाँ श्रीकृष्ण हैं। वो झूमर को देखेंगी, वहाँ, वो आकाश को देखेंगी, वहाँ, वो पलंग को देखेंगी, वहाँ, वो भोजन को देखेंगी, वहाँ, वो आते-जाते व्यक्तियों को देखेंगी, वो उपवन के पशुओं को देखेंगी, जहाँ देखेंगी, वहाँ श्रीकृष्ण ही हैं।
श्रीकृष्ण बाहर उनके लिए हैं क्योंकि सर्वप्रथम श्रीकृष्ण भीतर हैं उनके। कह रहे थे न तुलसी दास, ‘सिया राम मैं सब जग जानी।ʼ हृदय में यदि सिया राम हों, पूरे जग में होते हैं। तो और कुछ नहीं देखा नारद ने, वही देखा। सोलह हज़ार की भी बात नहीं, सोलह लाख भी होतीं, तो भी नारद को यही दिखाई देता कि सबको श्रीकृष्ण पूरे-के-पूरे मिले हुए हैं। क्यों? क्योंकि सबकी श्रद्धा पूरी है।
और ये कितनी राहत की बात है कि आपके पास कुछ ऐसा है अब जो आपसे कोई और छीन नहीं सकता। आपसे अपनेआप को अब वो भी नहीं छीन सकता जिसके प्रति आपको श्रद्धा है। स्वयं श्रीकृष्ण भी चाहें, तो रानियों से और गोपियों से अपनेआप को छीन नहीं सकते। अब बात उनके हाथ से भी निकल चुकी है। बात अब श्रीकृष्ण से भी आगे की है।
क्या करोगे तुम? अवतार हो, अधिक-से-अधिक ये ही तो करोगे कि शारीरिक रूप से अपनेआप को उठाकर दूर हो जाओगे। हो जाओ तुम, ले जाओ अपने शरीर को हमसे दूर। हमारे लिए तो समस्त विश्व ही तुम्हारा शरीर है। हमें तो जो दिखेगा, उसमें तुम दिखोगे। तो तुम जाओगे कहाँ? देह तुम्हारी जा सकती है, तुम कहीं नहीं जा सकते श्रीकृष्ण। और श्रीकृष्ण तो देह हैं नहीं, तो देहधारी श्रीकृष्ण यदि चले भी गए, तो कोई बात नहीं।
आ रही है बात समझ में?
सत्य से आपका रिश्ता आत्मिक होना चाहिए, सांयोगिक नहीं। सांयोगिक रिश्ता वो होता है स्थितियाँ जिसे आकर पलट दें। जो स्थितियों से बना हो और स्थितियाँ ही जिसको बिगाड़ने की ताकत रखती हों। सत्य से आपका रिश्ता आत्मिक होना चाहिए। मैं हूँ और सत्य है। किसी तीसरे की, किसी संयोग की कोई ताकत नहीं है हम दोनों पर।
कुछ यही भाव, कुछ यही अर्थ, यही सीख उस दूसरी कहानी में भी है जिसमे श्रीकृष्ण बछड़ों के साथ और ग्वालों के साथ खेल रहे हैं और भोजन कर रहे हैं। और कहानी कहती है कि ब्रह्मा जी को शरारत सूझी। उन्होनें ग्वालों को और बछड़ों को कहीं दूर ले जाकर सुला दिया। तो क्या किया श्रीकृष्ण ने? श्रीकृष्ण ने बछड़ों का रुप धर लिया, सारे ग्वालों का रूप धर लिया और एक-साथ सबके घरों में पहुँच गए ठीक वैसे ही जैसे कि बछड़े पहुँचते और ग्वाले पहुँचते। बाल-ग्वाल।
और कहानी कहती है कि जब श्रीकृष्ण पहुँचते हैं ग्वालों के रूप में, बालकों के रूप में, तो माँओं को वो बालक और भी प्यारे लगे। जितने सदा न लगते थे, उतने प्यारे लगे। और गौओं को अपने बछड़ों पर कुछ अधिक ही स्नेह आया। उनको दूध पिलाने के लिए सरपट भागी चली आईं। वो कहानी भी इधर को ही इशारा कर रही है। श्रीकृष्ण जहाँ मौज़ूद होते हैं, वहाँ उनका प्रभामंडल कुछ ऐसा मौज़ूद होता है कि वो आपकी आँखों के सामने ही नहीं रहते, आपकी आँखों के पीछे भी उतर आते हैं।
ये किसी भी बुद्ध पुरुष की, किसी भी संत की, किसी भी अवतार की विशेषता होगी, इसी से उसको पहचान लिजिएगा। वो आपके दिल में अड्डा बना लेता है। आपकी आँखों के सामने ही नहीं होता; हाँ, शरीर उसका आपकी आँखों के सामने होता है। आप कहोगे कि देखो वो रहा, वो चल रहा है, वो बैठा हुआ है। लेकिन वास्तव में वो आपके भीतर चला गया है, वो आपकी आत्मा से एक हो गया है, आपके हृदय में बैठ गया है, वो आप बन गया है। आप उसके जैसे हो गए हैं। आप जितना उसके संपर्क में रहते हैं, आप उसी के जैसे होते जाते हैं। और उसी के जैसा होने की मतलब होता है अपने जैसा होते जाना।
पारस में और संत में यही अंतर होता है। वो लोहा कंचन करे, ये कर दे आप समान। एक दफ़ा बोला था मैंने इस पर; मैंने कहा था, ‘आप समान।‘ बड़ा हास्य किया है कबीर ने। ‘आप समानʼ के दो अर्थ हैं और दोनों बिल्कुल सटीक हैं। आप समान माने अपने समान भी और आपके समान भी। अवतार के, गुरु के संपर्क में जब आप आते हैं, तो आप उसके ही जैसे हो जाते हैं। और उसके जैसे हो जाने का मतलब होता है अपने जैसे हो जाना। क्योंकि गुरु आत्मा स्वरूप हैं। आप गुरु स्वरूप हुए माने आप आत्मा जैसे हो गए। और आत्मा जैसे हो गए माने अपने जैसे हो गए। आपने अपनेआप को पा लिया। संत जैसा होकर के आप अपने जैसे हो गए। उसके करीब जाकर के आप अपने करीब आ गए।
समझ रहे हैं बात को?
तो ये जितनी माताएँ हैं बाल-ग्वालों की, ये जितनी गाएँ हैं, जितनी गोपियाँ हैं, ये सब अलग-अलग शरीर तो हैं लेकिन इन सबमें अब एक साझी बात हो चुकी है। क्या? हृदय इन सबके अब श्रीकृष्ण हैं। इसीलिए एक ही घटना आपको अलग-अलग रुप में कई बार होती दिखती है। दो बार का ज़िक्र हम कर चुके हैं। एक बार तब जब नारद आए ज़रा तहकीकात करने कि ये क्या हो रहा है? सोलह हज़ार राजकुमारियों का पाणिग्रहण! कैसे? और एक बार तब जब ब्रह्मा ने कथानुसार बछड़ों को और बालकों को गायब कर दिया।
और एक और दफ़े ऐसा होता है, उससे हम परिचित हैं। रास चल रहा है। गोपियाँ नृत्य कर रही है। और प्रत्येक गोपी को लग रहा है कि श्रीकृष्ण उसके साथ हैं। ये कैसे हो रहा है? ये ऐसे ही हो रहा है। हृदय में श्रीकृष्ण हैं इसीलिए आँखों के सामने भी नज़र आ रहे हैं। प्रक्रिया दोनों तरफ़ की चलती है। बाहर होते हैं, तो हृदय में आ जाते हैं। ये अवतार का काम है। पहले वो बाहर आएगा फिर दिल में समा जाएगा। और जब दिल में समा गया तो, बाहर वही-वही नज़र आएगा।
तो नाच रही हैं गोपियाँ और लग रहा है कि श्रीकृष्ण संग ही तो नाच रहे हैं। और गलत नहीं लग रहा है। आप जब किसी के साथ नाच रहे होते हो, सच-सच बताना, आप उसके साथ होते हो? वो आपके साथ होता है? देह देह के साथ झूम रही होती है, वास्तव में कोई सानिध्य, कोई निकटता होती नहीं है, कोई अंतरंगता होती नहीं है। लेकिन जब एक गोपी कहती है कि मैं श्रीकृष्ण के साथ नाच रही हूँ, तो भले ही श्रीकृष्ण की देह उसके पास भौतिक रुप से मौज़ूद न हो लेकिन श्रीकृष्ण उसके पास वास्तव में होते हैं। हमारे पास हमारे साथी की देह होती है, गोपियों के पास श्रीकृष्ण का सार है, श्रीकृष्ण का तत्व है। उन्होनें श्रीकृष्ण को वास्तव में पाया है।
कोई पत्नी क्या पाती होगी अपने पति को, मीरा ने श्रीकृष्ण को पाया। और मीरा ने श्रीकृष्ण की देह कभी छुई नहीं। और पत्नियों को पति की देह खूब उपलब्ध रहती है। कहाँ पाती है कोई पत्नी अपने पति को और कहाँ कोई पति अपनी पत्नी को पाता है। मीरा ने पाया श्रीकृष्ण को बिना श्रीकृष्ण को छुए। और जैसा मीरा ने छुआ, वैसा कौन छू पाता है! मीरा की देह भर को नहीं, मीरा के हृदय को स्पर्श कर गए थे श्रीकृष्ण। ऐसा छुआ श्रीकृष्ण ने मीरा को। भीतर ही बैठ गए उसके।
हर कहानी इशारा है, ज़रा महीन बात करती है। उसको शाब्दिक तल पर मत ले लीजिएगा। ये मानने मत बैठ जाइएगा कि प्रभु की लीला है, चमत्कार है, सोलह हज़ार रुप ले लिए होंगे, भगवान हैं, कर सकते हैं। नहीं, बात इतनी स्थूल, इतनी भोंडी नहीं है। बात में नज़ाकत है, बात में एक महीन सौंदर्य है, सूक्ष्मता है।
आप यदि अभी गहरे ध्यान में हैं, तो आप सत्य के साथ हैं। और आपका और सत्य का अभी जो साथ है, उसमें कोई तीसरा कोई बाधा, व्यवधान नहीं डाल सकता। किसी तीसरे की वहाँ कोई अहमियत ही नहीं क्योंकि वहाँ कोई तीसरा है ही नहीं। अरे! दो ही नहीं हैं, तीसरा कहाँ से आ जाएगा! ये आपका बड़ा निजी, बड़ा अंतरंग मामला है। जब दो से आप एक हो जाते हैं, तो दूसरे के साथ तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, छठा सब अपनेआप ही विलुप्त हो जाते हैं। मिल गई संसार से निजात।
इसको कसौटी मान लेना। श्रीकृष्ण आपको मिले हैं या नहीं, सत्य आपको मिला है या नहीं, उसकी पहचान इसी से होगी कि आपके भीतर उसको खो देने का या उसको बाँटने का डर खत्म हो जाएगा। यदि आपको कोई ऐसा मिला है जो अभी देह के तल पर ही है, मात्र कोई जीव है, देहधारी है, तो आपको बड़ा डर बना रहेगा कि कहीं इसको खो न दूँ, कहीं ये किसी और का न हो जाए, कहीं मुझे इसे बाँटना न पड़ जाए, कहीं ये चला न जाए, कहीं इसकी मृत्यु न हो जाए, कहीं इसका मन न भटक जाए। आपको बड़ा डर बना रहेगा।
लेकिन जिस दिन आपको श्रीकृष्ण मिल जाएँगे, आपके भीतर से ये खयाल ही जाता रहेगा कि जो आपको मिला है, वो बँट सकता है, वो कम हो सकता है। कहे कबीर मैं पूरा पाया। पूरा मिल गया, क्या बँटेगा? क्या खरचेगा? क्या व्यय होगा, कहाँ जाएगा? आपके भीतर से आशंकाएँ जाती रहेंगी, शक जाते रहेंगे ये ख़याल जाता रहेगा कि जो मिला है, वो अस्थायी है, वो छिन सकता है। ये बात बिल्कुल हटेगी।
तीसरे को लेकर जो व्याकुलता रहती है, डाह, ईर्ष्या रहती है, डर रहता है, वो चला जाएगा। आप कहेंगे, ‘मुझे जो मिला है, वो पक्का-पक्का मिला है। शत-प्रतिशत आश्वस्ति है। इसे कोई तीसरा कभी मुझसे छीनकर नहीं ले जा सकता।‘ तीसरा माने संसार। संसार से जब भी कुछ आपको मिलता है, संसार उसको वापस भी छीन सकता है। लेकिन जब आपको श्रीकृष्ण मिलते हैं, तो संसार श्रीकृष्ण को आपको नहीं छीन सकता। श्रीकृष्ण आपको मिलें हैं या नहीं, इसका परीक्षण खुद ही कर लीजिए।
जो आपके पास है, क्या आपको भय लगता रहता है कि वो आपसे छिन जाएगा? अगर लगता रहता है, तो अभी आपने उसकी देह भर को पाया है, उसके भीतर के श्रीकृष्ण से आपने संबंध बनाया नहीं। वो संबंध बनाइए और फिर देखिए कि जीवन कैसा जगमगा उठता है। डर जाता रहेगा, विषाद जाता रहेगा। हृदय फिर धड़केगा तो प्रेम में, खौफ़ में नहीं। नकली ही छिनता है, नकली ही घटता-बढ़ता है। असली तो हक़ है, वो नहीं छिनता। कोई बात?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पिछली दफ़े हमने कहानी पढ़ी थी उससे कोई विरोधाभास है?
आचार्य प्रशांत: कोई विरोधाभास नहीं है। अभी पिछली दफ़े हमने कहानी पढ़ी थी जिसमें गोपी आरंभ में सकुचाती है, लजाती है, विरोध भी करती है, श्रीकृष्ण की ओर जाना नहीं चाहती। पर कुछ कदम बढ़ाती है, उसके बाद का काम श्रीकृष्ण स्वयं कर देते हैं।
तो आप गोपियों की उस अवस्था को देख रही हैं जहाँ उनके भीतर श्रीकृष्ण प्रवेश कर चुके हैं। जब करने वाले होंगे, तब तो गोपियों ने भी खूब क्रीडा की होगी, खूब रंग दिखाए होंगे। इधर-उधर भागी होंगी, छुपी होंगी, अडी होंगी, हठ किया होगा, विरोध किया होगा। कुछ पता नहीं, वार भी कर दिया हो। इतनी आसानी से कौन मान जाता है नष्ट हो जाने के लिए? कौन अपने चाहे अपनी मृत्यु का वरण करता है? तो गोपियों ने भी अपनी ओर से पूरा जतन किया होगा कि बच जाएँ श्रीकृष्ण से। पर ये तो श्रीकृष्ण हैं। चली नहीं गोपियों की। मजबूर हो गईं।
कहानियाँ-ही-कहानियाँ हैं, कविताएँ हैं। गीत-गोविंद आप पढ़िए। राधा रुठी हुईं हैं, मान ही नहीं रहीं और श्रीकृष्ण मनुहार कर रहे हैं। सौ तरीकों से मना रहे हैं। बड़ा मनाना पड़ता है। आरंभ में तो विरोध होता ही है। अहंकार अपनी पूरी ताकत लगा ही देता है। फिर बस नहीं चलता। तो बेबसी में समर्पण करना पड़ता है।
कभी कुछ किया, कभी मूसल से बाँध दिया, कभी सज़ा दे दी। जो कुछ करा जा सकता था, सब किया ही।
“चाहा तो बहुत न चाहें तुम्हें, चाहत पर मगर कोई ज़ोर नहीं।“ आप तो यही चाहते हो कि न चाहें पर चाहत पर ज़ोर कुछ चलता नहीं। कोई ऐसा भक्त नहीं होगा जिसमें भगवान के प्रति विरोध न उठा हो। और कोई ऐसा भक्त हो, तो वो नकली भक्त है।
बाइबल कहती है कि ईसा को अंत में मृत्यु दी जा रही है और कीलें ठोकी जा रहीं हैं और रक्त बह रहा है। उस वक्त वो भी कह उठते हैं कि अरे परमात्मा! ये क्या कर रहे हो? उनका भी विश्वास ज़रा सा तो डोल ही जाता है, तो भक्त का नहीं डोलेगा? जीज़स का डोल गया, भक्त का नहीं डोलेगा? उसका तो पूरा ही डोल जाता है। कहता है, ‘भगवान वगैरह कुछ नहीं। ये खेल उल्टा है, फँसाया जा रहा है, जान बचाओ और भागो।‘
इसी को कहते हैं कि भगवान भक्तों की परीक्षा लेते हैं। और डोलना तो तय है। कितना डोलता है, बस ये देखना है। इतना न डोले कि गिर ही पड़ो और टूट ही जाओ। बाकी थोड़ा-बहुत हिलना-डुलना तो पक्का है। इंसान ही तो हो।
आया मज़ा? स्वादिष्ट कहानियाँ हैं कि नहीं? रिद्म सामने बैठी है इसीलिए ऐसे शब्दों की इस्तेमाल करना पड़ता है। क्यों रिद्म? लज़ीज़ है कहानी कि नहीं? श्रीकृष्ण ही एकमात्र पूर्ण अवतार थे। पूरा यकीन था उनका। पूरे अवतार थे, पूरा यकीन था उनका खाने-पीने में। बाकी तो न जाने किसी ने कैसे कहा, ‘व्रत करो,’ किसी ने कहा, ‘उपवास करो,‘ किसी ने कहा, ‘देह सुखा दो,’ किसी ने कहा, ‘ये न खाओ।‘ श्रीकृष्ण नें कहा, ‘जहाँ मिले, वहाँ खाओ, अरे! चुरा-चुराकर खाओ, दूसरों के हिस्से का खाओ। पाबंदी हो तो भी खाओ।‘