प्रश्नकर्ता: बुल्लेशाह का कोई भी दोहा होता है या कुछ भी होता है, इसको हम बेसिकली (मूल रूप से) अगर फ़ैक्चूयल सेन्स (तथ्य के रूप) में देखे तो ये बहुत अजीब सा लगता है। जैसे गाते हैं तो वो चीज़ फिर, नहीं आ पाती। अगर हम कृष्णमूर्ति को और बुल्लेशाह को एक साथ देखें कि अच्छा ऐसे हुआ होगा, ये फ़ैक्टस (तथ्य) रहे होंगे, और फिर आप गाएँगे, तो फिर कभी-कभी लगता है जैसे फिर उस चीज़ में आप डूब नहीं पाते। क्यों ऐसा होता है कि कभी-कभी ईवन (यहाँ तक की) बुल्लेशाह को पढ़ते हैं तो भी ऐसा लगता है कि इनसे कनेक्ट (जुड़) नहीं हो पा रहे हैं और जब ऐसा माहौल होता है तो कनेक्ट हो जाते हैं, ऐसा क्यों?
आचार्य प्रशांत: कृष्णमूर्ति आपको समझाते हैं, बुल्लेशाह मिसटिक (रहस्यवादी) हैं। वो अपने में गाते हैं। बुल्लेशाह का कोई इरादा नहीं है आपको समझाने का। बुल्लेशाह शिक्षक नहीं हैं। बुल्लेशाह तो अपनी धुन में नाच रहे हैं, गा रहे हैं। आप उनके नृत्य में शामिल हो सकते हैं, आप उनके सामने दर्शक की तरह नहीं बैठ सकते, आप बुल्लेशाह में डूब सकते हो, बुल्लेशाह को समझ नहीं सकते। आप बुल्लेशाह को पी सकते हैं, बुल्लेशाह का अर्थ नहीं कर सकते। कृष्णमूर्ति एक दूसरा ही पात्र अदा कर रहे हैं, वो आपके सामने बैठे हैं ताकि आपको समझा सकें, उनका उद्देश्य है आपको स्पष्टता देना। बुल्लेशाह आपको स्पष्टता नहीं देते, वो आपको सुला देते हैं, लो पियो।
एक मायने में देखें तो कृष्णमूर्ति आपको होश देते हैं, बुल्लेशाह बेहोशी। हालाँकि ये होश और बेहोशी बहुत कुछ एक जैसे हैं, तो दोनों के पास जाने के कायदे अलग-अलग ही होंगे। कृष्णमूर्ति तक आप जाएँगे ध्यान में, स्थिरता में और बुल्लेशाह तक आप जाएँगे थिरकते हुए, झूमते हुए।
समझ रहे हो बात को?
आपको दोनों के पास जाना है, नहीं तो आप एक आयामी हो कर रह जाएँगे। और वास्तव में जो इन दोनों में से किसी एक के पास भी पहुँच गया, दूसरे तक जाना उसके लिए बिलकुल सहज हो जाएगा। कृष्णमूर्ति छवियाँ भंग करते हैं, उन्हें यदि किसी एक काम को करना है तो वो है छवि भंजन, और कृष्णमूर्ति इधर छवियाँ भंग कर रहे हैं, बुल्लेशाह उधर छवियों में ही रस ले रहे हैं। छवियाँ-ही-छवियाँ हैं। कभी घड़ियाली है जो व्यर्थ ही समय बताये जा रहा है, कभी जोगी है जिसके कान में, गले में अलंकार है। कभी पानी का घड़ा है, कभी सूरज को आग लगाने की बात है। छवियाँ-ही-छवियाँ हैं, प्रतीक-ही-प्रतीक हैं। दोनों अपनी-अपनी जगह मधुर है, सुन्दर हैं। कृष्णमूर्ति कहते हैं, ‘इशारों में मत उलझ जाना, सीधे सत्य तक जाना।‘ बुल्लेशाह कहते हैं, ‘जितने इशारे देख रहे हो, सबको देखो और सब में सत्य को ही पाओ।‘ बातें दोनों ही ठीक हैं, तुम दोनों को ही ग्रहण करो। अगर ऐसे हो गये कि तुमको नाचने से दिक्कत हो गयी, और तुमको चाँद में और तारों में प्रेम न दिखा, तो बड़ी नीरस हो जाओगी, फ़ीकी। और अगर ऐसी हो गयी कि प्रतीकों में ही उलझ गये और प्रतीकों को सत्य का विकल्प बना लिया, तो झूठ में, भ्रम में, विपर्य में फँस जाओगे। वो भी नहीं होने देना है।
दोनों एक साथ चलने चाहिए। प्रतीकों में सुन्दरता है, सत्य में शाश्वतता है। प्रतीक तुम्हारे इर्दगिर्द चारों तरफ फैले हुए हैं, वो तुम्हारा संसार सुन्दर बनाएँगे। और कोई भी प्रतीक सुन्दरता तभी देता है, जब वो इशारा सत्य की ओर ही करे, तुम्हें अपने में न उलझा ले। तुम्हारा मार्ग बने, तुम्हारा अन्त न बन जाए। जिन्होंने कृष्णमूर्ति से मुलाक़ात की हुई है, वो बुल्लेशाह में और प्रगाढ़ता से प्रवेश कर पाएँगे, बल्कि मैं कहूँगा वही समझ पाएँगे बुल्लेशाह को। और जो बुल्लेशाह के कायल हैं, वो जब कृष्णमूर्ति के पास जाएँगे तो उन्हें ऐसा लगेगा किसी अपने के पास आएँ हैं, इनको तो हम जानते हैं, ये वही बात तो कह रहे हैं। ये वही बात कह रहे हैं, जिस पर हम नाच कर आये हैं। बस सफ़ाई से कह रहे हैं, ज़्यादा व्यवस्था के साथ कह रहे हैं, बिना रंगरोगन के कह रहे हैं। बुल्लेशाह इन्द्रधनुष हैं, कृष्णमूर्ति बिलकुल साफ़, धवल, सफ़ेदी, दोनों में सुन्दरता है अपनी। एक को दूसरे के ऊपर मत चुन लेना।
फिर कह रहे हैं, एक को दूसरे के ऊपर मत चुन लेना, दोनों साथ हैं। तुम सफ़ाई से देख नहीं पा रहे हो तो भी जीवन में कोई कमी रह गयी और तुम इतने सफ़ाई पसन्द हो गये हो कि तुमसे नाचा नहीं जाता तो भी जीवन में बड़ी कमी रह गयी। तुम तो ऐसे बनो जिसमें स्थिरता और नृत्य दोनों हो।
समझ में आ रही है बात?
प्रश्नकर्ता: पर सर हम क्या चुनते हैं, जैसे हमें क्या अपील (लुभाता) करता है, जैसे मैंने बुल्लेशाह फ़र्स्ट टाइम (पहली बार) पढ़ा है यहाँ पर, तो अभी मैंने ये कैम्प में ही पढ़ा है लेकिन मुझे नही लगता मैं ये वापस रख कर आई विल लीव इट ऑन इट्स ओन (मैं इसको इसके हाल पर छोड़ दूँगी), आई वोंट डू देट (मैं ऐसा नहीं करूँगी)। इट डज़ नॉट अपील टू माइ टेस्ट एज़ कृष्णमूर्ति डज़ ओर एज़ ओशो डज़ (ये उतनी रुचि का नहीं है जितना कृष्णमूर्ति या ओशो)। तो इज़ दैट ऑलराइट (क्या ये ठीक है)?
आचार्य प्रशांत: इट इज़ नॉट अ क्वेस्चन ऑफ़ वेदर इट इज़ ऑलराइट ओर नॉट, इट इज़ सो (ये ठीक या ठीक नहीं होने की बात नहीं है, ऐसा ही है) इट इज़ जस्ट सो (बस ये ऐसा ही है)। जहाँ तक ये बात है कि तुम बुल्लेशाह को खुद नहीं चुनोगी। देखो जो कार्यकारण का चक्र होता है न वो बड़े विचित्र तरीकों से चलता है। तुम्हें कृष्णमूर्ति पसन्द? तुम्हें मेरी बात में कृष्णमूर्ति की गन्ध मिली, तो तुम्हें कैम्प पसन्द, और कैम्प पसन्द तो फिर बुल्लेशाह पसन्द। तो कृष्णमूर्ति तक जाओगी तो बुल्लेशाह तक पहुँच ही जाओगी। कोई-न-कोई ऐसा मिल जाएगा जो कृष्णमूर्ति और बुल्लेशाह का सेतु बनेगा। अभी इस स्थिति में मैं वो हूँ, आयी तो इसलिए थी ये सोच कर कि कृष्णमूर्ति जैसी बातें करते हैं, यहाँ देख रहे हो ये तो सुबह-सुबह जब उठते हैं तो बिलकुल ऐसा लगता है कि क्या गम्भीर बातें चल रही हैं, और रात आते-आते तो हुआ कि रंग ही दूसरा हो जाता है।
अभी तो रात शुरू हुई है, कहते हैं न रात होती शुरू है आधी रात को। तो उसकी चिन्ता मत करो कि तुम स्वयं नहीं उठाओगी बुल्लेशाह को। तुम नहीं उठाओगी तो कोई ओर उठवा देगा। भूलना मत ये कृष्णमूर्ति को भी तुमने खुद नहीं उठाया होगा, स्थितियाँ बनी होंगी जो तुम्हें कृष्णमूर्ति तक लेकर गयीं होंगी। वैसी अब बनेंगी स्थितियाँ जो तुम्हें औरों तक भी ले जाएँगी। सन्तों का, गुरुओं का यही सौन्दर्य है, उनमें बड़ी व्यापकता होती है। उनमें से किसी एक के पास जाओगे, वो तुम्हारे लिए कितनों के ही द्वार खोल देगा। कबीर ने कहा है कि-
“शिष्य पूजे गुरु आपना, गुरु पूजे सब साथ।“
शिष्य तो इतना ही करता है कि अपने गुरु भर के पास जाता है, लेकिन जो गुरु होता है वो दुनिया भर के साधुओं की पूजा कर रहा है। तो तुम किसी एक के पास भी चली जाओ, अगर वो असली है तो वो तुम्हारे लिए दुनिया भर के दरवाज़े खोल देगा।
जो नकली होगा वो तुमसे कहेगा यहीं अटक जाओ। कहीं और मत जाना। उसे असुरक्षा लगेगी कहीं और चली गयी तो कहीं भाग न जाओ। जो असली होगा वो कहेगा, ‘यहाँ आये हो, आओ और रास्ते दिखाते हैं देखो वहाँ भी जाओ, वो लाओ त्जु बैठे हैं कितने सुन्दर, जाओ वहाँ होकर आओ। जाओ उधर जाओ देखो कृष्ण हैं वहाँ उधर, उधर जाओ देखो वहाँ रूमी बैठे हैं, थोड़ा पी लेना। अगर चढ़ गयी है अभी इधर आओ, जाओ उधर कृष्णमूर्ति हैं वो उतार देंगे।‘ तो असली का यही है, तुम्हारे लिए सब खोल देता है, ओशो ने देखा है न क्या किया है, ओशो के पास जाते हो क्या करते हैं? ‘लो सुनो, किसके बारे में सुनना है हम बताएँगे।‘ उनकी है बुक्स *आई हैव लवड*।
प्रश्नकर्ता: एव्री टाइम ही चेंजेस द फ़र्स्ट ...।
आचार्य प्रशांत: हाँ, वो वही है। उन्होंने बिलकुल बीड़ा नहीं उठाया है एक ही बात कहने का, जब जो मन में आएगा, बोलेंगे। पहले क्या कह दिया वो पूछना मत। ठीक है? सब में सुन्दरता है, सब एक ही बात कह रहे हैं। सब एक ही तत्व से बने हुए हैं। गेहूँ तुम्हारे सामने आता है उसकी रोटी भी बनती है, उसका केक भी बनता है। अनाड़ी होगे अगर कहोगे कि दोनों अलग-अलग है, तत्व दोनों के एक ही हैं। दिखते दोनों अलग-अलग हैं। उसकी कोई नमकीन चीज़ भी बन सकती है, कोई मीठी भी, तत्व एक ही है। एक स्थान आता है जहाँ तुम्हें दिखना शुरू हो जाता है कि सब एक कह रहे हैं, एक ही बात, कोई अन्तर नहीं है। अभी कैम्प से लौटोगे तो एक महीने भर की प्रक्रिया शुरू होगी, जिसमें तुम्हें करना ही यही होगा कि यहाँ जो कुछ पढ़ा है, पन्द्रह-सोलह सन्तों से मुलाक़ात होगी तुम्हारी। उनकी बातों को उठाओ, उनके छन्दों को, उनकी काफ़ियों को उठाओ और देखो कि वो किस तरह एक ही और इशारा कर रही है। उसके बाद तुम्हारे लिए ये कह पाना मुश्किल हो जाएगा कि एक को पसन्द करती हूँ और दूसरे को नहीं। जब एक ही है सब, तो चुनाव कैसा? हाँ, ये बात अलग है कि मन की किसी हालत मे एक अच्छा लगता है और मन की किसी हालत में दूसरा ज़्यादा मुनासिब लगता है।