यत्राज्ञानाद्भवेद्दवैतमितरस्तत्र पश्यति। आत्मत्वेन यदा सर्वं नेतरस्तत्र चाण्वपि।।
“जहाँ अज्ञान से द्वैत-भाव होता है, वहीं कोई और दिखलाई देता है। जब सब आत्मरूप ही दिखाई देता है, तब अन्य कुछ भी नहीं रहता।”
~अपरोक्षानुभूति (श्लोक ५३)
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि ह्यात्मत्वेन विजानतः। न वै तस्य भवेन्मोहो न च शोकोऽद्वितीयतः।।
“उस अवस्था में सम्पूर्ण भूतों को आत्म-भाव से जानने वाले उस महात्मा को कोई दूसरा न रहने के कारण न मोह होता है और न शोक ही।”
~अपरोक्षानुभूति (श्लोक ५४)
आचार्य प्रशांत: आदिशंकर का कथन है, “जहाँ अज्ञान से द्वैत-भाव होता है, वहीं कोई और दिखलाई देता है। जब सब आत्मरूप ही दिखाई देता है, तब अन्य कुछ भी नहीं रहता। उस अवस्था में सम्पूर्ण भूतों को आत्म-भाव से जानने वाले उस महात्मा को कोई दूसरा न रहने के कारण न मोह होता है और न शोक ही।”
द्वैत हटा, दूसरा मिटा, किसका मोह और किसका शोक? कोई है ही नहीं! किसके लिए रो रहे हो?
बात ये नहीं है कि “मत रोओ!” था कौन, किसके लिए रो रहे हो? वही बात, “मुर्दा मर गया!” कुछ घटना ही नहीं घटी, तुम रो किसके लिए रहे हो?
प्रश्नकर्ता: इस द्वैत-भाव से बाहर कैसे निकलें कि अनेक दिखाई ही न दें, या अज्ञान कैसे मिटे?
आचार्य: बेटा, अनेक सदा दिखाई देंगे। जीव हो जब तक, देहधारी हो जब तक, आँखों को अनेक दिखाई देंगे। एकता इसमें नहीं होती है कि काला-सफ़ेद, पीला-नीला, सब तुम्हें एक ही दिखने लग गया; उसको फिर कहते हैं रंगांधता, *कलर-ब्लाइंडनेस*। वो मत माँग लेना, कि सब एक ही दिख रहा है; फिर चालान कटेगा, लाल बत्ती, हरी बत्ती एक दिखाई दे रही है, वो मत माँगना। ये एक दिखाई देना बात दूसरी है, ये चीज़ दूसरी है। ये क्या है? ये ये है कि जो अलग-अलग चीज़ें तुम्हारे लिए अलग-अलग अर्थ रखती हैं, वो मिट गए। ये जो अलग-अलग लोग तुम पर अलग-अलग तरीके के प्रभाव डालते हैं, वो मिट गए। तुम्हारे भीतर जो अलग-अलग क्षेत्र और खंड बने हुए हैं, वो मिट गए। ये है अलगाव का मिटना।
प्रकृति के तल पर वैभिन्य, वैविध्य, भेद तो सदा रहेगा; तुम्हें वहाँ स्थापित होना पड़ेगा जहाँ अभेद है। उसको कहते हैं? – क्या है जिसमें भेद है ही नहीं, जो एकरस है? – उसे आत्मा कहते हैं। तो सवाल ये नहीं है कि प्रकृति से भेद मिटा देने हैं, सवाल ये है कि मुझे वहाँ पहुँच जाना है जहाँ भेद हैं नहीं। एक तल है जहाँ भेद-ही-भेद हैं, तुम उस तल पर तब जाते हो जब भेदों से तुम कोई नाता जोड़ देते हो, कुछ लेन-देन जोड़ देते हो। और एक तल है जहाँ पर भेद नहीं हैं, वहाँ तुम तब जाते हो जब ये सारा लेन-देन तुमको असार प्रतीत होता है।
जहाँ भेद हैं वहाँ तो भेद हैं ही, रहेंगे, सदा रहेंगे। तो ये मत कहो कि, “मैं वहीं रहूँ पर वहाँ के भेद मिट जाएँ”, ये पागलपन है। और सवाल हम ऐसे ही करते हैं, कि “गुरुजी, वो दिन कब आएगा जब दरवाज़े और दीवार का रंग एक नज़र आएगा?” वो दिन अगर आ गया तो मेरा खोपड़ा फोड़ देना, कि “इनकी शिक्षाओं का सारा परिणाम ये हुआ कि आँख ख़राब हो गई।” जहाँ भेद हैं वहाँ भेद रहेंगे, तुम वहाँ पहुँच जाओ जहाँ भेद नहीं होते। और तुम वहाँ कैसे पहुँचोगे? जब तुम्हें भेदों से कोई बहुत व्यापार न रह जाए, लेन-देन न रह जाए। लेन-देन कब होता है? मैं कब माँगता हूँ कि “कुछ दे दो, कुछ दे दो”? जब अपूर्णता होती है। और कुछ माँगूँगा तो कुछ देना भी पड़ेगा, यही लेन-देन है, यही जगत का व्यापार है। फिर इसीलिए आदमी आत्मस्थ हो कर नहीं, प्रकृतिस्थ हो कर रहता है, क्योंकि वहाँ पर क्या चलता है? लेन-देन। “मैं भी अधूरा, तू भी अधूरा, चल लेन-देन करते हैं।“ जो पूरे हो गए, उन्हें लेन-देन से कोई मतलब नहीं। वो फिर प्रकृति में रहते नहीं, वो प्रकृति के दृष्टा हो जाते हैं। “लेन-देन वहाँ चलता होगा, हम उस लेन-देन को सिर्फ़ देखते हैं, हमें वो लेन-देन समझ में आ गया है। हम अब उसमें सहभागी नहीं हैं, हम मात्र उसके साक्षी हैं।”
समझ रहे हो बात को?
और इस तरह के वृत्तांत मैं खूब पढ़ता हूँ। कम-से-कम पाँच जन ऐसे हैं जिनकी जब ज्योति उठी थी, जिनका जब मोक्ष, निर्वाण, एनलाइटनमेंट हुआ था, तो वो बोलते हैं कि “मुझे नानात्व दिखाई देना बंद हो गया था।” उनकी जीवनियाँ पढ़ो, चमत्कार! वो बताते हैं कि “मुझे काला-सफ़ेद सब एक दिखने लग गया।” ये तो यही है, काला-सफ़ेद एक दिखने लग गया, कहते हैं, “मुझे यही पता चलना बंद हो गया कि मेरा शरीर कहाँ तक है और पत्थर कहाँ पर है।” एक-से-एक धर्मगुरु हैं, वो यही सीख दे रहे हैं, और वो बड़े प्रचलित हैं। उनके किस्से पढ़ो, “मैं बैठा हुआ था एक जगह पर, वहाँ चारों ओर पत्थर-ही-पत्थर थे। अचानक मुझे ऐसा लगा मैं अपनी देह से बाहर निकल कर उड़ने लगा हूँ। और मुझे कोई भेद अब पता चलना बंद हो गया, मैं कहाँ तक हूँ और दुनिया कहाँ तक है।” तुम्हारे साथ अगर ऐसा हो रहा है तो तुम्हारी जगह पागलखाने में है। सही बात तो ये है कि ऐसा कुछ हुआ भी नहीं था, तुम सिर्फ़ एक छोटे आदमी हो जो झूठ बोल रहा है, क्योंकि तुम्हें प्रचार चाहिए, क्योंकि लोग ऐसी बात सुनना चाहते हैं और तुम यही बात बेचना चाहते हो।
समाधि, अध्यात्म, बोध कोई अनुभव-गत घटना नहीं होती, कि तुम्हें अनुभव तरीके-तरीके के, हैरतअंगेज़, रंग-बिरंगे होने शुरू हो जाएँगे। कोई चिड़िया बन गया, कोई कद्दू बन गया। (व्यंग्यात्मक लहज़े में) तुम बनो कद्दू, मैं चाकू बनता हूँ फिर! पर ऐसे ही होता है, फलाने बाबा को जब मोक्ष हुआ तो उन्होंने पाया कि वो कद्दू हो गए हैं। ये तो गजब हो गया! फलानों की जब ज्योति उठी तो उन्होंने पाया कि वो बम्बई और लंदन में एक-साथ मौजूद हैं। तुम करो ये, मैं तुम्हें जेल भिजवाता हूँ, ये इमिग्रेशन फ़्राड है, तुम्हारा पासपोर्ट , *वीज़ा*सब ख़त्म होना चाहिए। ये कुछ नहीं है, कबूतरबाजी बोलते हैं इसको, नकली *पासपोर्ट*पर एक आदमी को इधर से ले जाना वहाँ। दोनों जगह वरना कैसे! क्या! किसको बता रहे हो? ना ये उपनिषद् बोलते हैं, ना वेद-पुराण बोलते हैं, ना कृष्ण ने कहा, ना अष्टावक्र ने कहा, ना कबीर ने कहा। सुना है कभी कबीर को ये बताते हुए, कि “गरीब आदमी हूँ, जुलाहा, बनारस का, तो बनारस और लाहौर, एक ही जगह बैठा हुआ हूँ मैं एक-साथ”? और फिर लाहौर ही क्यों, पेचिंग क्यों नहीं, मॉस्को क्यों नहीं, अखिल ब्रह्माण्ड क्यों नहीं? पर जो असली गुरु हैं, असली संत हैं, उन्हें इस तरह के दावों से और दाँव-पेंचों से और प्रचार से कोई मतलब नहीं। कबीर ने कभी कोई तिथि घोषित की, कि “फलाने दिन मेरा उठा था, फलाने दिन मैं दुनिया से मुक्त हुआ था”? बोलो, करी? कबीर ने करी? रैदास ने करी? फ़रीद ने करी? नहीं करी। और कई हैं असली, जिन्होंने स्वयं नहीं करी, पर उनके ऊपर ऐसी घटनाएँ तुम आरोपित करते हो। उनसे पूछोगे कि “क्या ऐसा आपने कहा कि अमुक दिवस को आपका मोक्ष हुआ था?” तो वो कहेंगे, “ऐसा हमने नहीं कहा, ये तो सुनने वालों ने ख़ुद किस्सा बना लिया।”
जहाँ जो चल रहा है वहाँ वो चलता रहेगा। भेद रहेंगे; मोक्ष और निर्वाण की दशा भेदों के मिट जाने की दशा नहीं है, अभेद में स्थापित हो जाने की दशा है। शरीर के तल पर भेद रहेंगे, ये मत बोल देना कि “मैं शरीर से बाहर आ गया, हवा में उड़ने लगा।” मन के तल पर भेद रहेंगे। बस इतना है कि अब तुम्हें शरीर से और मन से कुछ बहुत लेना-देना नहीं। “शरीर अपनी जगह है, मन अपनी जगह है, हम अपनी जगह हैं! बच्चे हैं हमारे! शरीर हमारा बच्चा है, मन हमारा बच्चा है। बच्चों की ज़िंदगी में बहुत दखल थोड़े ही देते हैं! वो अपना काम करते रहते हैं, हम अपना काम करते हैं।” संतों के भी बच्चे हुए हैं, तो वो घुस थोड़े ही जाते थे उनकी ज़िंदगी में। बच्चे अपना खेल-खिलवाड़, शिक्षा-दीक्षा अपना कर रहे हैं, संत अपना काम कर रहे हैं।
तुमने कोई बंदर पाला हुआ है, वो पेड़ पर चढ़ेगा, तुम थोड़े ही चढ़ जाते हो उसके पीछे-पीछे। तो मन ऐसा ही है, अपना पालतू बंदर। संत ने भी बंदर पाला होगा, तो बंदर तो भेद देखेगा न, आम में और गुठली में बंदर भेद करेगा, ज़मीन में और पेड़ में बंदर भेद करेगा। अब ऋषियों का बंदर है तो वो मौन में थोड़े ही बैठ जाएगा, है तो वो बंदर ही न! तो ऐसे ही मन होता है, वो तो भेद देखता है, भेदों में ही विचरण करता है, भेदों में ही उसकी गति है। बस ये है कि जब बंदर पेड़ पर चढ़े, तो तुम उसके पीछे-पीछे चढ़ मत जाओ, तुम नीचे से देखो और मज़े लो, “देखो, बंदर पेड़ पर चढ़ा है।” यही तो मज़े हैं बंदर पालने के, वो कलाबाज़ियाँ करेगा, तुम देखो, “मज़ा आ रहा है!” सर्दी और गर्मी में भेद सदा रहेगा। तुम इन सब भेदों के प्रति निरपेक्ष हो जाओ, “हमें कोई लेना-देना नहीं। सर्दी आयी, सर्दी लगी, सर्दी लगी तो बुद्धि ने बताया कि कपड़े धारण करो, तो कपड़े धारण कर लिए। ठीक, हो गया!” इतनी-सी तो बात है, उसमें क्या शोर मचाना, कि ‘सर्दी-सर्दी’, कि ‘गर्मी-गर्मी’? पुल आया, पार कर लिया, नदी आयी, तैर गए। जब जो होना है सो होगा। स्थिति अनुसार समाधान भी आ जाता है, हमें क्या करना है शामिल हो कर के! जिस तल पर समस्त स्थितियाँ आती-जाती रहती हैं, उसी तल पर उन स्थितियों के उत्तर भी आते-जाते रहते हैं।
गड्ढा किसके लिए है?
प्र: शरीर।
आचार्य: शरीर के लिए है। तो आँख गड्ढा देखती है और बुद्धि गड्ढे को लाँघ जाने का कार्यक्रम भी तैयार कर देती है, तुम्हें क्या करना है! तुम वहाँ स्थापित हो जाओ जहाँ सब एकरस है, जहाँ सब अभेद है। आँख ने देखा गड्ढा और बुद्धि ने योजना तैयार की गड्ढे को लाँघने की, और इस पूरी प्रक्रिया में तुम अपनी जगह थे – अटल, अचल, निरपेक्ष। ये है अभेद में जीना।
प्र: आचार्य जी, वहाँ स्थापित कैसे हुआ जाए जिसकी आप बात कर रहे हैं?
आचार्य: डरना छोड़ो, कि गड्ढे को पार करने के लिए तुम्हें कोई विशेष योजना बनानी पड़ेगी। तुम जितना डरते हो, तुम उतना ज़्यादा शामिल होते जाते हो, कर्ता होते जाते हो, शिरक़त करते जाते हो।
एक छोटा बच्चा है, वो गड्ढा लाँघ रहा है, बाप को भरोसा नहीं कि वो लाँघ जाएगा, तो वो तुरंत क्या करेगा? अब वो क्या दृष्टा बना रह सकता है बाप? छोटा बच्चा है, उसके सामने गड्ढा है, बाप क्या दृष्टा बना रह सकता है? तो फिर बाप क्या करता है? बाप जाता है, फिर उठाता है; बाप अपनी ओर से आयोजन करता है। बाप कहता है, “तू अपनी टाँगों पर नहीं पार करेगा, मेरी टाँगों पर पार कर!” ऐसे ही हो तुम। तुम्हें डर बहुत है, तो तुम फिर साक्षी नहीं रह जाते, तुम दृष्टा नहीं रह जाते, तुम कूद कर के सहभागी हो जाते हो। जबकि तथ्य ये है कि वो बच्चा समर्थ है, तुम उसे छोड़ दो, वो कर लेगा पार। बल्कि तुम उसे जितना सहयोग और समर्थन दे रहे हो, उसके साथ बुरा ही कर रहे हो, उसकी ताक़तों को दबा रहे हो, जगने नहीं दे रहे, उसके पंखों को फैलने नहीं दे रहे।
तुम्हें डरने की ज़रूरत नहीं है, ज़रा भरोसा रखो! श्रद्धा ही समाधान है। हो जाएगा भाई! जब आएगा तब देखेंगे। और आएगा से, देखेंगे से बात ये भी नहीं है कि भविष्य की योजना मत बनाओ। भविष्य की योजना भी बनाओ, जिसको बनानी है वो बनाए न, तुम्हारा पचड़ा थोड़े ही है! बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना! काम किसका है? मन का। परेशान कौन हो रहा है? तुम। काम मान लो सध भी गया, तो सुख कौन लूटेगा? मन। और चैन किसका छिना? तुम्हारा।
प्र: और अगर श्रद्धा नहीं जगी हो तो?
आचार्य: तो झेले जाओ! इतनी क्या समस्या है? झेलते ही जा रहे हो जीवन-भर, और झेलो!
प्र: ऐसे में तो इस दुष्चक्र से बाहर ही नहीं आया जा सकता। हम असहाय हो जाएँगे।
आचार्य: अरे बाबा! डर को समर्थन तो तुम ही देते हो। ज़रा भी अगर चैतन्य है, तो निर्णय तो तुम ही करते हो न! और अगर पूरी तरह मुर्दा हो, तो फिर ये सवाल कौन कर रहा है? तुम्हारा ये सवाल बताता है कि थोड़ा तो बीज है ही चेतना का। चेतना का अगर बीज है, तो उसी चेतना को इस्तेमाल भी तो करो। तुम्हारी हालत तो ऐसी है कि चिकित्सक से जा कर बोल रहे हो कि “मुझसे बोला नहीं जाता।” वो कह रहा है, “जिस मुँह से मुझे ये बता रहे हो कि बोला नहीं जाता, उसी मुँह से बोल लिया करो।” वैसे ही कह रहा हूँ, जिस चेतना से ये सवाल उठा रहे हो, उसी चेतना का इस्तेमाल दिन-प्रतिदिन के अपने निर्णयों में कर लिया करो।