श्राद्ध इत्यादि रस्मों का कुछ महत्व है? || (2019)

Acharya Prashant

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श्राद्ध इत्यादि रस्मों का कुछ महत्व है? || (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। हमारे विस्तृत परिवार में श्राद्ध करने को बड़ा महत्व दिया जाता है। श्राद्ध के दिनों में पंडित को बुलाकर खाना खिलाना, यज्ञ-वगैरह करना आदि। मैं यह नहीं करती हूँ पर डरती हूँ कि क्या मैं अपने पूर्वजों के लिए श्राद्ध न करके उनके साथ कुछ अनादर या ग़लत तो नहीं कर रही हूँ।

आचार्य प्रशांत: चलिए मान भी लिया कि आप अपने पूर्वजों से प्रेम करती हैं, उनका आदर करना चाहती हैं। आदर माने क्या? आप जब कहें कि आप किसी का सम्मान करते हैं उसका अर्थ क्या है? मैं यहाँ बैठा हूँ, आप कहें आप मेरा सम्मान करते हैं उसका क्या अर्थ है? कि आप मुझे सिंहासन पर या मंच पर, पहाड़ पर चढ़ा दें और आप नीचे बैठ जाएँ, ये? आप मुझे सम्माननीय, श्रद्धेय, आदरणीय आदि संबोधनों से विभूषित करें, ये? मैं मर जाऊँ तो मेरी याद में एक दिन दिया जला दें, ये? सम्मान माने क्या? निश्चित रूप से सम्मान का कोई गहरा अर्थ होता होगा न, कोई असली अर्थ होता होगा, क्या? किसी का मान रखना माने क्या? चाहे वो दोस्तों का हो, रिश्तेदारों का हो, चाहे वो पितरों-पूर्वजों का हो; मान रखना माने क्या?

मान रखने के लिए पहले हमें ये तो पता होना चाहिए न कि किसी में भी मान रखने लायक तत्व कौन सा है, आप किस चीज़ का मान रखना चाहते हैं। मान रखने का मतलब होता है ऊँचा जानना। मान रखने का मतलब होता है मूल्य देना। जब आप किसी के सामने सर झुकाते हो तो उसका मतलब होता है कि, "तेरी कीमत मेरे उठे हुए सर से ज़्यादा है और मैं इस बात को स्वीकारती हूँ।" यही अर्थ होता है न? इसीलिए आप हर ऐरी-गैरी जगह तो सर नहीं झुका देते, या झुका देते हो कहीं भी? कचरे का ढेर लगा है वहीं जाकर के दण्डवत प्रणाम मार देते हो? ऐसा तो नहीं करते?

सर कहीं-कहीं ही झुकता है न, सही जगह ही झुकता है। कहाँ झुकता है? जहाँ कीमत दिखाई देती है — मूल्य। तो अगर किसी का सम्मान करना है तो पहले तो ये पता हो न उसमें कौनसी चीज़ है जो मूल्यवान है। आदमी में क्या चीज़ है जो मूल्यवान है? मैं यहाँ आपके सामने बैठा हूँ मुझमें क्या मूल्यवान है? मेरे माथे का पसीना? बालों का पानी? ये कपड़े? ये दाढ़ी? नाखून? थोड़ी देर पहले मस्त इडली खाई थी, वो? क्या मूल्यवान है? क्या मूल्यवान है?

श्रोतागण: आपका ज्ञान।

आचार्य: तो पहला चरण तो ये कि हम समझें कि किसी में भी क्या चीज़ मूल्यवान है। और फिर दूसरी बात — अगर मुझमें ज्ञान मूल्यवान है, तो उसको सम्मान देने का तरीका क्या होना चाहिए आपके लिए? उसको समझना और उसपर चलना। जीवन सच्चाई में गुज़ारना, जीवन समझदारी में गुज़ारना। ये होना चाहिए न? वही तो हुआ सम्मान देने का तरीका।

भले हम जब किसी के सामने झुकते हैं तो ऐसा लगता है उसके शरीर के सामने झुक रहे हैं, पर वही शरीर जब राख हो जाएगा तो क्या आप राख अपने सर पर मलकर चलोगे? बोलो।

क्या करते हो? कुछ राख उड़ जाती है, जो थोड़ी-बहुत हाथ आती है उसको नदी में बहा देते हो, इतना ही तो करते हो। तो जब आप किसी के सामने झुकते भी हो तो ना उसकी नाक के सामने झुकते हो, ना आँख के सामने झुकते हो, ना पेट के सामने झुकते हो, ना हड्डी, ना नाखून — इन चीज़ों के सामने तो झुकते नहीं। आप उसकी चेतना की ऊँचाई के सामने झुकते हो, है न?

सम्मान देने में हमने ये समझा सबसे पहले कि हम किस चीज़ के सामने झुकते हैं। और फिर हमने ये समझा कि उस चीज़ को सम्मान कैसे दिया जा सकता है। उस चीज़ को सम्मान देने का एक ही तरीका है — उसको अपने भीतर भी ऊँची-से-ऊँची जगह दे देना। तुम कहना कि, "अगर भाई वो चीज़ क़ीमती है, मूल्यवान है तो उसे मैं अपने भीतर कहाँ बिठाऊँ, अपने जूते में रखूँ उसको या अपने सर के ऊपर? कहाँ रखूँ? अपने सर के ऊपर न। अपने जीवन में उसे शीर्ष स्थान देना पड़ेगा मुझे।"

तो फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आपके पूर्वज हों या किसी और के पूर्वज हों, हर मनुष्य में जो चीज़ सम्माननीय है वो एक ही है। उसका नाम है सच्चाई। उसी सच्चाई को कभी आत्मा कह दिया गया है, कभी ब्रह्म कह दिया गया। कभी बिंदु कह दिया गया। कभी मूल तत्व कह दिया गया। वो हर व्यक्ति में मौजूद है। हर व्यक्ति में मौजूद है प्यास बनकर। देखा है न हर आदमी सच्चाई के लिए इधर-उधर भागता है "सच क्या है बताना?" वो हर एक आदमी में मौजूद है।

तो, किसी को भी अगर आपको सम्मान देना है तो इस बात का ख्याल रखिए—चाहे जीवित लोग हों, चाहे दिवंगत लोग हों—किसी को भी सम्मान देना है तो इस बात का ख्याल रखिए। सम्मान का अधिकारी ना किसी का पद है, ना रुतबा है, ना प्रतिष्ठा है, ना रुपया-पैसा है। किसी में भी सम्मान का अधिकारी एक ही तत्व है, सिर्फ़ उसी के सामने सर झुकाना है। पहली बात तो सिर्फ़ उसी के सामने सर झुकाना है, दूसरी बात वो तत्व सब में मौजूद है। तो एक ओर तो हम कह रहे हैं सबके सामने सर झुकाना है और दूसरी बात हम ये भी कह रहे हैं कि सबके मान-सम्मान, रुतबे-पैसे के आगे सर मत झुका देना।

सूक्ष्म बात है समझिए अच्छे से। सर सब के सामने झुकना चाहिए लेकिन सर सब की छाती में बैठी सच्चाई के सामने झुकना चाहिए। ये नहीं कि सब के सामने सर झुकाने के नाम पर ताक़त के सामने सर झुका दिया, भय के सामने सर झुका दिया, पद-प्रतिष्ठा, धन-संपदा के सामने सर झुका दिया, अन्याय, अज्ञान के सामने सर झुका दिया, नहीं नहीं नहीं। और फिर ये भी कह दिया कि "वो तो गुरुजी बता गए थे न, सबके सामने सर झुकाना चाहिए क्योंकि वो मूल्यवान तत्व सभी में है।" अरे भाई तो सिर्फ़ उस मूल्यवान तत्व के सामने सर झुकाओ और कहीं नहीं।

तो अगर आपको अपने पिताओं और पितामहों को श्रद्धांजलि देनी भी है तो कैसे देंगी? इधर-उधर कर्मकांड करके, पचास तरीके के आयोजन करके, खोखले रस्मों-रिवाज़ों से या और कोई तरीका होना चाहिए? बोलिए।

श्राद्ध इत्यादि जो प्रथाएँ हैं अगर ये आपको एक सच्चा जीवन जीने की ओर प्रेरित करती हों तो अच्छी हैं, ठीक हैं। लेकिन अगर ये प्रथाएँ सिर्फ़ आडंबर और पाखंड बन गई हैं, बाहरी क्रियाएँ भर रह गई हैं तो फिर इनमें कुछ रखा नहीं। बात समझ रहे हैं?

वो जो सब थे दादा-परदादा, वो तो गए। जो बचा है उसे सत्य कहते हैं, वही बचा रहता है। जब उनको लेकर के चले थे मरघट की ओर तो याद करा था न "राम नाम सत्य है", उसका अर्थ क्या था?

"कि शरीर तो असत्य निकला भईया। ये शरीर क्या निकला? असत्य। इतने दिनों तक हम शरीर को ही देखते रहे। उसी की सेवा, सुश्रूषा करते रहे और ये तो झूठा निकला, दग़ा दे गया। देखो हमें यहीं छोड़कर के ये शरीर आज विदा हो गया, राख हो जाएगा। अब ये चेहरा कभी दोबारा दिखाई नहीं देगा, कितना भी हम बुलाएँगे। असत् निकला।"

क्या निकला ये? असत्। असत् माने जो अनित्य है। अनित्य माने जो टिकता नहीं, समय जिसको छीन ले जाता है। तो फिर हम कहते हैं "राम नाम सत्य है।" तो वो जो दादा-परदादा चले गए उनका अब बस क्या बचा है? "राम नाम।" उनका अब क्या बचा है, वो किस रूप में अब हैं? सत्य के रूप में हैं। तो उनको अगर सम्मान देना है तो हमें अपनी ज़िंदगी में क्या उतारना पड़ेगा? वही सत्य उतारना पड़ेगा न। यही तरीका है उनको आदर देने का, और कोई तरीका नहीं है।

आप बड़ा भव्य आयोजन करें श्राद्ध वगैरह का, उसमें लाख खर्च कर दें, दस लाख खर्च कर दें और ज़िंदगी आपकी झूठ से पटी पड़ी है तो ये श्राद्ध किसी काम थोड़े ही आने वाला है। आ रही है बात समझ में?

कह रहे हैं "क्या कर रहे हैं?" कह रहे हैं "ये करने से न वो जो अतृप्त आत्माएँ घूम रही हैं उनको पानी पहुँचेगा। ऐसा-ऐसा करने से, पानी देने से वो सब जो प्यासी रूहें हैं उनको पानी मिलता है।"

अरे यार! जलवायु परिवर्तन हो रहा है। इतने पक्षी, इतने पशु प्यास से भूखे मर रहे हैं। प्रजातियाँ की प्रजातियाँ विलुप्त हुए जा रही हैं। उनको पानी पिला दो, उन्हें खाना खिला दो। वो ज़्यादा सच्चा तरीका होगा अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान व्यक्त करने का। अब उन्हें पानी थोड़े ही पिला सकते हो। जो गला पानी पीता था वो तुम्हारे हाथों में मौजूद है राख बनकर। अब कौन पियेगा पानी भई?

पर ये सब खूब चलता है "कपड़े दे दो वो कपड़े पहनेंगे।" अच्छा! कपड़े पहनेंगे, ज़रूर। और तो और, साइकिल, बाइक — ये सब पण्डितों को दान में दी जाती हैं। "कहीं ये होगा नहीं तो बड़ी लंबी यात्रा करनी है उन्हें, स्वर्ग लोक तक की, पहुँचेंगे कैसे?"

उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने का बिलकुल ईमानदार तरीका क्या है? सच्चाई। चाहे वो अपने पितर-पूर्वज हों और चाहे दुनिया का कोई भी और आदमी, सबमें सम्मानीय तत्व एक ही है। हम ये कह रहे हैं। ठीक? दुनिया में कोई भी हो उसमें सम्मान लायक एक ही चीज़ होती है। और वही तरीका है उसको सम्मान देने का, और कोई तरीका है नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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