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शिवमय होना क्या है? || (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: शिवमय होना क्या है?

आचार्य प्रशांत: बहुत मुस्कुरा रहे हो बेटा! यही होता है शिवमय होना। पूछ रहे हैं कि “शिवमय होना क्या होता है?” यही है, सोमस्त हो जाओ। सोम जानते हो न क्या होता है, क्या होता है? ख़ुमार; सोमस्त हो जाओ, यही होता है शिवमय होना।

भोले-बाबा का तो ऐसा है कि उनसे दानव तो डरते ही थे, देवता भी बहुत डरते थे; बाकी सब भरोसे के थे, ब्रह्मा, विष्णु। कोई महल में रह रहा है, कोई राजा कहला रहा है, किसी ने मुकुट धारण कर रखा है, किसी को खीर का समुद्र मिला हुआ है, कोई अति-ज्ञानी है, वेद लेकर घूम रहा है। और इनका क्या है, भोले-बाबा का? ये नंग-धड़ंग बिराजे हुए हैं बिलकुल, और चुपचाप बैठे रहते हैं, और? गाँजा का सेवन करते रहते हैं। ये सांकेतिक है, इसका ये मतलब नहीं है कि उन्हें गाँजे की लत लगी हुई थी, इसका मतलब है एक ख़ुमारी, एक सुरूर, एक अतींद्रिय होश, जिसको सांसारिक-दृष्टि बेहोशी बोलेगी। एक ऐसा होश जो तुम्हारी समझ में, तुम्हारी पकड़ में नहीं आना है, तो फिर तुम सांकेतिक तौर पर कहते हो भंग, कि “भाँग घुटती है वहाँ तो!” वहाँ भाँग नहीं घुटती, तुम भाँग ही हो, तुम भाँग पैदा हुए हो, पर तुम इस भँगई को कहते हो ‘होश’, और फिर इसकी तुलना में, इसको केंद्र बना कर के जब तुम भोले-बाबा को देखते हो तो तुम्हें लगता है कि वहाँ ज़रा बेहोशी है, क्योंकि कुछ हिसाब ही नहीं पता चलता कि ये कर क्या रहे हैं।

साँप गले में डाल रखा है, साँड (बैल) खड़ा कर रखा है, कर क्या रहे हैं? आस-पास भूत-प्रेत नाच रहे हैं। कहने को तुम प्रजापति हो, पशुपति हो, हर चीज़ के पति हो, पर कहीं झोपड़िया नहीं मिली तुम्हें? अजीब स्थिति है! वो लड़का है, उसको हाथी का मुँह लगा दिया, ये कर क्या रहे हो? काहे को पैदा किया था? तुम्हारे जैसों की तो शादी नहीं होनी चाहिए। दूसरों की पत्नियाँ हैं, उन्हें सुख-ही-सुख है, यहाँ बेचारी पार्वती को आत्मदाह करना पड़ा, फिर उसने अथक साधना करी, तब तुम हासिल हुए, और तुम करते क्या हो? तुम उसे भी कहते हो, “ये भूत-प्रेत के साथ तू भी बैठ!” वो बेचारी भी सोचती रहती होगी कि, "कहीं थोड़ा पति के साथ दो-चार पल मिल जाते अकेले में", काहे को मिले! माथे से गंगा बहाएँगे, और ख़ुद कभी नहीं नहाएँगे। अब ऐसों की पत्नी की क्या हालत होती होगी सोचो, कि पति नहाने से ही इंकार कर रहे हैं, दुनिया-भर के लिए गंगा बहा रखी है। यहाँ (सर पर) बैठा रखा है चाँद, और बीवी को कभी नहीं कहते कि “मेरी चाँद!”

कामदेव अपनी तरफ़ से शायद मदद ही करने आया होगा, कि इनके भीतर भी ज़रा कामना उठा दूँ, नहीं तो यूँ ही ये तो ऐसा लगता है कि शादीशुदा-ब्रह्मचारी हैं। वो बेचारा आया, उसको धर लिया। दुनिया-भर को नचाता है कामदेव, और उसको धर लिया; और धर ही नहीं लिया, फूँक दिया, वो भस्म हो गया। वो भी मन्नतें माँग रहा, कि “बाबा! मैं बुरा क्या करने आया था? मर्द हो, विवाहित हो, तुममें ज़रा कामोत्तेजना प्रवाहित करने आया था।" बोले, “तू आ तो, तुझे कामोत्तेजना बताता हूँ।" एक तरफ़ तो कामदेव को मारे दे रहे हो, कि कामोत्तेजना बुरी बात, और प्रतीक अपना बना रखा है शिवलिंग। कौन इनकी बात करे?

समझ में आ रहा है शिवमय होना क्या होता है? तुम्हारे खोपड़े से बाहर की बात है, तुम्हें नहीं समझ में आ रहा है, सर क्या हिला रहे हो कि आ रहा है?

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: नहीं आ रहा है।

आचार्य: ये कहना भी ठीक नहीं है कि नहीं (समझ) आ रहा है। तुम कुछ मत बोलो, बस दाँत दिखाओ, मज़े करो; यही है शिवमय होना।

भूत-प्रेत, अघोरी, चांडाल, सब जो दुनिया से परित्यक्त हैं, वो कहाँ पनाह पाते हैं? शिव के यहाँ, शिव के घर में उनका स्वागत है, “तुम यहाँ आओ।" जिनसे तुम डरते हो, जिनको तुम छूना नहीं चाहते, जिनकी छाया तुम्हारे लिए अभिशाप है, वो शिव के मित्र हैं, वो शिव के अनुचर हैं; ऐसे हैं शिव। अब समझे शिवमय होने का अर्थ? देख लो शिव का और समाज का क्या संबंध है। शिव वो हैं जो अच्छे के भी पक्ष में नहीं हैं, इसीलिए तो कई बार राक्षसों को वरदान दे आए। पढ़ते नहीं हो कहानियाँ? जितने राक्षसों ने उपद्रव किया, उन्हें वरदान किसका मिला हुआ था? शिव का ही। वो बुरे के तो पक्ष में नहीं ही हैं, वो अच्छे के भी पक्ष में नहीं हैं; शिव बस स्वयं के पक्ष में हैं।

जहाँ शिव हैं, वहीं शुभ है।

अच्छा-बुरा तो सब आता-जाता रहता है, तुम्हारा बनाया हुआ है, और बनाने-वनाने में या चलाने में शिव की कोई रुचि नहीं। ब्रह्मा बनाएँ और विष्णु चलाएँ, और शिव क्या करें? शिव लात मार कर गिराएँ। ये शिव का काम है, “जा तू बना ले, तू चला ले, और जिस दिन हमारी नींद खुली, जिस दिन ये तीसरा नेत्र खुला, उस दिन हम क्या करेंगे? कि तुमने बड़ी मेहनत से जो बना रखा है, उसको लात मार कर बालू के घरौंदे की तरह ढहा देंगे।” प्रलय काम है शिव का, कभी सुना है शिव ने कुछ बना दिया? बनाने-वनाने में कोई रुचि नहीं, "हमारा काम है समाप्त करना।“ और भूलना नहीं कि तुम्हें समाप्ति ही चाहिए, क्योंकि बने तो तुम बहुत-कुछ बैठे हो, तुम्हें समाप्ति ही चाहिए; इसलिए शिवमय हो जाओ।

शिवमय होने का अर्थ है — समाप्त होने की आरज़ू रखना।

वो जो तुम सुनते हो ना, कि “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है”, वो है असली चीज़, शिवमय हो जाना; कि “अब सरफ़रोशी की तमन्ना आ गई है, समाप्ति। कुछ शुरू नहीं करना, बहुत कुछ तो शुरू हुआ, इतना शुरू हुआ, चलता ही रहा, चलता ही रहा, कौन उसको और चलाए, ख़त्म करो बाबा!” — ये है शिवमय होना। जो ख़त्म करने को तैयार नहीं हैं, जिनका अभी बनाने में, सजाने में, सँवारने में बहुत रस है, ये महाशिवरात्रि का पर्व उनके लिए नहीं है। तुम तो गृहस्थ लोग हो, मध्यम-वर्गीय, तुम तो ब्रह्मा की, विष्णु की उपासना करो। ब्रह्मा में भी थोड़ा ख़तरा है, एकाध-दो काम उन्होंने गड़बड़ वाले करे हैं, तुम विष्णु की करो उपासना। शिव की तो कहानियाँ भी ऐसी हैं कि तुम अपने बच्चों को नहीं सुना पाओगे। तुम्हें तो बड़े नैतिक किस्म के, साफ़-सुथरे छौने चाहिए न, गोलू-मोलू? उनको शिव से दूर ही रखना, बिगड़ जाएँगे। शिव का काम बनाना नहीं है, बिगाड़ना ही है, किसी चीज़ की कदर नहीं करते हैं वो (शिव)।

शिव का एक रूप है जिसमें वो भिक्षाटन करते हैं। शिव भिक्षा माँगने निकलते हैं तो जानते हो हाथ में क्या लेकर निकलते हैं? भिक्षा-पात्र क्या होता है उनका? ब्राह्मण की खोपड़ी। कहते हैं, “इसमें ज्ञान बहुत भरा था, इसी में भीख लूँगा।” शिव वो, जो लात मार दे तुम्हारे अनुशासन को, तुम्हारी परंपराओं को, तुम्हारे ज्ञान को, तुम्हारी सामाजिक-व्यवस्था को, तुम्हारी रूढ़ियों को। किसकी खोपड़ी? वामन की, ब्राह्मण की खोपड़ी। कहें, “और किसी की खोपड़ी में क्या मज़ा है? इसकी खोपड़ी बहुत चलती है, सारा फ़ितूर इसी की खोपड़ी में है, इसी में (भीख) माँगूँगा।”

एक बार सब ऋषि लोग तपस्या कर रहे थे। तो कहानी कहती है कि शिव घूमते-घामते वहाँ पहुँच गए। अब ये सब कहने को तो ऋषि हैं, पर हैं तो सब संस्कारित मूढ़-पुरुष ही, बीवियाँ ब्याह लाए थे और ख़ुद तपस्या करने बैठ गए थे। बीवियाँ अपने घरों में बंद रहती हैं और परेशान हैं। तो शिव पहुँचे वहाँ पर, और बिलकुल सुंदर, बलिष्ठ उनकी काया। ऋषि सब लगे हुए हैं अपने उपद्रव में, उनके उपद्रव का नाम है 'तपस्या', वहाँ बैठकर शास्त्रार्थ कर रहे हैं, तपस्या कर रहे हैं। बीवियाँ अपना सर धुन रही हैं कि “कहाँ फँस गए!” शिव पहुँचे, बीवियाँ सब मोहित हो गईं, आसक्त हो गईं। शिव ने एक-एक करके जितनी पत्नियाँ थीं, सबके साथ प्रेम-क्रीड़ा करी। ऋषियों को पता काहे को चले! ख़ैर, बाद में भेद खुला, ऋषियों को बड़ी ईर्ष्या उठी, गुस्सा, खुन्दक। कह रहे कि “ये देखो, पीछे-पीछे हाथ साफ़ कर गया, माल हमारा था।“ खाए गोरी का यार, बलम तरसे, रंग बरसे!

अब ये दिखा भी नहीं सकते कि हमें ईर्ष्या उठी है, “हम तो ऋषि हैं भाई, हमें ये सब थोड़े ही है!“ तो पंचायत बैठाई गई, उन पत्नियों को बड़ा धिक्कारा गया, कि “तुम पतिव्रता नहीं थी, तुम अनजाने आदमी के साथ संसर्ग कर बैठी, तुम्हें लाज नहीं आई?” पत्नियाँ भी ग्लानि में आ गईं, बोलीं, “लगता है हमने पाप कर दिया, अपराध हो गया। काम के आवेग में लगता है हम गड़बड़ कर बैठे।” तो फिर पत्नियों को आदेश दिया कि “देखो, अब मुकदमा चलेगा, और मुकदमे में निर्णेता तुम्हीं सब होओगी। और अब उसको बुलाते हैं, अपराधी को, शिव को, और तुम ही लोग अब घोषित करना कि ये अपराधी है, और बता देना इसको सज़ा क्या मिलनी चाहिए।“ तो पत्नी ने कहा, ”हाँ, ठीक है, बुलाइए, उसको ज़रा सज़ा देते हैं। हमें भी लग रहा है कि हमने गड़बड़ कर दी, पति के साथ धोखा किया, ग़लत बात है।” तो शिव को बुलाया गया, वो आ भी गए, बोले, “हाँ-हाँ, चलो-चलो, हम पर मुकदमा चलाओ।” वो आए और उन्होंने फिर से वही रूप दिखा दिया पत्नियों को, जिसको देखकर वो मोहित और उत्तेजित हुई थीं; वो तो रहते ही हैं अपना नंग-धड़ंग। पत्नियों ने उनका रूप देखा और सब एकमत, एक स्वर में बोलीं, “ये तो निर्दोष है, इसमें क्या दोष हो सकता है?” सब ऋषि-मुनि सर धुनते रह गए, कि “क्या करें!”

ये होते हैं शिव, होना है शिवमय? है हिम्मत? तुम शिव के प्रेत हो जाओ, इतना काफ़ी है। एक बार ब्रह्मा और विष्णु में ठन गई; कहानी सुननी है या अगला प्रश्न लूँ?

प्र: कहानी।

आचार्य: तो एक बार — अब कहानियाँ ही हैं पर सांकेतिक हैं, समझना — तो एक बार ब्रह्मा और विष्णु में ठन गई कि हममें से बड़ा कौन है। शिव इन सब झंझटों में पड़ते नहीं थे, कि “बड़ा कौन है?” कहते हैं, "बच्चों के खेल हैं, जिसको बड़ा होना है हो लो।" तो आपस में ये दोनों सर फोड़ने लगे, कि “बड़ा कौन है, बड़ा कौन है?“ तो सर फोड़ते-फोड़ते ये शिव के पास पहुँचे, बोले, “आप निर्णय कर दीजिए कि हममें से बड़ा कौन है।” इन्होंने कहा, “अच्छा, तुममें से बड़ा कौन है?” बोले, “ऐसा करता हूँ कि अपना लिंग बड़ा किए देता हूँ, और जो इसके अंत तक जाकर के पहले वापस आ जाएगा, वो बड़ा है।” तो उन्होंने लिंग का विस्तार कर दिया, बोले, “जाओ और इसका सिरा छूकर के वापस आ जाना। जो पहले वापस आ गया, वो तुममें से बड़ा है।”

तो कहानी कहती है कि दोनों अभी दौड़ ही रहे हैं; वापस आना तो छोड़ो, अभी वो अंत तक ही नहीं पहुँचे। तो इससे सिद्ध हो गया कि बड़ा कौन है। “ना तुम बड़े, ना तुम, सबसे बड़ा शिवलिंग!” इसीलिए शिवलिंग की फिर जगह-जगह पूजा होती है, कि “भाई! सबसे बड़ा यही है, इससे बड़ा कुछ नहीं!” अब सोमनाथ (प्रश्नकर्ता का नाम) को शिवमय होना है, अब तुम्हें कैसे बताएँ कि शिवमय होने की शर्त क्या है? उतना बड़ा होना चाहिए।

लिंग का अर्थ होता है जननांग नहीं, लिंग का अर्थ होता है प्रतीक, संकेत। लिंग का क्या अर्थ होता है? संकेत, इशारा, कुछ ऐसा जो याद दिलाता हो। शिव का लिंग दिखाया जाता है कि पार्वती की योनि में स्थापित है; वो इस पूरे ब्रह्मांड को निरूपित करता है। शिव स्थिर हैं, केंद्र में हैं, और उनके होने से चारों तरफ़ शक्ति का विस्तार है, नृत्य है; ये शिवलिंग का सांकेतिक अर्थ है। शिव के होने से शक्ति मग्न होकर समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त हैं, पसरी हुई हैं, नृत्य कर रही हैं, गतिशील हैं।

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