Articles

शिवलिंग का रहस्य क्या? शिवलिंग की पूजा क्यों? || (2021)

Acharya Prashant

23 min
2.3k reads
शिवलिंग का रहस्य क्या? शिवलिंग की पूजा क्यों? || (2021)

प्रश्नकर्ता: शिवलिंग क्या है? इसकी पूजा क्यों की जाती है?

आचार्य प्रशांत: लिंग का जो आध्यात्मिक अर्थ है वो प्रतीक और प्रमाण दोनों होता है। लिंग माने प्रतीक और लिंग माने प्रमाण और इन्हीं दोनों अर्थों के कारण शिवलिंग पूजनीय होता है। एक अर्थ में शिवलिंग द्योतक होता है निराकार सत्य का, कैसे? वेदों में, अथर्ववेद में स्तंभ का उल्लेख आता है—स्तंभ माने खम्बा—और किस अर्थ में स्तंभ का उल्लेख आता है? संभालने वाले के अर्थ में। कि जैसे एक खम्बा होता है उस पर आप काफी कुछ टिका सकते हैं न? एक खम्बा होता है वो सहारा बनता है, अवलंभ बनता है। उसपर टिककर खड़े हो सकते हो, उससे कुछ बाँध सकते हो। तो उस अर्थ में कहा जाता है, कहा गया है कि ब्रह्म एक स्तंभ की भाँति है, सत्य एक स्तम्भ की भाँति है जिसने सब देवताओं को — अथर्ववेद कहता है, “तैंतीसों देवताओं को अपने में बैठा रखा है या अपने में सहारा दे रखा है, पूरा संसार ही उसपर आश्रित है।” प्रतीक भर है ‘स्तंभ’। वही जो स्तंभ है वो आगे चलकर के शिवलिंग हो गया, निराकार ब्रह्म का प्रतीक।

अब इतना पुराना ये प्रतीक है शिवलिंग कि मोहनजोदड़ो की खुदाई हुई वहाँ से भी बहुत सारे शिवलिंग मिले। तो आप समझ लीजिए कि कम-से-कम पाँच से छह हज़ार साल पुराने शिवलिंगों के तो प्रमाण ही मिलते हैं। कि आप अगर वेदों को लें या शैव मत वालों को लें या लिंगायत मत वालों को लें सबकी थोड़ी-थोड़ी अपनी-अपनी अलग-अलग मान्यताएँ हैं शिवलिंग को लेकर के। पुराण कहानियाँ बताते हैं, उनमें मान्यताएँ नहीं हैं। तो शिव-पुराण में कुछ कहानियाँ हैं, लिंग पुराण में कुछ कहानियाँ हैं। फिर आधुनिक समय में प्राच्य विद्या विशारद हुए तो उनको जैसा अपनी पाश्चात्य दृष्टि से समझ में आया तो उन्होंने कह दिया — नहीं, ये शिवलिंग तो वास्तव में मानवीय लिंग का ही रूप है, और ये जिस पीठ पर स्थापित है वो मानवीय योनि मात्र है।

तो बहुत तरह की उसमें कहानियाँ बना दी गईं, प्रचारित कर दी गईं लेकिन जो कुल मूल बात है वो ये है कि शिवलिंग निराकार और साकार सत्य दोनों का एक साथ प्रतिनिधित्व करता हैं। निराकार सत्य का इस रूप में कि वो अवलंबन है। याद रखो उसको जो अवलंबन है—अवलंबन माने सहारा—याद रखो उसको जिसके सहारे ये पूरी दुनिया खड़ी हुई है। जैसे आप एक खम्बे को प्रतीक बना लें कि ये—और कोई भी प्रतीक हो सकता था, ये एक बस बात है कि एक स्तंभ को आपने प्रतीक बना लिया। तो इसके सहारे पूरी दुनिया चल रही है, निराकार के सहारे सब साकार चल रहा है। तो एक तल पर उसका ये अर्थ हुआ।

और दूसरे तल पर क्या अर्थ हुआ?

दूसरे तल पर अर्थ हुआ कि पुरुष है जो प्रकृति के बीचों-बीच शांत, स्थिर बैठा हुआ है। योनि प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती है और लिंग पुरुष का। तो इन्हीं दोनों के संयोग से सारी सृजनात्मक शक्ति है। लेकिन इन दोनों का संयोग इस तरीके से है कि समस्त प्रकृति के मध्य भी पुरुष अस्पर्शित है, अचल है और इसीलिए वो पूजनीय है। जो निराकार को पूजना चाहें उनके लिए शिवलिंग निराकार ब्रह्म का प्रतीक है, जो साकार को पूजना चाहें उनके लिए शिवलिंग प्रकृति और पुरुष के समुचित संयोग का प्रतीक है।

जब आप शिवलिंग को नमन कर रहे हो तो वास्तव में आप पुरुष को अर्थात चेतना को नमन कर रहे हो। आप ऐसी चेतना को नमन कर रहे हो जो है तो प्रकृति के मध्य लेकिन फिर भी अपनी स्वतंत्र सत्ता अक्षुण्ण रखे हुए है। वो प्रकृति में लीन या लिप्त नहीं हो गया, वो वहाँ होते हुए भी अलग है। वहाँ होना तो अनिवार्यता है। संसार में चेतना का होना हमेशा संसार के बीचों-बीच ही होगा, इंसान में चेतना का होना हमेशा इंसानी शरीर के बीचों-बीच ही होगा। तो वो तो अनिवार्यता है। प्रकृति नहीं तो पुरुष नहीं और जीव नहीं तो जीव की चेतना नहीं लेकिन प्रकृति के होते हुए भी, शरीर के होते हुए भी आपकी जो चेतना है वो शिवलिंग की भाँति ही अटल रहे, अचल रहे, उसमें कोई कम्पन नहीं हो रहा है, उसमें कोई राग-द्वेष, कोई लहरें नहीं उठ रही हैं इसलिए शिवलिंग पूजनीय है।

तो चाहो तो उसको निराकर सत्य मान लो और चाहो तो उसको अर्धनारीश्वर का प्रतीक मान लो, चाहो तो उसको निर्गुण ब्रह्म का प्रतीक देख लो और चाहो तो उसको इस बात का प्रमाण मान लो कि इस सगुण दुनिया में भी चेतना अक्षुण्ण रह सकती है। और शिवलिंग जिस ऊँचे सत्य का द्योतक है। अगर वो हमने नहीं समझा और समझे बिना ही हम बस नमस्कार करते रहे, तो पहले भी बहुत बार बोल चुका हूँ फिर दोहराता हूँ — कोई लाभ हमें होने नहीं वाला है।

प्रतीकों का अर्थ करते समय दो बातों से बचना चाहिए। पहली बात ये कि कोई अर्थ किया ही नहीं और प्रतीक को ही सत्य समझ लिया। और दूसरा, कि जो उसमें अर्थ निहित है ही नहीं तुमने वो भी निकाल लिया। ये जो अति है, अतिरिक्त अर्थ करने की, इससे बचना ज़रूरी है क्योंकि आप अतिरिक्त अर्थ, अतिशय विवेचना करते ही इसीलिए हो ताकि जो सीधी, सरल, प्रत्यक्ष बात है उससे बच सको।

तो आपको लोग मिल जाएँगे जो कहेंगे, “देखो शिवलिंग का जो आकार होता है वो इस तरीके का होता है, बेलनाकार होता है और उसका जो उच्चतम बिंदु है वो इस चीज़ का द्योतक है। फिर नीचे आओ तो ये बात है, फिर ये है फिर ये है, और उसमें इतने चक्र हैं या इतने विशेष तरीके के इन-इन कोणों पर बिंदू होते हैं। और उसका जो आधार है, जो पीठ है उसका ये विशेष महत्व है और उसपर दूध इस कोण से डाल दो तो इस तरीके का लाभ हो जाता है।” ये सब बिलकुल व्यर्थ की बातें हैं, ये सब हमारी अंदरूनी चालाकियाँ हैं सीधे-सीधे सत्य के साक्षात्कार से बचने की। सीधी बात से बचना है तो सीधा तरीका क्या है फिर? बात को टेढ़ा-मेढ़ा कर दो, जलेबी की तरह घुमा दो ताकि जो सीधी बात है उससे बच सको।

वो सीधी बात क्या है?

सीधी बात ये है कि संसार में रहना है लेकिन संसार से अस्पर्शित रहकर। और इस बात से थोड़ा हमें और बचना है। देखिए जिन लोगों को समझ में नहीं आया कि शिवलिंग किस चीज़ का प्रतीक है उन्होंने बहुत अपमान किया है उसका और वो जो अपमान है वो बहुत हद तक आज के जो पढ़े-लिखे सनातनी हिन्दू हैं उन्होंने भी स्वीकार कर लिया है।

अब इस्लाम में उदाहरण के लिए मूर्ति-पूजा का निषेध है। तो जब इस्लामी आक्रांता भारत आए, उन्होंने जगह-जगह शिवलिंग को देखा तो उन्होंने लोगों से पूछा, “ये क्या चीज़ है?” अब उसमें जो गूढ़ और सुक्ष्म अर्थ निहित है वो तो समझाने वाले ना समझा पाए, समझने वाले ना समझ पाए। उनको तो बस ये लगा कि ये जो लिंग है ये जैसे पुरुषों के शरीर में लिंग होता है वैसा लिंग है और ये लिंग जिस चीज़ पर आरूढ़ है, स्थापित है वो स्त्री के शरीर में जैसी योनि होती है वैसी ही योनि है। तो उन्होंने कहा कि “ये तो गंदी भद्दी चीज़ है, इसको तोड़-ताड़ दो।”

तो शिवलिंग खूब तोड़े गए और चूँकि वो चीज़ गंदी और भद्दी मानी गई तो इसीलिए उसको तोड़कर के फिर उनकी जगह पर नई इमारतें खड़ी की गई या नए पूजा स्थल खड़े किए गए, मस्जिदें वगैरह खड़ी की गईं। उनकी सीढ़ियों में लगा दिए गए वो शिवलिंग। यहाँ बात ये नहीं है कि मंदिर तोड़ा गया मस्जिद बना दी गई, मैं उस मुद्दे पर नहीं आ रहा हूँ, बात ये है कि हम प्रतीकों को समझ नहीं पाते, हम प्रतीकों को बिलकुल समझ नहीं पाते।

और फिर भारत में अंग्रेज आए। उन्होंने कहा कि भाई समझना चाहिए कि ये भारतीय दर्शन क्या है, भारतीय धर्म क्या है। तो फिर प्राच्य विद्या विशारद आए जिनका काम यही था कि जाओ और इनके ग्रंथों को पढ़ो, इनके प्रतीकों और इनकी सभ्यता को देखो। तो उन्होंने और शोर मचाया, उन्होंने कहा कि “यहाँ तो अश्लीलता बहुत है, ये देखो ये जिन देवता की सबसे ज़्यादा पूजा करते हैं वो ही लिंग के रूप में पूजे जाते हैं।” अब वहाँ जो विक्टोरियन मोरालिटी थी पश्चिम में उसके लिए ये बात बहुत विचित्र थी और अस्वीकार्य थी कि लिंग की पूजा हो रही है। तो उन्होंने जो पढ़ा-लिखा भारतीयों का वर्ग था उनके सम्पर्क में, उनमें ये भावना डाल दी कि “देखो तुम्हारा तो जो पूरा अतीत ही है वो अश्लिलता से भरा हुआ है।” और वो बात, वो झूठा सिद्धांत, वो एकदम हास्यास्पद जो मान्यता है वो आजतक न सिर्फ चली आ रही है बल्कि बहुत लोगों में वो और फैल गई है। और फैल इसलिए गई है क्योंकि हमारा हमारे वास्तविक अध्यात्म से बहुत कम संबंध रह गया है, वेदांत से हमारा कोई परिचय नहीं। हम रूढ़ियों, प्रथाओं, परम्पराओं में जी रहे हैं बिना उनका अर्थ जाने। हम प्रतीकों की अंधी पूजा कर रहे हैं बिना ये समझे कि ये प्रतीक इशारा किधर को कर रहा है। वो बहुत ऊँची जगह की ओर इशारा कर रहा है पर उस ऊँची जगह से हमें कोई सम्बन्ध नहीं, प्रेम नहीं।

उसका नतीजा फिर क्या निकलता है?

नतीजा ये निकलता है कि बहुत लोग होते हैं फिर जो अध्यात्म से अपनी निष्ठा खोते जाते हैं और जो लोग धर्म के साथ जुड़े भी रह जाते हैं वो सिर्फ अंधभक्ति में जुड़े रह जाते हैं। उन्हें समझने से कोई मतलब नहीं होता, वो बस पुरानी परम्पराओं को रटकर दोहरा रहे होते हैं।

अगली बार जब आप शिवलिंग को देखें तो और कुछ आप समझते हों या ना समझते हों, ये ध्यान रखें कि, "मुझे भी ऐसे ही अकंप, निश्चल, तन कर खड़ा रहना है दुनिया के आवेगों के बीच, संसार के थपेड़ो के बीच, संसार के आकर्षण-विकर्षण के बीच। दुनिया मुझे ऐसे ही चारों तरफ से घेरे रहेगी (जैसे शिवलिंग घिरा रहता है), ऐसे ही घेरे रहेगी और मैं यहाँ से छूट कर भाग नहीं सकता, घिरा हुआ हूँ घिरा ही रहूँगा लेकिन घिरे-घिरे भी अपनी शान में तना खड़ा रहूँगा।"

तुम मुझे घेर सकते हो, मुझे जीत नहीं सकते! टू बी सीजज्ड इज नॉट टू बी कैप्चर्ड (घेराव का मतलब पकड़ा जाना नहीं होता)

घिरे रहना तो उसी दिन तय हो गया था जिस दिन पैदा हुए थे। जिस दिन तुम पैदा हुए थे उसी दिन वेदांत कहता है कि आत्मा पाँच कोषों से घिर गई थी।

कितनी अजीब बात है न?

कहते हैं सत्य अनंत है, आत्मा अनन्त है लेकिन तुम पैदा हुए नहीं कि जो अनंत है वो भी एक नहीं पाँच कोषों से घिर जाता है, ये कैसे हो सकता है? यही तो माया है कि जो अनंत है उसके ऊपर भी कुछ बिलकुल छिलके की तरह चढ़ जा रहा है। तो जो मुझे घेरे हुए है उससे तो पीछा छुड़ा नहीं सकता। हाँ, उसका रूप-रंग बदल सकता है ज़्यादा मैं हाथ-पैर चलाऊँगा तो, पर उससे हमें कोई सांत्वना नहीं।

हमें इस बात की कोई आशा नहीं है, हमें ऐसी कोई ग़लतफहमी नहीं है कि एक भी दिन ऐसा आने वाला है कि हम शरीर धरे-धरे भी पूर्णतया मुक्त हो जाएँ। अरे, शरीर से थोड़े ही मुक्त हो गए, पूर्णतया मुक्त कैसे हो जाओगे शरीर धरे-धरे? तो वो जो योनि ने एक परीधि स्थापित कर रखी है, जो एक घेरा डाल रखा है वो तो रहेगा-ही-रहेगा लेकिन तुम्हें उसके बीच भी अपना शिवत्व कायम रखना हैं, तुम्हें उसके बीच भी अपना सत्य कायम रखना है। अगर शिवलिंग आपके भीतर ऐसी भावना, ऐसा विचार प्रेरित कर देता है तब तो समझिए कि आपका लिंग के समक्ष जाना सफल हुआ अन्यथा अगर आप वहाँ जाकर के वो परिक्रमा कर रहे हैं और दूध चढ़ा रहे हैं और प्रणाम कर रहे हैं तो इससे किसी को कोई लाभ नहीं होने वाला।

भारत में धर्म दर्शन से उठा है। ‘दर्शन’ माने समझदारी, विचारणा। विचार इतनी दूर तक गया और इतना गहरा गया है कि वो निर्विचार में बदल गया है। विचार इतना गहरा गया है कि वो ज़िंदगी में, जीवन में बदल गया है। सोच इतनी ईमानदार रही है कि इंसान को उसको जीना पड़ा है कि जब इतना सोच लिया, इतनी गहराई तक बात चली गई तो जो सोचा है उसको तो अब जीना भी तो पड़ेगा।

तो बिना सोचे, बिना समझे अगर आप धर्म का पालन करने निकले हैं तो आपका धर्म कोई धर्म नहीं। भारत में ‘धर्म’ का मतलब विश्वास नहीं है, मान्यता नहीं है। वेदांत आपसे ये नहीं कहता कि अगर तुम सनातनी हो या अगर तुम वेदांती हो तो पहले तुम स्वीकार करो कि, "एक इस तरीके का भगवान है या ईश्वर है या कोई ऊपरी शक्ति है उसने ऐसा-ऐसा करा", नहीं। दुनिया की और धार्मिक धाराओं में और वेदांत में यही मूल अंतर है। यहाँ बात स्वीकार से नहीं सवाल से शुरू होती है। पहले सवाल आता है कि ये जो है ऐसा क्यों है और सवाल के जवाब में भी अक्सर सवाल ही आता है।

सवाल अगर ऐसा आता है कि “ये दुनिया बनाई किसने?” तो जवाब आता है “कौन पूछ रहा है ये सवाल? किसकी दुनिया? किसको प्रतीत हो रही है ये दुनिया? किसकी अनुभव की दुनिया की बात कर रहे हो बेटा?”

ये वेदांत की प्रक्रिया है, इससे ज़्यादा साफ, इससे ज़्यादा कड़ी, इससे ज़्यादा ईमानदार प्रक्रिया दूसरी नहीं है। यहाँ समझने पर जोर है। तो आप अगर शिवलिंग को समझे नहीं तो आपने शिवलिंग को अपने लिए व्यर्थ कर दिया। समझिए।

प्र२: आचार्य जी, आपके ही वीडियो में सुना था कि प्रकृति और पुरुष एक प्रकार से दूर रहते हैं और वो योग है। उसमें फिर तंत्र की भी बात थी लेकिन उसे मैं समझ नहीं पाया।

आचार्य: असल में दोनों ही अपने-अपने तरीके से एक ही बात बोलते हैं।

आप वास्तव में सांख्य योग और राज योग की बात कर रहे हैं, उसमें आप तंत्र का भी पूछ रहे हैं। वो सब अपने-अपने तरीके से एक ही बात करते हैं। देखिए प्रकृति और पुरुष में सही रिश्ता क्या हो, ये दर्शन का पहला सवाल है।

प्रकृति और पुरुष का सही रिश्ता माने इंसान का और संसार का सही रिश्ता, इंसान का और संसार का सही रिश्ता क्या हो। क्योंकि जीना कहाँ है? इसी संसार में जीना है। तो यही अध्यात्म का प्रश्न है — जीएँ कैसे? जब आप पूछते हो, "जीएँ कैसे?" तो उसके आगे फिर पूछा जाता है — कौन है जीने वाला? और फिर उसके माध्यम से उत्तर दिया जाता है कि ये जीने वाला कौन है। ये जीव कौन है? फिर जीव की विवेचना की जाती है।

अब आमतौर पर हम कैसे जीते हैं?

आमतौर पर हम दुनिया से रिश्ता रखते हैं बहुत अजीब सा। दुनिया के पीछे भी जाना है और दुनिया से संतुष्ट भी नहीं हो पाना है — इस बात को काटना है, इस बात को मिटाना है क्योंकि इसी बात में दुःख है। हमारा दुनिया से जो रिश्ता रहता है वो बड़े अधूरेपन का रहता है, हमारा नाता भी है और दुनिया से हमारी एक रंजिश भी है, हम क्षुब्ध भी रहते हैं। ऐसे नहीं रहना है।

ऐसे नहीं रहना है; इस बात को दो अलग-अलग तरीकों से अभिव्यक्त किया गया है। एक तरीका है ये कहने का कि तुम साक्षी हो जाओ। जब आप इस तरीके को देखते हो तो ऐसा लगता है जैसे कहा जा रहा है कि अलग हो जाओ। और दूसरा तरीका है कहने का जैसे तंत्र में कहा जाता है कि एक यूनियन हो जाए, एक योग हो जाए, एक पूर्ण मिलन हो जाए। जब उसको आप देखते हो तो ऐसा लगता है जैसे कहा जा रहा हो कि तुम प्रकृति से पूरी तरह लिप्त ही हो जाओ। नहीं, न तो ये कहा जा रहा है साक्षी होने में कि दुनिया से बिलकुल अलग हो जाओ और न ये कहा जा रहा है तंत्र में कि दुनिया से एकदम लिप्त हो जाओ।

वास्तव में इन दोनों अतियों की बात इसलिए की जा रही है ताकि बीच में आप जिस तरीक़े से जी रहे हैं आप उसका खंडन, उसका अस्वीकार कर सकें। अब बात समझ रहे हो? हम आधे अंदर, आधे बाहर जीते हैं और इस आधे अंदर, आधे बाहर होने में एक पाँव इधर है एक पाँव उधर है। इसमें बहुत दुःख है; माया मिली न राम। अब आपको इस चीज़ से हटाना है। अब चीज़ से आपको हटाने के लिए दो तरीके से बात को कहा जाता है। एक कहा जाता है कि, "देखो प्रकृति को अपना काम करने दो तुम बस उसके निरपेक्ष दृष्टा हो जाओ, साक्षी हो जाओ।" आधे अंदर थे आधे बाहर थे तो इसमें क्या कह दिया गया? "पूरे बाहर हो जाओ।"

हम कैसे जीते हैं? आधे अंदर आधे बाहर तो सांख्य योग बोलता है, “तुम आधे अंदर आधे बाहर न रहो, तुम पूरे बाहर हो जाओ।” तंत्र भी यही कहना चाहता है, “देखो आधे अंदर आधे बाहर नहीं रहो”, तो उसको वो इस तरीके से कहता है कि तुम पूरे अंदर हो जाओ। बात न पूरे अंदर होने की है न पूरे बाहर होने की है, बात वैसे न होने की है जैसे हम हैं। हम बहुत अजीब हैं। इसीलिए जब भी मुझे कोई साक्षित्व के विषय में पूछता है तो मैं उससे कहता हूँ साक्षित्व का अर्थ दूरी नहीं है, साक्षित्व का अर्थ रूखापन नहीं है, साक्षित्व में बहुत प्रेम है।

साक्षित्व ऐसा नहीं है कि मैं किसी को देख ही नहीं रहा, साक्षित्व ऐसा है जैसे आप दुनिया के बीच दुनिया को ऐसे देख रहे हो जैसे नर्तकी नाच रही है और कोई उसका विद्वान प्रेमी बस चुपचाप हल्के से मुस्कुराते हुए उसे नाचते देख रहा है। ये साक्षित्व है। “तू अपना नाच नाचती रह, मैं बस तुझे मुस्कुराते हुए देखूँगा, हस्तक्षेप नहीं करूँगा।” इसमें प्रेम है या नहीं है? पर इसमें उदंड प्रेम नहीं है, इसमें चीरफाड़ के नोचकर खा जाने वाला प्रेम नहीं है, ये साक्षित्व है। “मैं साक्षी हूँ, तू अपना काम कर और मेरा प्रेम इसमें है कि मैं तेरे काम में व्यवधान नहीं बनूँगा।” यहाँ प्रेम है, बिलकुल है। तो जब साक्षित्व की बात हो तो याद रखना होगा कि साक्षित्व बराबर प्रेम। और जब तंत्र की बात हो तब वहाँ याद रखना पड़ेगा कि लिप्तता बराबर साक्षित्व। वहाँ पर लिप्त होने का मतलब ये नहीं है, वहाँ पर जो संयोग होता है पुरुष और प्रकृति के सिद्धांतों का उसका मतलब लिप्तता नहीं है, उसका मतलब साक्षित्व है। और हम दोनों तरफ गलती करते हैं।

जब हम साक्षी की बात करते हैं तो हमारा साक्षी रूखा हो जाता है और जब हम तंत्र की बात करते हैं तो जो हमारा तंत्र है वो बिलकुल उजड्ड हो जाता है, वो कामातुर हो जाता है। उसके लिए पुरुष और स्त्री शक्तियों के मिलन का अर्थ फिर क्या हो जाता है? अंधाधुंध संभोग, ये तंत्र बन जाता है। नहीं, अगर सच एक है तो ये दोनों बातें बहुत अलग-अलग नहीं होनी चाहिए, और नहीं हैं । तो साक्षित्व साक्षित्व नहीं है अगर उसमें प्रेम नहीं है और प्रेम प्रेम नहीं है अगर उसमें साक्षित्व नहीं है। और ले-देकर के दोनों बातें एक हैं, समझाने के दोनों तरीके अलग-अलग हैं। इन दो समझाने के तरीकों में जो केंद्रिय बात है वो नहीं भूल जाइएगा। ये दोनों ही तरीके जो एक साझी बात बोल रहे हैं वो ये है कि, "बेटा आधे अंदर, आधे बाहर मत जीओ।"

प्र३: प्रणाम आचार्य जी, आचार्य जी आपने अभी साक्षित्व समझाते हुए उदाहरण दिया कि एक नर्तकी है और उसका एक विद्वान प्रेमी है जो मुस्कुराते हुए देख रहा है। तो जैसे मैं हूँ तो मेरा तादात्म्य तो शरीर के साथ ज़्यादा है तो मैं ये समझ नहीं पाता कि अंदर डूबा हुआ हूँ या अलग होकर देख रहा हूँ।

आचार्य: तुम्हारा काम है सबसे पहले तो दूर होना। जब शुरुआत ही तादात्म्य से हो रही है तो वहाँ तो जो अगला कदम है वो तो स्पष्ट है न?

जहाँ पर शुरुआत द्वेष से हो रही हो वहाँ अगला कदम होगा निकटता की ओर लेकिन जहाँ शुरुआत ही लिप्तता से हो रही है वहाँ पहला कदम होगा? दूरी बनाने की ओर। तादात्म्य का क्या मतलब होता है? कि शरीर से अतिशय निकटता, तो शुरुआत ही फिर इससे करो कि ज़रा दूरी बनाओ भाई‌।

प्र३: तो एक प्रश्न और था जो पिछला उपनिषद् का सत्र सुना था उससे। कि छिलके उतारने ज़रूरी हैं उसके बाद जो बचता है वो ज़रूरी नहीं है। उसके बाद आपने कहा कि दो परिस्थियाँ हैं। पहली परिस्थिति में मैं हूँ और संसार है। अगर दो ही हैं तो संसार सिर पर बैठ कर नाचेगा और संसार की ग़ुलामी करनी पड़ेगी अगर तीसरा होगा तो बात अलग हो जाएगी। तो ये प्रक्रिया कि आंतरिक और बाहरी छिलकों को देखते रहना और सब बंधनों को देखते रहना और उनसे मुक्त होते रहना ही तीसरा है या तीसरा कोई और है इसके अंदर?

आचार्य: जो दूसरा नहीं है उसे तीसरा बोलते हैं। हमारा सब कुछ दूसरे में समा जाता है। तुम कहते हो न कि, "मैं हूँ, संसार है, ये दो हैं", और ये दो रहते ही हैं हमेशा तुम्हारे लिए। तो आदेश बस संसार से मत लो या ऐसा कह दो कि संसार के आदेशों की अवमानना करना सीखो, यही तीसरी बात है।

तीसरा कोई अपने-आपमें न कोई व्यक्ति है, न बिंदू है, न ईकाई है, न शक्ति है, न कुछ ऐसा है जिसको तुम कभी देख, सुन, जान सकते हो। तो फिर वो तीसरी चीज़ है क्या? वो तीसरी चीज़ यही है कि ये जो दूसरा है उसके बंधन में मत रहो, इसी को तीसरा होना कहते हैं। इसको तीसरा होना क्यों कहते हैं? क्योंकि जो भी कोई तीसरा है उसके हुए बिना तुम दूसरे की उपेक्षा या अवमानना कर ही नहीं सकते थे। तीसरे को खोजने निकलोगे कुछ नहीं मिलेगा, दूसरे के आदेशों के ख़िलाफ विद्रोह करना सीखो यही तीसरी बात है‌। दूसरे के आकर्षण के खिलाफ ताक़त जुटाना सीखो यही तीसरी बात है‌।

अगर तुमने किसी तीसरे की खोज कर डाली तो ये निश्चित समझना कि जिसको तुम तीसरा समझ रहे हो वो दूसरे का ही कोई छुपा हुआ हिस्सा है। इसलिए तीसरे को खोजने मत निकल जाना, जिन्हें तीसरा मिल गया उनका बहुत बुरा हाल हुआ। उनसे ज़्यादा धोखा किसी का नहीं हुआ जो कह देते हैं, “हमें कोई तीसरा मिल गया है। हमारा मोक्ष हो गया, निर्वाण हो गया, हमें भगवान की प्राप्ति हो गई।” ऐसों से बचना, इनका फिर बड़ा बेड़ा गर्क होता है। तुम बस दूसरे में मत फँसो, ये तीसरी बात है।

ये पहला, दूसरा, तीसरा कुछ समझ में आ रहा है? पहला कौन है? व्यक्ति। दूसरा कौन है? संसार। तो ये कह रहे हैं कि, "कोई तीसरा भी होना चाहिए न, नहीं तो संसार तो हावी हो ही जाता है। वो तीसरा कहाँ से लाएँ?" वो तीसरा कहीं से मत लाओ बस संसार को हावी मत होने दो, यही तीसरी बात है। ये संसार से बाहर की बात है इसीलिए इसको तीसरा बोल रहे हैं।

प्र३: तो फिर पहला हो सकता है कि वो हावी हो जाए, जो व्यक्ति है या जो मैं हूँ?

आचार्य: पहले तो तुम ही हो, तो क्या करोगे?

प्र३: तो इतना समझ नहीं आता कई बार कि दूसरा हावी है या मैं ही हावी हो रखा हूँ।

आचार्य: जो तुम पर हावी हो रहा हो उसको चाहे ‘मैं’ बोलो या चाहे ‘संसार’ बोलो, वही दूसरा है। तुम चाहे ये बोलो कि, "कोई दूसरा आकर मुझे डरा गया", या ये बोलो कि, "मैं अपनी ही कल्पनाओं से डर गया"; जो कुछ भी तुम्हें डरा रहा है वही दूसरा है, चाहे वो कोई व्यक्ति हो बाहर का चाहे वो कल्पनाएँ हों भीतर की। जो भी कुछ तुम्हारे विचारणा का विषय है वही दूसरा है।

‘मैं संसार से डर गया’ — इसमें दूसरा कौन है? संसार। ‘मैं स्वयं से डर गया’ — इसमें दूसरा कौन है? स्वयं।

तो मैं का जो भी विषय है वही दूसरा है।

प्र३: तो इसमें ऐसा भी है आचार्य जी जैसे जो ब्रह्म वेदांत आपने कहा कि वो नक़ाब को ओढ़ता है विवेक के साथ, समझ के साथ और उसके साथ तादात्म्य नहीं करता है।

आचार्य: नहीं, ओढ़ता नहीं है। वो इस बात को भली-भाँति जानता है कि पैदा होने का मतलब ही है कि कुछ चीज़ों ने तुम्हें ओढ़ रखा है।

प्र३: शरीर ही पहला।

आचार्य: हाँ, पैदा होने का मतलब ही है कि सच ढक गया, सच के ऊपर धुँआ या कोहरा छा गया, सच के ऊपर कोष छा गए। पैदा होने का मतलब ही यही है और ये बात उसको पता है। कहता है, “ठीक है अभी ये मुझ पर छा गए लेकिन मैं इनका ग़ुलाम नहीं बन जाऊँगा।”

प्र३: तो जो ‘मैं’ बच गया अभी जो पहले और दूसरे के प्रभाव में नहीं आता...

आचार्य: अभी तुम्हें ‘मैं’ पहले को ही मानना है। जो पहला है वही 'मैं' है। वही तुम हो।

प्र३: तो अभी तो नक़ाब ही चल रहे हैं।

आचार्य: दूसरे में जो कुछ आता है वही सब नक़ाब है और तुम उन नक़ाबों की छाया में हो। इसीलिए ये जो पहला है, ये जो ‘मैं’ है, ये मिश्रित है, ये दूषित है, ये नकली बना हुआ है इसीलिए तो ये डरता है। असली होता तो ये डरता क्यों इतना? प्रभावित क्यों होता इतना?

पहला है और दूसरा है और जो पहला है वो दूसरे की छाया में है, दूसरे के प्रभाव में है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories