प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब मैंने अष्टावक्र गीता पढ़ना शुरू किया तो मेरे आसपास के लोगों का रवैया नकारात्मक था। लोगों का अध्यात्म के प्रति ऐसा रवैया क्यों?
आचार्य प्रशांत: ये एक अनुभव रहा है। भारतीयों में खासतौर पर, अध्यात्म को लेकर डर भी है, वितृष्णा भी है, कहीं-कहीं तो घृणा भी है। और जहाँ अध्यात्म से जुड़ाव है वहाँ अध्यात्म से नहीं धर्म से जुड़ाव है। धर्म माने जो संगठित धर्म है, जो नामांकित धर्म, उससे जुड़ाव है। विशुद्ध अध्यात्म के प्रति या तो लोगों में उदासीनता है, या फिर मिथ्या तृष्णा है। क्यों है, क्या है, हटाओ!
प्रश्नकर्ता: हाँ, ये क्या शुरू कर दिया कि साठ साल के बाद करना; मेरी पत्नी ने बोला था कि — ये तुम क्या पढ़ रहे हो।
आचार्य प्रशांत: और खासतौर पर अगर कोई जवान आदमी इन्हें पढ़ता दिख जाए, बीस का हो, पच्चीस का हो, तब तो घर में हाहाकार मच जाता है बिल्कुल कि ये क्या हो गया, लड़का सन्यासी बन जाएगा। और ये भी कि ये सब पढ़ने-लिखने से क्या होगा, तुम्हें रोटी मिलेगी, तुम्हें रोज़गार मिलेगा, क्या होगा।
लेकिन इनको शिक्षा की मूल धारा में लाना बहुत ज़रूरी है। जो मुख्य धारा है शिक्षा की, उसमें इसको लाना बहुत ज़रूरी है। वो करने में तमाम तरह की मानसिकताएँ बाधा बनती हैं। कुछ तो ये कि समाज पूछता है कि इससे रोज़ी-रोटी का क्या ताल्लुक है, कुछ ये कि इनके ऊपर किसी तरह की सामुदायिकता या सांप्रदायिकता का ठप्पा लगा दिया जाता है कि ये पढ़कर के तो तुममें धर्मांधता आ जाएगी, वगैरह-वगैरह।
लेकिन जहाँ ये नहीं पढ़ा जा रहा वहाँ पर तमाम तरह की बीमारियाँ रहेंगी, अज्ञान रहेगा, बेचैनी रहेगी। तो किसी तरीके से अगर इनको शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा बनाया जा सके, तो उससे बड़ा पुण्य दूसरा नहीं हो सकता।
ये बात बहुत सीधी है — चलना सिखा दिया किसी को, दौड़ना भी सिखा दिया उसको, और ये वो जान ही नहीं रहा है कि किस दिशा में जाना चाहिए, तो फिर दौड़ करके गड्ढे में ही गिरेगा। दौड़ता हुआ जाएगा, कहीं नदी, नाले, कुएं में गिरेगा। जहाँ पहले चल-चलकर के जाता, धीरे-धीरे जाता, उसी विनाश की ओर अब और तेज़ी से, द्रुतगति से जाएगा।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पश्चिम में अध्यात्म को शिक्षा व्यवस्था में लाने का प्रयत्न किया जा रहा है। क्या वे अध्यात्म को समझ भी पा रहे हैं?
आचार्य प्रशांत: उनके साथ जो समस्या है, विदेशियों से भी बातचीत रहती है, बहुत संपर्क रहता है। वो इसका इस्तेमाल अपने भले के लिए करना चाहते हैं। वो इसके सामने नतमस्तक नहीं होना चाहते, वो इसका उपयोग करना चाहते हैं, और ये दो बहुत अलग-अलग दृष्टियाँ हैं। समर्पित हो जाना और ग्रंथ के भोगी हो जाना, भोक्ता हो जाना, दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। एक तो है कि ग्रंथ के सामने ऐसे झुके कि विलीन हो गए। दूसरा ये है कि अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ग्रंथ को भी एक विधि बना लिया, एक ज़रिया बना लिया।
तो वो उद्देश्य अपने बदलने में बहुत रुचि नहीं रखते। वो कहते हैं, मैं तो जो हूँ सो हूँ। ये बताओ कि मेरे उद्देश्यों के रहते हुए, मेरी वृत्तियों के रहते हुए भी मुझे तनाव कैसे कम मिले। मैं जिधर जाना चाहता हूं, उधर तो मैं जाऊँगा। मुझे ये बताओ कि इसका इस्तेमाल करके मैं और सुगमता से कैसे जा सकता हूँ। मैं ये नहीं कह रहा कि सभी विदेशी ऐसे ही होते हैं, पर ये वृत्ति उनमें बहुत पाई जाती है।
प्रश्नकर्ता: यहाँ पर समस्या है जो मैं महसूस कर रहा हूँ, क्योंकि जो हमारी पीढ़ी है उसने सबसे बड़ा पीढ़ियों का अंतर देखा है, बैलगाड़ी से लेकर सुपरफास्ट ट्रेन तक सब देखा हुआ है। और एक वक्त था हमारे बचपन में कि सब चीजें तब पढ़ते भी थे, और बताया भी जाता था और पढ़ने को प्रोत्साहित भी किया जाता था। अचानक जो है, जो नया आया है और जो स्कूलिंग सिस्टम है जिसमें बहुत ज़ोर है उन चीज़ों पर और ये चीजें बहुत ही पिछड़ी हुई।
आचार्य प्रशांत: हाँ, ये माना जाता है कि जो पिछड़े हुए लोग होते हैं वो ये सब पढ़ते हैं, ये सब पिछड़ी मानसिकता का द्योतक बनती हैं।
प्रश्नकर्ता: वो मानसिकता है और यहाँ तक कि इसको हाथ में पकड़ना भी बहुत मुश्किल काम है।
आचार्य प्रशांत: उसका तरीका है। इसको (अध्यात्म को) अभी आप गीता नाम से, संस्कृत नाम से आरंभ में ही नहीं दे सकते। शुरुआत में तो इसे ऐसे देना पड़ेगा कि जैसे ये मनोविज्ञान है, जैसे कि ये जीवन बेहतर बनाने का कोई उपकरण हो। उसमें न कोई संस्कृत हो सकती है, न अध्यात्म हो सकता है।
वहाँ तो कुछ बहुत सहज और सरल और सामयिक और प्रासंगिक बातें होंगी कि भाई! बताओ, डर क्यों लगता है? भाई! बताओ, तुम जिधर को जा रहे हो, उधर क्यों जाना है? भाई! बताओ, तुम नौकरी का चयन कैसे करते हो? भाई! बताओ, तुम विवाह कैसे करते हो? भाई! बताओ, तुम्हारे दोस्त कैसे हैं?
तो इन सब बातों से शुरू करना होगा — फिर और करना होगा, करना होगा। फिर एक स्थिति आती है कुछ सालों में जब जो शिष्य होता है, जो साधक होता है वो वहाँ पहुँच जाता है, जहाँ उसके हाथ में ये दी जा सकती है।
ये तो वैसे भी ग्रंथ का भी अपमान है कि उसे कुपात्र के हाथों दिया जाए। ग्रंथ स्वयं कहता है कि जो पात्रता न रखता हो, उसके पास मुझे अगर दिया, तो देने वाले को पाप लगेगा।