प्रश्नकर्ता: नमस्ते, सर। मेरा सवाल एक खबर पर है। अभी कुछ दिनों पहले तमिलनाडु के एक गवर्नमेंट स्कूल से एक न्यूज़ आई थी जहाँ पर जो विजुअली इम्पेयर्ड स्टूडेंट्स (दृष्टिहीन छात्र) थे, उनको रिबर्थ (पुनर्जन्म) के ऊपर लेक्चर दिया जा रहा था। तो पिछले कुछ समय से, इस तरह के जो विषय होते हैं रिबर्थ और भारत से काफ़ी खबरें आ रही हैं मतलब बहुत अलग-अलग तरीके की टाइप्स।
तो क्या इन विषयों का अपना कोई वजूद है? या फिर इससे छात्रों पर उसका क्या प्रभाव पड़ रहा होगा? कि जो हमारी एक तरह से नॉर्मल स्टैंडर्डाइज़्ड एजुकेशन (सामान्य मानकीकृत शिक्षा) है, उसमें इस तरह के जो विषय होते हैं।
आचार्य प्रशांत: छात्रों पर प्रभाव बस ये पड़ रहा है कि नॉलेज सिस्टम (ज्ञान तंत्र) के नाम पर उनको एक बिलीफ़ सिस्टम (मान्यता तंत्र) दिया जा रहा है। तमिलनाडु में तो फिर भी ये हो गया कि छठी के बच्चों को पुनर्जन्म और इस तरह की अंधविश्वास भरी बातें बताई जा रही थी, तो वहाँ पर मंत्रालय ने उस पर आपत्ति कर दी और मीडिया ने भी खूब विरोध करा। लेकिन अन्य राज्यों में यही चीज़ें चल रही हैं, तो इस पर कोई विरोध वगैरह थोड़े ही हो रहा है।
जहाँ तक मुझे पता है कुछ आईआईटीज़ तक में, हम साधारण छठी, सातवीं के स्कूलों की बात नहीं कर रहे हैं, हम भारत में हायर एजुकेशन (उच्च शिक्षा) के सर्वोच्च संस्थानों की बात कर रहे हैं आईआईटी। आईआईटी तक में इंडियन नॉलेज सिस्टम (भारतीय ज्ञान प्रणाली) के नाम पर इस तरह की बातें पढ़ाई जा रही हैं, और कंपलसरी (अनिवार्य) करके पढ़ाई जा रही हैं कि मरने के बाद जब शरीर से जीवात्मा निकलती है तो शरीर को कैसे देखती है, और ये सारी बातें। हाँ?
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: तो ये बड़ी एक दुखद स्थिति है जहाँ शायद हम ये भूल गए हैं कि नॉलेज और बिलीफ़ में अंतर क्या होता है। ज्ञान, विश्वास नहीं होता भाई! तुम अपनी कोई धारणा, मान्यता, बिलीफ़ (आस्था), अज़म्पशन (मान्यता) लेकर चल रहे हो, उसको नॉलेज (ज्ञान) थोड़े ही बोल दोगे।
भारत में इतनी सदियाँ, शताब्दियाँ बीती हैं, पुराना राष्ट्र है हमारा। ज्ञान-विज्ञान में निश्चित रूप से कुछ बड़ी उपलब्धियाँ हासिल करी हैं। उनके बारे में बताना एक बात है। आप आर्यभट्ट के बारे में बता रहे हैं, आप वराहमिहिर के बारे में बता रहे हैं, या कि आप महर्षि पाणिनी के बारे में बता रहे हैं, ये एक बात होती है। और आप भारत में क्या-क्या प्रथाएँ परंपराएँ रही हैं और भारतीयों ने क्या-क्या बातें मान्यता के तौर पर मानी हैं, अंधविश्वास के तौर पर मानी हैं, उनको आप बता रहे हैं छात्रों को; ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं।
बल्कि जो भारत के गणितज्ञ रहे हैं, वैज्ञानिक रहे हैं, शोधी रहे हैं, खोजी रहे हैं असली, आप उनका अपमान कर रहे हैं ज्ञान के नाम पर, प्राचीन भारतीय ज्ञान के नाम पर छात्रों को अंधविश्वास पढ़ाकर के। क्योंकि प्राचीन भारतीय ज्ञान के नाम पर अगर आप छात्रों को अंधविश्वास पढ़ा रहे हो, तो आप यही कह रहे हो न कि भारत के पास ज्ञान के नाम पर बस अंधविश्वास है। ये आपने भारत के पुराने ज्ञान का भी अपमान, उपहास कर दिया कि नहीं कर दिया? बोलो।
या तो ऐसा होता कि भारत के पास गणित में, विज्ञान में, मेटलर्जी में, मेडिसिन में कोई उपलब्धि ही न होती, आर्किटेक्चर में कोई उपलब्धि न होती। अगर कोई उपलब्धि न होती, तो ये बात थोड़ी समझ में आती कि हमने कुछ करा तो था नहीं, हमारे पास कुछ था तो नहीं। तो हम अब मनगढ़ंत, काल्पनिक बातें अपने बच्चों को बता रहे हैं ताकि उनमें थोड़ा एक झूठा ही सही लेकिन एक गौरव बना रहे।
मनगढ़ंत गौरव के किस्से तो बच्चों को तब पढ़ाने पड़ते हैं न जब असली गौरव के लिए कोई बुनियाद, कोई विषय मौजूद न हो। पर हमारे पास ऐसे विषय मौजूद हैं जिन पर हमें सचमुच गौरव हो सकता है। उनके होते हुए अगर आप कह रहे हो कि इंडियन नॉलेज सिस्टम का मतलब ये सब कुछ होता है जो स्कूलों में और आईआईटी वगैरह में पढ़ाए जाने की कोशिश चल रही है, तो फिर तो ये बहुत ही दुखद स्थिति है भाई!
और एक बात और समझ लेना, ये बहुत बुरा काम होता है, बहुत घटिया काम होता है छोटे बच्चों से झूठ बोलना। क्योंकि एक बच्चा है न छोटा, चाहे वो छात्र हो, आईआईटी का ही छात्र हो; एक छोटा बच्चा है, वो बहुत निर्भर होता है, बहुत आश्रित होता है, वो भरोसा कर लेता है। वो भरोसा कर लेता है कि आप उसको जो बता रहे हो वो सच ही बता रहे हो। और आपने उसके भरोसे का नाजायज़ फ़ायदा उठाया है, आप शिक्षा व्यवस्था में ऐसी बातें भर रहे हो जो बिल्कुल खुल्लम-खुल्ला झूठ है। और वो झूठ बताने की कोई ज़रूरत भी नहीं, क्योंकि आप राष्ट्रीय गौरव के नाम पर उसको झूठ बता रहे हो, और राष्ट्रीय गौरव के लिए हमारे पास पहले ही पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है।
भारत कोई छोटा या हल्का राष्ट्र नहीं रहा है, बहुत वृहदता और गुरुता रही है हममें। अगर आप हमारा वास्तविक इतिहास ही बच्चों को पढ़ा दें, तो उसमें ही राष्ट्रीय गौरव के लिए पर्याप्त सामग्री मौजूद है। पर उसकी जगह देखो हम क्या कर रहे हैं, हम कह रहे हैं, हम ये सब बताएँगे उनको। कहीं-कहीं से तो ये भी आया है कि शिक्षकों को इन सब विषयों में मौका मिल जाता है, तो वो जातिवाद वगैरह को भी वैज्ञानिक ठहराने की कोशिश करने लग जाते हैं। और उनको पता भी नहीं होता कि जातिवाद को वैज्ञानिक ठहराने की प्रक्रिया में वो नस्लवाद, रेसिज्म (जातिवाद) के कितने करीब पहुँच गए। क्योंकि वही तरीका होता है इसको जायज़ ठहराने के प्रयासों का।
ज्ञान में और परंपरा में बहुत अंतर होता है भाई! भारतीय ज्ञान महान है, भारतीय परंपरा महान हो ऐसा कुछ नहीं है। भारतीय विद्वान महान है। पर जो इतना पुराना और इतना विस्तृत राष्ट्र हो, उसमें जहाँ ज्ञानी होते हैं वहाँ अज्ञानी भी होते हैं। और परंपराएँ ज्ञानियों की कम चलती है, अज्ञानियों की ही ज़्यादा चलती हैं।
जैसे आज भी देश में दस अगर ज्ञानी होंगे, तो लाख अज्ञानी होंगे। यही होता है न? वैसे ये हाल सदा से रहा है भारत में। निश्चित रूप से हमारे अतीत में महान ज्ञानी मौजूद हैं, पर हर ज्ञानी पर एक-हज़ार अज्ञानी भी मौजूद हैं, और सब प्रथाएँ, परंपराएँ अज्ञानियों की चलाई हुई होती हैं, इन प्रथाओं, परंपराओं को ज्ञान नहीं बोल देते, ये हमारा नॉलेज सिस्टम नहीं है।
ऋषि सुश्रुत की बात एक तरफ़ होती है और नीम, हकीम, खतरा-ए-जान दूसरी चीज़ होती है दादा! उनको एक थोड़े ही बोल दोगे। कि ये सब हमारी पुरानी बातें हैं, सब पुरानी बातें हैं।
पुरानी बात बोलकर के तो तुम इसको भी जायज़ ठहरा रहे हो कि पुराना एक चला आ रहा है कि वो बाबा जी हैं, वो छूकर के ऐसे जिसको पानी पिला देते हैं वो ठीक हो जाता है। लोग व्हीलचेयर पर आते हैं, बैसाखियों पर आते हैं, ड्रिप लगाए हुए आते हैं, और बाबा जी उनको पानी पिलाते हैं, वो बिल्कुल खड़े हो जाते हैं, बैसाखी दूर फेंक देते हैं, व्हीलचेयर से उठकर नाचने लगते हैं। डॉक्टरों ने जो सुई और तार लगा रखे होते हैं, वो सब फेंक देते हैं, और कहते हैं, ‘जय बाबा जी!’
हम इस पर गौरव करें क्या? और इस बात को हम प्राचीन माने और वैज्ञानिक माने? ये चीज़ प्राचीन और वैज्ञानिक नहीं है। और जो सचमुच प्राचीन और वैज्ञानिक है, वो हम अपने छात्रों को पढ़ाना नहीं चाहते, क्योंकि वो हमारी ही परंपरा के खिलाफ़ जाता है। ये कितनी अजीब हमारी हालत हो गई है।
भारत के पास जो दर्शन है, शोध है और विज्ञान है, वो हम सचमुच अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते, क्योंकि वो पढ़ा देंगे तो हमारी ही परंपराएँ और मान्यताएँ और अंधविश्वास सब खारिज हो जाएँगे।
देखो, भारत में दो चीज़ें एकसाथ चली हैं हमेशा से। एक अद्भुत और ऊँचे ज्ञान की धारा रही है जो बहुत अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा बहायी गई है। ज्ञानी और विद्वान कभी भी समाज की मुख्य धारा में तो आते नहीं और समाज द्वारा अक्सर उनको बहुत सम्मान भी नहीं मिलता, पहचान भी नहीं मिलती, रिकॉग्निशन (स्वीकरण, मान्यता) नहीं मिलता।
तो एक ओर तो हमारे यहाँ ज्ञानियों का, विद्वानों का एक बड़ा सशक्त और बड़ा उज्ज्वल पक्ष रहा है। और दूसरी ओर भारत का जो बहुसंख्यक वर्ग रहा है, वो कभी भी बहुत न साक्षर था, न विद्या का बड़ा प्रेमी था। साक्षरता दर कोई बहुत ज़्यादा नहीं थी भारत में, और बात अंग्रेजों की नहीं है, अंग्रेजों के आने से पहले भी हमारे यहाँ जो सामाजिक व्यवस्था थी, उसमें सबके लिए पढ़ना ज़रूरी था ही नहीं। बल्कि कुछ वर्गों के तो पढ़ने पर रोक सी लगाई हुई थी। कुछ जातियाँ और सब जातियों की महिलाएँ, ये कोई बहुत पढ़ी-लिखी थोड़े ही होती थीं।
तो बहुसंख्यक वर्ग तो यही था, जो पढ़ा-लिखा नहीं था, जिस पर ज्ञान का प्रकाश कभी पड़ा ही नहीं। और सब प्रथाएँ, परंपराएँ इन्होंने ही चलाई हैं, इन्हीं की चलाई हुई हैं।
ज्ञानी को बहुत रुचि होती भी नहीं है कि वो समाज में आकर हस्तक्षेप करे और सामाजिक परंपराओं में एक और परंपरा जोड़े वगैरह-वगैरह; वो ये करता नहीं आमतौर पर। तो ज्ञानियों का ज्ञान अपनी जगह रह गया और वो बहुत ऊँचा ज्ञान है। दुनिया में कम ही राष्ट्र होंगे जिनके पास उतना ऊँचा ज्ञान उपलब्ध हो जितना भारत के पास है।
लेकिन साथ-ही-साथ भारत की बहुसंख्यक आबादी, भारत की मुख्य धारा जो मेनस्ट्रीम है, उसकी सोच, उसकी धारणा, उसके विश्वास, ये सब पिछड़े हुए ही रह गए। और ये बात हमें विनम्रता के साथ माननी पड़ेगी। वो पिछड़े हुए ही रह गए और आज भी पिछड़े हुए हैं।
हम अपने ज्ञानियों का कहाँ सम्मान करते हैं। बताओ न! आम आदमी से बोल दो, दस फिल्मी अभिनेताओं के नाम बता दो, खट से बता देगा। कहो, दस क्रिकेटर के नाम बता दो, बता देगा। उससे बोलो कि दस वर्तमान भारतीय वैज्ञानिकों के नाम बता दो, नहीं बता पाएगा। और अगर बोल दिया तुमने कि दस प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों के नाम बता दो तो एकदम ही नहीं बता पाएगा। हम कहाँ ज्ञान का सम्मान करते हैं।
और ये बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि जो राष्ट्र ज्ञान का सम्मान नहीं करता वो पिछड़ता जाता है। अतीत में भी ज्ञान का अपमान करके हमने बहुत चोट खाई है। हमने ज्ञान को बहुत छोटी चीज़ बना लिया और गुलाम बने रहे।
हमने धर्म से ही ज्ञान को काट दिया। हमने धर्म का अर्थ लगा लिया बस हाथ जोड़कर खड़े हो जाना और तमाम तरह के रीति-रिवाजों का पालन करना, हमने इसको धर्म बना लिया।
ज्ञान ही धर्म का आधार होता है, हमने धर्म को उसके आधार से ही काट दिया। और भारी कीमत चुकाई, और मुझे डर है कि कहीं वो कीमत हम दोबारा न चुकाएँ।
समझ में आ रही है बात ये?
और भारत में अब एक नई चीज़ निकली है। जो हमारी असली खोजें थीं, जो हमारे असली योगदान थे, साइंस में, डिस्कवरीज में, इन्वेंशंस (अविष्कारों) में; उनका तो हमें पता नहीं, और वो हम किसी को बताना भी नहीं चाहते। ऊलजुलूल बातें हम करने लग गए हैं राष्ट्रीय गौरव के नाम पर।
कोई बोलता है, ‘त्रेता युग में इंटरनेट चलता था।’ कोई बोलता है, ‘ऋगवेद में एयरोस्पेस (वायुमंडल और बाहरी अंतरिक्ष) टेक्नोलॉजी लिखी हुई है।’ कोई बोलता है, ‘वैदिक मैथेमेटिक्स।’
किस वेद में मैथेमेटिक्स लिखी हुई है? बताओ तो मुझे! या तो फिर मैंने अपने कई साल व्यर्थ ही खराब करे हैं वेदों को पढ़ने में। मुझे तो किसी वेद में कहीं कोई गणित का सूत्र नहीं मिला। वेद पढ़े भी है मैंने, पढ़ाए भी हैं, मुझे तो नहीं मिला कि वेदों में गणित का सूत्र हो। पर सरकार खुद इस बात को आगे बढ़ाना चाहती है कि ‘वैदिक मैथेमेटिक्स।’
जिसको आप वैदिक मैथेमेटिक्स कहते हो; जब मैं ‘कैट’ की परीक्षा (कॉमन एडमिशन टेस्ट, ये भारत के प्रबंधन संस्थानों (आईआईएम) में एमबीए जैसे स्नातकोत्तर प्रबंधन कार्यक्रमों में एडमिशन के लिए आयोजित की जाने वाली राष्ट्रीय स्तर की प्रवेश परीक्षा है।) दे रहा था, उस दौरान वो सूत्र मैंने भी पढ़े थे, और वो उपयोगी होते हैं, उससे जो अर्थमेटिक (अंकगणित) के कुछ कैलकुलेशन (गणनाएँ) होती हैं, वो फ़ास्ट हो जाती हैं। वो एक तरह से ट्रिक्स हैं और वो जो किताब है अर्थमेटिक की, वो मुश्किल से सौ साल पुरानी किताब है, सौ-सवा-सौ साल पुरानी किताब है।
प्रश्नकर्ता: उन्नीस-सौ-पैंसठ, नाइनटीन सिक्सटी फ़ाइव।
आचार्य प्रशांत: नहीं, उससे पहले की है, आज़ादी से पहले की है। असल में मैकॉले की जो पूरी शिक्षा व्यवस्था थी न। शंकराचार्य थे, आनंद तीर्थ जी नाम से, चेक करलो।
प्रश्नकर्ता: जी, उन्हीं की है।
आचार्य प्रशांत: तो वो उसके विरुद्ध राष्ट्रीय स्वाभिमान को जागृत करने के लिए किताब ले कर के आए थे, उन्नीस-सौ-दस या उन्नीस-सौ-बीस के आसपास की किताब है।
प्रश्नकर्ता: नाइनटीन-सिक्सटी-फाइव की है। उन्हीं की है किताब।
आचार्य प्रशांत: नहीं, नाइनटीन-सिक्सटी-फाइव की नहीं है बाबा! आज़ादी से पहले की है। ये तुम उसकी वो देख रहे होगे, कोई पब्लिशिंग (प्रकाशन) की डेट देख रहे होगे।
प्रश्नकर्ता: हाँ।
आचार्य प्रशांत: ये आज़ादी से पहले की किताब है। अब वो ले आए, उपयोगी किताब है। लेकिन उसको क्यों कह रहे हो वैदिक मैथमेटिक्स? क्यों जनता में ये भ्रम फैला रहे हो कि वेदों में तो गणित भी मौजूद है?
और जहाँ तक मुझे याद है। जब इन सज्जन से पूछा गया था कि बताइएगा कि ये कहाँ है ये सब, तो उन्होंने शायद कहा था, ‘अथर्ववेद के किसी अनुच्छेद में ये सूत्र मौजूद हैं।’ बोले, ‘कहाँ मिला अनुच्छेद?’ बोले, ‘मैं जंगल गया था, मुझे वहाँ मिला।’ हम बोले, ‘हमें भी दे दीजिए।’ बोले, ‘नहीं, वो भी सिर्फ़ मैं पढ़ सकता हूँ, मैं किसी और को नहीं दे सकता।’
ये कोई बात होती है? अब वेद अपने आप में महान हैं। उसमें इस तरह की कोई बात जोड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। वेदों की महानता इसमें थोड़े ही है कि उसमें मेथेमेटिक्स मौजूद है, वेदों की महानता इसमें है कि उनमें दर्शन मौजूद है, उपनिषद मौजूद है, वेदांत मौजूद है। जो पहले ही महान हो, उसमें तुम कुछ जोड़कर के, उसको अगर महान सिद्ध करना चाहो, तो ये उसकी महानता का अपमान है। वेदों में कुछ जोड़ने की ज़रुरत ही नहीं है भई! वेदों की महानता स्वत: सिद्ध हैं। उपनिषद अमर हैं, अपौरुषेय हैं। जो वहाँ बात कही गई, वो कभी पुरानी नहीं पड़ने वाली, तो बताओ तुम्हें वेदों में कुछ और जोड़ने की क्यों ज़रूरत आ पड़ी? कुछ है क्या ज़रूरत जोड़ने की?
तुम अगर मुझसे कहो कि आचार्य जी अच्छे आदमी हैं, और आचार्य जी अच्छे आदमी इसलिए हैं क्योंकि साढ़े छ: फीट के हैं। तो ये मेरा सम्मान हुआ कि अपमान हुआ? वास्तव में तुम कह रहे हो, मैं जैसा हूँ मैं सम्मान के योग्य नहीं हूँ, तो मुझे सम्मान के योग्य बनाने के लिए तुम्हें झूठ-मूठ मेरा कद बढ़ाना पड़ रहा है।
वेदों का कद बढ़ाने की क्या ज़रुरत है? वेद तो पहले ही आकाश जैसे ऊँचे हैं। लेकिन ये काम खूब हो रहा है, खूब सारे स्कूलों में इस तरह की बात पढ़ा दी जाएगी। बोलेंगे ये है वो है। प्राचीन भारत में ऐसा होता था, हर चीज़ प्राचीन भारत में होती थी। कोई भी चीज़ ले आओ, ये तो प्राचीन भारत में। ‘इलेक्ट्रिक व्हीकल’ (विद्युत चालित वाहन) ‘ऐ! ये इन्होंने क्या कर लिया, इलेक्ट्रिक व्हीकल! ये तो महाभारत में उल्लेख आता है उसका।’ न्यूक्लियर वेपन! ‘ऐ! इन्होंने क्या कर लिया! रामायण की पूरी लड़ाई ही न्युक्लियर वेपन (नाभिकीय हथियार) से हुई थी।’
ये तुम मज़ाक कर रहे हो। ये तुम सम्मान नहीं कर रहे हो, ये तुम अपमान कर रहे हो। और वर्तमान के अपने जितने अंधविश्वास है, उनको ज़बरदस्ती वैज्ञानिक सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हो।
ये जो वाट्सएप यूनिवर्सिटी है, गज़ब! ‘फ़लानी जगह शोध हुआ है, और जीवात्मा पकड़ में आ गई है, जिससे अब ये प्रमाणित हो गया है कि जीवात्मा होती है, और वो माँ के गर्भ में प्रवेश भी करती है, और मृत्यु के बाद बाहर भी निकलती है।’
कइयों ने तो जीवात्मा का वज़न भी निकाल दिया। बोले, ‘बिल्कुल! अमेरिका की एक खास यूनिवर्सिटी में शोध हुआ है।’ लिंक भी दे दो, लिंक दे दो न। कहेंगे, ‘नहीं! यू ट्यूब पर सुना था।’ यू ट्यूब कोई रिसर्च पेपर होता है?
बोले, ‘अमेरिका की खास यूनिवर्सिटी में शोध हुआ है जहाँ पता चला है कि जीवात्मा का वज़न अठ्ठाईस नैनो ग्राम होता है।’ और लोग ताली बजा-बजाकर हँसेंगे, कहेंगे, ‘देखा! प्राचीन भारत के जितने अंधविश्वास थे, वो सब मॉडर्न साइंस सिद्ध कर रही है।’
और जो हमारे बड़े-बूढ़े हैं, वो कहेंगे, ‘अरे! विज्ञान तो अभी बच्चा है, पिछले दो-सौ साल का है। प्राचीन भारत का ज्ञान तो दो-करोड़ साल का है।’
दो-करोड़ साल पहले तो डायनासोर भी ठीक से नहीं घूम रहे थे दादा! दो-करोड़ साल पहले ज्ञानी कहाँ से आ गए! किस ऐज (उम्र) की बात कर रहे हो दो-करोड़ साल पहले। थोड़ा इतिहास पढ़ लो। इंसान ने ठीक से बोलना ही सीखा है अभी मात्र कुछ हज़ार साल पहले। दो-करोड़ साल पहले ज्ञानी कहाँ से आ गए? इंसान ने खेती शुरू करी है कुल दस-हज़ार साल पहले। इंसान ने सोचना शुरू करा है लगभग अस्सी-हज़ार या एक-लाख साल पहले। दो-करोड़ साल पहले ज्ञान कहाँ से आ गया?
तो वास्तव में जो हमारी राष्ट्रीय महानता है जो सचमुच है, हम उसकी कद्र नहीं कर रहे। और हम काल्पनिक महानता बता-बताकर अपने बच्चों और अपने छात्रों में यूँही कुछ कचड़ा सा भर रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: सर, जैसे आपने अभी वाट्सएप यूनिवर्सिटी की बात करी, मैं देख रहा हूँ ये यूनिवर्सिटी अब वाट्सएप से यू ट्यूब पर शिफ्ट हो गई है। क्योंकि इतने सारे यू ट्यूब चैनल्स खुल गए हैं। जो एग्जिस्टिंग थे उन्होंने अपना एक तरह से एजेंडा ही ये बना लिया है कि वो कुछ भी रैंडम (बेतरतीब) मतलब थ्योरी उठाकर लाते हैं, उसको पास्ट (अतीत) से जोड़ते हैं और फ़ैलाना शुरू करते हैं।
पहले जब मैं ये सब होता देख रहा था तो मुझे लगता था कि मतलब ठीक है एक हार्मलेस (हानिरहित) चीज़ है जिसका शायद लोगों में बहुत फ़र्क नहीं पड़ रहा है। पर अभी कुछ दिनों पहले जब आप ही के साथ एक कैंपस में गए थे, और वो देश के शायद शीर्ष दस कॉलेजेज में आता है, वहाँ की एक थर्ड इयर की इंजीनियरिंग की छात्रा आपसे गरुण पुराण पर प्रश्न पूछ रही थी, तो मुझे एकदम धक्का सा लगा कि ये क्या हो रहा है।
आचार्य प्रशांत: देखो, एंशियंट इंडिया (प्राचीन भारत) के नाम पर जितना दुष्प्रचार पिछले दस-बीस सालों में हुआ, उतना पहले कभी नहीं। और जो तुमने यू ट्यूब बोला, इसमें कितने सारे चैनल्स हो गए हैं, कितने सारे लोग हैं जिनका काम बस यही है कि नेशनल प्राइड (राष्ट्रीय गौरव) के नाम पर झूठ पर झूठ बोले जाना। कितनी पोडकास्ट हैं जो चल ही बस इस पर रहे हैं एंशियंट इंडियन ग्लोरी (प्राचीन भारतीय गौरव।) वो सुपरस्टिशन (अंधविश्वास) को बढ़ावा देते हैं और उनके हिसाब से यही एंशियंट इंडियन ग्लोरी है।
मैं तो अपने उस भारत को जानता हूँ, जो विचार का केंद्र रहा है, जो दर्शन का केंद्र रहा है, जो विज्ञान का पालना रहा है, जो मेडिसिन का पालना रहा है, जहाँ नाट्य शास्त्र रहा है, जिन्होंने जाकर के अंतरिक्ष के रहस्यों को पता करने की कोशिश करी है — मैं उस भारत को जानता हूँ, मैं वहाँ का वासी हूँ, मैं उस भारत का सम्मान करता हूँ।
और न जाने यू ट्यूब पर क्या चल रहा है जहाँ मात्र सुपरस्टिशन, सुपरस्टिशन, भूत-प्रेत, आत्मा उड़ रही है, ऐसा हो गया वैसा हो गया, रात में मैं जा रहा था, पीछे से चुड़ैल आ गई — ये बाबा लोगों द्वारा भी किया जा रहा है और ये पढ़े-लिखे अंग्रेजी बोलने वाले लोगों द्वारा भी किया जा रहा है।
यू ट्यूब बहुत भारी, यू ट्यूब, पूरा सोशल मीडिया, वाट्सएप सब उसमें मिलाकर के; वो सब अंधविश्वास फ़ैलाने का, मूर्खता फ़ैलाने का भारी केंद्र बन गया है।
अब मैं सोचता था कि वो बातें जो बेचारे अशिक्षित लोग हैं उन पर असर करती होंगी, पर जैसा तुमने कहा युवाओं की पूरी एक पीढ़ी है जिसको सुपरस्टीशियस (अंधविश्वासी) बना दिया गया। क्योंकि अंधविश्वास अब बहुत मॉडर्न तरीके से आ रहा है न। वो पूरी सुपरस्टिशन की बात बोल रहा होगा, पर अंग्रेजी एक्सेंट के साथ बोल रहा होगा और मॉडर्न दिखते हुए बोल रहा होगा।
तो जो टीनेजर्स होते हैं, उन पर उसका ज़बरदस्त असर होता है। उनको लगता है कोई एक्ज़ॉटिक (अनोखी) बात बताई जा रही है, ओ माई गॉड! स्पिरिट्स एंड सोल्स (रूह और आत्माएँ।) वो सुन भी लेते हैं।
आ रही है बात समझ में?
और ये वो पीढ़ी है जो सुन लेती है। जो पूरे तरीके से भारत के इतिहास से कटी हुई थी। इसे असली इतिहास तो पता था ही नहीं, असली इतिहास पता होता तो ये खुद ही इतिहास पर गौरव करती। तो इसको इतिहास के नाम पर ये सब चटा दिया गया है तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, और इसी को बोल दिया गया ये तुम्हारा ग्रेट कल्चर (महान संस्कृति) है और ये पीढ़ी इसी को चाट रही है। इंग्लिश सुपरस्टिशन, मॉडर्न लुकिंग सुपरस्टिशन (आधुनिक दिखने वाला अंधविश्वास), अर्बन सुपरस्टिशन (शहरी अंधविश्वास), मेट्रोपोलिटन सुपरस्टिशन (महानगरीय अंधविश्वास), सुपरस्टिशन थ्रू टेक्नोलॉजिकली मोस्ट एडवांस्ड वेज़ (तकनीकी रूप से अत्याधुनिक अंधविश्वास)। सुपरस्टिशन कमिंग टु यू थ्रू स्लिक ऍप्स एंड स्लिक पॉडकास्टस। (चालाक और धूर्त एप्स द्वारा फ़ैलाया जाने वाला अंधविश्वास।)
प्रश्नकर्ता: इसमें मैं एक चीज़ और भी देखता हूँ कि ये जो पूरा गेम है, इसके पीछे की इकोनॉमिक्स अक्सर युवाओं को पता होती नहीं है। मैंने देखा है बड़े-बड़े एक्टर्स (अभिनेता) एक सुपरस्टीशियस ऐप का एड (विज्ञापन) कर रहे होंगे, पर उस एड में कभी रिवील (खुलासा) तो होता ही नहीं कि इसके उन्होंने पैसे लिए है पीछे से। या कोई व्यक्ति किसी पॉडकास्ट में आकर के इस तरह की बातें कर रहा है दो-दो घंटे तक। पर ये बात तो रिवील होती ही नहीं है कि उसने इस बात के लाखों रुपये दिए है पीछे से। तो कहीं-न-कहीं जो एक सत्रह-अठ्ठारह साल का युवा होता है उसको ये लगता है कि यार! ये मेरा फ़ेवरेट एक्टर है और यही बात कर रहा है इसकी।
आचार्य प्रशांत: वो तो हमेशा से रहा है। विज्ञापन के पीछे की साइकॉलोजी(मनोविज्ञान) ही यही है। वो तो चाहे सत्रह-अठ्ठारह साल का हो या पचास साल वाला हो; विज्ञापन का मतलब ही यही है कि वो वहाँ पर आकर कहेगा कि ये! मैं ये साबुन लगाता हूँ, तो तुमको लगेगा कि मैं भी लगा लेता हूँ वो लगाता है तो। वो तो है ही है।
लेकिन ये जो युग हैं न जिसमें हम जी रहे हैं, विशेषकर पिछले दो जो दशक रहे हैं, दो-तीन दशक; ये रिमार्केबल (अद्भुत) है ड्यू टू इंस्टीट्यूशनलाइज़ेशन ऑफ़ बिलीफ़ सिस्टम्स (विश्वास प्रणाली के संस्थानीकरण के कारण), इंस्टीट्यूशनलाइजेशन ऑफ़ सुपरस्टिशन एज़ ट्रुथ (अंधविश्वासों का सत्य के रूप में संस्थानीकरण), ऑफ़ अज़म्प्शन एज़ नॉलेज। (मान्यता का ज्ञान के रूप में।)
और मैं फिर बोल रहा हूँ, मुझे डर लग रहा है — जो कौम, जो राष्ट्र, जो लोग, जो समुदाय, अपनी भ्राँतियों को, मान्यताओं को, अपनी धारणाओं, अपनी बिलीफ़्स को नॉलेज बोलना शुरू कर देते हैं, जो अपने सुपरस्टिशन को फैक्ट (तथ्य) बोलना शुरू कर देते हैं, उनका पतन होता है और वो गुलाम बन जाते हैं। वैसी गुलामी से हम अभी-अभी उबरे हैं।
हमें गुलाम बनाने वाले कोई बाहर से नहीं आए थे, हमें गुलाम बनाने वाले फ्रेंच, ब्रिटिश, डच, पुर्तगीज़, अरब, तुर्क या अफ़गानी ही नहीं थे, हमें गुलाम बनाया है हमारे अपने अज्ञान ने।
ये जो हमने अंधविश्वासों से भरा सामाजिक जीवन जिया है न, ये जो धर्म के नाम पर हमने बस प्रथाएँ, परंपराएँ, रूढ़ियाँ चलाई हैं न, इन्होंने हमें गुलाम बनाया। और पिछले बीस-तीस सालों में यही चीज़ें अब दोबारा फनफनाकर के उभर कर आ रही हैं। मुझे बहुत इसमें आशंका हो रही है कि क्या होने वाला है आगे।
प्रश्नकर्ता: इसमें सर एक चीज़ और थी कि जैसा आपने अभी बताया कि क्योंकि हम लोग अपने असली इतिहास से कटे हुए थे, इसलिए बीच में कुछ लोग आए और उन्होंने कुछ भी अगड़म-बगड़म बातें इतिहास बोलकर के हमें पिलानी शुरू कर दी।
पर मुझे कभी-कभार शिकायत रहती है उन लोगों से जिनके पीछे एक्चुअली स्कॉलरशिप है, जो वास्तव में हिस्टोरियंस (इतिहासकार) हैं, पर वो इस पूरे दस-बीस साल में लगभग चुप से बैठे हुए हैं, और कुछ कहते नहीं हैं कि किस तरह की तुम गलत बातें आगे आने दे रहे हो।
आचार्य प्रशांत: वो सामने आ ही नहीं रहे हैं। जो इतिहासविद् हैं, जो असली वैज्ञानिक हैं, खोजी हैं, वो सामने ही नहीं आ रहे। वो अपने हाई कैसल्स (ऊँचे महलों) में खुश हैं, वो कह रहे हैं, ‘हम तो एकेडमिक्स (उच्च श्रेणी के विद्वान्) हैं न, हम आम जनता के बीच में क्यों जाएँ।’
भाई! आपका जो एकेडमिक फील्ड है, उसी के बारे में कितना दुष्प्रचार किया जा रहा है, आप आकर लोगों को बताइए न कि असलियत क्या है।
अफ़वाह-अफ़वाह, झूठ-झूठ। झूठ का एक बहुत बड़ा बस केंद्र बनकर रह गया है भारत का सामाजिक जीवन। मिसइनफॉर्मेशन (भ्रामक जानकारी), झूठ, सुपरस्टिशन, फेकनेस (नकलीपन), यही है। और इसी की खुराक पर हमारी एक पूरी पीढ़ी अब खड़ी हो रही है। न जाने इस पीढ़ी का क्या होने वाला है।
प्रश्नकर्ता: लोग शायद इस बात को समझ नहीं रहे हैं कि जिस यूनिवर्सिटी में वो पढ़ा रहे हैं, उसका तो इनटेक है हज़ारों लोगों का। लेकिन जो यूनिवर्सिटी के बाहर रोज़ बैठकर यू ट्यूब देख रहे हैं, वो करोड़ों लोग, तो।
आचार्य प्रशांत: लोग हमसे पूछते हैं कई बार कि आपने बाकी सब जो सोशल मीडिया है, उस पर तो कोई रिस्ट्रिक्शन (प्रतिबंध) नहीं लगाया अपने कमेंट्स के, कॉन्टेक्स्ट में। आपका इंस्टाग्राम है, फ़ेसबुक है, यू ट्यूब है और कोई मीडिया होगा उस पर तो कमेंट खुले हुए हैं, आपने ट्विटर पर कमेंट क्यों बंद कर रखे हैं।
मैं वज़ह बता देता हूँ। क्योंकि मेरी ज़िम्मेदारी है कि मेरे ट्विटर प्रोफ़ाइल का इस्तेमाल करके झूठ न फ़ैलाया जाए। मेरा ट्विटर अकाउंट है, उस पर कोई आकर के कमेंट के माध्यम से झूठ लिख सकता है। लिख सकता है न?
वो मेरे ट्विटर अकाउंट पर पोस्टिंग नहीं कर सकता, पर झूठ लिख सकता है। और वो जो झूठ लिखेगा, वो मेरी प्रोफ़ाइल पर दिखाई देगा। मेरी प्रोफ़ाइल जो है वो हो गई है दस-बारह लाख लोगों की, और जो झूठ अब लिखा जा रहा है वो भी कितने लोगों तक पहुँचेगा, दस-बारह लाख लोगों तक पहुँचेगा। मेरी ज़िम्मेदारी है कि मेरी प्रोफ़ाइल पर जो लिखा गया है मैं उसको मॉडरेट (सीमित) करूँ, मैं रेगुलेट (नियंत्रित) करूँ।
और ट्विटर अकेला सोशल मीडिया है जो झूठे-से-झूठे कमेंट (टिप्पणी) को भी मॉडरेट नहीं करने देता। आप अधिक-से-अधिक उसको हाइड (छिपाना) करोगे, हाइड करने पर लोगों की उत्सुकता और बढ़ जाती है और जाकर उसको देखते हैं और ज़्यादा, क्या हाइड हुआ है।
बल्कि सवाल मेरा उनसे है जो अपनी ट्विटर प्रोफ़ाइल खुली छोड़ देते हैं। तुमने अपनी प्रोफ़ाइल के थ्रू क्यों मिसइनफॉर्मेशन फ़ैलने दी? तुमने जो पोस्ट करी वो तो ठीक पर उस पोस्ट के नीचे सौ झूठे कमेंट हैं, उन कमेंट्स के माध्यम से झूठ फ़ैलाया जा रहा है। ये जो प्रोफ़ाइल ओनर है उसकी ज़िम्मेदारी थी न कि उस झूठ को हटाए। तुमने क्यों नहीं हटाया?
प्रश्न मुझ पर नहीं आना चाहिए कि तुमने अपने ट्विटर कमेंट क्यों रोके, प्रश्न उन पर जाना चाहिए जिन्होंने अपने ट्विटर कमेंट खुले छोड़े हैं।
और ट्विटर एक अनूठा मीडिया है जो अपने स्वार्थ के लिए कमेंट डिलीट करने की फ़ैसिलिटी (सुविधा) नहीं देता क्योंकि जितने घटिया तरह कमेंट होंगे, उतनी कॉन्ट्रोवर्सी (विवाद) बढ़ेगी, जितनी कॉन्ट्रोवर्सी बढ़ेगी, उतना ट्विटर पर ट्रैफ़िक बढेगा। ट्रैफ़िक बढ़ेगा, तो ट्विटर का रिवेन्यु (आय/राजस्व) बढ़ेगा।
इस वक्त भारत में पब्लिक लाइफ़ (सार्वजानिक जीवन) और पब्लिक डिस्कशन (सार्वजानिक चर्चा), पब्लिक डिस्कोर्स (सार्वजानिक सम्भाषण) का मतलब ही यही है कि तुम ज़्यादा झूठ बोल लोगे या मैं ज्यादा झूठ बोल लूँगा।
एक पोस्ट के नीचे पाँच-सौ झूठे कमेंट आ गए और वो पाँच-सौ तरह का झूठ फैला रहे हैं। हम क्या करे, पाँच-सौ को जवाब दें? पाँच-सौ को जवाब दें?
और ये जो झूठ बोल रहा है, इसकी अपनी प्रोफ़ाइल पर इसके चार फ़ॉलोवर भी नहीं है। तुझे जो भी झूठ बोलना है जाकर अपनी प्रोफ़ाइल पर बोल न! अपनी प्रोफ़ाइल पर इसके चार फ़ॉलोवर भी नहीं है।
पर जिनके मिलियन्स ऑफ़ फ़ॉलोवेर्स हैं उनकी प्रोफ़ाइल का मिसअप्रोप्रिएशन (दुरुपयोग) करके, दुरुपयोग करके वहाँ जाकर अपना प्रोपेगेंडा फ़ैलाता है। यही होता है न?
ये पिछले दो दशक के भारत की असलियत है। हम झूठजीवी बन गए हैं। झूठ-झूठ, बस झूठ। कभी स्वार्थ के लिए झूठ, कभी गौरव के नाम पर झूठ, बस झूठ।
और बहुतों को तो वो झूठ सच लगने लगा है। विशेषकर जो तेरह,-चौदह, सोलह साल वाले लड़के हैं उनको। एक अभी आकर बोल रहा है, ऐ! कमेंट करके हमें बोल रहा है कि ऐ! तू झूठ क्यों बोलता है?
भारत का पतन तो अभी हुआ है पिछले तीस-चालीस साल से। जब हम आज़ाद हुए थे, तो आम भारतीय की औसत आयु अस्सी साल होती थी और हमारा लिटरेसी रेट (साक्षरता दर) भी अस्सी परसेंट था। पुराने लोग तो ज़्यादा जीते थे न! और पुराने लोग तो बहुत पढ़े-लिखे भी होते थे न! उसको राष्ट्रीय गौरव के नाम पर ये पट्टी पढ़ा दी गई है, उसने पढ़ भी ली है।
उसको पता ही नहीं है कि जब हम आज़ाद हुए थे, तो भारत में कुछ प्रांतों में महिलाओं में साक्षरता दर दस प्रतिशत भी नहीं थी।
प्रश्नकर्ता: पूरे देश की छ:-प्रतिशत थी महिलाओं में।
आचार्य प्रशांत: पूरे देश की दस-प्रतिशत नहीं थी महिलाओं में। इसको पट्टी पढ़ा दी गई है कि भारत का जो अतीत है वो तो अति स्वर्णिम है। भारत का गोल्डेन पास्ट (सुनहरा अतीत), और वो लड़ने भी आ जाते हैं, कहते हैं, ‘ऐ! तुझे पता नहीं है, तू बेकार में भारत के गोल्डेन पास्ट की बेइज़्ज़ती कर रहा है।’
आम भारतीय, जब भारत आज़ाद हुआ था चालीस साल भी नहीं जीता था, इतनी बुरी हालत थी — भुखमरी, बीमारी, अशिक्षा, गरीबी। इनको ये पता ही नहीं है, इनको न जाने क्या बता दिया गया है। और कहाँ से इन्होंने ये सब सुना — यूट्यूब, व्हाट्एप, फ़ेसबुक, पॉडकास्ट।
प्रश्नकर्ता: इसमें मैं एक क्राइसिस (संकट) और देखता हूँ कि मतलब मैं छोटा था, मेरे साथ भी होता था, कोई भी बात थी, मुझे लिखित दिख जाती थी, प्रिंट वर्ड (छपे हुए अक्षर) अगर मुझे दिखता था तो मुझे लगता, ये सही है। एक भीतर एक मैकेनिज़्म (तंत्र) ही नही होता था जो पूछता था कि लिखा तो है, पर किसने लिखा है? सही लिखा है नहीं लिखा है? तो अभी भी ज़नरेशन के साथ यही होता है कि किताबें तो छापी जा रही हैं खूब बढ़-चढ़कर के। आप देखते हो, छप रही हैं, लोग पढ़ रहे हैं, रिव्यूज़ हैं, तो आपको लगता है जो लिखा सही होगा।
आचार्य प्रशांत: देखो, कोई समाज जो सच की इज़्ज़त करता हो, वहाँ बड़े-से-बड़ा अपराध ये होगा कि तुमने जनता में झूठ फ़ैलाया, और झूठ फ़ैलाने वालों को तुरंत जेल होनी चाहिए। कोई भी समाज जिसकी चेतना सत्योन्मुखी होगी, वो इसको सबसे बड़ा अपराध मानेगा कि लोगों में झूठ फ़ैलाया जाए। और जो समाज पतन की ओर अग्रसर होगा, उसे झूठ से कोई आपत्ति नहीं रह जाएगी। मैं बहुत डरा हुआ हूँ कि भारत किस पतन की ओर जा रहा है और अपनी ओर से जो हो सकता है भरसक प्रयास कर रहा हूँ कि वो पतन रोका जाए।
प्रश्नकर्ता: पर मैंने देखा कि वो जो दूसरा पक्ष झूठ फैलाना चाहता है, वो सीधे से फ़्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) की ढाल लेकर खड़ा हो जाता है।
आचार्य प्रशांत: फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन इज़ ऑलवेज़ क्वालिफाइड। इट इज़ सब्जेक्ट टु कंडीशंस। इट इज़ नॉट एब्सोल्यूट। (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमेशा योग्य होती है। ये शर्तों के अधीन है। ये पूर्ण नहीं है।)
मैं फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के नाम पर तुम्हारी ज़िंदगी बर्बाद नहीं कर सकता, तुम्हारे मन में ज़हर नहीं घोल सकता, खुल्ला झूठ नहीं बोल सकता।
और ट्विटर वाले महोदय फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन का बस नाम ले रहे हैं, एलोन मस्क। हम सब जानते हैं कि ट्विटर एक लॉस मेकिंग इंटरप्राइज (घाटे पर चलने वाला उद्यम) है। उसको किसी तरह अफ़्लोट (बनाए) रखने के लिए, उससे पैसा कमाने के लिए ये हर तरीके का झूठ ट्विटर पर अलाउ (अनुमति) करते हैं।
सबसे टॉक्सिक (ज़हरीला) सोशल मीडिया प्लेटफार्म क्या है? ट्विटर ही तो है। जो कुछ नहीं कर सकता, वो ट्विटर पर आकर के बदतमीजियाँ करता है। यू ट्यूब पर भी एक वीडियो बनाना पड़ेगा, कुछ बोलना पड़ेगा, पाँच-सात मिनट का वीडियो होगा कम-से-कम। ट्विटर पर तो कुछ नहीं, बस जाकर के किसी को गाली लिख दो।
तो जो सबसे नाकारा लोग हैं वो ट्विटर जीवी हैं, वो सबसे ज़्यादा ट्विटर पर पाए जाते हैं। और बहुत सारे लोग जो ये झूठ फैला रहे हैं, वो अपना नाम भी नहीं बताते। सोशल मीडिया पर ये शर्त होनी चाहिए, ‘साहब! जैसे आप जब किसी के सामने जाकर के उसे कुछ सूचना दोगे, तो वो आपका नाम भी जानेगा और आपका चेहरा भी जानेगा।’ है न?
जब मैं आपके सामने आकर कोई बात करूँगा, तो आपको मेरा नाम भी पता होगा और आपको मेरा चेहरा भी पता होगा। उसी तरह जब आप वर्चुअली (आभासी), ऑनलाइन किसी को कोई सूचना दे रहे हैं, किसी को कोई ज्ञान दे रहे हैं तो अपना नाम भी बताइए, अपना चेहरा भी बताइए। क्योंकि एनोनिमस (गुमनाम, अज्ञात) रहकर के आप बड़े-से-बड़ा ज़हर फ़ैला रहे हो, अपराध कर रहे हो, और किसी को पता नहीं चल रहा है, आप हो कौन। आप छुपकर के वार कर रहे हो, आप चोर की तरह रात में सेंध लगा रहे हो।
समझ में आ रही है बात?
ट्विटर पर हालत ये है अभी कि आप वो पोस्ट भी डिलीट कर दीजिए जिस पर कमेंट आए थे, तो भी कमेंट नहीं डिलीट होते। आपने एक पोस्ट लिखी और उस पर एक से बढ़कर एक झूठ आ गया, पूरी मिसइनफॉर्मेशन (झूठी खबर) फ़ैला दी गई। तो आप कहिए, ‘चलो, मैं पोस्ट ही डिलीट कर देता हूँ।’ पोस्ट डिलीट हो जाएगी, कमेंट डिलीट नही होंगे। मिसइनफॉर्मेशन फ़ैल गई।
फैक्ट्स आर द डोर टू फ्रीडम (तथ्य आज़ादी के द्वार होते हैं।) सबसे ज़्यादा इज़्ज़त करो तथ्यों की, सच्चाई की, यथार्थ की। कल्पनाओं में नहीं जिया जाता, यथार्थ में जिया जाता है। सच कड़वा लगे, तो भी स्वीकार करो। जिसको सत्य अस्वीकार है, उसको फिर स्वतंत्रता भी अस्वीकार है। सत्य और स्वतंत्रता सदा साथ-साथ चलते हैं।
मैं फिर कह रहा हूँ, भारत गुलाम हुआ, इसमें बहुत बड़ा कारण ये था कि हम कल्पनाजीवी बन गए थे। हम लगातार बस जी रहे थे अपने कल्पना लोक में। हमारी अपनी रूढ़ियाँ थी, हमारे अपने अंधविश्वास थे और हम अपनी नज़रों में सर्वश्रेष्ठ थे। वो मत होने दो। हमारा बहुत सुंदर अतीत रहा है, उस अतीत का वास्तविक सौंदर्य लोगों के सामने लेकर आओ, बच्चों को पढ़ाओ। फ़िज़ूल की कल्पना और झूठ की कोई ज़रुरत ही नहीं है।