शरीर व आत्मा के मध्य सेतु है मन || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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शरीर व आत्मा के मध्य सेतु है मन || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

“बिनु रसरी गृह खल बंधा, तासू बंधा अलेख,

दीन्ह दर्पण हस्त मधे, चसम बिना का देख”

वक्ता: ‘मन’ ‘शरीर’ और ‘आत्मा’, इनका सम्बन्ध क्या है?

कबीर कह रहे हैं, ‘जो कुछ है, वो मात्र मन का ही विस्तार है’| मन के एक छोर पर खड़ा है, ‘शरीर’ और मन के दूसरे छोर के बिंदु पर जो बिंदु है, उसका नाम है ‘आत्मा’|

आत्मा क्या है? मन का स्त्रोत| वो बिंदु जहां से मन उद्भूत होता है| शरीर क्या है? मन का फैलाव, संसार| कबीर के यहां, घट, घड़ा, घर, ये सारी संज्ञाएं शरीर के लिये ही प्रयोग की जाती हैं | कह रहें हैं कबीर कि,

बिनु रसरी गृह खल बंधा..,

इसी शरीर से जो लगातार संपृक्त ही है, जिसके होने से ये शरीर है| उसी दुष्ट का नाम मन है| और कोई ये ना समझे कि ये दो अलग-अलग इकाईयां हैं| बिनु रसरी, अलग-अलग होते तो इन्हें जोड़ने के लिये कोई रस्सी चाहिए होती| इन्हें जोड़ने के लिये कोई सूत्र चाहिए होता, जो इनको जोड़ता क्योंकि जोड़ा सिर्फ तभी जा सकता है जब दो अलग-अलग इकाईयां हो| ये दोनों अलग-अलग हैं ही नहीं| शरीर पूरा का पूरा मन ही है| जैसा की हमने अभी कहा था कि मात्र मन का ही विस्तार है| जो कुछ भी प्रतीत होता है, वो मन ही है| शरीर भी मन ही है| हम आमतौर पर, बोलचाल की भाषा में ये कहते हैं कि ‘मेरा मन भटक रहा है’, ‘मन इधर-उधर हो रहा है’ लेकिन सही बात तो ये है कि मन कहीं नहीं जा सकता| शरीर ही मन है|

एक बार किसी के पास एक आदमी आया| उसने कहा, ‘मन भटकता बहुत है| क्या करें? मैं यहां बैठा रहता हूं, वो इधर भागेगा, उधर भागेगा’| तो उन्होंने उत्तर दिया कि उसे कह दो कि तुम्हें छोड़ कर चला जाए| जब इतना भटकता है, जब इतना इसको इधर-उधर होना है, तो फिर इसको जहां जाना है, चला जाए| लौट कर क्यों आता है? जाए| कहीं नहीं जाएगा| कहीं जा सकता भी नहीं क्योंकि आप ही मन हैं| कहां जाएगा मन? ये कहना भी इसलिये पूरी तरह ठीक नहीं है, ‘मेरा मन भटक रहा है’, इसमें अहंकार छुपा हुआ है| जब आप कहते हैं, ‘मेरा मन भटक रहा है’, तो आपका आशय ये होता है कि मैं तो अपनी जगह कायम हूं, मन भटक गया है| नहीं, मन नहीं भटक रहा है| क्योंकि केंद्र नहीं है, इसलिये सब कुछ गोल-गोल, गोल-गोल, अस्त-व्यस्त, घूमता-घूमता सा प्रतीत हो रहा है| ये दावा मत करियेगा कि मन भटक रहा है| केंद्र से जुड़े हुए नहीं हैं|

..तासू बंधा अलेख|

शरीर से मन बंधा हुआ है, और मन से आत्मा बंधी हुई है|

बिनु रसरी गृह खल बंधा…

बिना रस्सी के ही शरीर से मन बंधा है, और मन से आत्मा बंधी हुई है| शरीर है, मन है, आत्मा है| जानने वालों ने इसलिए मन को, शरीर और आत्मा के मध्य का सेतु भी कहा है| मन क्या है? शरीर और आत्मा के बीच के पुल का नाम मन है| पर उससे ज्यादा अच्छा तरीका है कहने का, ‘मात्र मन ही मन है, जिसके दो सिरों का नाम शरीर और आत्मा है’| इस सिरे से देखो तो शरीर है, और उस सिरे से देखो तो आत्मा है| और अगर आत्मा के सिरे से देखो तो कहोगे कि बीज है, जो मन के रूप में विस्तार पाता है, सूक्ष्म विस्तार| और फिर शरीर के रूप में स्थूल विस्तार पाता है तो संसार बन जाता है|

दीन्ह दर्पण हस्त मधे, चसम बिना का देख|

इसी गृह में, इसी घट में, वो खल बसता है| और इसी गृह में ही उसके सारे लक्षण दिखाई दे जाएंगे| कह रहें हैं कबीर कि अगर आत्मा को जानना है, तो शरीर को जान जाओ| शरीर से अर्थ है संसार| शरीर से अर्थ है, वो सब कुछ जो भौतिक है, जो पदार्थ है| संसार को जान लो, स्वयं को जान जाओगे| पदार्थ को जान लो आत्मा को जान जाओगे| दृश्य को समझ लो, अदृश्य समझ में आ जाएगा| इन्हीं आखों से देखो| और देखने वाला दर्पण ठीक तुम्हारे हाथ के बीच में है, सामने है|

साफ आँख से देखो, सब दिखाई देगा| संसार को देखो, सत्य समझ में आ जाएगा| और इसके अतिरिक्त कृष्णमूर्ति ने कुछ नहीं कहा है| उन्हीं ने ठीक यही कहा है कि अगर सत्य जानना चाहते हो तो बस आसपास ध्यान से देखो, संसार में क्या हो रहा है, ध्यान से देखो, शरीर में क्या हो रहा है, ध्यान से देखो, मन में क्या चल रहा है सब समझ में आ जाएगा| अपने ही जीवन को ध्यान से देखो, सब समझ में आ जाना है| तो दो बातें हैं:

पहली, मन शरीर और आत्मा के बीच का सेतु है|दूसरी, सत्य तक पहुंचना है तो साफ़ आँखों से संसार को देखो|

जिसने साफ़ आंखों से संसार को देख लिया, वो सत्य जान जाएगा| कबीर ने भी जीवन भर सिर्फ यही किया है| संसार को देखते थे, और जो देखते थे, वो प्रकट कर देते थे| वहीँ से कबीर के सारे वचन आए हैं| जो दिखा सो बोला, जस का तस; यही सत्य है|

अब आपको पूछना चाहिए, ‘ये सब तो ठीक है पर मन लिखना चाहिए था, खल क्यों लिखा (दोहे में)?’ ये सवाल किया करिये। अगर शरीर और आत्मा के सम्बन्ध की बात थी तो सीधे मन भी कह सकते थे कबीर| ये क्यों कहा, ‘गृह मध्य खल बसा?’ उसको खल इसलिए कहा रहें हैं क्योंकि जो बात बहुत सीधी है, उसको ये दुष्ट छुपा के रखता है, जानने नहीं देता है| आत्मा क्या है? कुछ नहीं| साफ़ मन का नाम ही आत्मा है| साफ मन ही आत्मा है| साफ मन ही ह्रदय है| पर जब वही, रंजित रहता है, मैला रहता है, तो मात्र संसार रूप में दिखाई देता है| मन यदि निर्मल, तो आत्मा और मन यदि खल, तो संसार|

याद रखियेगा, संसार को समझने को कह रहें हैं कबीर, संसार से आसक्त हो जाने को नहीं कह रहें हैं| संसार के कीचड़ में, लोटने-पोटने को नहीं कह रहें हैं, भोगने को नहीं कह रहें हैं| समझो संसार को, जानो, उसके करीब आओ, प्रेम करो संसार से, पर आसक्त मत हो जाना| संसार से घृणा करने का कबीर का कोई आग्रह नहीं है कि संसार से नफरत करो कि खाऊंगा नहीं, जीऊंगा नही| कबीर तो कह रहे थे कि ‘गोरी अपनी चुनरिया पांच रंग में रंगाओ’| वो तो कह रहें हैं कि पांचो इन्द्रियों को पूरा-पूरा जीयो| पांचो भूतों को पूरा-पूरा जीयो| कबीर पलायनवादी नहीं हैं| कबीर संसार छोड़ कर भागने को कभी नहीं कह रहें हैं| लेकिन वो संसार से चिपक जाने को भी नहीं कह रहें हैं| मलिन हो जाने से सतर्क कर रहें हैं, ‘ये मत करना’| कह रहें हैं, ‘प्रेम में और आसक्ति में अंतर है| इसको जानो’| ज़्यादातर आसक्त लोगों से बात कर रहे होंगे इसलिये कहना पड़ा कि खल गृह मध्ये, गृह बीच खल बसा| संतो से बात कर रहे होते तो नहीं कहते कि गृह मध्ये खल बसा| तब क्या कहते? गृह मध्ये निर्मल बसा|

यही सूत्र है| मन जितना निर्मल होता जाता है, उतना आपको ‘सुक्ष्म’ पकड़ में आने लगता है| और मन जितना गन्दा रहेगा, आपको सिर्फ स्थूल ही स्थूल दिखाई देगा| यही है सूत्र जांचने का| जिसको पदार्थ ही पदार्थ दिखाई देता हो, जिसकी वस्तुओं में अभी बहुत रूचि हो, ‘चीजें’, उसका मन बहुत मलिन है| ठीक है ना? मन के दो छोर हैं| सूक्ष्तम छोर का क्या नाम है?

सभी श्रोता (एक स्वर में): आत्मा|

वक्ता: और स्थूलतम छोर का क्या नाम है? संसार| तो जिसको सब स्थूल, जड़ दिखाई देता हो, वो बड़े गंदे मन का है| उदहारण दीजिये कि स्थूल क्या क्या होता है?

सभी श्रोता (एक स्वर में): वस्तुएं, लोग|

वक्ता: जिनको शरीर ही शरीर दिखाई देता हो, जिसको कोई व्यक्ति दिखाई दे, और उस व्यक्ति के सिर्फ शरीर में रूचि हो, जिसको फर्नीचर में, और कपड़ों में, और मकान में बड़ी रूचि हो; गंदे मन का आदमी है ये| इस पूरे विस्तार में इसको सुक्ष्म नजर नहीं आता, स्थूल नज़र आ रहा है| चीज एक ही है, वस्तु एक ही है, आत्मा का ही विस्तार है सब कुछ| चाहे कह लीजिये मन का विस्तार है सब कुछ| जैसे कहना चाहें| पर तत्व एक ही है| उस तत्व को यदि आप स्थूल रूप में देख रहे हो तो कारण बस एक ही है; मलिन हो| और जैसे-जैसे मन साफ होता जाएगा, वो तत्व सुक्ष्म रूप में दिखाई देने लगेगा| तो आप दुनिया को कैसा देखते हो, अस्तित्व को कैसा देखते हो, इसी से ये पता चल जाएगा कि आपका मन कैसा है, उसकी गुणवत्ता कैसी है|

कोई आपसे मिलने आया और पूछा गया कि कौन था जो मिलने आया था, और तो आप बोलो, वो मोटा-सा था, सांवला-सा था, या ऊंचाई इतनी थी| अगर ये विवरण दिया आपने, तो पक्का है, बड़े गंदे मन के आदमी हो आप| कोई आपसे मिलाने आया, पूछा गया, ‘कौन था?’ आपने ये विवरण दिया, ‘उसके विचार कैसे थे, क्या कह रहा था, उसकी मनोदशा कैसी थी’, तो आप कहीं बीच में हो| या आपने ये बताया कि उसकी पहचाने क्या थी, लड़का था कि लड़की थी, हिन्दू था कि मुसलमान था, बच्चा था या बूढ़ा था, तो आप कहीं बीच के हो क्योंकि आप मानसिक तौर पर देख पा रहे हो संसार को| और अगर कोई मिलने आया है आपसे, और आपको उसमें मात्र ‘वही’ नज़र आया तो समझ लीजिये कि मन निर्मल है| ‘कौन मिलने आया था?’ और आपका उत्तर है, ‘और कौन आ सकता है? वही आया था’|

कुछ श्रोता(एक स्वर में): हरि ही आए थे|

वक्ता: वही आए थे, बेवकूफ बनाना चाहते थे| पर तुम मुझे?

सभी श्रोता(एक स्वर में): यूं ना बना पाओगे|

वक्ता: सूरत अलग-अलग बना के आया था, पर था तो वही| उसके अलावा, और कोई होता ही नहीं आने के लिये| वही आया था| ये निर्मल मन का काम है| ये सूक्ष्तम बुद्धि है| वो यह नहीं देखती कि कपड़े कौन से पहन रखे हैं, और शरीर कैसा है, और जवान हो कि बूढ़े हो| ये तो जो देखती है, उसमें एक को ही देखती है|

एक बार बुद्ध कहीं बैठे हुए थें एक बार | उसी जंगल में कुछ लोग एक लड़की को उठा कर ले आए| लड़की किसी तरह पीछा छुड़ा कर भागी| भागते हुए वो बुद्ध के सामने से गुज़र गई| बुद्ध शांत थे, ध्यान में बैठे हुए थे, मौन मे थे| उसका पीछा करते हुए तीन- चार लोग आए, बुद्ध को पकड़ लिया| बोलते हैं, ‘बता इधर से अभी एक लड़की भागते हुए गई होगी, किधर को गई है?’ बुद्ध ने कहा, ‘मैं कुछ नहीं जानता’| उन्होंने कहा, ‘तू यहीं बैठा है| अभी-अभी तेरे सामने से एक लड़की निकली’ |बुद्ध ने उत्तर दिया, ‘वो स्थिति मेरी अब बहुत पीछे छूट चुकी है जब मुझे स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब दिखाई देते थे| हद से हद इतना कह सकता हूं कि कोई निकला था| आदमी था या औरत थी, ये दिखाई देना ही बंद हो गया है| मेरी आंख, अब ये देख ही नहीं पाती’|

ये निर्मल मन है| इसको कुछ अलग दिखाई ही नहीं पड़ता| हां, कोई तीसरा आदमी देख रहा होगा तो कहेगा कि बुद्ध, एक स्त्री से बात कर रहें हैं| बुद्ध से पूछो कि किससे बात कर रहे हो, तो बुद्ध कहेंगे, ‘ये तो ध्यान ही नहीं दिया कि ये औरत है’|

(मौन)

ऐसा नहीं है कि उनकी आंखे खराब हो गई हैं अब कि वो शरीर नहीं देख पाते| उनके लिए ये बातें अर्थहीन हो गई हैं अब| जिसने जान लिया, शरीर की ही क्या बिसात है, वो अब लिंग भेद पर क्या ध्यान देगा? जिसने जान लिया कि पैसे की क्या कीमत है, वो अब इस आधार पर किसी को कैसे देखेगा कि अमीर है कि गरीब है? जिसने सत्य को ही जान लिया, अब वो आपको इस तरह से कैसे देख सकता है कि आप हिन्दू हो कि मुसलमान हो? जिसने समय को समझ लिया, वो अब आपको ऐसे कैसे देखेगा, कि बच्चे हो कि बूढ़े हो? उसके लिये उम्र की क्या कीमत बची अब?

आ रही है बात समझ में?

ध्यान दीजिएगा इस बात पर जीवन में कि संसार को कैसे देखते हो? किसी के घर गए आप, और छोटा सा घर है| बड़ी अमीरी नहीं दिखाई दे रही| तुरंत यदि आपके मन में ये विचार आ जाता है कि अरे, अरे ये तो लगता है ऐसे ही गरीब लोग हैं, तो समझ लीजिएगा कि मन बड़ा गन्दा है, बड़े शोधन की ज़रुरत है अन्यथा, ये विचार उठता कैसे? आपको कुछ और नहीं दिखाई दिया? आपको बस इतना ही दिखाई दिया कि अरे! घर कितना छोटा है, बैठक कितना छोटा है| आपकी आंखे, बस आकार नापती हैं, वो संसाधन देखती हैं|

कोई औरत या मर्द आपके सामने आता है और पहला विचार उसको देख कर आपके मन में यही उठता है कि आकर्षक है या नहीं, सुन्दर है या नहीं, तो पकड़ लीजिएगा अपने आप को; मन बड़ा गन्दा है| मन बड़ा गन्दा है, आपको उसके रूप-रंग के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता| भाषा भी देखिये ना हमारी कैसी है| यदि तीन व्यक्ति चले आ रहे होंगे सामने से, तो तुरंत आप बोलोगे, ‘तीन लड़कियां आ रहीं हैं’| और कुछ नहीं दिखाई दिया? सिर्फ एक ही तरीका था तुम्हारे पास उनका वर्णन करने का? ‘तीन लड़कियां आ रहीं हैं’, तुम्हारी आंखो ने सिर्फ लिंग देखा उनका| भाषा भी तो हमारी ऐसी ही है| सिर्फ एक आधार पर वो व्यक्तियों में अंतर करती है; लिंग| ‘वो बैठा है, वो बैठी है’|

‘वो बैठा है, वो बैठी है’, जैसे हम हैं वैसी हमारी भाषा है| तो उधर एक व्यक्ति बैठा है, ये कहना जरुरी नहीं है| ‘बैठी है’| ताकि पक्का हो जाए कि इसका लिंग क्या है| वो बताए बिना बात नहीं बन रही है| इससे इतना ही पता चलता है कि बड़े कामुक मन से ये भाषा निकली है| उस मन के लिये बड़ा आवश्यक है ये जानना कि लिंग क्या है उसका, नहीं तो आवश्यकता क्या थी| ‘तीन व्यक्ति आ रहें हैं’, इतना कहना काफी हो सकता था ना? पर आपको क्या कहना पड़ता है? तीन लडकियाँ आ रही है|

कल हम लोग बात कर रहे थे सुनने पर| सुनना भी ऐसे ही होता है| स्थूलतम सुनना वो हुआ, जिसमें आपके कान में मात्र ध्वनि पड़ रही है| तो जिन आँखों को सिर्फ पदार्थ दिखाई पड़ता है, उन कानों में सिर्फ ध्वनि सुनाई पड़ती है| यदि आँखें ऐसी हैं कि मात्र पदार्थ देखते हैं, तो कान ऐसे होंगे कि उनमें मात्र ध्वनियां पड़ेंगी| यदि मन का ज़रा भी रेचन हुआ हो, और आँखें ऐसी हो गई हों जो पदार्थ नहीं पहचान देखने लगीं हैं, तो फिर कान ऐसे हो जाएंगे जिनमें ध्वनि नहीं, शब्द पड़ेंगे | और मन का यदि और परिष्कार हुआ हो, मन का यदि और शोधन हुआ हो, तो फिर आँखें ऐसी हो जाएंगी जो ना पदार्थ देखेंगी, ना पहचान देखेंगी, वो जो गहराई से परम तत्व है, सिर्फ उसको देख पाएंगी| इन्ही आँखों से तत्व दिखाई देगा| कोई तीसरी आँख की आवश्यकता नहीं है, इन्हीं आंखों से| और जिसकी आंखें वैसी हो गईं, उसके कान को फिर ना ध्वनियां सुनाई देंगी, ना शब्द सुनाई देगा, उसे निःशब्द सुनाई देगा, मौन सुनाई देगा|

जीवन स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा का नाम है| जो पैदा होता है, वो एक स्थूल मांस का एक पिंड होता है| जिसका जन्म होता है, वो एक स्थूल मांस का पिंड होता है| उसकी यात्रा ही यही है कि सूक्ष्म को पा ले| शरीर पैदा हुए थें, आत्मा को पा लिया| मर्म को समझो| पैदा सदा शरीर ही होता है| यही जीवन है|

-’संवाद’ पर आधारित।स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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