शमशान की चिता पर उठे सवाल || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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शमशान की चिता पर उठे सवाल || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमन। चेतना के विषय में सन्तों से शास्त्रों में बहुत सुना है, दर्शनशास्त्रियों ने भी इस मुद्दे पर बहुत गहन चर्चाएँ करी हैं, किताबें लिखी हैं। कभी चेतना को न्यूरोसाइंस (तन्त्रिका विज्ञान) से तो कभी फिज़िकल साइंस (भौतिक विज्ञान) से जोड़कर देखा जाता है, और कभी ये मूलत: अध्यात्म का मुद्दा बनकर भी सामने आता है। आचार्य जी, इस विषय में मुझे स्पष्टीकरण चाहिए।

आज जब शमशान घाट में शरीर को जलते हुए देखा तो ये प्रश्न बार-बार उठा कि शरीर तो गया, अब बचा क्या? क्या चेतना भी माइंड, बॉडी (मन और शरीर) की तरह एक फिज़िकल एंटिटी (भौतिक इकाई) है, जो समय के साथ रहती है और फिर मिट जाती है? क्या ये यूनिवर्सल (सार्वभौमिक) है या व्यक्तिगत है?

आचार्य प्रशांत: चेतना वो गाँठ है जो भौतिक और पराभौतिक के बीच में पड़ी हुई है। बड़ी विलक्षण बड़ी अद्भुत और तर्क की दृष्टि से देखें तो बड़ी असम्भव चीज़ है चेतना। एक ओर तो बिना एक भौतिक मस्तिष्क के चेतना हो नहीं सकती, दूसरी ओर भौतिक जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे किसी भी तरीक़े से, किसी भी प्रक्रिया या विधि से जोड़-तोड़कर खड़ा कर दिया जाए तो वो चैतन्य हो जाए। चेतना की अद्भुत स्थिति को समझिए। पहली बात तो ये कि मस्तिष्क नहीं तो चेतना नहीं। माने चेतना का सम्बन्ध, हमारी चेतना का सम्बन्ध पदार्थ से निश्चित रूप से है है। आप शराब पी लेते हैं, चेतना में लहरें आ जाती है चेतना का स्तर आप कहते है कि गिर गया। और शराब क्या चीज़ है? रसायन ही तो है न।

तो माने हमारी चेतना का सम्बन्ध मटेरियल से, भौतिक जगत से निश्चित रूप से है। दूसरी ओर हमारी चेतना अगर पदार्थ से ही बनी होती जैसे कोई मशीन बनती है पदार्थ से, कोई कपड़ा बनता है पदार्थ से, कोई घर बनता है पदार्थ से; तो फिर ये सम्भव होता कि अलग-अलग पदार्थों को किसी एक तरीक़े से, किसी एक अनुपात से एकसाथ लाया जाए और उनसे एक चैतन्य इकाई पैदा कर दी जाए कि बीस ग्राम ये चीज़ लाये, चालीस ग्राम वो चीज़ लाये, फिर वो लाये, वो लाये, उनको इस तरीक़े से जोड़ा-तोड़ा, इतने समय तक पकाया, इतने समय तक खौलाया, इस प्रक्रिया से उनको गुज़ारा। और ये सब करने के बाद हमको क्या मिल गया? एक चैतन्य जीव। पर ये तो हो नहीं पाता।

तो माने चेतना हमारी पदार्थ से सम्बन्धित तो है पर वो है बुनियादी तौर पर पदार्थ से आगे की। बात समझ रहे हैं? तो आप पूछो कि व्यक्ति की चेतना का क्या होता है व्यक्ति के मर जाने के बाद? जैसे मणिकर्णिका में अभी आप देखकर आये हैं मुर्दे को राख होते, तो आप पूछें कि उसकी चेतना का क्या हुआ? नहीं बची, उसकी जो व्यक्तिगत चेतना थी वो गयी। एकदम गयी, शून्य हो गयी। उसका कोई नाम-ओ-निशान अब मिलने नहीं वाला है। दूसरी ओर अगर आप ये कहें कि शरीर में जो चेतना है, उसको आप सन्तुष्ट कर लेंगे किन्हीं शारीरिक चीज़ों से ही, किन्हीं भौतिक चीज़ों से ही तो वो भी नहीं होता।

चेतना को आप कितनी भी वस्तुएँ दे दें, कितने भी सुखप्रद विचार दे दें, रिश्ते दे दें, अनुकूल परिस्थितियाँ दे दें, वो छटपटाती तब भी रहती है। उसको कुछ चाहिए जो इस लोक के पार का है। उसको कुछ ऐसा चाहिए जो भौतिक है ही नहीं।

तो जहाँ तक मनुष्य की चेतना का सवाल है, इतना समझ लीजिए कि वो बसती तो एक हाड़-माँस के, मिट्टी-पानी के शरीर में है। निवास तो यहीं करती है, रहती वो इसी पंचभूत के पिंजड़े में है। निश्चित रूप से ये न हो तो चेतना नहीं होगी। कोई ये कल्पना न करे कि शरीर नहीं है पर चेतना कहीं उड़ रही है, इस तरह की कल्पनाएँ भी खूब चलती हैं। लोग कहते हैं, ‘एक सूक्ष्म जगत है वहाँ चेतनाएँ उड़ती पायी जाती हैं और आत्माएँ कलाबाज़ियाँ कर रही होती हैं।’ कुछ नहीं, शरीर नहीं तो चेतना नहीं। बेकार के वहम मत पालो। तो चेतना बसती तो शरीर में ही है लेकिन उसे चाहिए शरीर से कुछ आगे का। ये आदमी की स्थिति है।

इसीलिए मैं कह रहा था कि चेतना बड़ी अद्भुत, यहाँ तक कि बड़ी असम्भव चीज़ है। वो वास तो कर रही है शरीर में और माँग रही है शरीर से कुछ आगे का। इससे ही आप समझ जाएँगे कि इंसान क्या है, उसका जीवन क्या है और उसके जीवन का उद्देश्य क्या है। शरीर भर बचा रहे, चैतन्य न हो, तो उसको आप इंसान भी बोलते हो क्या? शरीर बचा है जस का तस, पर चेतना शून्य है, अब उसको इंसान बोलते हो या कुछ और? क्या बोलते हो? क्या बोलते हो? मुर्दा। शरीर बिलकुल वैसा ही है, अभी एक सेकेंड पहले मृत्यु हुई है, बिलकुल वैसा ही है शरीर जैसा था, पर चेतना नहीं है। अब उसको हम इंसान भी नहीं बोलते, तो चेतना हैं हम। वो हमारी पहली पहचान है।

अगर हमारा पहचान शरीर होता तो हम मुर्दे को मुर्दा क्यों बोलते? हमारी पहचान फिर वास्तव में क्या है? चेतना। चेतना है तो हम क्या कहते हैं, ‘इंसान है’ और चेतना नहीं है तो हम कह देते हैं, ‘इंसान नहीं है।’ माने हम क्या हैं? हम चेतना हैं। हम चेतना हैं और हमारी चेतना बसती तो इसी शरीर में ही है। इस शरीर को उसका घर भी बोल सकते हो पिंजड़ा भी बोल सकते हो, इस शरीर को उसका ‘महल’ भी बोल सकते हो और ‘क़ैद-खाना’ भी बोल सकते हो। जो भी बोल लो लेकिन वो रहती तो यहीं पर है। रहती यहीं पर है लेकिन जहाँ रहती है वहाँ से खुश नहीं है वो, बिलकुल सन्तुष्ट नहीं है।

अपनी सन्तुष्टि के लिए वो कुछ और माँगती है, वो जिसे माँगती है उसे जानने वालों ने अलग-अलग नाम दिये हैं। किसी ने कह दिया शान्ति, किसी ने कह दिया मुक्ति, किसी ने कह दिया बोध, किसी ने कह दिया मोक्ष, किसी ने कह दिया राम, किसी ने कह दिया कृष्ण। बात समझ में आ रही है? लेकिन ये जितने भी नाम दिये गए ये सब जगत के नाम नहीं थे। इनमें से कुछ भी ऐसा नहीं है जो दुनिया की कोई चीज़ है जो किसी जगह पर जाकर के हासिल हो जाएगी। बिलकुल नहीं, ये सब कुछ और ही थे।

तो अध्यात्म फिर दो काम करता है। अध्यात्म का सारा काम चेतना को ही लेकर है। पहली बात तो अध्यात्म पता करता है कि हम कौन हैं। हमारा ये भ्रम हटाता है कि शरीर हैं हम, इस दिन पैदा हुए, इस दिन मरेंगे यानी शरीर से सम्बन्धित सारी बातें। तो अध्यात्म बड़े कड़े सवाल करता है, और उन कड़े सवालों के जवाब में पता चलता है कि हम शरीर लगते तो हैं लेकिन शरीर से ज़्यादा कुछ और हैं हम। ये पहली बात अध्यात्म की, और दूसरी बात अध्यात्म की कि अगर चेतना हैं हम तो हमारी चेतना इतनी विकल क्यों है, इतनी तड़पती क्यों है। तो फिर जिसके लिए चेतना तड़पती है उसको पाया कैसे जाए इसका अनुसन्धान करता है अध्यात्म।

तो अध्यात्म हमारी पहचान का अनुसन्धान है और हमारी प्यास का समाधान है। अध्यात्म क्या है? हमारी पहचान का अनुसन्धान और हमारी प्यास का समाधान। पहले पहचान का प्रश्न आता है क्योंकि अगर यही नहीं पता कि आप हैं कौन, तो फिर आपको चाहिए क्या ये बात तो कभी स्पष्ट होने से रही। पहले पहचान पता हो तो फिर प्यास पता चल जाएगी। तो इसीलिए पहला सवाल होता है, ‘मैं कौन हूँ?’ और फिर ‘मैं कौन हूँ’ के बाद आती है कि मेरा राम कहाँ हैं, मेरी मुक्ति कहाँ है, मेरा अन्त कहाँ है, मेरा शिखर कहाँ है, मैं कहाँ लय होऊँगा, मेरा योग कहाँ है, मेरी...।’ ये पूछता है अध्यात्म।

प्र २: इसी में जैसे ये कहा गया कि हमेशा इसको ध्यान देना पड़ता है तो कई वीडियो में समझ में आया कि इसी को होश कहते हैं शायद और जहाँ तक हम समझ पा रहे है यही होश ही तो हमलोगों के लिए मस्ती का काम करती है?

आचार्य: अगर शुद्ध हो। होश ही चेतना है लेकिन जिसको हम होश कहते हैं, वो आम तौर पर चेतना की एक अशुद्ध हालत होती है। उदाहरण के लिए सड़क पर जितने लोग चल रहे हैं आप सबको यही तो कहेंगे कि ये होशमन्द लोग है, ये थोड़े ही कहेंगे कि बेहोश हैं। पर साधारणतया हम जिसको होश भी कह देते हैं, वो मिश्रित होश होता है। उसमें बहुत सारी अशुद्धियाँ, दोष, विकार, मौजूद होते है। अध्यात्म का, जीवन का उद्देश्य है कि होश पर जितने दाग़-धब्बे हैं, अशुद्धियाँ हैं, उनकी सफ़ाई कर दी जाए।

सिर्फ़ इसलिए कि कोई आदमी आँखें खोले हुए है, कान से सुन रहा है, पाँव से चल रहा है, व्यापार कर रहा है, बातचीत कर रहा है, ये नहीं मान लेना चाहिए कि वो होश में है।

शारीरिक रूप से जिसको होश कहते हैं वो एक चीज़ होती है और आध्यात्मिक रूप से जिसको होश कहा जाता है वो बिलकुल दूसरी चीज़ होती है। आप हो सकता है कि बहुत बहके हुए आदमी हों, लेकिन आप किसी चिकित्सक के पास जाएँ वो आपके शरीर, का मस्तिष्क का परीक्षण करे और कहे कि ये आदमी बिलकुल होश में है। चिकित्सा की दृष्टि से, शरीर की दृष्टि से हो सकता है आप होश में हों, लेकिन चेतना में जब तक डर और लालच ये सब बैठे हुए हैं, तब तक आप आध्यात्मिक दृष्टि से होश में नहीं कहे जा सकते। अभी आप अर्द्ध जाग्रत हैं और ये जो आधी जाग्रति होती है ये बड़ी कष्टप्रद होती है।

प्र ३: प्रणाम आचार्य जी, आज जब घाट पर से लौटकर आया था यहाँ पर तो मुझे बहुत अकेलापन और मन में बहुत सूनापन सा महसूस हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि जीवन में कोई रस और संगीत मेरे जीवन में नहीं है।

आचार्य: तो अच्छी बात है न, पता चल गया। अभी तो जीवन शायद बहुत बाक़ी है, तो अभी बहुत अवसर बचा हुआ है। है न? रस नहीं है रस लेकर आओ, संगीत नहीं है तुम में ताक़त है, क़ाबिलियत है संगीत लेकर के आओ। है न? अगर कोई कमी हो, कोई बीमारी हो, तो जितनी जल्दी पता चल जाए उतना अच्छा न भाई? और यहाँ आये हो, तीन दिन में बातें करी, देखा, सुना, पढ़ा तो रास्ता तो तुम जानते ही हो कि रस कहाँ से आएगा, संगीत कहाँ से आएगा। बस उस रास्ते पर आगे बढ़ते रहो।

प्र 3: रास्ता पूरी तरह से साफ़ नहीं है?

आचार्य: जो इनको बोला था वही तुमको बोल रहा हूँ, तुम्हे क्यों हो पूरी तरह से साफ़? तुमने अभी रास्ता जानने के लिए कितनी ऊर्जा लगा दी, कितना श्रम, कितनी साधना कर दी? यूँही बैठे-बैठे रास्ता साफ़ हो जाएगा? थोड़ी मेहनत करो, थोड़ा आग में ईंधन डालो। समाधि के लिए समिधा डालनी पड़ती है। फिर होगा धीरे-धीरे स्पष्ट न।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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