शास्त्रों के स्रोत का अनुमान नहीं लगाना चाहिए || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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शास्त्रों के स्रोत का अनुमान नहीं लगाना चाहिए || आचार्य प्रशांत (2014)

श्रोता: सर, अष्टावक्र गीता पढ़ कर कुछ समझ नहीं आया क्यूँकी इसमें सीधे कहन दिया गया है कि ऐसा है। कृपया यह किस प्रक्रिया से निकल कर आ रही है उस पर कुछ कहें।

वक्ता: तुम नाच रहे हो, तुम शिवपुरी गए हो और तुम पानी में घुसे हुए हो और तुम पूरी मस्ती ले रहे हो पानी में घुस के। ठीक है? और उस समय पर तुमसे कोई पूछता है कि “अंशु,(प्रश्नकर्ता की ओर इशारा करते हुए) क्या कर रहे हो? कैसा अनुभव हो रहा है?” तो क्या जवाब दोगे? और वो जवाब कैसा होगा? किस रूप में होगा? जल्दी से बोलो?

श्रोता: उस अनुभव के जैसा ही होगा।

वक्ता: तुम पानी में घुसे ही हुए हो, लहरों के बीच में हो और मौज में हो और कोई पूछता है “कैसा लग रहा है? बताइए आपको कैसा अनुभव हो रहा है?” तो क्या बोलोगे? तुम से मुकुल जी (दूसरे श्रोता की ओर इशारा करते हुए) पूछने आए हैं और गंगा बह रही है और तुम पागलों की तरह गंगा की मौज में हो और मुकुल जी पूछने आए हैं “हाँ जी, तो कैसा लग रहा है आपको?” तो क्या जवाब दोगे?

श्रोता: चिलाएँगे, सर।

वक्ता: और चिल्ला कर कितना बोलोगे?

श्रोता: बहुत कम, एक-आधा शब्द।

वक्ता: सूत्रों का यही मतलब होता है कि ज़्यादा बोला ही नहीं जा रहा तो बोलें क्या? कोई मूवी देख रहे हो और वहाँ सामने दृश्य चल रहा है और तुम बिल्कुल गद-गद हो गए हो, भर गए हो, उस समय पर क्या पड़ोसी से खूब सारी बातें करने का मन करता है तुम्हारा?

श्रोतागण: नहीं।

वक्ता: हम जब मूवी देख कर निकले तो उसके बाद कुंदन (एक श्रोता) ने कहा कि “मैं इसके बारे में कोई बात करना ही नहीं चाहता। अगर कोई पूछेगा कैसी लगी तो दो शब्दों में बोल दूंगा, बस।” सूत्रों का यही अर्थ होता है कि ज़्यादा बात की नहीं जा सकती और हमें ज़्यादा बात करने में कोई मज़ा भी नहीं आता। हमने पूरी बात तुम्हारे सामने दो शब्दों में रख दी है, समझ सकते हो तो समझ लो और ऐसा नहीं है कि हम तुमसे कुछ छुपा रहे हैं। हम जहाँ पर है वहाँ इस से ज़्यादा बोला नहीं जाता। इससे ज़्यादा बोला जाता नहीं है, हम कोई प्रोफेशनल राइटर थोड़ी हैं कि पन्ने पर पन्ने भरे जा रहे हैं।

अष्टावक्र गीता- इसमें तो फिर भी बहुत शब्दों का प्रयोग हुआ है, ब्रह्म सूत्र हैं उनमें दो-दो शब्द के सूत्र हैं बस। ऐसा नहीं है कि दो ही शब्द हैं, पर दो-दो शब्दों वाले भी हैं, इतने छोटे। यह फ़ालतू बोलना क्या है यार? कितना बोलते हो? चुप क्यों नहीं होते? क्या होता है एक बार, तीन ज़ेन मोंक होते हैं वो घूमने निकलते हैं, कहते हैं “लम्बा घूम कर आना है” वो चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं, चुप हैं। एक साल बाद उनमें से पहला बोलता है कि “वी हैव कम ए लॉन्ग डिस्टेंस।” उसके एक साल बाद दूसरा जवाब देता है “इन्डीड वी हैव कम अ लॉन्ग डिस्टेंस।” उसके एक साल बात तीसरा बोलता है कि “इफ़ यू टू टॉकीटिव वन्स कीप ब्लैंबरिंग लाइक दिस आई विल लीव यू।”

(सभी श्रोतागण हँसते हैं)

समझ में आ रही है बात? यह सूत्र होते हैं। बोलना क्या है? कितना बोलें? न हमारी बोलने में रूचि है, न बोला जा सकता है, फिर बात इतनी साधारण है कि जिसको समझ में आनी है, इतने में आ जाएगी और जिसको इतने में समझ में नहीं आ रही, उससे ज़्यादा बोल कर कुछ होगा नहीं। बस सूत्रों की एक शर्त होती है कि थोड़े से वैसे हो जाओ, जैसा उस सूत्र को बोलने वाला है। सूत्र का जो वक्ता है, सूत्र जहाँ से आया है, तुम्हें थोड़ा सा वैसा होना पड़ेगा, फिर सूत्र तुम्हें सहारा दे देगा।

दो तीन बातें तुम दुनिया के तमाम विज़डम लिटरेचर में पाओगे: पहली तो यह कि उनमें से ज़्यादातर की अभिव्यक्ति सूत्रों में हुई है। बात को बहुत समझा के खुलासा कर के नहीं कहा गया है, बात छोटे में कह दी गयी है और शेष समझने वाले पर छोड़ दिया गया है। दूसरा, आम तौर पर बात गा कर कही गयी है क्योंकि जिस मस्ती के आलम में यह बातें मुँह से निकलती हैं, तो गीत ही बन के निकलती हैं।

जैसे कि मुकुल जी आ कर पूछें तुमसे “क्या है? कैसा अनुभव हो रहा है?” और तुम बोलो “बस मज़ा, बस मज़ा, बस मज़ा” हो गया सूत्र और वो भी गाते-गाते बोल रहे हो। हाँ, अब उसके बाद उस पर बड़े-बड़े विद्वान लग जाएंगे, पंडित लोग और वो कहेंगे “देखिए तीन बार कहा गया बस मज़ा, यह मन की तीन अवस्थाओं का द्योतक है।”

(एक श्रोता को संबोधित करते हुए) जैसे तुम पूछ रहे थे न कि “अष्टावक्र के आठ वक्र हैं तो उस आठ का क्या मतलब है?” यह पंडितो से पूछो वो बता देंगे, वो आठ का कुछ न कुछ तुक ख़ोज लेंगे तो वैसे ही तुम बोल रहे हो “बस मज़ा, बस मज़ा, बस मज़ा” और वो बता देंगे कि तीन का क्या मतलब है। इसी तरीके से “ब, स, म और ज चार अक्षर आ रहे हैं तो यह चार हैं यह तुरीय है, चौथा और पूरी बात जहाँ पर रुक गयी वहाँ उसके आगे जो है वो तुरीयातीत है, मौन।” यह बेवकूफियां विद्वानों के लिए छोड़ देनी चाहिए, जिसे बोलना है वो तो गा के चला जाता है और तुम्हारी बात समझनी है मुकुल जी को तो। उनको फिर तुम्हारी ही तरह नदी में उतरना पड़ेगा, नहीं तो वो अपने हाथ में ले कर जाएंगे, ऊपर मनीष बैठे हैं, मनीष ने पूछा “नीचे क्या हो रहा है?” और मुकुल जी ने जवाब दिया “कुछ खूफ़िया सा हो रहा है, बस मज़ा, बस मज़ा, बस मज़ा।”

अब यह बड़ी पहेली हो गयी, मनीष (एक और श्रोता को इंगित करते हुए) गूगल कर रहे हैं “कि यह बी, ए, स, ऍम, ए, ज़, ए क्या होता है?” और तभी वहाँ राहुल जी(एक और श्रोता को इंगित करते हुए) आ गए उन्होंने कहा “अरे! तुम्हें समझ में नहीं आ रहा इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है बस में आजा, बस में आजा, बस में आजा!

उन्होंने कहा “यह बात ज्ञान में नहीं, प्रेम में कही गयी है, कि अरे! बस खड़ी है उधर बस में आजा!”

श्रोता: ज्ञानदीप बस में आ जा।

वक्ता: ठीक है। कोई तीसरा आ जाएगा वो रितुएलिस्तिक है, वो कहेगा “बस मज़ा नहीं बोला गया।”

यही हैं सूत्र कि कह दिया सो कह दिया और इसलिए नहीं कहा है कि उसमें कि बहुत हम बात छुपा के कह रहे हैं, बस इतनी सी ही बात है और उसमे अब कहें क्या? किसी सूत्र का इसीलिए तुम कोई एक्सप्लेनेशन नहीं पाओगे। जो सूत्रकार होता है वो स्वयं कभी भाष्यकार नहीं होता, वो बोल कर छोड़ देगा “अहम् ब्रहामस्मी” अब तुम बाद में तुक्के मारते रहो, पेंचे लड़ाते रहो कि “अहम् ब्रहामस्मी क्या होता है?”

तुम सोच-सोच कर उसका अर्थ निकालना चाहते हो, ऐसी बात का जो सोच कर कही ही नहीं गयी। जो थॉट का प्रोडक्ट नहीं है थॉट उसका अर्थ निकाल कैसे लेगा? “पर हमें सूत्रों के अर्थ चाहिए, हम सूत्रकार जैसा होना नहीं चाहते हम सूत्रों के अर्थ चाहिए। क्या करें बताओ?” तुम जब पढ़ोगे न कई सूत्र तो तुम्हें इतने अज़ीब से मिलेंगे, तुम मन का प्रयोग कर के, बुद्धि के इस्तेमाल से उनका कोई सेंस निकाल ही नहीं सकते। तुम कहोगे “यह छपने में गलती हो गई है। यह क्या नॉन सेंस सी बात है, ऐसा कोई क्यों कहेगा। यह बात तो बिल्कुल ही बेवकूफ़ी की लग रही है और आप कह रहे हो कि यह ईश्वर का वचन है। आप कह रहे हो कि यह बात परम बोध में कही गयी है, हमें तो यह बात ही बेवकूफी की लग रही है” और मैंने देखा है यह, एक दो बार ऐसी बातें सामने आई हैं और उनको समझाने की जितनी कोशिश की गई है उतना हेल्पलेसनेस लगी है क्योंकि वो समझाई नहीं जा सकती हैं।

एक तरफ़ तो साफ़-साफ़ यह प्रतीत हो रहा होता है कि जो कहा जा रहा है वो बात बिल्कुल ठीक है; दूसरी ओर यह भी असहाय अनुभूति हो रही होती है कि ठीक, होते हुए भी मैं उसे समझा नहीं सकता, ठीक होते हुए भी मैं उसे समझा नहीं सकता। बात इतनी नॉन सेंसिकल है कि कैसे समझाओगे? लेकिन फिर भी पक्का दिखता है कि बात खालिस है।

शब्द-योग’सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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