कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन। सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।
हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है—इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है—वही सात्विक त्याग माना गया है।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १८, श्लोक९
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मैं एक शिक्षक हूँ। मुझे विद्यालय शासन द्वारा बनाए गए नियम ठीक नहीं लगते पर अनुगमन न करूँ तो नौकरी मुश्किल में पड़ जाती है और मानसिक उथल-पुथल मच जाती है, सत्य की राह पर चलना मुश्किल पड़ता है। शास्त्रविहित कर्म क्या है? इस स्थिति में शास्त्रविहित कर्म पर हम कैसे चलें?
आचार्य प्रशांत: शास्त्रविहित कर्म है कर्ता की इच्छाओं की उपेक्षा करके बस वह करना जो कर्ता का धर्म है।
इच्छा और धर्म का अंतर समझेंगे।
इच्छा वह जो आपको तत्काल सुख का प्रलोभन देती है। धर्म वह जो आपको कालातीत आनंद की चुनौती देता है। कह सकते हैं कि सस्ते सुख का संबंध होता है इच्छा से और ऊँचे सुख का संबंध होता है धर्म से। शास्त्रविहित कर्म वो है जो ऊँचे सुख के लिए किया जाए।
जब ऊँचे सुख के लिए कुछ करोगे तो उसमें त्याग तो निहित होगा ही। किसका त्याग? इच्छा का त्याग। उसी ऊँचे सुख और ऊँचे आनंद का दूसरा नाम ‘कृष्ण’ भी है। तो जब कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि सब कर्म मुझे समर्पित कर दे या सब कर्मफल मुझे समर्पित कर दे या सब कर्म मेरे लिए कर, तो उसका अर्थ यही है कि सब कर्म ऊँचे आनंद के लिए कर। एक ऐसा आनंद जिसमें भले आपके प्राण जा रहे हो लेकिन अंतःस्थल मुस्कुरा रहा होता है।
जो निचला, छिछोरा सुख होता है, वो मिलता है तब जब शरीर प्रसन्न हो जाता है। जब सब शारीरिक वृत्तियाँ थोड़ी देर के लिए तृप्त अनुभव करती हैं। और ऊँचा सुख मिला है, आपको इसकी पहचान ये होती है कि शरीर हो सकता है कष्ट में हो, वृत्तियॉं हो सकता है कि रो रही हों, लेकिन फिर भी भीतर बहुत गहरे केंद्र में कोई बैठा होता है जो प्रफुल्लित, आनंदित होता है। वही है शास्त्रविहित कर्म। ये जो भीतर व्यक्तिगत कर्ता बैठा है, इसके विरुद्ध जाना, इसका शमन करना, इस पर अंकुश लगाकर इसे नियंत्रित करना, यही साधना है, यही शास्त्रविहित कर्म है।
तो जब निष्काम कर्म कहा जाता है, उसका संबंध कर्म से बहुत कम और कर्ता से ज़्यादा है। कौन है कर्ता? किसने अधिकार कर रखा है कर्ता पर? इच्छाओं ने या धर्म ने? छिछोरे सुख की अभिलाषा ने या गहरे आनंद की चुनौती ने? कर्ता की स्थिति, कर्ता की पहचान के अनुसार कर्म निर्धारित हो ही जाता है।
भूलिएगा नहीं कि ये दो अलग-अलग इच्छाएँ भर नहीं हैं, ये दो अलग-अलग केंद्र हैं जीव के। ऐसा नहीं है कि एक इच्छा होती है कुछ सांसारिक रस ग्रहण कर लेने की और एक इच्छा होती है धार्मिक आनंद ग्रहण करने की। न, ये दो इच्छाएँ नहीं हैं, ये दो केंद्र हैं। एक केंद्र है प्राकृतिक और दूसरा केंद्र है चेतना का।
आपकी प्रकृति बस इतने में ही संतुष्ट हो जाती है कि आपको कुछ सतही सुख इत्यादि मिल जाए, और वो सतही सुख भी पूर्व निर्धारित ही होते हैं। मोह लग जाए, आसक्ति लग जाए, कहीं आकर्षण बंध जाए, प्रकृति का पुराना कारोबार चलता रहे, इसी का नाम सतही सुख है। ये एक केंद्र है, इसको हमने कहा कि ये प्रकृति का केंद्र है। और जो दूसरा केंद्र होता है, वो चेतना का केंद्र होता है।
चेतना के सुख अलग और बहुत ऊँचे होते हैं। प्रकृति के सुख अलग और बिल्कुल नीचे होते हैं।
ये मैं ऊँचा-नीचा क्यों बोल रहा हूँ? ये मैं ऊँचा-नीचा आपके संदर्भ में बोल रहा हूँ। नीचा इसलिए कह रहा हूँ प्रकृति के सुखों को क्योंकि वो आपको मिल भी जाते हैं तो आपका मन तो उनसे भरता नहीं, आपका काम तो उनसे चलता नहीं, इसलिए निचले सुख हैं वो। और चेतना के सुख ऊँचे इसलिए हैं क्योंकि आप चेतना ही हैं। वो सुख जब आपको मिलते हैं तब जाकर दिल भरता है।
शास्त्रविहित कर्म फिर क्या हुआ? वो जो कर्तृत्व के सही केंद्र से किया जाए। कर्ता अगर प्रकृति है, तो जो कर्म होगा, वो शास्त्रविहित नहीं हो सकता और कर्ता अगर चेतना है, तो फिर जो कर्म है, वो शास्त्रविहित है।
प्र२: जीवन में दमन का कितना महत्व है?
आचार्य: दमन और शमन दोनों शास्त्रोक्त विधियाँ हैं साधना की। दमन भी आवश्यक है, शमन भी आवश्यक है।
ये तो आजकल का मॉडर्न (नवीन) अध्यात्म है, जो बताता है कि दमन, सप्रेशन बहुत बुरी बात है। अन्यथा शास्त्रीय तौर पर सदा से ये बात जानी गई है और समझाई गई है कि दमन उपयोगी भी है और आवश्यक भी है।
हॉं, सप्रेशन एक सीमा तक ही काम करता है, उसके बाद अगर तुम उसको आजमाओगे तो वो बात पागलपन की हो जाएगी, तो वो अनुपयोगी हो जाएगी, हानिप्रद हो जाएगी। लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि दमन करना ही नहीं चाहिए। बिल्कुल करना चाहिए, क्यों नहीं करना चाहिए?
पर भूलना नहीं चाहिए कि ज्ञान दमन से ऊँचा होता है। प्रवृत्ति का दमन करो, उससे ऊँची बात होती है कि प्रवृत्ति को सत्य में लीन कर दो। बच्चे को डाँटकर चुप करा दो, इससे कहीं अच्छा होता है कि बच्चे को किसी सुंदर खेल में मग्न कर दो। फिर दमन की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन इसका ये अर्थ नहीं है कि दमन का कोई उपयोग ही नहीं।
तो प्रश्नकर्ता कह रही हैं, “मुझे विद्यालय शासन द्वारा बनाए गए नियम ठीक नहीं लगते, पर अनुगमन न करूँ तो सच की राह पर चलना मुश्किल है। क्या है शास्त्रविहित कर्म? इस स्थिति में शास्त्रविहित कर्म पर कैसे चलें?”
तो आदमी तो सुख का अभिलाषी होता है। एक सुख है जो आपको मिल जाएगा यथास्थिति को बरकरार रखने में, जो चल रहा है, चलने दो। घर चल रहा है, व्यवस्था चल रही है, संस्था चल रही है, तनख्वाह आ रही है, उसमें एक सुख हैं। ये सुख हमेशा एक आकर्षण होता है, इसमें हमेशा एक प्रमाद होता है। प्रमाद समझ रहे हो? नशे से भरा हुआ आलस और बेहोशी, जिसमें व्यक्ति कहता है कि जो चल रहा है, चलने दो, भाई, जो हो रहा है, होने दो भाई।
आप इतने बेहोश हो और इतने आलस और नशे से भरे हुए हो कि कोई आपसे कह रहा है कि भाई तू जूते पहनकर ही सो गया है और उन जूतों से चादर गंदी हुई जा रही है और आप कह रहे हो कि कुछ गंदा होता है तो होने दो, भाई। मैं जूते उतारने के लिए भी उठना नहीं चाहता। ये जो निचला सुख है, ये हमेशा प्रमाद से भरा हुआ होता है। ये कभी व्यवस्था को चुनौती देना नहीं चाहता। ये सुविधा का कायल होता है।
ऊँचा सुख सदा एक चुनौती होता है। वो हिम्मत माँगता है। वो कहता है कि औकात हो तो बताओ, मुफ़्त नहीं मिलता हूँ। निचला सुख, उसमें बहुत खर्चा-पानी नहीं करना होता, वो मुफ़्त मिल जाता है, स्टेटस को (यथास्थिति) में ही मिल जाता है कई बार। जो चल रहा है चलने दो, यथास्थिति ठीक है।
निचला सुख मिलता है ऐसे प्रबंध करके कि घाव न खाने पड़े। ऊँचा सुख कई दफ़े मिलता है जानबूझकर घाव खाने से। तो अब ये तो आपकी तैयारी पर है। तैयार हो अगर घाव खाने के लिए तो चुनौती स्वीकार कर लें, तैयारी न हो तो जो चल रहा है, चलने दें।
इसमें कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिया जा सकता है। बस बताया जा सकता है कि दो राहें हैं, दो विकल्प हैं, इस पर चलोगे तो क्या मिलेगा और उस पर चलोगे तो क्या मिलेगा, और इस पर चलोगे तो क्या कीमत देनी होगी और उस पर चलोगे तो क्या कीमत देनी है। अब चलोगे किस राह पर ये तो तुम जानो। कोई किसी दूसरे को ज़बरदस्ती चला नहीं सकता है, न ही कोई किसी दूसरे की ख़ातिर स्वयं चल सकता है। साफ़-साफ़ रोशनी गिराई जा सकती है, पथ प्रदर्शन किया जा सकता है।
प्र२: कभी-कभी जीवन में पता होता है कि तमस है, फिर भी वहॉं से आगे जा पाने का साहस नहीं होता।
आचार्य: देखो, बेटा, ये शरीर तो होता है जड़। ठीक है? तमसा शरीर की तो होती नहीं। कोई कुछ भी बोले कि लोग तीन तरह के होते हैं, या लोगों ने जो भोजन कर लिया होता है, वो तीन तरह का होता है इसीलिए वो भोजन कर-करके लोगों के शरीर तीन तरह के बन गए होते हैं। कई लोग होते हैं जो कहते हैं कि मेरा शरीर बड़ा आलसी है। बेकार की बात। तुम आलस करने में आलस करते हो क्या?
एक बार तो बड़ा मज़ा लगा था। कई साल पहले की बात है, तब रविवार को सुबह-सुबह सत्र हुआ करते थे। तो नौ बजे लोगों को आना हो, मैंने कहा कि नौ बजे आ ही जाना, नहीं तो मैं दरवाजे बंद कर दूँगा, फिर सत्र में बैठने को नहीं पाओगे। तो गर्मी में तो फिर भी ठीक था। जाड़ों में जो लोग दूर से आएँ, कोई गुडगांव से आ रहा है, कोई कहीं से आ रहा है, वो नौ बजे पहुँचे ही नहीं। जाड़ों में आने वालों की संख्या भी कम हो जाए। तो पूछो तो कहें कि जाड़ा बहुत है, आलस आता है, सात बजे तक तो अंधेरा ही रहता है, कैसे उठा करें।
तो एक बार मैंने दूसरा प्रयोग करा। मैंने कहा कि आज नौ बजे दरवाज़ा बंद नहीं करना, दरवाज़ा खुला रहने देना, जितने आते हों, आने देना। आज सत्र शुरू होने के समय दरवाज़ा खुला रहेगा, नहीं बंद होगा। तो दरवाज़ा खुला रहा, लोग आते रहे, आते रहे। जब आ गए, सत्र हो गया तो मैंने कहा कि अब दरवाज़ा बंद कर दो, आज आने के लिए खुला था, आज लौटने के लिए दरवाज़ा बंद रहेगा।
तो जितने लौटने वाले थे, सब दरवाज़े पर पहुँच गए, पीटने लगे दरवाज़ा कि खोलो, खोलो दरवाज़ा। जाने दो। दरवाज़ा तो खुलेगा नहीं, चाभी आचार्य जी के पास है। मैंने कहा कि तुम लोग, भाई, आलसी लोग हो या तुम्हें बस आने में आलस आया था? जहॉं से आए थे और आने में जितना रास्ता तय किया था, यहॉं से वहीं को वापस लौटोगे और वापस लौटने में भी उतना ही रास्ता तय करोगे। तो अगर तुमको आने में आलस था तो वापस लौटने में भी आलस होना चाहिए बिल्कुल बराबर का। तो आलस करो न, आलस दिखाओ, दरवाज़ा बंद है, सो जाओ।
“नहीं, कोई आलस नहीं है। जाने दो। जाने दो। नहीं तो बहुत मार पड़ेगी।”
“नहीं, तुम तो आलसी लोग हो, वापस जाने में भी आलस करो न, या बस आने में ही आलस होता है? अगर तुम वाक़ई पक्के और सच्चे आलसी होते, तो जितना आलस तुम्हें यहॉं तक आने में होता, उतना ही आलस तुम्हें यहाँ से वापस जाने में भी होता। पर वापस जाने में तुम्हें कभी आलस नहीं होता, हिरण की तरह भागते हो और जब यहॉं आना होता है तो कछुए की तरह आते हो। कहते हो कि हम तो आलसी हैं।”
तो ये बात आलस की नहीं है, ये बेईमानी की बात है। तमसा की बात कर रहे हो न तुम? यही शब्द इस्तेमाल किया न तुमने? कि दिन भर आज तमस से भरा रहा। तमसा जानते हो क्या होती है? तमसा एक झूठा विश्वास होती है, तमसा एक अंधा विश्वास होती है कि मैं जैसा हूँ ठीक हूँ। जब मैं जैसा हूँ ठीक हूँ, तो मुझे सोने दो न भाई। इसीलिए तामसिक आदमी सोता खूब है। “अरे भाई, सब जब ठीक ही चल रहा है तो मेहनत क्यों करा रहे हो? मुझे सोने दो।” तामसिक आदमी को ये झूठा यकीन बैठ गया होता है जो चल रहा है, ठीक ही चल रहा है, और वो बिल्कुल ठीक है।
सात्विक, राजसिक, तामसिक मन में अंतर साफ़ समझ लो। सात्विक होने का मतलब है कि तुम सही जगह पर बैठे हो और अब तुम्हारी तपस्या है कि सही जगह पर बैठे ही रहो, कोई तुम्हें वहॉं से हिला-डुला न दे, भगा न दे, ये सात्विक आदमी है।
राजसिक आदमी वो है जिसे ये तो पता है कि वो गलत जगह पर है, पर जिसे सही जगह का भी अभी कुछ पता नहीं। तो वो दर-दर घूम रहा है और पचास दिशाओं में भाग रहा है और हर जगह ठोकर खा रहा है। वो तलाश रहा है सही दिशा को पर सही दिशा उसे मिल नहीं रही। वो सही चीज़ की तलाश कर रहा है पर गलत जगह पर — ये राजसिकता है।
इसीलिए राजसिक आदमी को तुम पाते हो खूब दौड़ता-भागता है, उसमें महत्वाकाँक्षा होती है, उसमें इच्छा होती है, तो वो दौड़ लगा रहा होता है। उसे कम-से-कम इतना तो पता है कि उसे अभी कुछ चाहिए, उसे इतना तो पता है कि अभी उसकी ज़िंदगी में कुछ अधूरा है, कुछ खाली है, कुछ गलत है। तो राजसिक आदमी को आप पाओगे कि खूब दौड़-भाग करे हुए है। उसे अपने भीतर के झूठ का और अधूरेपन का एहसास है।
तामसिक आदमी गज़ब होता है एकदम। पहली बात — वो गलत जगह पर बैठ गया होता है और दूसरी बात — उसने अपने-आपको ये भरोसा दिला दिया होता है कि मैं सही जगह पर बैठा हूँ। ये भरोसा वो अपने-आपको दिला करके सो जाता है।
सात्विक आदमी वो जो सही गाड़ी पर चढ़ा हुआ है, मंज़िल पर पहुँच जाएगा। राजसिक आदमी वो जो गाड़ी पकड़ने के लिए ज़ोर से दौड़ रहा है, इधर-उधर पूछताछ कर रहा है कि भैया कौन सी ट्रेन है जो मुझे मेरी मंज़िल ले जाए। लोग पूछ रहे हैं कि तेरी मंज़िल क्या है। ये पता करने के लिए वो कहीं और, किसी और काउंटर पर, किसी और खिड़की पर जाकर पूछ रहा है, “मेरी मंज़िल क्या है?” वो कह रहे हैं की टिकट हम बाद में देंगे, पहले तू पता करके आ कि जाना कहॉं है। ये राजसिक आदमी आपको स्टेशन पर, प्लेटफार्म पर, चारों तरफ़ बदहवासी में दौड़ता हुआ नज़र आएगा — ये राजसिकता है।
सात्विक आदमी कौन था? वो जो सही ट्रेन में बैठ गया है और ट्रेन सही दिशा में जा रही है। वो मौज़ में है अब, वो भजन कर रहा है। राजसिक आदमी क्या कर रहा है? एक से लेकर बीस नंबर प्लेटफार्म तक वो दौड़ लगा रहा है। उसको पता ही नहीं है कि उसको जाना कहॉं है, कौन-सी गाड़ी पकड़नी है, पर इतना एहसास उसे ज़रूर है कि उसे कहीं जाना है और उसे कोई गाड़ी चाहिए जो उसे मिल नहीं रही है। तो वो कभी इस गाड़ी में बैठता है, कभी उस गाड़ी में बैठता है, कभी यहॉं पूछताछ करता है, कभी उससे मिन्नत करता है, ये राजसिक आदमी है।
हमारे जो तामसिक महाराज हैं, उनका क्या वृतांत बताएँ! वो क्या कर रहे हैं? अरे, गाड़ी में नहीं, वो जो प्लेटफार्म पर हाथ-गाड़ी होती है सामान ढोने की, देखी है? वो उस पर जा करके सो गए हैं और उनको पूरा भरोसा है कि वो चेन्नई राजधानी में बैठे हुए हैं और कल शाम ढलते-ढलते वो मंज़िल तक पहुँच जरूर जाएँगे।
वो धुत्त अपना हाथ-गाड़ी पर सो रहे हैं और कोई बताने आता है कि अरे, हिल लो, कुछ कर लो तो उसको वो गाली-गलौज करके भगा देते हैं। कहते हैं, “भक्क! हम बिल्कुल सही जगह पर हैं, हमें सोने दो।” कोई बोलता है कि आँख खोलकर देख तो लो। तो कहता है, “आँख क्या खोलनी है? हमें पता है कि हम सही हैं।” ये तामसिकता है।
तामसिकता आलस नहीं है, सतह पर वो आलस जैसी प्रतीत होती है, तामसिकता एक गहरा विश्वास है, कॉन्फिडेंस है तामसिकता। आलसी लोगों को तामसिक मत समझ लेना। जिन लोगों को अपने ऊपर बहुत यकीन है, उनको जानों कि वो तामसिक हैं। वो अपने में ही भरे हुए हैं। वो कहते हैं कि हमें पता है, हम सही जा रहे हैं। देखे हैं ऐसे लोग न?
उन्हें किसी तरह का कोई संदेह ही नहीं उठता अपने ऊपर कि हम कर क्या रहे हैं। क्यों कर रहे हैं, क्यों जी रहे हैं, कहॉं आए हैं, कहॉं को जाना है, उन्हें किसी तरह का कोई सवाल नहीं है। वो अपने-आपसे ही भरपूर हैं, छलछलाए जाते हैं। ये तामसिकता है।
आमतौर पर हम तामसिक आदमी की छवि बना लेते हैं कोई मोटा आदमी, जो शराब पीकर के एकदम धुत्त पड़ा हुआ है, हिलने-डुलने को तैयार नहीं है, उस पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं। ऐसी ही छवि है न? नशेड़ी, बेहोश, प्रमादी की, यही छवि है तामसिक आदमी की। तामसिक आदमी ये नहीं है।
तामसिक आदमी कौन है? द कॉन्फिडेंट वन , जिसको अपने ऊपर पूरा भरोसा है। उस भरोसे के फलस्वरुप वो आलस का भी प्रदर्शन कर सकता है पर आवश्यक नहीं है कि वो आलस का ही प्रदर्शन करे। उसकी केंद्रीय पहचान आलस नहीं आत्मविश्वास है। आलस उसमें हो सकता है हो, हो सकता है न भी हो। लेकिन एक चीज़ जो उसमें ज़रूर होगी – आत्मविश्वास। और ये जो आत्मविश्वास है, ये एक तरह का अंदरूनी आलस है क्योंकि आत्मविश्वास आपसे कहता है कि आप ठीक हो। जब आप ठीक हो तो आपको कुछ करने की ज़रूरत क्या है? जब कुछ करने की ज़रूरत नहीं, तो आपकी अवस्था कहलाती है आलस की।
वो बाहर-बाहर हो सकता है कि बहुत कुछ करे, बाहर-बाहर चलेगा, फिरेगा, हो सकता है कि वो दौड़ लगाता हो, लेकिन उसमें एक अंदरूनी आलस्य होता है। तो तामसिकता का अर्थ अगर आलस्य है भी तो अंदरूनी आलस्य है। अंदरूनी आलस्य माने? मैं भीतर अब जहॉं जम गया हूँ, वहीं जमा रहूँगा, कोई मुझे हिला नहीं सकता। मुझे पता है कि मुझे पता है, *’आई नो’*। ये तामसिकता है – आत्मविश्वास, *कॉन्फिडेंस*।
तो तुम्हें भी दिन भर कुछ रहा होगा आत्मविश्वास कि मुझे तो पता ही है या फिर ये सब यहॉं पर (शिविर में) जो गतिविधियाँ चल रही हैं दिनभर, इनकी मुझे क्या ज़रूरत है। मुझे तो पहले ही सब कुछ पता है, “मैं ज्ञानी हूँ, *आई नो*।” तुमने भी कहा कि मुझे जब पहले ही सब पता है तो सो जाओ, लुढ़क जाओ।
तुम्हें वाक़ई अगर लगता है कि दिन भर जो हो रहा है, वो तुम्हारे काम की चीज़ है, वो तुम्हें कुछ नया दे जाएगी तो क्या तुम सो पाते? बोलो। नहीं सो पाते न? सो पाने की वज़ह फिर शारीरिक नहीं, मानसिक है। तुम्हें ये विश्वास है कि हमें पता है, साहब। हमें मत बताइए। तो हम सो गए।
यहॉं भी सत्र में हैं जिन्हें बहुत नींद आती है। उनको नींद आने की वज़ह बस यही है कि उनको भीतर कहीं-न-कहीं ये पूरा विश्वास है कि हमें सब पता है। नहीं तो नींद आ कैसे जाती?
तो तामसिक आदमी की बेवड़े की छवि मत बना लेना कि बेवड़ा है, कि शराब पी करके सड़क पर गिरकर सो गया, ये तामसिक आदमी है। न-न, न-न, वो आलस हो सकता है बाहरी आलस न हो, भीतरी आलस हो। उस भीतरी आलस का नाम होता है – सेल्फ कॉन्फिडेंस (आत्मविश्वास)।
ये जितने कॉन्फिडेंस के विक्रेता दिख रहे हैं न तुमको, जो सिखाते ही यही हैं – हाउ टू बी कॉन्फिडेंट , और जितने तुमको ग्राहक दिखाई दे रहे हैं कॉन्फिडेंस के, कि बताइए हम कॉन्फिडेंस कैसे पाएँ, ये सब वास्तव में तामसिक होना चाह रहे हैं। जब आप कहते हो, ”आई एम कॉन्फिडेंट , मुझे विश्वास है,” तो आप किसी विषय में कॉन्फिडेंट होते हो न? *“आई एम कॉन्फिडेंट ऑफ समथिंग”*। ऑफ व्हाट ? किस चीज़ का विश्वास है आपको? अपने-आपका, अहंकार का, कि आप ठीक हो, कि आप जानते हो। जबकि तथ्य क्या है? कि आप नहीं जानते हो।
तो जो सबसे बड़ा झूठ हम अपने साथ बोल सकते हैं, वो यही है – कॉन्फिडेंस * । अपने-आपको ये जतला देना कि मैं ठीक हूँ, मैं * कॉन्फिडेंट हूँ, मैं सही जगह बैठा हूँ, मुझे पता है। जबकि मैं न ठीक हूँ, न स्वस्थ हूँ, न ही मुझे कुछ पता है। यही तमसा है।
प्र३: आचार्य जी, जो सात्विक है, उसकी साधना है कि वो जहॉं बैठा है, वहॉं से डिगे नहीं। जो राजसी है, वो अपनी पूरी ऊर्जा लगाए कि किसी सही व्यक्ति को ढूँढे और सही गाड़ी में बैठे। जो तामसिक है उसके लिए सही कदम है कि वो अपना आत्मविश्वास कम करे क्योंकि वो किसी को रिसीव (स्वीकार) भी नहीं करता।
आचार्य: कहीं-न-कहीं पता तो उसको भी है कि वो रेलगाड़ी नहीं हाथ-गाड़ी पर बैठा हुआ है। कोई और मित्र तुम्हारा हो नहीं सकता, तुम्हारी अपनी चेतना ही मित्र होती है तुम्हारी। तुमने कितना भी अपने-आपको तामसिक बना लिया हो लेकिन कुछ तो चेतना अभी भी बची होगी न तुममें। ईमानदारी से उसकी सुनोगे तो पता चल जाएगा कि मैं उतना भी ठीक नहीं हूँ जितना मैंने अपने-आपको यकीन दिला रखा है।
उसके अलावा देखो कोई चारा नहीं है। उसके अलावा फिर जो चारा है, वो तो ईश्वरीय अनुकंपा ही है कि तुम हाथ-गाड़ी पर सोने के मजे ले रहे हो और कोई आए और तुम्हारी हाथ-गाड़ी पलट ही दे और दो-चार लात लगाए। कहे कि कैसी लग रही है राजधानी के फर्स्ट ए.सी. (प्रथम श्रेणी वातानुकूलित बोगी) की यात्रा? कैसी लग रही है? बताओ। पर ये तो फिर ईश्वरीय अनुकंपा है कि तुम्हारे जीवन में ऐसी कोई दुर्घटना हो जो तुम्हें झंझोड़कर जगा ही दे, जो तुम्हारे सब ढकोसलों को उजागर कर दे, जो तुम्हारी सारी आंतरिक गलतफ़हमी चूर-चूर कर दे।
तो या तो तुम इंतजार करो और प्रार्थना करो कि इस तरह का कोई दैवीय हस्तक्षेप हो तुम्हारे जीवन में, या फिर ख़ुद ही इमानदारी से जग जाओ और कहो कि या तो मैं अपने-आपको ये बोल दूँ कि मुझे प्लेटफार्म पर ही सोना है। फिर ठीक है, फिर प्लेटफार्म पर सोने में कोई बुराई नहीं। या मैं ये मान लूँ कि मुझे जाना तो चेन्नई है पर मैं रेलगाड़ी की जगह हाथ-गाड़ी पर सो रहा हूँ। इन दो के अलावा और कोई रास्ता नहीं होता। या तो खुद जग जाओ या इंतजार करो कि ज़िंदगी झंझोड़कर जगा दे। लेकिन ये आवश्यक नहीं है कि ज़िंदगी जगा ही दे।
दो बातें समझिएगा उस दैवीय हस्तक्षेप के बारे में जिसकी बात हम कर रहे हैं। पहली बात, वो दैवीय हस्तक्षेप हो, ये आवश्यक नहीं है। हज़ार में से एक ही दो लोग ऐसे होते हैं जिन पर जीवन इतना मेहरबान होता है कि उनको गिरा दे, मार-पीटकर जगा दे। हज़ार में एक ही दो लोग होते हैं। दूसरी बात — जीवन जब आपको जगाता है तो ये परवाह नहीं करता कि आप जगेंगे या नहीं जगेंगे, और जगेंगे तो आपको चोट कितनी लगेगी, और जगाने की प्रक्रिया में कहीं आप मर ही गए तो। जीवन फिर इन सब बातों की परवाह नहीं करता।
जीवन ऐसा है कि जैसे आप रेल की पटरी पर ही सो गए। आप रेल की पटरी पर ही सो गए तो आपको जगाने के लिए भी आ भी रहा है तो कौन? रेलगाड़ी। आप जाग गए तो ठीक। धन्यवाद दीजिएगा कि जग गए और नहीं जगे तो भी ठीक, वो आपके ऊपर से गुजर जाएगी। उसको ये इच्छा ही नहीं है कि आप जगें। वो अपना काम कर रही है।
उसके काम करने के फलस्वरूप अगर आपको जागृति मिल गई कि आप ट्रेन की पटरी पर लेटे हुए थे और तभी सब कुछ गड़गड़-गड़गड़ हिलने लग गया, ट्रेन की गुर्राहट आपको दूर से सुनाई देने लग गई और सीटी आपके कानों को चीर गई बिल्कुल और आप उठ बैठे। अच्छी बात है, आपके लिए अच्छा है। पर ट्रेन की ये मंशा नहीं थी कि आपको जगाए। आप उठ गए, आपका सौभाग्य है, पर ये ट्रेन का इरादा नहीं था कि आपको जगाए। उसका तो काम है चलते रहना, उसके चलते रहने के फलस्वरुप आप जग जाएँ तो ये एक आकस्मिक घटना है, आयोजित नहीं। और आप नहीं जगे तो जीवन फिर कोई रियायत नहीं करता, ट्रेन में कोई करुणा नहीं होती। वो गुज़र जाएगी आपके ऊपर से।
तो कुल मिला करके ये दो विकल्प हैं — या तो अपनी चेतना के साथ ईमानदारी बरतो और उठ जाओ या फिर किसी दैवीय अनुकंपा की प्रतीक्षा करो। इन दोनों में से बेहतर विकल्प कौन सा है? भैया, खुद ही उठ जाओ। नहीं तो कहते हैं न, ख़ुदा की लाठी में आवाज़ नहीं होती, पर पड़ती बहुत ज़ोर की है। या तो ख़ुद सीख लो, नहीं तो ज़िंदगी सिखाएगी। और जब ज़िंदगी सिखाती है तो वो किसी तरह की कोई रियायत नहीं करती।
वास्तव में वो सिखाना भी नहीं चाहती है, वो बस कर्मफल देना चाहती है। उस कर्मफल से आप सीख लिये, आपकी किस्मत। उस कर्मफल ने आपको तोड़ ही दिया, बर्बाद ही कर दिया और मार ही डाला, आपकी किस्मत।
वो लोग बहुत सावधान रहें जो ये कहते हैं, “नहीं, साहब, हमें सीखने की ज़रूरत नहीं है, हम अपने अनुभवों से सीखेंगे। हम तो जीवन से सीखेंगे। हमें ज़िंदगी सिखाएगी।” ज़िंदगी बहुत कठोर शिक्षिका है। वो शिक्षिका भी नहीं है, वो ऐसी है कि साल भर पढ़ाती नहीं है, वो सिर्फ़ साल के अंत में इम्तिहान लेती है। वो कहती है कि पढ़ाई-लिखाई तुम जानो, सेल्फ स्टडी (स्व-अध्ययन)। हमारा काम है इम्तिहान लेना। वो इम्तिहान लेती है। तुमने इम्तिहान में योग्यता दिखा दी, बड़ी बात। नहीं दिखाई, उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वो सीधे तुमको अयोग्य और अनुत्तीर्ण घोषित करके आगे बढ़ जाएगी।
तो ये प्रतीक्षा मत करो कि मैं तो जीवन से सीख लूँगा इत्यादि-इत्यादि। जहॉं कहीं सीख सकते हो और जितनी जल्दी सीख सकते हो, सीखो, बेटा।