शादियों के मस्त मज़े! || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)

Acharya Prashant

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शादियों के मस्त मज़े! || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, एक निजी प्रश्न आपके साथ साझा करना चाहता हूँ। कुछ दिनों से काफ़ी परेशान हूँ। मेरे एक रिश्तेदार हैं, उनसे मेरी बातचीत हो रही थी तो हाल-चाल में उन्होंने बताया कि उनके ऊपर काफ़ी कर्ज़ है इस समय। बूढ़े भी हो चुके हैं। और ये बातचीत ऐसे शुरू हुई कि मैंने उनसे पूछा कि मेरी बहन कैसी हैं, तो वो बोले कि ससुराल में हैं।

तो फिर बातचीत बढ़ती गयी कि मेरी बहन की शादी के लिए कर्ज़ लिया था उन्होंने। तो बात और बढ़ी फिर और बढ़ी। तो ये बताया उन्होंने कि कर्ज़ का ब्याज लगातार बढ़ता जा रहा है और अब वो बूढ़े भी हो चुके हैं, असमर्थ भी हो चुके हैं। वो चुकाने में सक्षम नहीं हैं।

मुझे भी काफ़ी असहाय लगा कि मैं कैसे उनकी मदद कर सकता हूँ। फिर कुछ आँकड़े मैंने खोले। उन आँकड़ों में मैंने पाया कि क़रीब साठ प्रतिशत जो शादियाँ होती हैं वो लोन (उधार) लेकर की जाती हैं और क़रीब बीस परसेंट इंसान अपनी कमाई का शादियों पर लगा देता है। क्यों हो रहा है ये?

आचार्य प्रशांत: मज़ा आता है और क्यों! तुम्हें शादियों में नाचने में मज़ा नहीं आता? उत्सव हैं शादियाँ। भारत में सबसे बड़ा उत्सव विवाह-उत्सव होता है। होता है कि नहीं? होली, दीवाली, दशहरा, गणतन्त्र दिवस, स्वतन्त्रता दिवस कुछ हो, सबसे बड़ा उत्सव कौनसा होता है जीवन का? विवाह-उत्सव होता है। होता है कि नहीं? हम बड़ी खुशी मनाते हैं तो इसीलिए कर्ज़ उठाते हैं, खुशी मनाने के लिए कर्ज़ उठाते हैं। कैसा उत्सव है, सोचिए थोड़ा सा। किसका उत्सव है?

जैसे आप बोलते हैं कि स्वतन्त्रता दिवस अंग्रेजों से राजनैतिक आज़ादी ले लेने का उत्सव है। ठीक? कहते है न? दीवाली को आप बोलते हैं कि श्रीराम अयोध्या वापस पहुँचे, इसका उत्सव है। यही है न? तो वैसे ही विवाह किस बात का उत्सव है? इतना बड़ा उत्सव है हमारा, सबने मनाया है, बताइए तो विवाह किस बात का उत्सव है! हर उत्सव के पीछे कोई आनन्दकारी कारण होता है न कि ये बड़े आनन्द की बात है, कि ये बड़ी ऊँची बात है, इस बात का हम उत्सव मना रहे हैं।

अभी गणतन्त्र दिवस बीता, उसमें हम किस बात का उत्सव मना रहे थे? आज के दिन क्या हुआ था? संविधान लागू हुआ था। और गणतन्त्र का मतलब ये कि जो आपका शीर्ष पदाधिकारी भी होगा, प्रेसिडेंट , वो भी ऐसा नहीं है कि किसी परम्परा से आएगा; वो भी जनता द्वारा निर्धारित होगा। कितनी बड़ी बात है कि प्रधानमन्त्री ही नहीं, जो राष्ट्रपति है, सर्वोच्च एकदम — कागज़ पर कम-से-कम — जो सबसे सर्वोच्च है वो भी जनता द्वारा ही परोक्ष रूप से चुना जाएगा। माने किसी इंसान की हिम्मत नहीं है कि हम पर किसी फ़िज़ूल कारण से राज कर सके। राजशाही नहीं है ये, *मोनार्की (राजतन्त्र) नहीं है ये। तो हम इस ऊँची वजह का उत्सव मनाते हैं।

हमारे पास कुछ होता है उत्सव मनाने को, तो हम उत्सव मनाते हैं। अब विवाह में किस बात का उत्सव मनाते हैं? अरे! सब मनाते हैं। तो बता भी दो। क़सम है तुम्हें उस घोड़ी की, बताओ नाचे क्यों थे? (श्रोतागण हँसते हैं)

वो घोड़ी आज भी परेशान है। पटाखे बज रहे हैं, घोड़ी दुखी हो रही है और वहाँ सब टुन्न नाच रहे हैं, बेवड़े। क्यों-क्यों?

श्रोता: दो लोगों के मिलने का उत्सव होता है।

आचार्य: लोग माने?

श्रोता: दो शरीर।

आचार्य: बस ये है, वो देह का उत्सव है।

हम परिभाषित तो कुछ करते नहीं, हम बस यूँही सम्मिलित हो जाते हैं, बिना परिभाषित किये। जानते हो सुकरात को ज़हर पिलाया ही क्यों गया था? उन्होंने ख़ुद भी सीख लिया था और अपने सब जो चेले-चपाटे थे उनको बोल दिया था, 'कोई कुछ भी कर रहा हो न, परिभाषा माँगना।' और परिभाषा तब तक आप नहीं दे सकते जब तक आपमें बड़ी आन्तरिक स्पष्टता, क्लैरिटी न हो। वो हममें होती नहीं, तो जैसे कोई बोल देता है, 'फ़लानी चीज़ माने क्या, परिभाषित करो', तो सिट्टी-पिट्टी गुम!

तो सुकरात ने कहा था 'क्लैरिटी' (स्पष्टता)। सबसे पहले वो चीज़ आती है। बहुत सारी बातें बोली थीं, उसमें से एक ये थी, अभी हम विवाह को परिभाषित कर रहे थे इसलिए याद आ गया। तो एक बार सुकरात के सब चेले वगैरह थे, पता नहीं प्लेटो उनमें थे कि नहीं, पर जो भी थे वो गये। तो एक जज आ रहा है कोर्ट से निकलकर, उसने अभी-अभी किसी को मृत्युदंड दिया है, यह बोलकर कि हत्यारा है। तो उन्होंने उसको धर लिया और बोले, 'आइए-आइए, बैठिए, आपसे दो-चार बातें करेंगे।' बोले, 'अच्छा, हाँ, बताइए।'

बोले, 'ये आप अभी क्या करके आये हैं? बोले, 'मैं उनको फाँसी की सज़ा देकर आया हूँ।' बोले, 'अच्छा, क्यों देकर आये हैं?' बोले, 'हत्यारा था।' बोले, 'हत्यारा माने क्या?' बोले, 'हत्यारा माने जो किसी कि हत्या करे। क्या तुम नासमझ लड़के लोग हो! यार, इतनी सी बात नहीं जानते कि हत्यारा माने किसी की हत्या करे!' बोले, 'अच्छा-अच्छा! ये सब जो सैनिक हमारे हैं, महावीर, शूरवीर, जिन्होंने तमाम राजाओं को हरा रखा है। अभी ईरान वाले को हराया था। तो फिर तो ये भी हत्यारे हुए क्योंकि हत्या तो ये भी करते हैं।' बोले, 'नहीं-नहीं-नहीं-नहीं! ऐसे नहीं, ऐसे नहीं! जो किसी बेगुनाह की हत्या कर दे, उसको कहते हैं कि वो हत्यारा है। तो बोलते हैं, 'अच्छा-अच्छा, तो अब बेगुनाह की परिभाषा दीजिएगा।' तो उसने फिर बेगुनाह की कुछ परिभाषा दी। तो बोले, 'अच्छा-अच्छा!'

परिभाषा देते-देते, देते-देते अंततः ये आ गया कि देखो, हत्या तो हत्या होती है, कोई किसी को भी मारे तो हत्यारा है। तो उन शिष्यों ने कहा, 'तो फिर अभी-अभी आप भी तो मृत्युदंड देकर आ रहे हैं, तो अगर हत्या के लिए मृत्युदंड है तो आपको भी!'

और वो उठकर भागा बहुत ज़ोर से गालियाँ-वालियाँ देता हुआ। बोलता है, 'तुमको, तुम्हारे गुरु को, सबको देख लूँगा। ये तुम जो सब बात-बात पर परिभाषाएँ लाते हो न!' उसने देख भी लिया। ये जो चेलों ने जाकर के पूरे नगर में उपद्रव मचाया कि जो मिलता था उसी को परिभाषाएँ पूछने लग जाते थे। और सुकरात ने उन सबको एक नियम दे दिया था ज़िन्दगी में — सिर नहीं झुकाना है। सिर नहीं झुकाना है। बोले, 'तुम परिभाषा माँगो, बोलो, 'जो तू कर रहा है इसका मतलब बता। और जो न बता पाये तो उसके सामने सिर मत झुकाना।'

तो सुकरात तो इतना ही बोल रहे थे भाई कि अज्ञान अच्छी चीज़ नहीं है, ज्ञान सबसे ऊँची चीज़ है। चेलों ने अति कर दी। वो जो मन्त्री थे, उनके सामने से निकल जाएँ, बड़े-बड़े जो वहाँ के सत्ताधारी हैं, उनके सामने से निकल जाएँ, सिर नहीं झुका रहे ऐसे (सिर ऊपर करते हुए)। झुकाना छोड़ दो, वो और ऐसे करें (सिर ऊपर)। तो नतीजा ये निकला कि फिर सुकरात को ज़हर दे दिया। और जो आरोप लगे थे, उनमें एक बड़ा आरोप यही था कि आपने देशभर के सब जवान लोगों में न जाने कौन से ख़याल भर दिये हैं। ये अब किसी की बात ही नहीं सुनते, ये तो परिभाषाएँ माँगते हैं, परिभाषाएँ हम दे नहीं पाते तो फिर ये हमें कोई सम्मान ही नहीं देते, सिर नहीं झुकाते, नमस्कार नहीं करते।

तो परिभाषा, विवाह की परिभाषा क्या निकाली? क्या परिभाषा निकाली? ये उत्सव है देह का। ठीक? इसीलिए इसमें बहुत ज़रूरी होता है कि एक नारी और एक नर देह होनी चाहिए। अगर ये देह का उत्सव नहीं होता तो ऐसा तो नहीं होता कि नर-नारी वाली विवशता होती। पर विवाह का मतलब यही है कि नर-नारी मिलेंगे। आजकल के आधुनिक कुछ अपवाद हैं, उनको हटाइए अलग। पर विवाह का मतलब ही यही है — नर और नारी। यही है न? तो ये इस बात का उत्सव है।

विवाह हमारे भीतर की पशुता का उत्सव है। हम जानवर हैं, हम वही काम करने जा रहे हैं जो दुनिया का हर जानवर करता है। मेल मेट्स फीमेल (नर और नारी का मिलन), हम वही करने जा रहे हैं और हम इस बात पर बहुत खुश हैं कि हम बहुत बड़े जानवर हैं। ये विवाह उत्सव है। बस ये।

तो आप कहेंगे, 'फिर तो जंगल में क्यों नहीं उत्सव ये मनाया जाता है?' क्योंकि जंगल में इतनी ईमानदारी है कि वो कहें कि ये कोई बड़ी बात नहीं है। ये तो एक साधारण प्राकृतिक घटना है, चलती रहती है। नर और मादा का मिलन होता रहता है, इसमें बड़ी बात क्या है! पर हम पशु तो हैं लेकिन हम बड़े पाखंडी पशु हैं। तो हम क्या करना चाहते हैं कि हम काम पशुता के करते हैं पर उनको सम्मान का जामा पहनाना चाहते हैं। तो विवाह में हो तो यही रहा है कि नर और मादा मिल रहे हैं और शारीरिक अब इनका संसर्ग होगा, वही उसकी परिभाषा है। कानून भी कहता है कि अगर नर और मादा शादी के बाद छः महीने तक शारीरिक रूप से न मिले तो वो शादी अवैध, वो शादी हुई ही नहीं।

लेकिन हमको सम्मान का पाखंड भी रखना है, तो हम फिर उसमें तीन पक्षों को शामिल करते हैं ताकि ये लगे कि ये हमने कोई पशु वाला काम नहीं किया है, ये हमने थोड़ा उच्च स्तर का काम करा है। कौनसी तीन पक्षों को शामिल करते हैं? धर्म, समाज और कानून।

धर्म का प्रतिनिधि बनकर कौन बैठता है?

श्रोतागण: पंडित।

आचार्य: समाज का प्रतिनिधि बनकर कौन होते हैं? सब रिश्तेदार, बराती। और कानून का प्रतिनिधि कौन बनता है? रजिस्ट्रार ऑफ मैरिजेज़ (विवाह का पंजीयक)। जहाँ आप जाकर के शादी की रजिस्ट्री (पंजीकरण) कराते हैं।

तो ये तीन को आप बैठा लेते हैं ताकि लगे कि जानवरों का काम नहीं है। पर वास्तव में काम वो जानवरों वाला ही है। और चूँकि हम ऐसे लोग हैं जिनकी चेतना देह से आच्छादित है, हम बॉडी आडेंटिफाइड (शरीर से तादात्म्य रखने वाले) लोग हैं इसलिए हमारी ज़िन्दगी में बड़े-से-बड़ा उत्सव 'विवाह उत्सव' है।

विज्ञान दिवस भी आता है, ज्ञान दिवस भी आता है, पर्यावरण दिवस भी आता है, जन्माष्टमी भी आती है। आप जितनी ऊँची-से-ऊँची बातें सोच सकते हैं सबके दिवस आते हैं, साक्षरता दिवस भी आता है। और बताइए कौन-कौन से अच्छे दिवस आते हैं, बोलिए न!

श्रोता: शहीद दिवस।

आचार्य: शहीद दिवस भी आता है, शिक्षक दिवस भी आता है। और?

श्रोता: योग दिवस।

आचार्य: योग दिवस भी आता है, युवा दिवस भी आता है, हिन्दी दिवस भी आता है। और?

श्रोता: बाल दिवस।

आचार्य: बाल दिवस भी आता है। और?

श्रोता: पर्यावरण दिवस।

आचार्य: पर्यावरण दिवस हमने कहा ही। मानवाधिकार दिवस आता है। और?

श्रोता: इंजीनियर्स डे (अभियन्ता दिवस)।

आचार्य: इंजीनियर्स डे आता है। और?

श्रोता: महिला दिवस।

आचार्य: महिला दिवस आता है। और?

श्रोता: अधिवक्ता दिवस।

आचार्य: अधिवक्ता दिवस। इतने दिवस आते हैं पर हमें इन सब दिवसों से कहीं-कहीं, कहीं-कहीं ज़्यादा ऊँचा लगता है 'विवाह दिवस'। और आप कोई दिवस भूल जाइए, अपनी श्रीमती जी के सामने एनिवर्सरी (सालगिरह) भूलकर दिखाइए! कोई दिवस और भूल जाइए, चलेगा। सबसे ऊँचा दिवस तो एक ही है न, 'विवाह दिवस'! क्योंकि उसमें हमारी सच्चाई प्रकट होकर नंगी नाची थी। दो शरीरों का मिलन होने जा रहा है और हम हैं तो शरीर ही। तो विवाह है — देहाभिमानी चेतना का उत्सव। क्या है? देहाभिमानी चेतना का उत्सव।

इसलिए पूरा भारत कर्ज़ा लेकर भी सही लेकिन 'आज मेरे यार की शादी है।' क्योंकि और तुम पैदा किसलिए हुए हो? तुम देह के मज़े मारने के लिए ही तो पैदा हुए हो और देह के मज़ों में बड़े-से-बड़ा मज़ा सेक्स का है। तो अब देखो, सेक्स वाला कार्यक्रम शुरू होने जा रहा है, 'आहाहा! आनन्द-ही-आनन्द!'

बिलकुल एकदम प्रदर्शनी की तरह लगाकर के वहाँ मंच पर बैठा दिया, 'देखो, वो है, दैट मेल दैट फीमेल, यू सी दैट टू?' (वह पुरुष, वह महिला, तुमने उन दोनों को देखा?) ऐसी ही बातें होती हैं। और आप जब वहाँ मंच पर चढ़ जाते हो तो क्या सोचते हो, नीचे वाले कह रहे हैं, 'वो जो वहाँ बैठे हुए हैं वो बड़े विद्वान पुरुष हैं'? (श्रोतागण हँसते हैं) 'और वो जो बगल में बैठी हुई हैं, लाल कपड़ों में बिलकुल एकदम फुलझड़ी समान, वो एकदम चैतन्य महिला हैं।' ऐसे आपके बारे में बात हो रही होती है? (श्रोतागण हँसते हैं)

आपको देखकर ही पता चल रहा होता है कि वहाँ आपकी नुमाइश क्यों लगायी गयी है। पर आपको नुमाइश लगवानी है, ज़रा सी भी डिग्निटी , गरिमा नहीं रखनी है। पन्द्रह-बीस लोफड़ यार होते हैं वो आएँगे, वो मंच पर चढ़ेंगे और वो सब नौटंकिया कर रहे हैं। परिभाषा नहीं पता न कि करने क्या जा रहे हो! जानते ही नहीं क्या कर रहे हो।

किसानों की मौतें होती हैं, हम किसानों की आत्महत्या की बात करते हैं। ये बात अभी मुश्किल से तीन-चार दिन हुए होंगे, कॉलेज के छात्रों से बात हो रही थी तो उसमें बोला था। किसानों की आत्महत्या में इस बात का तो चलिए योगदान रहता ही है कि उन्होंने भारी ब्याज़ पर कर्ज़ वगैरह उठा लिया। माइक्रो फाइनेंसिंग (एक प्रकार का छोटा ऋण) देहाती इलाकों में अभी तक भी उपलब्ध नहीं रहती है। माइक्रो फाइनेंसिंग माने छोटे कर्ज़े। छोटे कर्ज़े, वो भी आमतौर पर बिना किसी कोलैटरल (संपार्श्विक) वगैरह के।

तो जैसे मदर इंडिया में देखा था न, गाँव का सुक्खी लाला। तो उस तरीक़े के सुक्खी लाले अभी भी होते हैं गाँव में। तो जो बैंक्स अभी तक माइक्रो फाइनेंसिंग नहीं कर पाये है वो सुक्खी लाले करते हैं। और वो देते हैं महीने की दर पर। ठीक है? महीने की दर पर दो तो बहुत ज़्यादा लगता नहीं है। पर महीने की दर आपने, मान लीजिए, सवा प्रतिशत की भी रख दी या डेढ़ प्रतिशत की रख दी तो सोचिए कि वो कम्पाउंड (चक्रवृद्धि) होकर के साल में कितने की हो जाएगी।

श्रोता: अठारह की।

आचार्य: साल में अठारह की ही होगी? कंपाउंडिंग के बाद वो बढ़-बढ़कर, बढ़-बढ़कर चालीस-पैंतालीस प्रतिशत की हो जाती है, बाबा! इतनी बढ़ जाती है!

अब वो सीधा-सादा आदमी है। प्रेमचंद की एक कहानी है, वो आपने भी पढ़ी होगी, जिसमें एक पंडित जी होते हैं। पंडित जी से उसने दो मुट्ठी अनाज लिया होता है, बस। और उसके कारण वो मर जाता है तब भी नहीं पूरा होता। फिर उसका जो बेटा होता है वो भी बन्धुआ मज़दूर बन जाता है। कौनसी, कहानी का नाम क्या है?

श्रोता१: 'गोदान'।

आचार्य: नहीं।

श्रोता२: 'नमक का दारोगा'।

आचार्य: नहीं।

श्रोता३: 'दो मुट्ठी अनाज'।

आचार्य: यही है क्या, 'दो मुट्ठी अनाज'? यही नाम है? तो ऐसे चलता है। पंडित जी ने क्या किया कि पाँच-सात साल बताया ही नहीं कि इतना मैं अभी कर्ज़ा मान रहा हूँ। उसने क्या करा था कि उसने लिया था, उसको लगा, 'मैंने अनौपचारिक रूप से ले लिया है।' साथ में पंडित जी जब दक्षिणा माँगने आये तो थोड़ा ज़्यादा लौटा दिया। उसने कहा, 'अनौपचारिक रूप से पटा भी दिया।' लेकिन पंडित जी हिसाब रखकर बैठ गये थे और बोले कि नहीं दोगे तो बेटा, तुम नरक में जाओगे। नरक में तो सब पंडित लोग ही हैं, ब्राह्मण हमारे, तो वो तुमको छोड़ेंगे नहीं। तो वो डर गया।

तो ये जो किसान होते हैं, ये इन सब उत्सवों के लिए भी बहुत सारा कर्ज़ा उठाते हैं। वो सिर्फ़ बीज के लिए या पेस्टिसाइड (कीटनाशक) या फर्टिलाइजर (खाद) भर के लिए नहीं कर्ज़ा उठाकर फँसते। वो ऐसे भी उठाते हैं, कोई मर गया है उसकी तेरहवीं करनी है। और नहीं करेंगे तेरहवीं तो अन्धविश्वास है कि वो पितरों की आत्मा नर्क में फड़फड़ाएगी। तो बहुत सारा पैसा लेकर के फिर सबको खाना खिलाएगा और इस तरह की चीज़ें करेगा और दान-दक्षिणा करेगा।

और अगर लड़की है और लड़की तो होती है और बहुत सारी लड़कियाँ होती हैं। तो उनकी शादी करनी है और शादी करनी है तो उनको दहेज भी देना है। तो दहेज देने के लिए बाप कर्ज़ा उठाएगा। कर्ज़ा पटा नहीं पाएगा तो फिर आत्महत्या करेगा।

लेकिन यें बात हम करते नहीं क्योंकि हमारी संस्कृति के ख़िलाफ़ जाती है और आजकल जो सांस्कृतिक प्रोजेक्ट है वो इतना सफल हो गया है कि भारत अब संस्कृति के ही रंग में रंग चुका है बिलकुल। दहेज वगैरह क्या है, विवाह में अनाप-शनाप जो खर्चा है ये कितनी बड़ी कुप्रथा है, इसकी अब बात कोई करता भी नहीं है। ये सब अब स्वीकार्य है।

तो जो पूरी अर्थव्यवस्था है, उसमें ही एक तरह का डिस्टोर्शन (विरूपण) आ जाता है, क्योंकि ये जो वेडिंग (शादी) पर एक्सपेंडिचर (व्यय) हो रहा है, ये असल में एक नॉन वैल्यू एडिंग एक्सपेंडिचर (गैर मूल्यवर्द्धन व्यय) है। पहली बात तो ये इन्वेस्टमेंट (निवेश) नहीं हैं और एक्सपेंडिचर (व्यय) में भी ये जीरो वैल्यू एडिशन का एक्सपेंडेचर (शून्य मूल्यवर्द्धन का व्यय) है। आप खर्चा तो कर देते हो पर उससे कोई वैल्यू एडिशन (मूल्य-वर्धन) नहीं होता।

वैल्यू एडिशन (मूल्य-वर्धन) कब माना जाता है? जब आपने जो खर्चा करा, उससे आपकी खर्चा करने की क्षमता में वृद्धि हुई हो, माने आपकी कमाने की क्षमता में वृद्धि हुई हो। जब आप कोई ऐसा खर्चा करते हो, उदाहरण के लिए, मैं खाने पर खर्च करूँ तो उससे क्या होगा? तो जब एनर्जी आएगी तो मैं क्या कर पाऊँगा? मैं और कमा पाऊँगा। तो ये एक अच्छा एक्सपेंस (खर्चा) है। वैसे ही इन्वेस्टमेंट (निवेश) होते हैं जिन पर रिटर्न आता है।

जो सबसे घटिया क़िस्म का खर्चा हो सकता है, वो, वो है जो शादी-ब्याह पर किया जाता है। वो इन्वेस्टमेंट (निवेश) तो नहीं ही है, इवेन एज एन एक्सपेंस वो जीरो रिटर्नस का है* (यहाँ तक कि एक व्यय के रूप में भी जिसका रिटर्न शून्य है)। और उसकी वजह से बहुत सारी वेस्टफुल इंडस्ट्रीज (बेकार उद्योग) खड़ी हो गयी हैं, जैसे बैंकेट हॉल्स , जैसे कास्मेटिक्स (शृंगार प्रसाधन), जैसे जेम्स एंड ज्वैलरी (जवाहरात और आभूषण)।

इतना ही नहीं, जो एग्जिस्टिंग इंडस्ट्रीज (मौजूदा उद्योग) हैं उनका भी डिस्टॉरशन (विरूपण) हो गया है। आप इन दिनों में किसी ऑटोमेकर (वाहन निर्माता) के शोरूम (प्रदर्शनी हॉल) में चले जाइए, मान लीजिए आप टाटा के में चले जाएँ, जो ज़्यादा देशी वाले हैं, जैसे टाटा, मारुति, हुंडई इनमें जाकर पूछिएगा। आप पूछें कुछ भी कि वहाँ कोई गाड़ी खड़ी है, उसके बारे में। वो सेल्समेन (विक्रेता) सबसे पहले आपको पूछेगा, 'ये मैरिज केस है क्या? मैरिज केस है क्या?' माने दहेज में देनी है क्या? उनको भी पता है कि गाड़ियाँ ली ही जा रही हैं दहेज में देने के लिए। तो कौनसा वेहिकल (वाहन) प्रोड्यूस (उत्पाद) होगा, किस भाव बिकेगा, उसकी फाइनेंसिंग (वित्त व्यवस्था) किस तरह होगी, उसको भी ये विवाह व्यवस्था ने डिस्टॉर्ट (बिगाड़) कर रखा है।

अच्छे-अच्छे होटल्स बैंकेट हॉल में तब्दील हो गये हैं, मैं जहाँ जाकर बैठा करता हूँ जेपी में, वहाँ पिछले दो महीने से हालत ख़राब है मेरी। मैं कोने ढूँढा करता हूँ बैठने के लिए कि यहीं बैठूँगा, यहाँ पर अपनी चाय मँगा लेता हूँ, अपना किताब खोले, लिखा। और रोज़ वहाँ धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम!

वहाँ वो सब मुझे तो देखते हैं कि डिस्टर्ब (परेशान) हो रहा हूँ तो ख़ुद ही आकर बताते हैं। बोलते हैं, 'सबसे ज़्यादा आमदनी तो हमारी इन्हीं शादियों से होती है। हम इन्हें मना कैसे करें, सर? कुल ये जो रेस्ट्रो है, इनसे कोई आमदनी नहीं। जो रूम्स (कमरे) भी जाते हैं उनके टैरिफ (प्रशुल्क) से भी इतना कुछ नहीं। लेकिन जिस दिन शादी होती है उस दिन पूरा-का-पूरा रिसॉर्ट उठ जाता है, एक-एक कमरा बुक हो जाता है।' क्योंकि मूर्खों ने सारा-का-सारा पैसा बचाकर ही रखा होता है कि एक दिन, शादी के वो दो-तीन दिन में, जाकर के होटल वालों को दे आएँगे।

तो होटल वाले कैसे मना कर दें लेने से? बोले, 'हम नहीं लेंगे तो बगल का होटल ले लेगा। कोई तो ले ही लेगा। उससे अच्छा फिर हम ही ले लेते हैं। जब मूर्ख लोग खर्च करने को तैयार बैठे हैं तो हम लेने से कैसे इनकार कर दें?'

और ये मेरे साथ व्यक्तिगत तौर पर अब हो रही है, मतलब मुझे इसमें निजी रंजिश होती जा रही है। मैं गोवा गया, वहाँ पर यही था। वहाँ वो धमधमाके-धमधमाके शादी चल रही है और गाने उसमें चल रहे हैं उत्तर भारत के नब्बे के दशक के। मैंने कहा, 'मैं गोआ इसलिए आया था? तुम कुमार सानु के गाने सुन रहे मुझे यहाँ पर?'

और ये बड़ी विचित्र बात है! इनमें गाने सब नब्बे के दशक के ही क्यों चलते हैं! मतलब समझ रहे हो न? दिल से हम वही हैं, जिन लोगों के विचार अभी भी खुल नहीं पाये, जिनका मन अभी भी संकुचित है, जो आधुनिकता से अभी भी दूर हैं। इसीलिए गाने भी वही चलाने हैं। एक फ़िल्म आयी थी 'साजन', १९९१ – ९२ में। हो नहीं सकता कि शादी हो रही हो और उसके गाने न चले।

कोई वजह तो होगी न! मुझे तो हर चीज़ में कोई मनोवैज्ञानिक कारण नज़र आता है। मैं ढूँढने की कोशिश करता हूँ कि इसका कारण क्या है। उस दिन बस इतना होता है कि हमारी गँवरई सूट धारण कर लेती है। हर गँवार आदमी उस दिन सूट पहनकर घूम रहा होता है।

सत्रह दिन हो गये, मेरे कुछ पुराने ब्लेजर्स हैं, वो एक को दिये थे कि इसको ठीक कर दे। थोड़े छोटे कराने हैं, अभी कुछ कम हुआ होगा वज़न। वो आमतौर पर तीन दिन में कर देता है। पाँच तारीख को दिये थे, आज क्या तारीख है?

श्रोता: सत्ताईस।

आचार्य: वो दे नहीं रहा। और कल शुभंकर को बोलता है कि वो वापस ले जाइए, इतना सैलाब आ गया है शादियों के लिए कोट-पैंट का कि मैं इन पर क्या काम करूँ! ये तो इन्होंने तो बस एल्टरेशन (बदलाव) के लिए दिया है। इसमें पैसा नहीं है इतना। उसकी लड़ाई हो गयी। बोला, 'वापस भी ले जाऊँगा और दस हज़ार मुआवजा वसूलूँगा तुझसे।' शायद आज देगा, पता नहीं।

सबको यही है। तुम किस बात का उत्सव मना रहे हो? तुम्हें पता भी है कि तुम क्यों नाच रहे हो, क्यों गा रहे हो? तुम्हें कुछ भी पता है? वो जो घोड़ी है जिस पर वो चढ़ा हुआ है दूल्हा, वो एक प्रतीक है। तुमने कभी ग़ौर किया कि वो घोड़ी पर ही क्यों चढ़ता है? व्हाट डज़ इट मीन टू राइड दैट फीमेल? (उस महिला की सवारी करने का क्या अर्थ है?) और ये कितनी अश्लील बात है! तुमने कभी सोचना चाहा कि ये सिम्बल (प्रतीक) किस चीज़ का है? लेकिन नहीं।

अब तो ये है कि लड़की का भाई भी जाकर के घोड़ी के सामने नाच रहा है। वो जो घोड़ी है न, वो तेरी बहन है और घोड़ा बन कर ऊपर चढ़ा हुआ है वो। इतनी अश्लील चीज़! और उसका उत्सव मन रहा है क्योंकि ये तो है ही देहोत्सव। विवाह नहीं कहना चाहिए, क्या कहना चाहिए? देहोत्सव या पशुवोत्सव, पशुओं का उत्सव।

और ये जो इतना पैसा खर्च होता है जिसके लिए कर्ज़ की बात कर रहे हो, हर बन्दा अपना नफ़ा-नुक़सान तो देखता ही है न? तो लड़की का बाप भी देखता है। जब लड़की के बाप को पता है कि वेडिंग (शादी) में इतना खर्च करना है तो वो पैसा वह लड़की से काट-काटकर जमा करता है। वो पैसा लड़की की परवरिश पर भी खर्च हो सकता था। पर लड़की की परवरिश पर वह नहीं खर्च करेगा, कहेगा, 'देना तो है ही, दहेज में देना है और विवाह में खर्च होना है, कुल मिलाकर कम-से-कम डेढ़ सौ करोड़ का तो मामला है ही। तो अभी काहे को खर्च करूँ?'

कितने ही आपको ऐसे घर मिल जाएँगे जहाँ लड़के को पढ़ने के लिए दूर भेज दिया जाएगा। महँगा इंजीनियरिंग कॉलेज होगा, महँगा मेडिकल कॉलेज होगा उसमें भेज दिया जाएगा। लड़की को कहा जाएगा, 'तू यहाँ लोकल ही कहीं किसी कॉलेज में कुछ कर ले, क्योंकि तुझे बाहर भेज देंगे तो तुझ पर भी दस-बीस लाख का खर्चा आएगा। वो खर्चा मुझे बचाना है, भाई! तू तो बाहर जाएगी, पराया धन है। तुझ पर अभी से खर्च करूँगा तो दहेज कैसे दूँगा? और इतनी लम्बी शादी कैसे निपटाऊँगा?'

वो जो इकोनोमिक्स (अर्थव्यवस्था) ही थी, वो कल्चर (संस्कृति) बन गयी, फिर इसीलिए ये हो गया कि महान भारतीय नारी तो वो है जो सबको खिलाने के बाद अन्त में बच जाए तो कुछ खाती है। ये आप देख पा रहे हो? इस संस्कृति की जो रूट्स (जड़े) हैं वो इकॉनॉमिक्स (अर्थशास्त्र) में हैं। और वो जो इकोनॉमिक्स (अर्थशास्त्र) है, वो हमारी पशुता से आ रही है।

लड़की माने वो जिस पर नेट आउटफ्लो (शुद्ध बहिर्वाह) होना है और बहुत सारा आउटफ्लो (बहिर्वाह) होना है। 'ये किसी काम तो आनी नहीं है और बहुत सारे पैसे लेकर चली जाएगी। यहाँ तक कि इसको रवाना करने में भी बहुत सारे पैसे लगते हैं। जब जाएगी तो लेकर तो जाएगी वो अलग बात, रवाना करने के लिए भी इतना बड़ा आयोजन करना पड़ता है तब ये टरती है! धूम-धाम से बिलकुल शादी करो तब जाकर के ये रवाना होती है, नहीं तो रवाना भी न हो।' काहे को लड़की पर खर्च करो? क्यों उसकी शिक्षा पर खर्च करो?

और शिक्षा तो बहुत एकदम न्यूनतम बात होती है। मैं टेनिस पर वापस आता हूँ, आपको अगर टेनिस वाक़ई सीखना और अपने बच्चे को सिखाना है, ये कई लाख रुपये का निवेश है, कई लाख रुपये। कम-से-कम आठ से दस साल लगेंगे उसे ठीक-ठाक खिलाड़ी बनने में। और अगर उसका खेलने में मज़ा आने लग गया तो वैसे भी वो आठ-दस साल फिर खेलता ही जाएगा।

अगर आप दस साल अपने बच्चे को सिखा रहे हो टेनिस तो रैकेट-रैकेट में ही आपका लगभग एक लाख का खर्चा आ जाएगा। वो तीन हज़ार के रैकेट से शुरू करेगा और बीस हज़ार के रैकेट तक जाएगा और रैकेट एक-दो साल, तीन साल में बदलेगा। फिर गेंदें, गेंदों पर खर्चा होता है, महँगी आती है गेंदें। आप अपनी बेटी को क्यों टेनिस प्लेयर बनाना चाहोगे? वो सारा खर्चा तो आप करोगे बैंकेट हॉल में, टेनिस कोर्ट पर क्यों करो! होगी पापा की परी, पापा कहते हैं, 'परी तुझे बनाऊँगा, वो एक दिन। उससे पहले पड़ी रह।'

कोचिंग वाली चीज़ है, आपको आज प्रवेश मिलना मुश्किल हो जाए अगर आपने अच्छी कोचिंग नहीं ली है। कोचिंग भी अपनेआप में एक बड़ा डिस्टार्शन (विरूपण) है। लेकिन उसके कारण ये तो हो ही गया है कि एक ले रहा है कोचिंग और एक नहीं ले रहा है कोचिंग तो जो ले रहा है कोचिंग उसको एडवांटेज (फ़ायदा) मिलती है। और बहुत महँगी आती है। आप अपनी बिटिया को या तो कराओगे नहीं कोचिंग या कराओगे तो सस्ती वाली कराओगे। या महँगी वाली कराओगे तो छः महीने की कराओगे।

फिर हम कहते हैं कि लड़कियाँ एँट्रेंस (प्रवेश) वगैरह क्यों नहीं क्लीयर (निकाल) कर पातीं। क्योंकि भाई, हर चीज़ एक इकॉनोमिक इन्वेस्टमेंट (आर्थिक निवेश) माँगती है। और लड़कियों पर जो इनवेस्टमेंट (निवेश) होना चाहिए, वो होता है वेडिंग (शादी) के दिन, और कहीं नहीं होता। और भारी इन्वेस्टमेंट (निवेश) होता है। कितने का आता है वो जो (शादी का विशेष पोशाक) पहनती हैं? वो वेस्टफुल (अनावश्यक) है न? वो एक दिन पहनने पर कितने का आता है वो?

श्रोता: तीस-चालीस हज़ार का।

आचार्य: तीस-चालीस हज़ार का एक दिन पहनने के लिए। वो तीस-चालीस हज़ार में उस लड़की को आप और न जाने कुछ दे सकते थे, कहीं एडमिशन (प्रवेश) करा देते, कोई चीज़ खरीद कर दे देते या अच्छी किताबों का एक सेट दे सकते थे। पता नहीं क्या दे सकते थे। उसका बचपन सँवार सकते थे आप, उसकी जगह आप उसको वो बेकार की चीज़, वो चोला-चोली पहना रहे हो, क्या कर रहे हो! और गहने!

पचास हज़ार का, एक लाख का तो ब्राइडल मेकअप (दुल्हन का शृंगार) ही होता है। वो एक लाख उसके किसी और काम नहीं आ जाता? ये माइक्रो और मैक्रो (सूक्ष्म और स्थूल) दोनों लेवल पर इकोनॉमिक डिस्टार्शन (आर्थिक विकृति) है। कोई अर्थव्यवस्था तभी आगे बढ़ती है जब उसके संसाधनों का उपयोग सही दिशा में करा जाता है। अगर देश के जितने बाप हैं वो अपने संसाधन का उपयोग कर रहे हैं दहेज और देहोत्सव के लिए तो ये एक मेज़र इकॉनमिक डिस्टार्शन (प्रमुख आर्थिक विकृति) है। इससे पूरी अर्थव्यवस्था पीड़ित रहेगी।

और आगे इसको आप बढ़ाओगे तो आप समझ ही रहे होगे। फिर इसमें जोड़ लो, भ्रूण हत्या भी जोड़ लो। 'जब इस पर इतना खर्चा होना ही है तो इसे पैदा ही क्यों होने दो। कर्ज़ा ले-लेकर इस पर खर्च करना पड़ेगा। इसे पैदा ही क्यों होने दो, मार दो पैदा होने से पहले। बोझ है, पैदा होती है, परेशान करती है।'

जब तक हमारी संस्कृति में ये देहोत्सव एक बड़ी चीज़ रहेगी, समझ लीजिए, यह एक पशुओं का समाज हैं। छोटा था मैं डर जाया करता था ये इतना देखकर के और वो जो यूनिफॉर्म धारी (वर्दीधारी) चलते थे भारी-भारी बैंड बजाते हुए। मुझे पता नहीं था ये सब क्या है, पर मुझे इतना समझ में आता था कि कुछ बहुत भयानक हो रहा है और मैं डर जाता था। ये क्या कर रहे हो, क्यों कर रहे हो? फिर कोई रो रहा है, कोई नाच रहा है, ये कुछ समझ नहीं आ रहा क्या चल रहा है। बाहर वो लफंगे नाच रहे थे घोड़ी के सामने और उसके दो-चार घंटे बाद सब छाती पीट-पीटकर रोने लग गये विदाई के समय। खेल क्या है? माजरा क्या है? तब भी नहीं मुझे समझ में आया, अब भी नहीं समझ में आता।

नाम दे देते हो कि ये तो यहाँ आएँगे तो धार्मिक कुछ होगा। कौनसे ग्रन्थ में लिखा है कि इस तरीक़े का आडम्बर करना होता है? ये इतना सारा करना है, ये कहाँ लिखा है? एक आन्तरिक रूप से विकसित समाज की निशानी होगी कि स्त्री-पुरुष सम्बन्ध बहुत सहज हो जाएँगे। इस बात का ढोल नहीं पीटा जाएगा कि एक महिला और एक पुरुष साथ आ रहे हैं। आ रहे हैं तो आ रहे हैं, इसमें बड़ी बात क्या है!

बड़ी बातें दूसरी होती हैं, जब वो बड़ी बातें हो तब हम मनाएँगे उत्सव। एक आदमी, एक औरत निकट आ गये शारीरिक रूप से इसमें बड़ी बात क्या हो गयी? इसमें क्या उत्सव मनाना? उत्सव माने कुछ होना चाहिए भाई, उत्सव जैसा।

कृष्ण का जन्म हुआ है, हाँ, उत्सव वाली बात है। हम जन्माष्टमी मनाएँगे। बढ़िया, ऊँची बात है, हम मनाएँगे जन्माष्टमी। लेकिन एक आदमी, एक औरत अब जाकर के ये सम्भोग करेंगे, इसमें उत्सव मनाने की क्या बात है? छोड़ दो, उनको जाने दो, उनका मामला है। तुम क्यों इतने नाचे जा रहे हो? उत्सव की बात फिर ये हुआ करेगी कि हाँ, लड़की की चित्रकला में रुचि थी और बहुत सुन्दर चित्र बनाया है और बाप कहेगा, 'आज मैं दो लाख खर्च करके दूँगा बहुत बढ़िया पार्टी ! मेरी बेटी ने इतना बढ़िया चित्र बनाया है, इस पर दूँगा पार्टी । बुला रहा हूँ कम-से-कम तीन सौ लोगों को और आज होगी पार्टी !' ये हुई पार्टी की बात कुछ!

'बेटी को मेरे या बेटे को ऊँचाइयों से डर लगता था, घर की छत पर नहीं चढ़ते थे ये। पर आज ये जाकर के एक छोटी सी पहाड़ी थी पास में ही, ये गये और पूरा चोटी तक चढ़कर आये हैं ये दोनों या अकेले, अपने दम पर।' ये हुई उत्सव की बात! इस पर हम करेंगे न उत्सव! पर ऐसी बातों में हमें ख़याल ही नहीं आता न कि सेलिब्रेशन (उत्सव) इन चीज़ों का होना चाहिए? नहीं होना चाहिए? और बताता हूँ सेलिब्रेशन (उत्सव) किस बात का होना चाहिए। 'मेरी बेटी ने शादी से मना कर दिया। आज पूरा शहर आमन्त्रित है, आओ। क्योंकि ये कोई छोटी बात नहीं है। ये बहुत बड़ी बात है, आज दूँगा पार्टी।'

इन बातों में हमें ख़याल ही नहीं आता कि सेलिब्रेट दीज़ थिंग्स (इन चीज़ों का उत्सव मनाओ) क्योंकि हम चेतना के जीव नहीं हैं, हम देह के जीव हैं। तो देह सम्बन्धी कुछ हो जाता है तो हम बौरा जाते हैं, एकदम नाचने लग जाते हैं। और चेतना के जगत में जो चीज़ें होती हैं, उनको हम सम्मान ही नहीं दे पाते। एक नयी ज़िन्दगी जीना सीखिए। सवाल पूछिए अपने लिए और नयी धाराएँ तैयार करिए।

नुन्नु की मम्मी-डैडी आज नुन्नू को डोसा खिलाने ले गये हैं। क्यों? क्योंकि उसको डॉगी से बहुत डर लगता था लेकिन आज डॉगी भौंकता रहा और नुन्नु डरा नहीं, खड़ा रहा। डर रहा था, बिलकुल डर रहा था, काँपता रहा लेकिन हटा नहीं। ये हुई न सेलिब्रेशन (उत्सव) की बात! बर्थडे (जन्मदिन) थोड़े ही सेलिब्रेशन (उत्सव) की बात है। आज वो अपने सामने खड़े एक जानवर से डरा नहीं, इस बात पर सेलिब्रेशन (उत्सव) होगा, इस बात की पार्टी देंगे। बर्थडे (जन्मदिन) की पार्टी दे रहे हो बिना बात के, बर्थडे (जन्मदिवस) है पार्टी दे दी। वो सिर खुजा रहा है। पहले से ही पता है कि आ रहा है, मान लो कोई दिन है आठ अक्टूबर, आठ अक्टूबर को होती है हर बार, इस बार भी हो जाएगी, पनौती! क्या रखा है!

उत्सव तो हमेशा अप्रत्याशित होना चाहिए न?, स्पंटेनियस (स्वतःस्फूर्त) होना चाहिए, कुछ हुआ। कोई असली चीज़ हुई उसको हमने सेलिब्रेट किया। भाई, आज! आज कुछ हुआ है ज़बरदस्त! आज रात पार्टी है या अभी है। जो हो गया वही पार्टी है। इन चीज़ों पर पार्टियाँ करेंगे। बँधी-बँधाई चीज़ कि एक दिन आएगा, उस दिन पार्टी करेंगे, नहीं।

बहुत दिनों से सोच रहे थे वज़न कम करना है। आज नापा है और पाया कि चार किलो कम कर ही लिया, आज होगी पार्टी जिसमें चार किलो? (श्रोतागण हँसते हैं)

पर आशय समझ रहे हैं न? बात समझ में आ रही है?

अध्यात्म तो है ही इसलिए कि दिन-रात उत्सव मने, दिन-रात उत्सव हो। पर उत्सव के पीछे कोई वाजिब कारण होना चाहिए। ये कोई कारण नहीं है कि एक आदमी-औरत अब इकट्ठे रहेंगे तो इसलिए धूम-धड़ाका। ये कोई कारण नहीं है, बेकार की बात है। और वो भी आदमी-औरत कैसे इकट्ठे रहेंगे? पहले उनकी जात चेक (जाँच) की गयी, फिर कुंडली मिलायी गयी, फिर दहेज मिलाया गया, फिर सौ और चीज़ें मिलायी गयीं। तो ये कोई उत्सव की बात है, ये तो शर्म की और विषाद की बात है, इसमें क्या उत्सव करना है? तो कैलेंडर से बँधकर नहीं चलिए। नये रास्ते तोड़िए। ढर्रे, परम्पराएँ, परिपाटी इनसे ऐसे बँधे हैं, ये ग़ुलामी हो गयी न। अपने उत्सव ख़ुद निर्धारित करिए। और दुनिया को हैरत होती हो तो हो।

'आज एक दिन था जिस दिन मैं बहुत ग़लत निर्णय ले सकता था और बहुत सारी चीज़ें थीं भीतर, भारी एक आवेग था भीतर जो मुझे ग़लत निर्णय की ओर फेंक रहा था। पर मन टूटता रहा, पसीने छूटते रहे, काँपते रहे, भीतर से एकदम चूरा-चूरा हो गये, लेकिन सही जगह से हिले नहीं।' इसकी वर्षगाँठ मनाएँगे न हम! इस दिन को याद रखना चाहते हैं। इसकी एनिवरसरी (सालगिरह) होगी सेलिब्रेट , हर साल होगी। ये दिन याद रखने लायक़ है, 'इस दिन मैंने अपनी हार को जीत में तब्दील किया था। इसकी वर्षगाँठ मनाऊँगा, ज़रूर मनाऊँगा।' ये हुई *एनिवर्सिरी*। और हम सबकी ज़िन्दगियों में ऐसे दिन आते हैं न, जब हार ही गये थे लगभग, लेकिन किसी तरीक़े से डटे रहे और हार टाल दी, करा होगा न कभी? हाँ, तो वो तारीख क्यों नहीं याद आपको? वो तारीख होती है याद रखने लायक़।

प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। जैसे अभी आपने कहा कि ये हमारी पाशविकता है लेकिन हम इसको सामाजिक, धार्मिक रंग दे देते हैं। मैंने कई जगह ये पाया जैसे ये जो शादियाँ होती हैं ये जब सिख धर्म के अनुसार होती हैं तो उसमें एक 'आनन्द कारज' उसको बोलते हैं। जब मैंने उसको थोड़ा ग़ौर से सुना, वो भी मैं आपकी शिक्षाओं से ही थोड़ा प्रेरित होकर हर तरफ़ थोड़ा सा ध्यान भी जाता है, ग़ौर से सुना तो उसमें वो जो मुझे महसूस हुआ कि वो अहम् का आत्मा से मिलन वाला वो था। और वो वही नाम दे देते हैं लड़के और लड़की के शारीरिक मिलन का। तो मुझे वो बड़ा अजीब सा लगा कि हमने उसको भी कितने नीचे स्तर पर गिरा दिया है!

आचार्य: ये तो हम करते ही हैं। देखिए, हमें धर्म ही तो इंसान को जानवर से बेहतर बनाता है न, नहीं तो हम इंसान कहाँ हैं! पैदा होने से कोई इंसान तो नहीं हो जाता। कितनी बार हम ये बात कर चुके हैं, पैदा तो जानवर ही होता है। धर्म इसलिए है ताकि हम जानवर न रहें, लेकिन ये जानवर जो है इतना ढीठ होता है कि ये धर्म द्वारा मनुष्य बनने की जगह धर्म को ही अपना चारा बना लेता है। आप कल्पना करिए एक जानवर है, वो धर्म को चर रहा है। वैसे कहा जाता है, "धर्मम् चर।" उसका अर्थ होता है – धर्मोचित आचरण करो। पर हमें तो कुछ पता नहीं, तो हमने धर्म को ही चर लिया।

तो हम फिर अब अहम् और आत्मा का भी मिलन हो तो उसको ऐसे दिखा देंगे कि वो स्त्री शरीर और पुरुष शरीर का मिलन चल रहा है। ऐसा थोड़े ही होता है! अब ऐसे तो सन्तों ने इतने मीठे-मीठे गीत गाये हैं जिनमें सबमें आपको यही लगेगा कि ये कोई स्त्री किसी पुरुष के लिए गा रही है। लेकिन जानने वाले जानते हैं कि ये बहुत प्रत्यक्ष बात है कि वो गीत मन गा रहा है मुक्ति के लिए, वो कोई स्त्री नहीं गा रही है, वो पुरुष के लिए नहीं है। पुरुष माने देही पुरुष के लिए नहीं है।

किसको याद है? संजय (एक स्वयंसेवक) को याद होगा।

संजय जी: 'आयी गवनवा की सारी'?

आचार्य: अरे शाबाश! ये सुनाओ।

अभी आप सुनेंगे तो आपको लगेगा इतना मीठा है, इतना प्यारा है।

संजय जी: पूरा याद नहीं है।

आचार्य: जितना याद है, दो लाइन सुना दो बस (आचार्य जी स्वयं गीत का धुन गुनगुनाते हैं)। वैसे ही फ़िल्मी गीत भी हैं कुछ, वो सब सुने ही हुए हैं न आपने, जैसे "लागा चुनरी में दाग़" हो गया, इस तरह के। वो सब प्रतीक हैं, वहाँ पर स्त्री और पुरुष दोनों प्रतीक हैं। पुरुष माने मुक्ति, स्त्री माने मन। तो उसको हम विवाह में गाने लग जाएँ, ये बात बड़ी विकृति की है, नहीं करनी चाहिए।

संजय जी: "आयी गवनवा की सारी उमरी, अब ही मोरी बारी। आयी गवनवा की सारी उमरी, अब ही मोरी बारी। साज समाज पिया ले आये, आयी गवनवा की सारी उमरी अब ही मोरी बारी।"

आचार्य: ये इतना अच्छा है, मैं चाहूँगा तुम कल इसको पूरा गाकर सुनाना सबको। मैं इसको सुनता हूँ जितनी बार उतनी बार हो नहीं सकता कि आँसू न झरने लगे।

अब वो क्या कहना चाह रहे हैं और हम क्या समझ लेते हैं! वो कह रहे हैं, 'गमन की साड़ी, विदाई की साड़ी आ गयी है, विदाई की साड़ी से उनका आशय है यहाँ पर 'गेरुआ रंग'। समझ रहे हैं? कि मन संसार से विदाई ले रहा है और पिया आ गये हैं मुझे ले जाने के लिए। पिया माने निर्गुण रूप में कह दो तो आत्मा, सगुण में कह दो तो गुरु। तो ये आ गये हैं। लेकिन जिस तरह से उन्होंने — कबीर साहब का है, और किसका होगा — तो जिस तरह से उन्होंने लिखा है इतना मर्मस्पर्शी है और इतना उन्होंने समझाया भी कि देखो, तुमको मिलन किसी पुरुष से नहीं करना है, तुम्हें मिलन किसी स्त्री से नहीं करना है, तुम इसलिए नहीं पैदा हुए हो कि तुमने पति को परमेश्वर बना लिया या पत्नी को देवी बना लिया। ये नहीं है तुम्हारी ज़िन्दगी का लक्ष्य।

तो जो भक्तिमार्ग के सन्त हैं, उनसे पूछोगे तो कहेंगे, 'एक ही पिया होता है, एक ही पिया। कौनसा पिया है वो? वो (उँगली से ऊपर की ओर इशारा करते हुए)। ठीक है? उसके अलावा कोई नहीं पिया होता। और सूफ़ियों ने थोड़ा सा उसको और अलग तरीक़े से कह दिया। उसको वो कहते हैं, 'वो प्रेमिका है मेरी, वो प्रेमिका है।' तो प्रेमिका भी एक ही होती है और प्रेमी भी एक ही होता है। और उसको सत्य कहते हैं, मुक्ति कहते हैं। अब अपने लिए आप जो भी आपका पसन्दीदा शब्द है चुन लीजिए। बाक़ी ये जो हम ज़मीन पर आदमी-औरत का खेल खेलते हैं, ये ठीक है, शारीरिक आवश्यकता है तो चलता रहता है, उससे ज़्यादा इसका कोई नहीं महत्व है।

आपको अगर जोड़ा बनाना भी है तो याद रखिए कि वो जोड़ा बस एक दैहिक ज़रूरत है। उसमें उससे अधिक कोई महत्व नहीं है। चूँकि महत्व नहीं है तो फिर उत्सव भी क्यों होना चाहिए, भाई? आपकी जो असली ज़रूरत है वो ऊपर वाले की है (ऊपर की ओर संकेत करते हुए)। वो वाली ज़रूरत है या जो अन्दर वाला है, आत्मा, वो ज़रूरत है आपकी। तो उत्सव होगा तो उससे मिलन का होगा।

ये बाहर जो आदमी-औरत का चलता है ये ऐसे ही है, सतही चीज़ है। इससे मना नहीं कर रहे, इनकार नहीं कर रहे हैं कि किसी आदमी, किसी औरत को देखो नहीं, छूओ नहीं। कर लो, तुम्हें जोड़ा बनाना है बना लो, लेकिन उसका इतना बड़ा उत्सव काहे के लिए? छोटी सी चीज़ है, उसका क्या महत्व इतना!

और जो है न "साज समाज पिया ले आये", वो किस चीज़ को बोल रहे हैं जानते हो? तीन अर्थ हैं, जिसमें से एक अर्थ मृत्यु का भी है। तो "साज समाज पिया ले आये" माने उसमें एक अर्थ ये भी है कि अर्थी आ गयी है। और एक अर्थ ये भी है कि दीक्षा के समय पर जो चीज़ें होती हैं, पिया वो लेकर के आ गये हैं। तो तीनों तल के अर्थ हैं इसमें। बिलकुल एकदम ज़मीनी अर्थ कि शादी हो रही है, फिर ऊपर का अर्थ कि मृत्यु हो गयी है और सबसे ऊँचा अर्थ की मुक्ति हो गयी है।

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