सीधे सवाल पहले, गहरी बातें बाद में || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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सीधे सवाल पहले, गहरी बातें बाद में || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी! आचार्य जी, एक सिचुएशन है। जैसे बाहर कुछ हो रहा है दुख-सुख और वो मेरे पर घट रहा है और पीछे से कोई देख रहा है।और फिर उसको मैं जानना चाह रही हूँ कि वो कौन है। फिर जैसे ही मैं कोई भी चीज़ देख रही हूँ, पहले मैं चाँद देख रही थी, अब वो मुझे मेरी तरफ़ लेकर आता है कि ये कौन देख रहा है। फिर उसके बाद ये कौन जानना चाह रहा है। फिर अगर मैं बुक भी पढ़ रही हूँ तो ये कौन बुक पढ़ रहा है, ये कौन समझना चाह रहा है तो अब सारी सिचुएशन जो है वो ऐसे मेरे पर आ रही है और ये दिन पर दिन, दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है।

आचार्य प्रशांत: अगर ये नहीं समझ में आ रहा है कि कौन देख रहा है, कौन पढ़ रहा है वगैरह-वगैरह तो ये सवाल छोड़िए, ये पूछ लीजिए कि मैं ये क्यों कर रही हूँ। करने वाली, पढ़ने वाली मैं ही हूँ, मैं ये जो भी कुछ अभी कर रही हूँ इसमें मेरा इरादा क्या है। ठीक है? चीज़ों को जितना स्पष्ट, साफ़, सीधा रखा जाए अच्छा है।

द्रष्टा कौन है इत्यादि-इत्यादि ये बार-बार पूछना उलझा सकता है तो यही कह दीजिए मैं हूँ द्रष्टा। कर्ता कौन है? मैं हूँ कर्ता और कोई है भी नहीं। श्रोता कौन है? मैं हूँ श्रोता। जवाब मिल गया।

अब अगला सवाल ये होगा कि मैं जो सुन रही हूँ मैं वही क्यों सुन रही हूँ? मैं जो कर रही हूँ मैं वही क्यों कर रही हूँ? जो देखा उसी को क्यों देखा? जो अभी करने का निर्णय लिया उसमें और भी कुछ हो सकता था, कई विकल्प थे, यही चीज़ क्यों चुनी? सुना ये भी जा सकता था, सुना वो भी जा सकता था, सोचा ये भी जा सकता था, सोचा वो भी जा सकता था। किस आधार पर चुनाव हो रहा है, किस आधार पर विकल्पों का निर्णय हो रहा है? ये पूछ लीजिए। ठीक है?

हुआ क्या है कि मैं कौन हूँ? ये कौन है? वो कौन है? ये प्रश्न इतने शास्त्रीय हैं, इतने क्लासिकल हैं कि इनके साथ एक आभा जुड़ गई है, एक व्यर्थ का रहस्यवाद जुड़ गया है। रहस्यवाद ‘मिस्टिसिज़्म’ अपनेआप में बहुत अच्छी चीज़ है लेकिन जब रहस्य ‘रहस्य’ रहने के लिए ही रहस्य हो तो फिर कोई फ़ायदा नहीं न? इरादा ही नहीं है कुछ जानने का इसके लिए मैं घोषित कर दूँ कि ये तो चीज़ ही रहस्यमई है तो अपने खिलाफ़ मैं धोखा कर रहा हूँ न?

जिसको आसानी से एकदम सीधे-सीधे जाना जा सकता हो उसको मैं मिस्टिकल घोषित कर दूँ तो ये मैं क्या कर रहा हूँ? जानने के खिलाफ़ षड्यन्त्र हुआ न ये! भाई, आपका किसी चीज़ के प्रति रुझान हो जाता है और रुझान से ही सब आता है, श्रवण, मनन, चिन्तन, अवलोकन आप जो कर रहे हो, वो आता तो कामना से ही है, कामना कभी स्पष्ट होती है और कभी पीछे होती है दबी-छुपी पर जो भी हम करते हैं उसके पीछे कामना होती ज़रूर है।

अब जानना ही नहीं चाहते कि वो कामना है क्या? तो हम क्या देते हैं कि ये जो मैं कर रहा हूँ वो किसी रहस्यमय स्रोत से आ रहा है। उसके पीछे कोई मिस्टिकल इनस्पिरेशन है। मिस्टिकल क्या है? कामना है। कामना में क्या मिस्टिसिज़्म और फिर हम ये कर सकते हैं कि किसी ग्रन्थ का, किसी शास्त्र का कोई श्लोक उदृत कर दें, जिसमें हो कि आत्मा को जाना नहीं जा सकता, सत्य अज्ञेय या प्रमेय होता है।

अरे! आत्मा को नहीं जाना जा सकता, सत्य अज्ञेय होता है लेकिन हम जो कुछ कर रहे होते हैं उसमें आत्मिक कितना होता है, वो थोड़े ही सत्य है उसको तो जाना जा सकता है न! तो उसको आप क्यों बिलकुल ऐसे अभी वर्णन कर रही हैं जैसे पता नहीं कितनी खुफ़िया बात हो। जैसे किसी अज्ञात, अगाध गुफ़ा में आपने प्रवेश कर लिया हो, जहाँ कुछ दिखाई नहीं दे रहा।, अन्धेरा है प्रकाश की सम्भावना नहीं और आप कह रहे हैं क्या है यह? क्यों है यह?

जो कुछ है बहुत सीधा-सादा है। हम और दिन भर क्या करते हैं? कभी टॉफी खा ली, कभी कपड़ा पहन लिया, कभी रुपया कमा लिया, कभी रुपया खर्च कर दिया, यही तो करते हैं? इसमें मिस्टिकल क्या है? इसमें ऐसा क्या है कि मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि कर्ता कौन है? श्रोता कौन है? द्रष्टा कौन है? कौन है? आपको नहीं पता कौन है? कौन है? आप हो, आपकी कामनाएँ हैं।

लेकिन आप गौर करिएगा जहाँ कहीं भी हम अपने मनसूबे छुपाना चाहते हैं वहाँ हम बीच में कोई खुफ़िया चीज़ ले आते हैं, उदाहरण के लिए, आप किसी के प्रेम में पड़ गए, अब प्रेम में क्यों पड़ते हैं? सबको पता है क्यों पड़ते हैं। लेकिन न तो आप खुद को ज़ाहिर करना चाहते कि ये जो आप प्रेम में पड़े हैं इसकी असलियत क्या है, न आप किसी और को बताना चाहते हैं तो कोई आकर आपसे पूछता है कि ये क्या हुआ? भाई, तुम्हें फलाने से इश्क कैसे हो गया? तो आप कहते हैं, ‘न जाने, न जाने क्या बात है? न जाने?’ अरे! न जानने की बात क्या है? बात बहुत सीधी-सीधी है, कामना है और क्या है।

तो व्यर्थ ही मिस्टीफाई मत करिए ऐसी चीज़ों को जो पूरे तरीके से भौतिक हैं, प्राकृतिक हैं, प्रकट हैं और स्पष्ट हैं और इस शब्द से ज़रा बच के रहिएगा। कौन सा शब्द? अज्ञात। कोई बोले, ‘पता नहीं क्यों? न जाने क्या हुआ जो तुमने छू लिया, खिला गुलाब की तरह मेरा बदन।’ तुम्हें नहीं पता क्या हुआ? न जाने क्या हुआ, माने क्या? कौन सी ऐसी इसमें रहस्यमई बात है ‘तिलिस्मी’।

कीड़े-मकोड़ों को भी पता है, पक्षियों को भी पता है, पूरी प्रकृति वही कर रही है और तुम कह रहे हो, ‘न जाने क्या हुआ?’ आधे फिल्मी गीतों में ये ज़रूर होता है, न जाने। जब भी ये ‘न जाने’ कहा जा रहा हो तो समझ लो सब जानता है, सब जानता है लेकिन बेईमान हैं तो मानना नहीं चाहता कि जानता है। तो ऐसा कहेगा कि अरे! पता नहीं कौन सी गहरी बात है? दो-चार जासूस लगाए जाएँ तो पता चले, फिर जासूस भी नहीं पता चलता। बात को समझ रहे हैं? और हम इसका बहुत नाजायज़ फ़ायदा उठाते हैं अपनी ज़िन्दगी में। मैं नहीं कह रहा, ‘आप उठा रही हैं, दोषारोपण नहीं कर रहा हूँ।‘

एक सार्वजनिक बात कर रहा हूँ। क्या नाजायज़ फायदा उठाते हैं? आपको कुछ करना है, कारण आप जानते हैं और कारण अच्छा नहीं है तो आप कह देते हैं ‘ये तो मेरी एक अनरीज़नेबल अर्ज है।‘ इसमें रीज़न नहीं चलता। तो जानते-बूझते रीज़न को, कारण को दफ़न करने का हमने ये खूब तरीका निकाला है कि जब भी कोई ऐसी चीज़ हो जिस का रीज़न बहुत घटिया हो तो कह दो वो अनरीज़नेबल है। अनरीज़नेबल समझ रहे हो न? कोई कह दे, ‘एक अनरीज़नेबल लव है, एक अनरीज़नेबल डिज़ायर है।’ अरे! उसमें बात ये नहीं है कि इट इज़ नॉट रीज़नड या उसका कोई रीज़न है नहीं, कारण है नहीं। कारण है, बस कारण ऐसा है कि तुम बोल भी नहीं सकते मुँह से, गाली की तरह है वो कारण तो इसीलिए स्वीकार नहीं करना चाहते।

और अध्यात्म में तो ये बहुत होता है। जो भी आपको मिले जो बोले, ‘अरे! फ़लानी चीज़ इस बियॉन्ड रीज़न।’ तो समझ लो जिस भी चीज़ की बात कर रहा वो बहुत घटिया चीज़ है। और उसका रीज़न अगर मुँह से बोल दिया तो शर्म आ जाएगी इसलिए क्या कह रहा है, कि ये चीज़ तो अकारण हैया कारण के अतीत है। अकारण नहीं है, कारण है, बिलकुल कारण है और बहुत सीधा-सादा कारण है। सड़क पर चलते पशु भी उस कारण को जानते हैं। बस आपकी नैतिकता आपको उस कारण को स्वीकार नहीं करने दे रही।

बात समझ में आ रही है?

सत्य के अलावा सब कुछ जाना जा सकता है। तो बहुत जल्दी से घोषित मत कर दिया करिए कि फ़लानी चीज़ तो जानी ही नहीं जा सकती। लोग आते हैं कहते हैं, ‘अरे! स्त्री मन, नारी चरित्र इन्हें कौन समझ पाया आज तक, देवता भी हार गए।’ सत्य के अलावा बेटा सब समझा जा सकता है। मनुष्य ही है स्त्री। वहाँ ऐसा कौन सा राज़ है जो तुम्हें समझ में नहीं आ रहा? हाँ, समझने के लिए जो समझदारी चाहिए वो आपके पास न हो तो कुछ समझ में नहीं आएगा। ये सब बातें सुनी है कि नहीं सुनी है? ये सब बातें समझदारी की नहीं है।

तो बस ये पूछ लिया करिए जो पढ़ रहे हैं क्यों पढ़ा? इतनी किताबें थीं यही क्यों चुनी? जिसके साथ बैठे उसी के साथ काहे को? इतने लोग थे कहीं और भी हो सकते थे। जो काम कर रहे हैं वही क्यों चुना? कामना क्या है, वहाँ ऊँगली रखिए। हो सकता है अच्छा न लगे लेकिन सच उद्घाटित तो होगा। सच हमेशा अच्छा होता है भले अच्छा लगे चाहे न लगे। ठीक है?

और मिस्टिसिज़्म से बचिएगा। कोई आकर अगर आपको बोल रहा है कि फ़लानी चीज़ बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकती तो ये जान लीजिएगा कि वो बखूबी जानता है कि वो चीज़ क्या है बस वो ये नहीं चाहता कि आप अपनी बुद्धि लगाकर उस चीज़ को समझ लें। आपने अगर समझ लिया तो उसका कुछ नुकसान हो जाना है।

जैसे कोई ठग हो, कोई व्यापारी हो वो आपको कोई माल बेचना चाहता है और वो कह रहा है कि ये जो चीज़ है, मान लीजिए वो आपके पास एक ‘दीया’ लेकर आया है और वो कह रहा है कि इस दिए से सूर्य सा प्रकाश निकलेगा। और आप कह रहे हैं, ‘पर ये छोटा सा दीया है, इसमें से सूरज की रोशनी कैसे निकल आएगी, ईंधन कहाँ है इतना इसमें? सामर्थ्य कहाँ है इतनी? तेल डाल रखा है तुमने, मैं तेल की कैलोरिफिक वैल्यू ही जानता हूँ और ये बाती है, इसमें से तुम सूरज सा प्रकाश कैसे पैदा कर दोगे?’ तो वो तुमसे क्या बोल रहा है, ‘देखिए, हर बात में तर्क नहीं लगाते, समथिंग्स आर बियॉन्ड लॉजिक, बियॉन्ड रीज़न बियॉन्ड इंटेलेक्ट।’ ये ठग खड़ा है सामने। जो भी व्यक्ति आप से कहे कि अपनी बुद्धि को एक तरफ़ रख दो वो आपको पशु बनाना चाहता है। आपने एक बार अपनी बुद्धि किनारे रखी कि अब वो आपको जानवर बनाकर खूब लूटेगा, जानवर में नहीं होती बुद्धि।

अध्यात्म का रास्ता बुद्धि को किनारे रखकर नहीं जाता, बुद्धि के रास्ते पर पूरा चलकर के जाता है। इंटेलेक्ट को रिजेक्ट या सस्पेंड नहीं करना होता, इंटेलेक्ट को कंज़्यूम, एग्जॉस्ट करना होता है। इन दोनों बातों का अन्तर समझ लो।

आपको किसी जगह पहुँचना है। आपके पास एक गाड़ी है। गाड़ी में क्या है? ईंधन, फ्यूल, तेल। ठीक है। एक व्यक्ति आपसे कह रहा है कि मंज़िल पर पहुँचने के लिए पूरा तेल जलाना होगा, एग्जॉस्ट करना होगा, कंज्यूम करना होगा। ये आदमी बात सही कह रहा होगा, गाड़ी चलाओगे, पूरा तेल जलाओगे, एक बिन्दु आएगा जब एक बून्द भी ईंधन न बचा होगा शायद उस बिन्दु पर मंज़िल मिल जाए क्योंकि बहुत लम्बी यात्रा करी है। ये एक बात है और इससे बिलकुल दूसरी बात क्या है?

एकदम विपरीत बात क्या है? कि देखो ये जो गाड़ी है न इसका सारा ईंधन गिरा दो, सारा तेल बहा दो क्योंकि जब हम सत्य पर पहुँचते हैं तो वहाँ तो बुद्धि बचती नहीं। ये तो बात ठीक है कि वहाँ पर बुद्धि बचती नहीं, तर्क बचता नहीं पर वहाँ बुद्धि और तर्क क्यों नहीं बचते? क्योंकि तेल जल चुका होता है, तेल को जलाना है, बहाना नहीं है। इन दोनों बातों का अन्तर साफ़-साफ़ समझ में आ रहा है?

बुद्धि का पूरा-पूरा प्रयोग कर लिया उसके बाद कहिए कि अब मैं वहाँ पर आ गया हूँ जिसके आगे बुद्धि साथ नहीं देती पर बुद्धि का आप प्रयोग करें ही नहीं, तर्क आज़माएँ ही नहीं, सोचे ही नहीं, विचारे ही नहीं और कहें कि अरे! अध्यात्म में विचार का क्या स्थान? तर्क से क्या लेना-देना? तो ये बात मूर्खता की है, आपकी तरफ़ से और पाखंड की है उसकी तरफ़ से जिसने आपको ये सब सिखाया हो। ये बहुत चलता है। खैर ये आचार्य जी लॉजिक ज़्यादा लगाते हैं।

अरबों प्राणी हैं इस पृथ्वी पर जो लॉजिक बिलकुल नहीं लगाते। उनके नाम नहीं होते, उनकी प्रजातियाँ होती हैं। है न? उनके नाम होते भी हैं तो तब जब वो मनुष्यों के सम्पर्क में आते हैं। कैसे? टॉमी, डुग्गू, शेरा। उनके पास नहीं होता लॉजिक। वो बनना है? कुकुर बन के सत्य को पा जाओगे? ये किसने सिखा दिया।

समझ में आ रही है बात?

ये बात बिलकुल ठीक है कि बुद्धि की सीमा के पार है असीम लेकिन तुम्हें पहले सीमा तक पहुँचना तो होगा, उस तेल का उपयोग करो, उस ईंधन का उपयोग करो, सीमा तक पहुँचने के लिए। ये थोड़ी है कि जहाँ बैठे हो वहीं बैठे हो, तेल सारा बहा दिया और कहा ‘देखो, अब मेरे पास बुद्धि बची नहीं तो मुझे असीम प्राप्त हो गया।’ आप समझ रहे हैं न?

आपको यहाँ से जाना है वहाँ देहरादून जाना है, लखनऊ जाना है कहीं जाना है। आपके पास गाड़ी खड़ी है, आपने उसका सारा फ्यूल बहा दिया। कहा, ‘देखो, फ्यूल सारा खर्च हो गया, इसका मतलब मैं लखनऊ पहुँच गया।’ ये क्या है? बुद्धि के बिना बोध नहीं मिलेगा। बोध बुद्धि से आगे ज़रूर है पर बुद्धि के बिना नहीं मिलेगा।

सत्य किसी प्रश्न के उत्तर में निहित नहीं है पर प्रश्नोत्तर के बिना भी सत्य नहीं मिलेगा। सत्य शब्दों में नहीं समा सकता पर शब्दों के सदुपयोग के बिना भी सत्य नहीं मिलेगा। शब्दों से ऊँचा है मौन लेकिन शब्दों का सार्थक उपयोग किए बिना मौन तक नहीं पहुँच पाओगे। तो ये नहीं कि बातचीत हो रही हो तो कहो, ‘अरे! आप तो बातचीत ही करते रह गए। हम तो मौन हो गए और हमें मिल गया।’ ये आत्मप्रवंचना है, खुद को झाँसा दे रहे हैं हम। स्पष्ट हो रही है बात। तो खेल एकदम सीधा रखना है। कुछ कर रहे हो तो पूछ लो चाहते क्या हो? कामना क्या है?

इतना ही सीधा है खेल बिलकुल और इसमें ज़्यादा कुछ जटिलता है ही नहीं।

हम लगभग पशुवत व्यवहार करते हैं आमतौर पर, वहाँ सीधे-सीधे कामना होती है और कामना से कर्म होता है तो इतना क्यों जटिल बना रहे हो बात को? सीधे पूछ लो क्या चाहते हो भाई? क्या चाहते हो? किधर को भागे जा रहे हो? किधर को झुकाव हो रहा है? कुछ पाना है, कुछ गँवाना है, कोई नया अभियान शुरू कर रहे हो? बस थम कर अपनेआप से ईमानदारी से पूछ लिया करो क्या चाहते हो? कोहम् प्रश्न का यही उत्तर है, क्या चाहते हो? क्या चाहते हो अगर पता चल गया तो मैं कौन हूँ का उत्तर मिल गया।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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