सत्य समझ में क्यों नहीं आता? || आचार्य प्रशांत, श्रीरामचरितमानस पर (2017)

Acharya Prashant

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सत्य समझ में क्यों नहीं आता? || आचार्य प्रशांत, श्रीरामचरितमानस पर (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं ध्यान नहीं करती। आँखें तो बंद हैं ही, और बंद करके क्या फ़ायदा? कोई साधना भी नहीं करती। साधना और साध्य यदि दो हैं तो गोल-गोल चक्कर काटने से क्या फ़ायदा? बस सत्संग देखना-सुनना, साहित्य पढ़ना, राम कथा, भागवत कथा भाव से सुनना-देखना—इन सब में शांति और सुकून मिलता है। फिर भी कुछ बचा है, ऐसा लगातार महसूस होता रहता है।

ये प्यास बुझते रहने में नहीं है बल्कि और बढ़ते रहने में ही इसकी वास्तविकता है, फिर भी दिल में कुछ अजीब-सी चुभन है, जो चुभन तो देती है पर सुनते-सुनते जब कभी भाव में आँखें भीग जाती हैं तो सुकून भी देती है। समझ नहीं आता कि ये सब क्या है।

आचार्य प्रशांत: स्वयं को सुंदर नाम दिया है इन्होंने, असीम अज्ञात।

असीम को पाने की ख़ातिर उतावले तो हम सब हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि जो कुछ सीमित है वो चुक जाएगा, चुक जाता है, और पूर्ण मौज, पूरी सुरक्षा, अनंत आनंद नहीं दे पाता। तो भला ही करती हैं आप कि ध्यान नहीं करतीं, ध्यान का समय चुक जाना है। ठीक ही है कि साधना की विधियों से आपका कोई सरोकार नहीं, हर विधि आपको एक बिन्दु पर लाकर छोड़ देगी। कुछ ऐसा चाहिए आपको जो ऐसा भरपूर हो कि चुकता ही न हो। जो आपको जगह ही न दे बेचैन भी हो पाने की, घेर ले चारों तरफ़ से—ऊपर से, नीचे से, अंदर से, बाहर से—राई भर भी जगह न बचे आपके लिए। बेचैनी दस्तक भी दे तो पाँव रखने की जगह न पाए। हर तरफ़ तो पूर्णता है, बेचैनी को रखूँ कहाँ? अवकाश कहाँ है? समय कहाँ है? कहाँ है स्थान? तो ज़ाहिर-सी बात है, असीम चाहिए।

असीम तक मामला ठीक है। अज्ञात को क्यों भूलती हैं? नाम कितना सुंदर है, असीम अज्ञात। अज्ञात पर भी तो गौर करिए। पूछ रही हैं आप, "समझ में नहीं आता।" एक तरफ़ तो कहती हैं 'अज्ञात' और फिर कहती हैं कि 'समझ में आना चाहिए', गड़बड़ हो गयी न। बहुत मूल गड़बड़ हो गयी न। सब अच्छा-अच्छा ही होता है आपके साथ, कहती हैं, "भाव उठ आता है, आँखें छलछला जाती हैं, सुकून मिलता है, शांति मिलती है।" और जितनी बार आप उस सबका वर्णन कर रही हैं, उसके साथ आप एक पुच्छला जोड़ देती हैं, आप कहती हैं, "फिर भी... फिर भी... फिर भी...," ये जो ‘फिर भी’ है, ये असीम को आप सीमा दे रहीं हैं। ‘फिर भी’ आपने जहाँ लगाया, वहीं एक दीवार खड़ी करी है, जैसे कि मौज की लहर बहती जा रही हो, बहती जा रही हो, और ‘फिर भी’ की दीवार से टकराकर टूट जा रही हो।

जानती हैं, ये जो ‘फिर भी’ की दीवार है, ये क्या है? आप कहती हैं, "फिर भी दिल में कुछ अजीब-सी चुभन है।" जहाँ आपने उसे 'अजीब-सा' कहा, तहाँ आपने कह दिया कि 'समझ में नहीं आ रहा'। "समझ में नहीं आ रहा इसलिए अजीब लग रहा है, बेहतर होता कि समझ में आ जाता।" चुभन ही यही है कि समझ में क्यों नहीं आ रहा, चुभन ही यही है कि पकड़ में क्यों नह आ रहा। "समझ में नहीं आता ये सब क्या है?" सब अच्छा चलता रहता है तब तक जब तक आप समझने की कोशिश नहीं करतीं। जहाँ आपने समझना चाहा, तहाँ खेल बिगाड़ दिया।

जिसे हम 'समझ' कहते हैं, वो और क्या है? – मन में दो-चार तर्क बैठा लिए, पाँच सात लहरें उठ गयीं, गिर गयीं, यूँहीं किसी निष्कर्ष पर आ गए, और फिर कह दिया कि, "समझ गए।"

असीम को अज्ञात ही रहने दीजिए। ज्ञान के दायरे में उसे कैद करने की कोशिश मत करिए।

प्रेम में देखा है न क्या होता है? दो बैठे हैं प्रेमी; आनंद है, मग्नता है। एक हँसता है, दूसरा मुसकुरा देता है। वो ये थोड़ी पूछता है, "ये क्या है?" या पूछता है? और आप कह रही हैं कि समझ में नहीं आता, ये सब क्या है? कैसा लगे कि आप किसी को देखकर मुसकुराएँ और वो पूछे आपसे, "ये सब क्या है?"? जब आपको शांति मिलती है या सुकून मिलता है, तो जानिए कि परमात्मा मुसकुरा रहा है आपको देखकर के। और आप पूछ रहीं है, "ये सब क्या है?" कैसा लगता होगा उसे? ये तो उसका दिल बहुत बड़ा है कि बेचारा आहत नहीं होता। नहीं तो हम जैसे सवाल करते हैं उससे, वो बेचारा तो मजनूँ ही बन जाए। कपड़े फाड़ के प्रेम में गली-गली भटके, 'लैला-लैला' चिल्लाए। वो हमें प्रेम की भेंट देता है और हम पूछते हैं, "ये क्या है?" ये कोई पूछने की बात है – "ये क्या है"? पूछ ही क्यों रही हैं आप?

ये तो मैंने कहा कि प्रेमी मुसकुराया या हँसा तो दूसरा तत्काल समझ गया कि बात क्या है, या ये कह दीजिए कि उसे समझने की आवश्यकता ही नहीं लगी। बिना समझे ही उसे सुविधा है, बिना जाने ही वो मौज में है, उसके भीतर कोई डर नहीं है। उसके भीतर कोई जिज्ञासा नहीं है। कोई शंका नहीं है कि, "पहले तो मुझे समझ में आना चाहिए कि तूने इशारा क्या किया!" अरे, प्रेम में इशारा किया, जो भी इशारा किया बढ़िया ही किया। वो हँसा, तुम मुसकुरा दो।

और ये तो हँसी थी। बैठे हों प्रेमी अगल-बगल, एक दूसरे को मुँह भी चिढ़ा सकते हैं। और मुँह चिढ़ाना तो प्रेम के किसी व्याकरण शास्त्र में आता नहीं। कहीं लिखा तो है नहीं कि कोई अगर मुँह चिढ़ाए तो उसका अर्थ ये होता है। लेकिन अगर वास्तव में उस क्षण में गहराई है, वास्तव में वो क्षण ऐसा है जहाँ दो मन जुड़ गए हैं, आत्मा ही हो गए हैं, तो जब एक मुँह चिढ़ाएगा तो दूसरा बिल्कुल नहीं पूछेगा कि, "ये क्या है?" ये पूछना प्रेम का अपमान हो जाएगा। उसने मुँह चिढ़ाया तो ये मुसकुरा देगा। उसने मुँह चिढ़ाया तो हो सकता है ये कोई प्रत्युत्तर ही न दे, या हो सकता है कि ये भी मुँह चिढ़ा दे। कहा-सुना कुछ नहीं, बात बन गयी।

(प्रश्नकर्ता के नाम को संबोधित करते हुए) अज्ञात, सलाह है मेरी आपको, अज्ञात को 'अज्ञेय' कर लें। ये जो अज्ञात है, ये कहीं-न-कहीं ये भ्रम दे जाता है, ये विश्वास दे जाता है कि, "आज नहीं जानती पर कल जान लूँगी, अज्ञात ही तो है। बहुत कुछ था जो अतीत में अज्ञात था, वो आज ज्ञात है।" मन तो अतीत को ही पैमाना बना लेता है। मन कहता है, "देखो, एक दिन था जब मैं चाँद तारों के बारे में नहीं जानती थी, आज मैं ज्ञानी हूँ, मैं जानती हूँ। तो इसी तरीक़े से सत्य अगर यदि मात्र अज्ञात है तो किसी दिन ज्ञात भी हो जाएगा।"

आप असीम अज्ञेय हो जाइए, फिर ठीक रहेगा। असीम के साथ, असीम की ही कोटि का कोई शब्द हो, कोई उपाधि हो, तो ही जोड़ी सजती है। जो अनुपाधि है, उसे उपाधि के साथ जोड़ देंगे तो बात बनेगी नहीं। जो असीम है, उसे सीमित के साथ जोड़ देंगी तो बात बनेगी नहीं। असीम को तो अज्ञेय के साथ ही जोड़ना चाहिए। फिर आप नहीं पूछेंगी, "ये क्या है?"

आँसू छलकें, उन्हें छलकने दीजिए, हाथ में लेकर के उनकी जाँच-पड़ताल मत शुरू कर दीजिए। आँसुओं का कोई तर्क होता है? बताइए मुझे, आँसू क्या हैं? नमकीन पानी? मिनिरल वॉटर? क्या हैं आँसू? और क्या तर्क होता है चुंबन का? होंठों से उठती हुई एक अर्थहीन आवाज़। आप किसी के गाल पर थूक चिपका आए हैं! "ये क्या है? क्यों?” ये सब नहीं पूछते। रामकथा में मन लगे, गाइए, गाते ही जाइए।

मेरे पास से बहुत लोग छिटकते हैं क्योंकि ठीक तब जब वो ध्यान की गहराइयों में प्रविष्ट हो रहे होते हैं, अचानक वो पूछ बैठते हैं, "ये क्या हो रहा है मेरे साथ? ये क्या है? ये क्या है?" और भाग जाते हैं। अद्यतन उदाहरण प्रस्तुत है। अभी-अभी आते वक्त लखनऊ से, एक देवी जी थीं जो ऑनलाइन संपर्क में थीं। उन्हें इस वक़्त राम-कथा के साथ, मेरे साथ होना चाहिए था। पर मन जो शोर का अभ्यस्त रहा हो, जब मौन में जाने लगता है तो शांति भी कई बार बेगानी, अजनबी लगती है। मन ठिठक जाता है अचानक और यकायक पूछ बैठता है, "ये क्या है! ये नया है!" हो गयी गड़बड़।

एक कहानी सुनिएगा। कहते हैं कि एक नट था। नट जानती हैं न? कलाकार, बाज़ीगर किस्म का। वो दो पहाड़ों की चोटियों के मध्य एक रस्सी बाँध कर सोते-सोते उस रस्सी पर चलता हुआ एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पहुँच जाता था। खाई पार कर जाता था। कैसे? रस्सी पर, और सोते-सोते। लोग हैरान, अचंभे में। लोगों ने उसकी परीक्षा के लिए बहुत कुछ किया। लोगों ने रस्सी को और पतला कर दिया, लोगों ने और गहरी खाइयों में उसकी परीक्षा ले ली। लोगों ने और दूर की चोटियों से उसको गुजार दिया। वो सोते-सोते पार कर जाता। लोगों ने उसे नींद की गोलियाँ दीं ताकि ये पक्का हो जाए कि ये सो ही रहा है। वो सोते-सोते पार कर जाता।

कहानी है, मर्म समझिएगा।

एक दूसरा नट था, वो ये सब देखा करता था। इस नट के कारण उस दूसरे नट की प्रसिद्धि न बढ़ती थी। लोग उसे देखने नहीं आते थे। उसका धंधा ठप हो गया था। उसने देखा कि इसकी नींद गहरी कर दो तो इसपर अंतर ही नहीं पड़ रहा। तो उसने कहा, "मैं कुछ और करूँगा।" एक दिन जब वो दो पहाड़ों के मध्य में था, खाई के ठीक ऊपर था, इस दूसरे नट ने उस पहले नट को जगा दिया। क्या किया? जगा दिया। आप कहेंगी, "ये तो भला करा।" कोई काम अगर आप सोते-सोते कर लेते थे तो जागते हुए तो और कुशलता से करोगे। लेकिन वो पल उस नट का आख़िरी पल था। वो जगा, और गिरा!

कुछ काम सिर्फ़ सोते-सोते ही हो सकते हैं। भगवत प्राप्ति वैसा ही काम है। जग गए तो नहीं होगा। दुनिया का हिसाब दूसरा है, दुनिया कहती है, "जितनी चेतना में रहोगे, जितनी बुद्धि लगाओगे, आँखें जितनी खुली रहेंगी, उतना तुम्हारे काम सधेंगे।" परम तत्व का हिसाब दूसरा है, वो कहता है, "आँख जितनी बंद रहेगी, काम उतना सधेगा।" और बीच में साधना के अगर खोल दी आँख, तो गए! और पता नहीं कितनी ही कहानियाँ हैं। सभी एक ओर को इशारा करती हैं, सब यही बताती हैं।

एक लड़की थी, लोग उसे चिढ़ाएँ, कहें, "तू कुरूप है।" उसने देवता की साधना की। देवता प्रकट हुए, देवता ने पूछा, "क्या चाहिए?" वो बोली, “लोग 'कुरूप-कुरूप' कहकर चिढ़ाते हैं, मुझे परम रूप दे दीजिए।" देवता ने कहा, "दे दूँगा। मैं तुझे एक प्रक्रिया से गुज़ारूँगा, कुछ होगा तेरे साथ, बस उस दरमियान न आँखें खोलना, न कुछ बोलना।" लड़की ने कहा, "ठीक है।" देवता की प्रक्रिया शुरू हो गयी। लड़की को अनुभव होता जा रहा था कि कायाकल्प हो रहा है। एक अनजाना सौन्दर्य, अनूठा, अनुभव के पार का, उसके शरीर पर ही नहीं उसके मन पर भी छाता जा रहा था। वो अनुगृहीत होती जा रही थी। मन भरता जा रहा था, आँखें छलकती जा रहीं थीं। उसे पक्का विश्वास आता जा रहा था कि एक अति अद्भुत घटना उसके साथ घट रही है। उसका कंठ भर आया। वो आतुर होने लगी, गदराए स्वर में आभार व्यक्त करने के लिए। लेकिन देवता ने कहा था, "न कुछ देखना, न कुछ बोलना।" पर वो तो समझती जा रही थी कि उसकी जन्मों की साधना सफल हो रही है। उसको दिखाई पड़ रहा था कि जो उसे उसकी इच्छा-शक्ति न दे पाती, संसार न दे पाता, वो उसे देवता दिए दे रहे हैं। प्रेम का भाव उसके हृदय को जकड़े ले रहा था। उसका मन करे कि देवता के चरणों पर गिर जाए, आलिंगन कर ले। देवता ने मना करा था कि, "देखो, ये समय नहीं है मन का, बुद्धि का, इंद्रियों का उपयोग करने का। इस प्रक्रिया को पूरा हो जाने दो।" लेकिन उसे प्रेम देवता पर ही आ रहा था। वो देवता की अवज्ञा, अवहेलना नहीं कर रही है, उसे तो प्यार आ रहा है उन पर।

बात मज़ेदार है: जिसने आपको वरदान दिया होता है, जो आपका गुरु होता है, कई बार आप उसकी अवहेलना इसी कारण करने लग जाते हो क्योंकि आपको उससे प्यार है। वो लड़की भी अपने-आपको रोक नहीं पाई। उसने कहा, "जो देवता मुझे इतना कुछ दे रहा है, नया जन्म ही दिए दे रहा है, उसके प्रति मैं आभार कैसे न व्यक्त करूँ?" वो बोल पड़ी। बोली, “हे परम प्रिय! जीवन दाता हो तुम। कैसे चुका पाऊँगी तुम्हारा ऋण? हर शब्द छोटा है। तुम्हें मैं अपना सर्वस्व भी समर्पित कर दूँ तो भी अनुग्रह व्यक्त नहीं होगा।” ऊँचे-से-ऊँचे शब्द थे ये। इससे ज़्यादा मीठे शब्द इस धरती पर सुने नहीं गए। और दिल की गहराइयों से निकले थे, लड़की को वास्तव में वो सब लग रह था, जो वो कह रही थी।

पर देवता ने मना करा था, "न कुछ देखना, न कुछ बोलना।" लड़की ने आभार व्यक्त किया नहीं, प्रार्थना बोली नहीं कि प्रक्रिया रुक गयी। देवता अंतर्ध्यान हो गए। लड़की ने आँखें खोलीं। वो पहले जितनी ही कुरूप नहीं थी, अब वो पहले से भी ज़्यादा कुरूप हो गयी थी। वो लड़की आज भी घूम रही है, कहते हैं, और वो बस एक सवाल पूछ रही है कि, "मैंने तो आभार व्यक्त किया था, मैंने तो प्रेम की बातें बोली थीं, मुझे ये सज़ा क्यों दी गयी?"

और ऐसा होता है।

जो तुम्हें सब कुछ दे रहा हो, उसका देना इतना बड़ा होता है कि तुम्हारा प्रेम भी उसके सामने छोटा ही जानना। तुम अपने हर शब्द को उसके सामने व्यर्थ और मिथ्या ही जानना। तुम अपने मन की हर इच्छा को उसके सामने अति लघु जानना। आभार भी यदि व्यक्त करोगे तो तुमने अपने-आपको कुछ तो हैसियत दे दी। तुम अपनी हैसियत उतनी भी मत मानना।

और अगर तुम्हारी हैसियत उतनी भी नहीं है, तो तुम्हें ये क्यों लगा कि तुम परम सत्ता को समझ सकते हो? ये पूछ ही क्यों रहे हो कि, "समझ में नहीं आता"? भला है कि समझ में नहीं आता। भला लेकिन नहीं है कि तुम समझ में लाने की कोशिश कर रहे हो। भयानक होगा वो दिन जिस दिन कह दोगे कि, "समझ में आ गया।" और अति सुंदर होगा वो दिन जिस दिन तुम कहोगे, "समझने को है ही क्या? मैं समझना चाहती ही नहीं। इच्छा ही नहीं समझने की। बिना समझे ही जब सब कुछ है, तो समझकर के उसमें उपद्रव क्यों डालना?”

हम जिसे समझते हैं, या हम जिसे समझना कहते हैं, वो सिर्फ़ मन का, द्वैत का खेल है। समस्त ज्ञान द्वैत मूलात्मक है। तुम कहते हो कि तुम हो, और तुम कहते हो कि कुछ है जो तुम्हारे संदर्भ में परिभाषित हो रहा है। इसको तुम कह देते हो 'ज्ञान'। अरे, जब तुम हो ही नहीं, तो सारा ज्ञान ही मिथ्या हुआ न? तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारे ज्ञान का कोई भी अंश, कोई भी हिस्सा, कोई भी कोटि ऐसी है जो तुम्हारे बिना कायम रह पाएगी? सब कुछ तुम्हें ही तो केंद्र में रखकर के है। और अगर तुम्हीं मिथ्या हो, तो ज्ञान कहाँ बचा? लेकिन परमात्मा को भी तुम ज्ञान की कोटि में रख लेना चाहते हो। भूल हो जाएगी। जो मिल रहा है उसका प्रवाह रुक जाएगा। रुकेगा ही नहीं, उलटा बहने लगेगा, छिनने लगेगा।

प्रेम के सामने कोई और ज्ञान चाहिए ही नहीं। और प्रेम महा-ज्ञान है, बोध है, महा-बोध है। आसमान के नीचे लेट जाते हो, आसमान को देखते हो, शांत हो जाते हो, अब समझना क्या है? बहती नदी के सामने खड़े हो। दिख रहा है तुम्हें कि नदी ही नहीं बह रही, तुम भी इसके साथ बह रहे हो। समझना क्या है?

और भूलना मत कि जो तुम समझ गए तुरंत, तुम उसका उपयोग करना शुरू कर देते हो। कुछ भी मुझे ऐसा दिखा दो जो इंसान समझता हो, और जिसको इंसान ने अपनी वासना का, उपभोग की अपनी इच्छा का साधन न बना लिया हो। तुम समझे नहीं कि तुमने मालकीयत दिखाई।

परमात्मा को अगर तुम समझ गए तो जानते हो न क्या करोगे? तुम परमात्मा के भी सिर पर चढ़ बैठोगे, मालिक बन जाओगे।

और उसमें कुछ बुरा न होता अगर मालकीयत की हमारी हैसियत होती। अगर मिल गयी परम सत्ता, तो हम इतना ही तो करेंगे न कि अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति करना शुरू कर देंगे? चलो, क्षुद्र भी मत बोलो, जो तुम चाहते हो वही तुम करना शुरू कर दोगे? और जो तुम चाहते हो, वो सब कुछ होने लग जाए, तो गौर से देख लेना कि क्या होगा। दुनिया के लोगों को देखो और देखो कि सब क्या चाहते हैं। जो सब चाहते हैं, वो सब होने लग जाए तो कहाँ जाओगे तुम, और कहाँ जाएँगे लोग, और कहाँ जाएगा संसार?

तो ये कोई विवशता की बात नहीं है कि परमात्मा समझ में नहीं आता। इसमें हमारी हीनता नहीं है कि परमात्मा समझ में नहीं आता। ये महा सौभाग्य है हमारा कि परमात्मा समझ में नहीं आता। और मैं कह रहा हूँ, बड़ा ख़तरनाक होगा वो दिन जिस दिन परमात्मा समझ में आने लग जाएगा।

YouTube Link: https://youtu.be/cYSyd47nk-8

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