प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल आपने मेरे प्रश्न के उत्तर में जो बोला था कि मुझे सैनिक चाहिए, मेरे बगल में आ करके जो खड़े हो जाए और पूरे विश्व को आवाहन किया था कि “जवान लोग आ जाएँ।” तो माता-पिता साथ में आए थे, रास्ते भर लड़ते गए। कहें मदद-वदद कर देना पर सैनिक मत बनना। जबकि मुझे लगता है कि अब शीश उतार के देने का समय आ गया है।
आचार्य प्रशांत: आपके शीश के दावेदार बहुत हैं।
(श्रोतागण हँसते हैं)
वो इतनी आसानी से शीश उतारने नहीं देंगे आपको, वो कहते हैं, “ये चीज़ हमारी है। ये चीज़ हमारी है, ऐसे कैसे उतर के किसी और को मिल जाएगी।” यही है मामला!
घरवालों को न इससे फ़र्क पड़ता है कि आपकी विचारधारा क्या है, न इससे फ़र्क पड़ता है कि आप सूरमा हो रहे हैं कि संन्यासी। बात सुख-सुविधाओं की है।
आपके माध्यम से बहुत कुछ है जो बहुत लोगों को मिल रहा है। आप धर्मयुद्ध के योद्धा हो गए, तो उधर सुविधाओं में कमी आ जाएगी न! आप किसी तरह से ये आश्वासन दे सकें कि तुम्हें जो सुविधाएँ इत्यादि मिल रही हैं, मिलती रहेंगी, मेरा पिंड छोड़ो। तो कोई न रोके आपको।
ये जगत तो लाभ का सौदागर है। वो आपसे नहीं प्रेम करता, आपसे जो मिल रहा है उससे प्रेम करता है। और इस बात का बड़ा कड़वा अनुभव आपको तब होता है, जब आप देना बंद कर देते हैं।
आप तो यही सोचते रह गए कि उस व्यक्ति को आपसे प्रेम है। ये देखा ही नहीं कि आपसे उसको मिल क्या-क्या रहा है? और फिर ज़रा उम्र बढ़ी, ज़रा आय घटी, दे पाने की ज़रा क्षमता घटी; तो तिरस्कृत हो गए, वृद्धाश्रम पहुँच गए, तब समझ में आया कि हमसे नहीं प्यार था किसी को, सुविधाओं से प्यार था।
इसके अपवाद होते हैं, पर इसके उतने ही अपवाद होते हैं जितने जगत में मुक्त पुरुष होते हैं। तो इसके अपवाद ज़रा कम ही होते हैं।
प्र: एक जैसे भ्रम फैला हुआ है, जैसे कोई सैनिक बना, तो घर छोड़ देगा, बच्चे छोड़ देगा। क्या ऐसा ही है?
आचार्य: अरे नहीं! क्या सैनिकों के घर नहीं होते? सैनिकों के बच्चे नहीं होते?
प्र: वही एक डर है।
आचार्य: ये आप छवि लेकर घूम रहे हैं। धर्मयुद्ध में सैनिक बनने का मतलब होता है — यथाशक्ति धर्म का साथ देना; अधर्म की खिलाफ़त करना।
ये भी तो हो सकता है कि अगर आपके यार-दोस्त हैं, सगे-संबंधी हैं, तो वो आपकी शक्ति का हिस्सा बन जाएँ। जब हम कह रहे हैं कि धर्मयुद्ध में अपने सारे संसाधनों से योगदान दो; तो आपके पास जो प्रियजन हैं, मित्रजन हैं, वो भी तो संसाधन ही हुए। उनको आवश्यक थोड़े ही है कि अड़चन माना जाए, बंधन माना जाए।
प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। आचार्य जी, विवाह को बहुत ही पवित्र बंधन माना जाता है, लेकिन कई बार इसमें भी वफ़ादारी नहीं रहती। क्यों?
आचार्य: मान्यता एक; मान्यता दो; मान्यता तीन।
(श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य जी के बोलने के लिए बचा क्या है?
“विवाह पवित्र बंधन है।” “वफ़ादारी कुछ होता है।” “विवाह में वफ़ादारी होनी चाहिए।” “विवाह में वफ़ादारी क्यों नहीं है आचार्य जी?”
क्या बोल दूँ अब मैं? तुम पूछ थोड़े ही रहे हो, तुम तो गोले दाग रहे हो मेरे ऊपर।
पवित्र बंधन! हमें तो पता था मुक्ति मात्र पवित्र होती है। ये बंधन कब से पवित्र होने लगे? ये कौन-सा बंधन है जो पवित्र हो गया भाई? फिर तो सब गुरुजन झूठ बता गए हैं, सब उपनिषदों में मूर्खता लिखी हुई है।
अगर बंधन भी पवित्र होने लगे, तो फिर तो मुक्ति की क्या ज़रूरत? फिर तो सारा आध्यात्मिक साहित्य ही कचरा है। जिन्हें पवित्रता चाहिए हो, वो इस बंधन में बंध जाएँ। हमें तो यह पता था कि सत्य मात्र ही पवित्र होता है, आप बता रही हैं कि “नहीं, पत्नी भी पवित्र होती है। उसी से बंध जाओ तो पवित्रता मिल जाएगी।”
भई, वफ़ादारी क्या चीज़ होती है? वफ़ा माने क्या?
श्रद्धा समझता हूँ, समर्पण समझता हूँ। और ये सब तो एक के ही हिस्से की चीज़ होते हैं। (ऊपर की तरफ इशारा करते हुए)
आपके पतिदेव इतने महान हो गए कि सत्य से प्रतिस्पर्धा करेंगे? जीव पैदा हुए हो न, कि पत्नी पैदा हुए हो? सिंदूर लगा कर ही पैदा हुए थे?
तो अगर समर्पण भी होगा, प्रेम भी होगा, भक्ति भी करोगे, निष्ठा भी दिखाओगे; तो किसके प्रति दिखाओगे? उसके प्रति दिखाओगे न! (ऊपर की तरफ़ इशारा करते हुए)
दुनिया की आधी आबादी मर्दों की, आधी औरतों की, माने कि कोई कैसा भी हो पुरुष, किसी भी स्तर का—गया, गुज़रा, ग़लीज़—किसी न किसी का पति तो होगा ही। और कैसी भी हो औरत, एकदम ही निकृष्ट स्तर की, वो भी किसी न किसी की पत्नी तो होगी ही। और तुम कह रहे हो, “नहीं, वफ़ा रखनी चाहिए।” माने कोई कितना भी ग़लीज़ हो, उससे वफ़ा रखो? क्यों रखो भाई? किसी के प्रति भी निष्ठा रख लोगे क्या? किसी के प्रति भी?
निष्ठा किसी ऊँचे के प्रति रखी जाती है न! और ऊँचे के प्रति निष्ठा भी कोई ऊँचा ही रखता है। तुममें वो ऊँचाई होगी तो अपनेआप सब तुममें निष्ठा रखेंगे—अगर उसी को वफ़ा कह रहे हो। तुममें अगर ऊँचाई होगी, तो अपनेआप सब तुममें निष्ठा रखेंगे। कम-से-कम जो सुपात्र हैं वो रखेंगे।
तो अगर तुममें ऊँचाई है तो तुम्हें निष्ठा की, वफ़ा की परवाह करने की ज़रूरत नहीं। तुम अगर ऊँचे हो, तो जिन्हें तुममें वफ़ा रखनी चाहिए, वो ख़ुद ही रखेंगे। और अगर तुम ऊँचे नहीं हो, अगर तुम नीचे आदमी हो और फिर भी ये माँग करते हो कि लोग मुझसे वफादारी निभाएँ, तो न सिर्फ़ तुम नीचे हो, बल्कि महा-मग़रूर और बेवकूफ़ भी हो।
पहली बात तो ये कि तुममें ऐसा कुछ है नहीं जो पूजनीय हो। तुममें ऐसा कुछ है नहीं, जिसके प्रति निष्ठा रखी जा सके। लेकिन दंभ तुममें इतना है कि कह रहे हो कि अरे पत्नी, तू मेरे प्रति वफ़ादार रह। तुम हो कौन कि तुम्हारे प्रति वफ़ादार रहा जाए? तुम हो कौन?
फिर तो न राम के प्रति वफ़ादारी, न कृष्ण के प्रति वफ़ादारी; ये घुग्घूलाल घूम रहें हैं, इन्हीं के प्रति वफ़ादारी! और चूँकि स्त्री-पुरुष का अनुपात एक है, तो हर घुग्घूलाल को पत्नी तो मिल ही जाती है। और उसके ही ऊपर चढ़ें हुए हैं, कह रहे हैं, “तू वफ़ा दिखा मुझे।”
क्या है ये?
उसके प्रति वफ़ादार रहो (ऊपर की तरफ़ इशारा करते हुए); तो फिर जीवन में ऐसे लोग भी मिल जाएँगे, जो वफ़ा के काबिल हों।
प्र३: कल के सत्र के बाद रसयुक्त मैं घर गया। तो रात में तो सो जाते हैं, देर हो जाती है। सुबह पत्नी के साथ थोड़ा विरोध का सामना हुआ। तो पता है कि प्रेम अंदर से है, लेकिन ऐट द मोमेंट (उस क्षण में) जाकर रिएक्शन (प्रतिक्रिया) हो जाता है। तो जो कबीर साहब कहते हैं कि प्रेम रसायन है बदलने का” तो हम अपनेआप को ऐज़ ए कैटलिस्ट (उत्प्रेरक के जैसा) नहीं कर पा रहे हैं ट्रांसफॉर्म (बदलना)। लगता है कि मेरे में ही कुछ कमी है।
आचार्य: वो तो है ही।
(श्रोतागण हँसते हैं)
अच्छी बात ये है कि आज आप कह तो रहे हैं कि कमी है। जान रहे हैं तो कमी हटेगी भी। पहली बात ये थी। दूसरी बात ये कि आपको कैसे पता कि आप पत्नी से जो कुछ कह रहे थे, वो प्रेम नहीं ही था। पत्नी विरोध कर रही थी कि यहाँ मत आइए, आप फिर भी यहाँ आ गए। आपको हैरानी होगी सुनने में, लेकिन आपका यहाँ आना पत्नी के प्रति भी आपका प्रेमपूर्ण कृत्य है। पत्नी ने आपको रोका; आप रुक भी तो सकते थे? आप रुके नहीं न?
आप अगर रुक जाते पत्नी के कहने पर, तो वो पत्नी के प्रति हिंसा होती। क्योंकि अपनी पत्नी की ग़लत माँग को प्रोत्साहन दे दिया, मान्यता दे दी, वो हिंसा होती। आपने यहाँ आ करके पत्नी को ये प्रमाण दिया है कि कुछ है जो पति-पत्नी के रिश्ते से ऊपर होता है। कुछ है जो किसी भी झूठे आग्रह या ज़िद से बड़ा होता है। ये आपने प्रमाण दे दिया न पत्नी को, ये आपने प्रेम दर्शाया है पत्नी के प्रति।
प्रेम सदा इसमें ही नहीं होता कि मीठा बोल दिया, बहला दिया, पुचकार दिया। वास्तव में सम्यक कर्म और प्रेमपूर्ण कर्म अलग-अलग हो ही नहीं सकते। जो काम सही है, वही काम प्रेमपूर्ण है; भले ही वो दिखने में रूखा भी लगे।
इसका मतलब ये नहीं है कि प्रेमी आदमी कभी मीठा नहीं बोलेगा। मीठा भी बोलेगा, लेकिन मीठा ही बोलने को प्रेम नहीं कहते।
सम्यक कर्म और प्रेम अभिन्न हैं।