सत्य की राह, और आम ज़िन्दगी

Acharya Prashant

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सत्य की राह, और आम ज़िन्दगी

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब हम काम करते हैं तो कई बार ऐसा होता है कि काम में मन नहीं लगता। हम चाहते हैं कि सत्य की राह पर भी रहें और जो हमारा काम हैं वो भी करते रहे। तो इन दोनों में सामंजस्य कैसे हम बिठाकर कर सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: देखो दो बातें होती हैं। एक तो ये कि जा रहे हो तुम किसी सार्थक लक्ष्य की ओर लेकिन रास्ते में तुम्हें बहुत कुछ ऐसा मिल रहा है जो उबाऊ, नीरस है; जिसका लक्ष्य से कोई सम्बन्ध दिखता नहीं।

जैसे तुम जा रहे हो किसी सुन्दर पहाड़, किसी सुन्दर चोटी की ओर। हिमशिखर है; सुन्दर, धवल। सूरज की किरणे चमक रही हैं, बर्फ़ जैसे सोना हो गयी हो। लेकिन रास्ते में क्या मिलता है? घाटिया भी मिलती हैं, गिरी चट्टाने भी मिलती हैं, ऊबड़-खाबड़ रास्ते भी मिलते हैं। और जब तुम्हारे सामने कोई चट्टान गिरी हुई हो और सड़क पर गड्ढे-ही-गड्ढे हों, तो उनका सम्बन्ध हिमशिखर से बैठाना मुश्किल पड़ता हैं। तब मन सवाल करेगा कि मैं क्यों चल रहा हूँ इस रास्ते पर?

तब तुम्हें ये याद रखना है कि मतलब मुझे इस चट्टान से नहीं है, मतलब मुझे चोटी से है। तब चोटी का ध्यान तुम्हें ऊर्जा, शक्ति, प्रेरणा, देगा; तुम चलते चले जाओगे। एक स्थिति ऐसी होती है।

और दूसरी स्थिति ऐसी होती है, कि तुम खो गये हो किसी जंगल में। और जितना तुम आगे बढ़ रहे हो, उतना तुमको झाड़-झंखाड़, धूल, गर्त, अन्धेरा, कीड़े, मच्छर, दलदल, दुर्गन्ध, यही मिल रहे हैं। तब तुम्हें पूछना होगा अपनेआप से कि मैं ये सब क्यों बर्दाश्त कर रहा हूँ?

हिमशिखर के खातिर तो कुछ भी बर्दाश्त किया जा सकता है; फिर बर्दाश्त करना बर्दाश्त करने जैसा लगता ही नहीं। फिर संयम, संयम नहीं है; वो साधना है। फिर तुम्हें धीरज नहीं धरना पड़ता क्योंकि फिर तुम्हें चट्टान में और अवरोध में भी चोटी दिखाई पड़ती है, लक्ष्य दिखाई पड़ता है। तुम्हें मालूम है कि तुम क्यों बढ़ रहे हो। मंज़िल दूर है लेकिन हृदय में बैठी हुई है। वहाँ से खूब तुमको ताकत मिलती रहती है।

तब तो बढ़े चलो। लेकिन यदि ये पाओ कि तुम यूँही गुम हो गये हो; किधर को भी जा नहीं रहे, बस जीवन के भूल-भूलैया में यूँही भटक रहे हो जिस का कोई अन्त नहीं है; ये भटकाव इसलिए नहीं है की आज है और कल नहीं होगा, ये इसलिए है कि आज है और कल भी रहेगा; बल्कि कल बढ़ेगा; तो थम जाना। तो कहना कि मैं ये कर ही क्यों रहा हूँ।

मन्दिर की ओर जाते हुए रास्ते में काटे पत्थर मिले तो आदमी उसपर एक बार चल लेता है। पर न मन्दिर है, न कोई उत्कृष्ट लक्ष्य है; उसके बाद तुमसे कहा जाए कि काटे भी झेलो, पत्थर भी खाओ, तो तुम इनकार कर दो, तुम कहो, ‘इसलिए थोड़ी पैदा हुए थे?’ जा रहे हो किसी महल की ओर और वो लक्ष्य है तुम्हारा, जीतना है तुम्हें। रास्ते में फ़ौज खड़ी है; विरोधी, दुश्मन, तो लड़ जाओगे। क्यों लड़ जाओगे? क्योंकि युद्धभूमि से गुज़रना आवश्यक है उस महल तक पहुँचने के लिए।

पर कही न जाना, न आना, न पहुँचना, न लक्ष्य, न कोई महल है, न कोई सार्थकता, तो काहे सिर फोड़ना? किसके खातिर ? क्यों किसी की जान ले रहे हो? क्यों अपनी जान दे रहे हो?

ऊँचे-से-ऊँचा अभियान भी अपनी प्रक्रिया में कभी-कभी उबाऊ, बोरियत से भरा और नीरस लग सकता है। वो एक बात है, वो एक स्थिति है। लेकिन अगर नीरसता केन्द्र ही है तुम्हारे काम का, अगर काम के मूल में नीरसता बसी हुई है, तो एक पल न करो उस काम को। तुरन्त हटो, ‘मैं क्यों कर रहा हूँ? मिल क्या जाना है?’

श्रम वो भला जो स्वास्थ्य से उठे और स्वास्थ्य की खातिर किया जाए, जो विश्राम से उठे और विश्राम की खातिर किया जाए। देखा है स्वास्थ्य के लिए श्रम करते हो न? कसरत, व्यायाम, जिम, ये क्या होते हैं ? आराम के लिए तुम क्या कर रहे हो? श्रम, और उस श्रम के बाद बड़ा आराम मिलता है, मीठी नींद आती है।

तो वो एक बात है। और दूसरी बात ये है की तुमको बुद्धू बना दिया किसी ने, बेगारी कराई जा रही है। बेगारी समझते हो? जहा श्रम तो बहुत है पर उससे कोई अन्त, आराम, विश्राम, स्वास्थ्य नहीं मिलना, बस श्रम है। वो श्रम उपजाऊ नहीं है, वो श्रम निष्फल जाना है; उस श्रम से तुरन्त हाथ खींच लो।

दोनों बातें एक साथ बोल रहा हूँ।

जहाँ श्रम सार्थक हो; और सार्थकता किसमें है श्रम की, कि श्रम मुझे ले जाएगा एक गहन, आन्तरिक विश्राम की ओर; वहाँ श्रम से मुँह मत चुराना, करे जाना श्रम, करे जाना श्रम, करे जाना। वो श्रम तपस्या और साधना कहलाता है।

लेकिन दुनिया अधिकांशतः व्यर्थ श्रम करती है। और उसका प्रमाण ये हैं कि तुम दशकों तक, शताब्दियों तक, अनन्त काल तक श्रम करे जाओ, श्रम का अन्त नहीं आना, श्रम से विश्राम नहीं आना। दुनिया में सौ में से निन्यानवे लोग ऐसा ही श्रम कर रहे हैं।

कैसा? कि बस मेहनत करते जाओ, करते जाओ। मेहनत का अन्त एक वादा है बस जो कभी पूरा नहीं होना। हाँ, तुम्हें ललचाया जाएगा, लुभाया जाएगा, तुम्हें बताया जाएगा कि दस साल और मेहनत करलो, उसके बाद निवृत्त हो जाओगे। उसके बाद आराम से बैठकर खाना, सोना, सृजनात्मक कामों में लगना, पुस्तक पढ़ना, पुस्तक लिखना, गीत गाना, घूमने जाना।

वैसा कभी होते देखा है? आदमी कोल्हू की बैल की तरह लगा ही रह जाता है। वो आखरी सेवा निवृत्ति, अल्टीमेट रिटायरमेंट कभी आता नहीं। आखरी साँस में भी नहीं आता।

पूछो अपने आप से मैं जो श्रम कर रहा हूँ वो कैसा है।

(कक्ष और दरवाज़े की ओर इशारा करते हुए तथा उदाहरण देते हुए) देखो, ये कक्ष है। ये दरवाज़ा है। एक आदमी चल रहा है दरवाज़े की ओर। और एक आदमी गोल-गोल घूम रहा है, फँस गया है। सतही तौर पर कहोगे तो दोनों चल रहे हैं, दोनों चल रहे हैं। पर एक ऐसे चल रहा है कि कुछ देर तक तो चलेगा कमरे के भीतर और शीघ्र ही कमरे से बाहर हो जाएगा। और दूसरा ऐसे चल रहा है की वो आजन्म कमरे के भीतर ही चलता रहेगा।

तुम देखो कि तुम्हारे गति का तल क्या है? गति की गुणवक्ता क्या है?

कमरे के भीतर तो सभी हैं, तो गति होगी तो सदा आरम्भ में कमरे के भीतर ही। लेकिन कुछ होते हैं (सीधा दरवाज़े की ओर इशारा करते हुए ) ऐसे और ऐसे, जो जानते है इस तरह से गति करना की गति तुमको ले जाए कमरे के बाहर और बाकी पूरी दुनिया क्या करती है? (अपने हाथों के इशारे से समझाते हुए) वो कमरे में ही चकरघिन्नी बनी हुई है। वृत्त है एक गोल, वर्तुल समान और तुम उसी में घूमे जा रहे हो, घूमे जा रहे हो। हाँ, उम्मीद तुम्हें यही है की गोल घूमते घूमते बहार निकल जाएँगे पर वैसा होता नहीं, मौत पहले आ जाती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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