सस्ती खुशियाँ, महँगा आनंद || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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सस्ती खुशियाँ, महँगा आनंद || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आनन्द को पाने के लिए लाइफ़ (जीवन) की क्वालिटी (गुणवत्ता) थोड़ी सी ज़्यादा रखनी पड़ती है, क्योंकि आनन्द आसानी से तो मिलता नहीं है। और जो खुशियाँ होती हैं वो तो आम ज़िन्दगी में हम बटोरते ही रहते हैं, छोटी-छोटी चीज़ों में ही हमको आसानी से मिल जाती हैं। क्या वैसा ही मन आनन्द ढूँढता है, जो एक्सीलेंस (उत्कृष्टता) ढूँढता है, क्योंकि आम इंसान तो आनन्द पाने जाता भी नहीं है।

आचार्य प्रशांत: बेटा, खुशियाँ उतनी ही आसान होती हैं जितना आसान होता है दीवाली की मौजों में क्रेडिट कार्ड स्वाइप कर देना। कितना आसान होता है? बहुत आसान होता है। बहारें ही बहारें हैं, दुनिया का सैलाब है। धर्म का तो मतलब ही है ख़रीदारी। धर्म माने और क्या होता है? धर्म माने ख़रीदो। श्रीरामचन्द्र यही तो सिखा गये थे कि जब तक ख़रीदोगे नहीं तब तक तुम धार्मिक ही नहीं हुए। तो पहुँच गये हैं, आप भी ख़रीद रहे हैं।

और उसने कहा, ‘बस ले लीजिए, दो-लाख की चीज़ है। क्रेडिट कार्ड रखते हैं न?

कहे, हाँ।

बहुत आसान है, आसान है, ईज़ी। स्वाइप करो, हो गया। खुशियाँ इतनी आसान होती हैं। जो तुमने कहा न कि खुशियाँ तो चलते-फिरते ही मिल जाती हैं। ऐसे ही तो मिलती हैं चलते-फिरते। क्रेडिट कार्ड स्वाइप हो गया।

मूरख मन को लगता है कि खुशियाँ आसान या सस्ती हैं। ज़रा सी तेज़ निगाह के साथ देखोगे तो पता चलेगा कि बहुत बड़ी क़ीमत दोगे बेटा। बहुत बड़ी क़ीमत दोगे। सालाना चालीस प्रतिशत ब्याज, वो भी एक ऐसी चीज़ का जो वास्तव में तुम्हें चाहिए नहीं थी। तुमने भीड़ की उत्तेजना में आकर के वो चीज़ ख़रीद ली। और अब क्या कर रहे हो? उस पर चालीस प्रतिशत ब्याज दे रहे हो। और न दे पाओ उसकी किस्त मासिक, तो फिर तो पूछो ही नहीं कि क्या कहर बरपेगा।

मैं फिर कह रहा हूँ, सोचिए, कितना आसान है, मौक़ा है दीवाली का, जाकर क्रेडिट कार्ड स्वाइप कर दिया और खुशियाँ। (दोनों हाथों को फैलाकर खुशी की अभिव्यक्ति करते हुए)। इतना बड़ा झोला वो आपके हाथ में दे देगा। खुशियाँ ही बरस जाएँगी। देवी जी, दोनों लंगूर आपके सब बिलकुल चिपक जाएँगे आपसे। कहेंगे, ‘खुशियाँ, आ गयीं खुशियाँ घर पर।’ बहुत आसान है।

तुम कह ही रहे हो, खुशियाँ तो चलते-फिरते मिल जाती हैं। ऐसे ही तो मिलती हैं चलते-फिरते। साल भर रोओगे, अगली दीवाली तक रोओगे, तुम करो क्रेडिट कार्ड स्वाइप। क्रेडिट कार्ड का मतलब समझते हो न? उधार खाता। खुशी सदा उधार खाता है। वो तत्काल मिल जाती है, लेकिन उसके पीछे एक लम्बी श्रृंखला होती है दुखों की। अभी स्वाइप करोगे अभी माल मिल जाएगा।

खुशियाँ! और उसमें वो बाँधकर देगा बिलकुल, वो सुनहरा फीता। और ऐसे लेकर जाओगे घर। फोटो खींचोगे, फ़ेसबुक पर लगा दोगे। ‘खुशियाँ घर आयीं हैं आज।’ (चेहरे पर झूठी मुस्कुराहट लाकर व दोनों हाथ फैलाकर खुशियाँ लेकर आने का अभिनय करते हुए) ‘झिलमिल सितारों का आँगन होगा, रिमझिम बरसता सावन होगा। ’खुशियाँ आ गयीं, आ गयीं। तू साल भर रोने वाला है।

समझ में आ रही है बात?

खुशियाँ सस्ती नहीं होतीं हैं, सस्ती लगती हैं। क्यों लगती हैं? क्योंकि हम बदहवास हो जाते हैं वासनाओं और भावनाओं के बहाव में। हमें समझ में ही नहीं आता कुछ अच्छा-बुरा, हम पागल हो जाते हैं। क्या चकाचौंध रोशनियाँ हैं स्टोर की और सब ख़रीद रहें हैं, तो हम भी ख़रीदेंगे। और फिर वो जो सेल्स का लड़का है, वो तो बहुत ही चतुर-चालक, स्वाब है बिलकुल।

‘हाँ, हाँ, बिलकुल लीजिए, आप लीजिए।’ (दोनों हाथों से ख़रीदने का इशारा करते हुए)

वो भी अपनी खुशियाँ ढूँढ रहा है। वो कह रहा है, ‘तू ले दो-लाख की चीज़, बीस-हज़ार तो उसमें मेरा है।’ वो आपसे कह रहा है, ‘नहीं सर, ये आपके इतने काम आएगी, सर।’ वो कहे, ‘हाँ, हाँ’।

एक तो हीन भावना इतनी प्रबल होती है कि कोई सर भर बोल दे, उसके बाद वो पैकेट में कौए का पंख भी दे दे तो हम ले लेंगे क्रेडिट कार्ड स्वाइप करा के। फिर भले जब तुम बाहर निकल जाओ तो पीछे से बोले कि भूत ही था।

समझ में आ रही है बात?

ये सस्ती नहीं होती हैं चीज़ें, आप सोचते हों सस्ती ही तो हैं। उदाहरण के लिए कोई आ रहा है और वो आपको अपनी झूठी मुस्कुराहट दिखा रहा है और आपने भी उसे बदले में एक झूठी सी मुस्कान दे दी, तो आप कहेंगे, ‘आसानी से तो मिल गयी खुशी, कुछ भी नहीं है, देखो न!’ और यही तो आजकल बहुत सारे लोग हैं जो बता रहे हैं कि ज़िन्दगी की छोटी-छोटी चीज़ों में खुशियाँ ढूँढो न। छोटी-छोटी, मिनी क्रेडिट कार्ड में। माने छोटी चीज़ें यही सब तो हैं।

आपको पता भी है एक झूठी मुस्कान आपके भीतर झूठ को कितना गहरा बैठा देती है? आपको क्या लग रहा है, आपने ये खुशी सस्ती ख़रीद ली? नहीं, ये आपने बहुत बड़ी क़ीमत अदा करी है। और आप इतने बुद्धू हैं कि आपको पता भी नहीं चल रहा है आप कितनी बड़ी क़ीमत अदा कर रहे हो। मेरी छोटी सी, नन्ही सी बिटिया है और उसको खुशियाँ देकर के मुझे खुशियाँ मिलती हैं, तो मैं उसे खुशियाँ कैसे देता हूँ? मुझे पता है, उसे कुछ पसन्द है। क्या पसन्द होता है आजकल बच्चों को खाने में? कोई एक चीज़ बताओ?

श्रोता: चॉकलेट।

आचार्य: चॉकलेट, तो मैं उसे लाकर के चॉकलेट दे देता हूँ और वो खुश हो जाती है। जब वो खुश हो जाती है, तो मैं खुश हो जाता हूँ।

तुमको पता भी है तुम कर क्या रहे हो? तुम उसे घूस खाना सिखा रहे हो। इतनी सस्ती है तुम्हारी खुशी। तुमने अपनी बेटी को घूसखोर बना दिया। और अब वो दफ़्तर की घूसखोर नहीं है, वो घर की घूसखोर है। वो अपने हर रिश्ते में घूस खायेगी। वो कहेगी, ‘अगर तुम चाहते हो कि मैं मुस्कुराऊँ तो आज मुझे चॉकलेट लाकर दो, कल मुझे स्कूटी लाकर देना, परसों मुझे कार लाकर देना, उसके बाद हीरों का हार लाकर देना, तब मुस्कुराऊँगी।’

और जो आदमी अपनी मुस्कुराहट पर दाम रखना सीख गया, वो बिक गया, वो बाज़ारू हो गया। जिसको तुम कुछ दो बाज़ारू चीज़ और वो मुस्कुरा दे, वो आदमी ही बाज़ारू नहीं हो गया क्या? लेकिन तुम्हें तो लग रहा है कि मैंने तो बस तीस रुपए, पचास, सौ रुपए की चॉकलेट लाकर दी और मेरी गुड्डो मुस्कुरा दी। ये ज़िन्दगी की छोटी-छोटी खुशियाँ। ऐड्वर्टाइज़्मेंट (विज्ञापन) ज़्यादा देखते हो, वहीं पर ये सब बातें होती हैं।

‘ले आइए खुशियाँ अपने घर मात्र साढ़े सत्ताईस रुपये में।’

कहे, ‘बढ़िया है, साढ़े सत्ताईस रुपये में मिल रही है खुशी।’

साढ़े सत्ताईस रुपये में खुशी मिल रही है? ये सब सस्ते नहीं होते। फिर कह रहा हूँ, ये सस्ते लगते हैं, सस्ते होते नहीं हैं। ये सस्ते लगते हैं, सस्ते होते नहीं हैं। बचना जहाँ सस्ती खुशियाँ मिल रही हों, ऐसी जगहों से। बचना, बहुत बचना। दाम बहुत-बहुत महँगा होगा।

अब आनन्द पर आता हूँ। वहाँ खुशी के बिलकुल उलट खेल है। खुशियाँ सस्ती लगती हैं और होती बहुत महँगी हैं। आनन्द लगता महँगा है, लेकिन जब सौदा कर लो तो पता चलता है बहुत सस्ता था, बहुत सस्ता था। आनन्द ऐसा है कि जैसे तुम अपने घर का दस टन कचरा दे दो बीस ग्राम की किसी चीज़ के लिए। अब रो रहे हैं कि कितना महँगा सौदा किया, कितना महँगा सौदा किया! दस टन दिया! दस टन दिया और बदले में क्या मिला? बीस ग्राम। ‘बड़ा महँगा है आनन्द, बड़ा महँगा है आनन्द।’ पागल, वो जो बीस ग्राम है, वो बीस ग्राम का हीरा है। अब बताओ महँगा है या सस्ता है? दस टन कचरे के बदले में अगर बीस ग्राम का हीरा मिल गया, सस्ता है महँगा है?

तो आनन्द का खेल उल्टा है। ऊपर-ऊपर से देखोगे तो लगेगा कि मामला बहुत महँगा है, बहुत महँगा है। लेकिन ज़रा पास जाकर होशियारी से देखोगे, तो पता चलेगा कि बहुत बड़ी चीज़ मुफ़्त मिल गयी है। मुफ़्त मिल गयी है, क्यों? क्योंकि कचरा कोई क़ीमत रखता है क्या? बल्कि उस बीस ग्राम के साथ ये अतिरिक्त लाभ हुआ है कि घर कचरे से खाली हो गया। तो ऐसा भी नहीं है कि कचरे की क़ीमत चुकानी पड़ी है। असली बात तो ये है कि दो तरफ़ा फ़ायदा हुआ है — हीरा भी मिला और घर भी साफ़ हो गया। आनन्द इतना मुफ़्त होता है।

समझ में आ रहा है कुछ?

लेकिन आनन्द चाहिए किसी को नहीं। क्यों? क्योंकि अगर ग़ौर से नहीं देखोगे तो यही लगेगा कि मामला घाटे का है। दस टन दिया जा रहा है और मिल रहा है कुल बीस ग्राम। ‘भाई, ये तो बड़ा घाटे का मामला हो गया। बहुत लग गया, बहुत लग गया, मिला कुछ नहीं।’

अरे! जो मिला वो सूक्ष्म है, वो हल्का है। उसका वज़न थोड़े ही नापा जाएगा। वो चीज़ इतनी महीन है कि उसे तुम कचरे के साथ थोड़े ही तौलोगे। उसका मूल्य एक अलग आयाम का है। जिस तराज़ू पर कचरा तौला जाता है, उसी तराज़ू पर हीरा तौल सकते हो क्या बीस ग्राम का? हीरा तौलने का तो तराज़ू भी बड़ा महीन होता है। देखा है कैसे होते है वो? इतने छोटे-छोटे। कचरा तो तुम ले जाओ कचरे जैसे ही किसी जगह पर तुल जाएगा। हीरे को तो किसी सूक्ष्म यन्त्र, इलेक्ट्रॉनिक पर तौलना पड़ेगा, तो उसका ठीक-ठीक दाम भी पता चले। बहुत महीन उपकरण चाहिए हीरे की क़ीमत लगाने के लिए।

अब समझ रहे हो कि आदमी धोखा क्यों खाता है? क्योंकि खुशी लगती सस्ती है और आनन्द लगता महँगा है, लेकिन हक़ीक़त में खुशी होती महँगी है और आनन्द होता सस्ता है।

आ रही है बात समझ में?

दुनिया के बाज़ार में धोखा मत खा जाना, यहाँ सब लगे हुए हैं बेवकूफ़ ही बनाने के लिए। और जो तुम्हें बेवकूफ़ बनाना चाहेगा न, वो तुम्हें सबसे पहले ये भरोसा दिलाएगा कि वो तुम्हें कोई सस्ती चीज़ बेच रहा है। तुम्हारा फ़ायदा करा रहा है।

अभी एक जगह पर देखा मैंने, सुनना चाहोगे? वहाँ लिखा हुआ था कि ये एक हज़ार का आप वाउचर लें — कुछ नाम दे रखा था उसको, पता नहीं कैसे, गिफ़्ट हैम्पर, कार्ड — कुछ और ये आप लेंगे तो निश्चित रूप से अभी-के-अभी, आपको इन सात चीज़ों में से कोई एक चीज़ हम अभी दे देंगे।

जो उसमें सबसे ऊँची चीज़ थी, वो थी बुलेट की बाइक। लिखा ये डेढ़-दो-लाख की बाइक है, ये हो सकती है। उससे नीचे फिर कुछ और चीज़, वो सत्तर-अस्सी-हज़ार की। फिर उसके नीचे कुछ और, वो बीस-तीस-हज़ार का। फिर उससे नीचे कुछ और। और ये जो सात चीज़ें थीं, जो आपको वो कह रहे थे दे ही देंगे, उसमें जो सबसे नीचे की चीज़ थी वो लिख रखा था कि ये साढ़े-तीन-हज़ार की है। और वहाँ जो दुकानदार है वो कह रहा है कि आप ये ले लीजिए, इन सात में से कोई एक चीज़ अभी आपको हाथों-हाथ दे देंगे।

अब ये मामला तो बड़ा आकर्षक लग रहा है न। क्योंकि इसमें आपको अगर कोई घटिया-से-घटिया चीज़ भी मिली तो वो कितने की होगी? साढ़े-तीन-हज़ार की होगी। तो आप कहेंगे, ‘ये तो मैं ले ही लूँगा।’ और आप कहेंगे, ‘यार! मैं ये क्यों सोचूँ कि साढ़े-तीन-हज़ार की चीज़ मिलेगी, ऊपर वाली चीज़ें तो डेढ़-दो लाख तक की हैं, क्या पता अभी बाइक ही मिल जाए।’

अब मैं बताता हूँ ये चीज़ें काम कैसे करती हैं। ये चीज़ें ऐसे काम करती हैं कि इस कम्पनी ने जो सातवें नम्बर की चीज़ है, इसकी ख़रीदी है एक-लाख यूनिट्स (इकाइयाँ)। कितनी? एक-लाख यूनिट्स। और ऊपर की सब चीज़ों की ख़रीदी एक-एक यूनिट। नीचे वाली जो चीज़ थी चार-हज़ार की, उसकी ख़रीदी एक-लाख यूनिट्स और ऊपर की सब चीज़ों की, बुलेट की बाइक और ये और वो, उन सब की ख़रीदी एक-एक यूनिट। जो नीचे की चीज़ है, उसके बारे में उन्होंने अपने विज्ञापन में यही लिख रखा है कि इसका जो मार्केट रेट (बाज़ार मूल्य) है वो साढ़े-तीन-हज़ार है। मार्केट रेट किसको है साढ़े-तीन-हज़ार? जो रिटेल कस्टमर (खुदरा ग्राहक) है न, उसको साढ़े-तीन-हज़ार का पड़ेगा। लेकिन जब आप एक-लाख यूनिट उसकी ले लोगे, तो वो आपको कितने की पड़ी है? तो वो आपको पड़ी है पाँच-सौ रुपये की।

आपने सीधे कहा है ‘एक-लाख ख़रीदूँगा।’ वो चीज़ पाँच-सौ पर आ गयी है। अब जो भी कोई वो कार्ड को खुरचेगा, उसे क्या मिलने वाला है? वही पाँच-सौ वाली चीज़। तो हर व्यक्ति जो कार्ड खुरच रहा है, वो इस कम्पनी को कितने पैसे देकर जा रहा है? हज़ार देकर पाँच-सौ की चीज़ ले जा रहा है। तो पाँच-सौ का मुनाफ़ा हो गया न। और वो खुशी-खुशी जा रहा है कि मुझे तो साढ़े-तीन-हज़ार की चीज़ मिल गयी है। वो चीज़ है बस पाँच-सौ की।

बात समझ रहे हो?

और कम्पनी कानून की नज़रों में झूठी भी नहीं है, क्योंकि उसने एक-एक यूनिट ऊपर की सब चीज़ों की ख़रीद रखी है। तो कुछ प्रोबेबिलिटी (सम्भावना) तो है ही न कि ऊपर वाली चीज़ किसी को मिल ही जाएगी। लेकिन वो मिलेगी दो-तीन लाख लोगों में से किसी एक को। निन्यानवे दशमलव नौ-नौ प्रतिशत लोगों को कौनसी चीज़ मिलनी है? वो नीचे वाली जिस पर लिख रखा है कि मार्केट रेट साढ़े-तीन-हज़ार।

लेकिन आपने चूँकि वही-वही चीज़ ख़रीदी है धोखा देने के लिए लोगों को, तो आपको बहुत सस्ती मिल गयी है। आपको सस्ती मिली ही इसीलिए है, क्योंकि आप लोगों को धोखा देना चाहते हो और आपने सिर्फ़ उसी को ख़रीदा है। एक-लाख यूनिट , दस-लाख यूनिट आपने थोक में ख़रीदीं हैं, तो आपको सस्ती पड़ी है, इकोनॉमिक्स ऑफ स्केल। ठीक है?

लेकिन जब आप उस विज्ञापन को देखते हो, तो बड़ा लालच पैदा होता है कि कोई इतनी आसानी से बेवकूफ़ बन रही है इतनी बड़ी कम्पनी, तो हम भी क्यों न बना लें? ‘गंगा बह रही है, हाथ धो लो भैया और क्या पता बुलेट की बाइक निकल आये।’

बुलेट की बाइक नहीं निकलेगी, उसमें वही निकलेगी जो सबसे नीचे की चीज़ है। और जो सबसे नीचे की चीज़ है, वो लिखी हुई है साढ़े-तीन-हज़ार की, वो है बहुत सस्ती चीज़, घटिया चीज़। आप ख़ुद उस चीज़ को कभी पाँच-सौ रुपैया देकर भी न ख़रीदते। लेकिन अभी आपने क्या करा है? उसको आपने ख़रीद लिया है एक-हज़ार रुपये देकर। आप उसे पाँच-सौ रुपये देकर भी इसलिए नहीं ख़रीदते क्योंकि पहली बात तो वो चीज़ घटिया है, दूसरी बात उस चीज़ की आपको कोई ज़रूरत नहीं है, तो आप क्यों ख़रीदने जाते! पर अभी लालच के मारे आपने कर लिया।

देखो न, खुशियाँ आ गयीं। हैप्पी दीवाली! (प्रश्नकर्ता का नाम लेते हुए) बरसीं न खुशियाँ? ये इस जगत का व्यापार है, ये दुनिया ऐसे ही चलती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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