प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, आपको लगभग एक साल से सुन रहा हूँ। आपकी अनेक बातों में जो मूल एक सिद्धांत मुझे दिखता है वो ये है कि जीवन को वैज्ञानिक रूप से जियें, तथ्यों को देखें, और तथ्य ही सत्य का द्वार है।
अभी हाल-फ़िलहाल में हिन्दूओं और मुस्लिमों के बीच में दिल्ली शहर में दंगे हुए। ये बात मुझे बड़ी आहत कर गई और जितना आज-कल मीडिया में पढ़ने को मिल रहा है मुझे और जो मेरी छोटी समझ है, उससे ये दिखता है कि जो भारत का संविधान है, जो इतनी मेहनत, मशक्कत और स्ट्रगल के बाद हमें मिला, वो आज के समय सबसे ज़्यादा वैज्ञानिक ग्रंथ, वैज्ञानिक किताब है जो हमारे पास मौजूद है।
मेरा प्रश्न आपसे ये है कि जो धर्मग्रन्थ इतने पुराने हो चुके हैं और अक्सर कम्युनल लाइन को पार भी कर जातें हैं, उनके पक्ष में कुछ भी कहा-सुना क्यों जाए जब हमारे पास संविधान जैसा वैज्ञानिक एक ग्रंथ मौजूद ही है?
आचार्य प्रशांत: भारत का संविधान निस्संदेह मानव मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता हुआ एक सुंदर ग्रंथ भी है। उसको विधि-कानून भर की दृष्टि से ही ना देखा जाए; उसको ये समझने के लिए भी देख लिया जाए कि किन मूल्यों और आदर्शों पर चलकर एक राष्ट्र के लोग—और एक व्यक्ति भी—जीवन बिता सकते हैं, तो वो निस्संदेह मददगार है। मौलिक अधिकार संविधान में वर्णित हैं। मौलिक कर्तव्य भी संविधान में वर्णित हैं। सद्भावना, सहस्तित्व के मूल्य भी संविधान में उल्लिखित हैं। जीवन के प्रति वैज्ञानिक नज़रिया होना चाहिए, ये बात भी संविधान कहता है। यहाँ तक कि पशुओं की, विशेषकर गौवंश की रक्षा होनी चाहिए, ये बात तक संविधान हमारा कहता है।
मुक्ति, आज़ादी, फ़्रीडम, ये शब्द संविधान में ना जाने कितनी बार आता है। आपको अपने अनुसार अपना धार्मिक आचरण करने की आज़ादी है। आपको अपने अनुसार कहीं भी उठने-बैठने, बसने की आज़ादी है, आने-जाने की आज़ादी है। तो ये सब बातें संविधान में वर्णित हैं। लेकिन जिन्हें आगे जाना हो, जिन्हें आदमी के मन को ही समझना हो, उन्हें फिर ऐसा ग्रंथ चाहिए होगा जिसका उद्देश्य देश में नियम-कायदा चलाना ही भर ना हो, बल्कि जिसका उद्देश्य ही ये हो कि आदमी अपने मन को, जीवन को जाने, और मन पर जितने तरीक़े के अंधेरे होते हैं और बंदिशें होती हैं उनसे मुक्त हो सके।
जब संविधान लिखा जाता है, बनाया जाता है, तो उसका ये उद्देश्य होता ही नहीं है। ये तो सराहनीय बात है भारत के संविधान में कि उसने बहुत उच्च कोटि के मानव मूल्यों को अपने में समेट लिया है। समेट लिया है, अच्छी बात है, लेकिन फिर भी संविधान का ये उद्देश्य नहीं होता है—न भारत के संविधान का, ना दुनिया के किसी देश के संविधान का—कि आदमी को अपने मन की ऊहापोह से, अपने भीतर के अंधेरे से आज़ादी मिले।
आप संविधान के रचयिताओं के पास जाएँगे, वो कहेंगे, "बहुत अच्छी बात है अगर आप आंतरिक तौर पर मुक्त हो जाएँ, बहुत बढ़िया हो अगर हर आदमी आध्यात्मिक तौर से उन्नत हो जाए। लेकिन जब हम संविधान की रचना कर रहे हैं, तब भई हम स्पष्ट बताए देते हैं कि हमारा उद्देश्य देश चलाना है, हमारा उद्देश्य आदमी की आंतरिक मुक्ति नहीं है। हाँ, ये बात हम भी समझते हैं," ऐसा कहेंगे रचयिता, "कि देश को चलाने में सुविधा होती है अगर देश के लोग आंतरिक रूप से जागृत हों, कर्तव्यपरायण हों। तो जब हम चाहते हैं कि लोग अपने कर्तव्यों को समझें, जब हम चाहते हैं कि लोग एक-दूसरे की इज़्ज़त करना सीखें और सद्भावनापूर्ण सहस्तित्व में विश्वास रखें, जब हम चाहते हैं कि कोई किसी को धर्म के आधार पर ऊँचा-नीचा इत्यादि ना समझे, जब हम चाहते हैं कि जातिगत, या लिंगगत, या रंग आधारित भेद-भाव ना हो, तो हम निश्चित रूप से ये चाहेंगे कि देश में जगे हुए लोग हों क्योंकि एक जगे हुए आदमी के साथ देश को इन मूल्यों पर चलाना आसान हो जाता है।" आप बात समझ रहे हैं?
जिन्होंने भारत को संविधान दिया वो चाहते थे कि जात-पात के क्षुद्रपन के आधार पर नहीं चले देश की व्यवस्था। वो नहीं चाहते थे कि अलग-अलग धर्मों के अनुयायी आपस में लड़ते रहें, और जो देश की सरकारी व्यवस्था भी है, वो भी किसी एक समुदाय का पक्ष ले ले, समर्थन करे और दूसरे लोगों के विरुद्ध पक्षपाती हो जाए, उनको दबाए। वो ये सब चीज़ें चाहते थे। वो नहीं चाहते थे कि समाज में जो लोग पिछड़े हैं वो पिछड़े ही बने रह जाएँ; वो चाहते थे कि सब उठें, सब बढ़ें। महिलाएँ हैं, तो महिलाओं को अधिकार मिले। अगर किसी क्षेत्र की जनजातीय आबादी है, आदिवासी इत्यादि हैं, तो उनको विशेष अधिकार मिलें। ठीक है?
तो ये सब चीज़ें ज़्यादा आसानी से तब संभव हो पाती हैं जब देश के लोग जगे हुए हों। तो वो भी स्वागत करते हैं। कहते हैं, "हाँ, बिलकुल अच्छी बात है कि अगर आध्यात्मिक रूप से देश के लोग जागृत हैं; हमारा काम आसान होगा।" लेकिन फिर भी हमें ये बात भूलनी नहीं चाहिए कि अगर वो ये चाहते भी कि देश के लोग आध्यात्मिक रूप से जागृत हों, तो ये उनका अंतिम उद्देश्य नहीं है।
भूलिएगा नहीं कि वो बैठे हुए हैं संविधान ड्राफ्ट करने (रचने) के लिए। उन्हें संविधान रचना है, उन्हें देश को एक नियम-कायदे से चलाना है। देश का आदमी अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी कैसे जी रहा है, इससे उनको विशेष मतलब नहीं है, या इससे उनका कम-से-कम प्राथमिक ताल्लुक़ नहीं है।
उनका प्राथमिक उद्देश्य क्या है? कि देश सुव्यवस्थित रूप से चलता रहे। ये संविधान की बात है। हाँ, देश सुव्यवस्थित रूप से चलता रहे इसके लिए वो ये ज़रूर चाहेंगे कि देश के लोग भई, भीतर से भी ज़रा चैतन्य हों, जगे हुए हों। वो ठीक है। पर वो कहेंगे कि भाई तुम भीतर से चैतन्य हो या नहीं हो, ये फिर भी तुम्हारा निजी मसला है।
हम चाहेंगे कि तुम भीतर से जगे हुए हो, लेकिन अगर तुम नहीं भी होते, तो तुम जानो। हमारा प्राथमिक उद्देश्य क्या है? कि हम उन नियमों की, उन आधारों की स्थापना कर दें जिनके आधार पर इस देश में एक राजनैतिक व्यवस्था चलेगी। ये उनका प्राथमिक उद्देश्य था, ठीक है? बात समझ में आ रही है?
अब आते हैं धर्म ग्रंथों पर। धर्म ग्रंथों का प्राथमिक उद्देश्य ही दूसरा होता है। कोई धर्म ग्रंथ आपको ये बताने नहीं आएगा कि ये राजनैतिक व्यवस्था कैसी चलनी चाहिए इत्यादि। धर्म ग्रंथ का प्राथमिक उद्देश्य है आदमी को व्यक्तिगत रूप से उसके आंतरिक नर्क से बचाना। हम बाहर ही बाहर तो परेशान होते हैं। एक परेशानी तो ये है कि देश में राजनैतिक अव्यवस्था है, या सामाजिक उथल-पुथल है। वो तो बाहर की परेशानी हो गई।
और एक अंदर की परेशानी होती है न? जिसमें ऐसा भी हो सकता है, बल्कि ऐसा ही ज़्यादा होता है, कि बाहर तो सब ठीक-ठाक चल रहा है, बड़ी सुव्यवस्था है। कई देश ऐसे हैं पश्चिम में जहाँ आप जाएँगे तो सड़कों पर आपको बड़ा अनुशासन मिलेगा और जितनी भी वहाँ पर सरकारी व्यवस्थाएँ हैं, वो सब आपको बिलकुल ढर्राबद्ध मिलेंगी। सब काम वहाँ नियम-कायदे से हो रहा होगा। लेकिन आदमी के अंदर संग्राम मचा हुआ है, आदमी के अंदर नर्क उबल रहा है।
तो इन दोनों का उद्देश्य अलग-अलग है। संविधान चाहता है बाहर की व्यवस्था ठीक-ठाक रहे। उसने कुछ नियम दे दिए हैं बाहर किसी तरीक़े से एक सुव्यवस्था चलती रहे, अराजकता ना फैलने पाए इसके लिए। और जब आप जाते हैं संतों के ग्रंथों की ओर, या वेदांत की ओर, या अन्य आध्यात्मिक किताबों की ओर, तो वो आपको ये बिलकुल नहीं बताएँगे कि सड़क पर कैसे चलना है, केंद्रों में और राज्यों में धन का बटवारा कैसे होगा, और केंद्र कब राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकता है, या कि किसी भी राज्य में राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होगी, कहीं पे विधानसभा होगी कि नहीं होगी। समझ में आ रही है बात? ये सब काम धर्मग्रंथों के नहीं हैं।
धर्मग्रंथ कहते हैं, "हमें इस बात से मतलब क्या? हमारा क्षेत्र ही अलग है। हमारा क्षेत्र है मन और जीवन। हम तुमसे बात करना चाहते हैं तुम्हारे दिल की—वहाँ क्या चल रहा है भाई? और ले आओ तुमको बाहर जितनी क्रांति लानी है, बाहर जितनी तरह की सुव्यवस्था लानी है, बदल लो जितनी धाराएँ बदलनी हैं; भीतर अगर तुम्हारे डर बैठा ही हुआ है, भीतर अगर तुम्हारे लालच और वासनाएँ बैठी ही हुई हैं, तो बाहर की व्यवस्था से तुम्हें बहुत लाभ नहीं होने वाला।" बात समझ में आ रही है?
अब संविधान तो कह देगा कि भारत सेक्युलर-सोशलिस्ट (पंथनिरपेक्ष-समाजवादी) है, लेकिन भीतर अगर धर्म का अर्थ ही नहीं पता तो धर्मनिरपेक्ष तो क्या होंगे आप, अधर्मी ज़रूर हो जाएँगे, ठीक है? आप अगर संविधान को उठाएँ, आरंभ में ही उसमें प्रिएँबल (प्रस्तावना) में लिखा है, डेमोक्रेटिक सेक्युलर सोशलिस्ट रिपब्लिक (लोकतंत्रात्मक पंथनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य)।
आप जानते ही नहीं हैं कि 'जन' कौन हैं, तो जनतंत्र का आपके लिए क्या अर्थ हो जाना है भई? 'जन' माने इंसान, 'जन' माने जीव। जीव पता नहीं, तो जनतंत्र के प्रति आप कौन-सी निष्ठा दिखा लोगे? और आप जनतंत्र का नारा बहुत लगा भी लोगे, तो बात खोखली-सी ही होगी। आपके लिए जनतंत्र का इतना ही मतलब होगा कि आओ, वोट डाल दो अपनी-अपनी अकल के अनुसार, खुद जैसे हो उसी तरीक़े का नेता चुन लो और फिर उस नेता की कोई बात ठीक ना लगे, तो सड़कों पर कूद-कूद के नारे लगा दो। कहोगे, "यही तो जनतंत्र है।"
इस तरीक़े का जनतंत्र तब होगा जब जीवन में अध्यात्म नहीं है। 'जन' का ही नहीं मतलब समझते, जनतंत्र क्या करोगे? धर्म नहीं समझते, धर्मनिरपेक्षता का क्या अर्थ कर लोगे, भई? फिर तो धर्मनिरपेक्षता का इतना ही अर्थ हो जाएगा तुम्हारे लिए कि मुझे किसी भी तरीक़े से धर्म की बात करनी ही नहीं है। धर्म को ही अस्पृश्यता का विषय बना लोगे। कहोगे "धर्म से दूर-दूर रहना है, दूर-दूर रहना है।" क्यों? "क्योंकि हम धर्मनिरपेक्ष हैं।"
इसी तरीक़े से जब मन में करुणा ही नहीं, तो कैसे हो जाओगे सोशलिस्ट (समाजवादी)? समाजवाद का अर्थ क्या हो गया तुम्हारे लिए? समाजवाद के पीछे जो मूल भावना है वो यही है कि आदमी और आदमी में भाई इतना भी फ़र्क नहीं होना चाहिए कि एक राजा और एक रंक। जब प्रकृति ने सबको बराबर ही बनाया है, तो इतना मत अंतर कर दो कि सारी पूंजी कुछ हाथों में चली गई और बाकी सब ऐसे ही खाली बैठे घूम रहे हैं भिखारी की तरह। हाँ, ये बात बिलकुल समझ में आती है कि आदमी और आदमी में संकल्प का और श्रम का अंतर होता है।
जिसमें ज़्यादा संकल्पशीलता है, जो मेहनत ज़्यादा करता है, उसके पास शायद पूंजी भी ज़्यादा होनी चाहिए, उतना समझ में आता है। लेकिन ये बात बिलकुल ठीक नहीं है कि एक आदमी के पास देश के औसत की अपेक्षा दस हज़ार गुना ज़्यादा पूंजी हो—ये होता है, बहुत ज़्यादा होता है। ये जानते हैं ना हम, दुनिया की अस्सी-नब्बे प्रतिशत पूंजी दुनिया के एक प्रतिशत से दो प्रतिशत लोगों के हाथ में होती है? हर देश में आपको इसी तरह का आंकड़ा मिलेगा—कहीं थोड़ा कम, कहीं थोड़ा ज़्यादा।
समाजवाद उठता है प्रकृति की समझ से। समाजवाद की बुनियाद है करुणा। अब संविधान करुणा थोड़े ही सीखा देगा आपको। करुणा और प्रेम का तो बहुत गहरा नाता है। संविधान आपको प्रेम थोड़े ही सिखा देगा। हाँ, संविधान वो बहुत खूबसूरत रूप से, बखूबी कर रहा है जिस काम के लिए उसकी रचना हुई है। संविधान को साधुवाद—बहुत सुंदर संविधान है। लेकिन भाई वो उतना ही तो करेगा ना जितना उसका क्षेत्र उसको अनुमति देता है?
भूलिएगा नहीं कि संविधान का क्षेत्र सीमित है। क्या क्षेत्र है संविधान का? और संविधान का जो क्षेत्र है उसको हम नहीं सीमित कर रहे, उसको सीमित कर दिया है उसको रचने वालों ने ही। संविधान की परिभाषा ही ये है कि ये वो विधान है, ये नियमों, कानूनों का वो संकलन है, जिसके आधार पर ये देश चलेगा, और देश में अन्य जितने भी कानून बनेंगे वो संविधान का उल्लंघन नहीं कर सकते। तो संविधान इस देश का महाकानून है, ठीक है?
तो कानून तो सब आचरण के ऊपर होते हैं ना कि तुम कैसे चलोगे, कैसे खाओगे, कैसे जिओगे। तुम्हारे भीतर क्या चल रहा है इसपर कोई कानून बनता है कभी, बोलो? कोई कानून आपको ये बता सकता है कि आप क्या सोचेंगे? कोई कानून क्या ये आपको सिखा सकता है कि आपकी भावनाएँ कैसी होनी चाहिए, किससे प्रेम करना है, किससे नहीं करना है? तो संविधान भी सब बाहर-बाहर की बात कर लेता है, अंदर की बात बिलकुल वो नहीं करता क्योंकि वो कर सकता ही नहीं है।
अंदर की बात करने के लिए फिर आपको चाहिए उपनिषद, फिर आपको चाहिए कोई भगवद्गीता। तो ये बहुत ही नासमझी की बात है कि लोग कहते हैं, "साहब, ना गीता ना कुरान, मेरा तो ग्रंथ है संविधान।" ये बेकार की बात है। जो लोग ये बात कह रहे हैं वो गीता-कुरान तो ज़ाहिर है नहीं समझते, वो संविधान भी नहीं समझते हैं। शायद उन्होंने संविधान कभी ठीक से पढ़ा ही नहीं। संविधान आप ठीक से पढ़ेंगे, तो आपको ही समझ में आ जाएगा कि संविधान का एक दायरा है, और उस दायरे में वो एक ज़बरदस्त काम कर रहा है।
लिखित संविधानों में दुनिया भर में भारत का संविधान शायद श्रेष्ठतम है। जितना विस्तृत भारत का संविधान है इतने बहुत कम संविधान हैं। और जो मूल्य भारत के संविधान में निहित हैं वो दुनिया के ऊँचे-से-ऊँचे मूल्यों में है। लेकिन फिर भी, ये बात मैं चौथी-पाँचवी बार दोहरा के कह रहा हूँ, संविधान का दायरा तो सब बाहर का है न?
तुम भीतर-ही-भीतर जल रहे हो ईर्ष्या में—जैसा की सब जलते हैं। अगर एक सौ चालीस करोड़ की भारत की आबादी है, तो उसमें से कितने लोग ईर्ष्यालु हैं, बताइएगा? एक सौ चालीस करोड़ में से कितने लोग ईर्ष्या का अनुभव करते हैं? एक सौ चालीस में से एक सौ चालीस करोड़। संविधान में कहीं भी लिखा है क्या, " डू नॉट बी जेलस (ईर्ष्या मत करिए)"? लिखा है क्या? तो ईर्ष्या से बचना है, ये संविधान थोड़े ही बताएगा, बाबा। इतनी सी बात समझ में क्यों नहीं आती? लोग कहते हैं, "नहीं साहब, हमारे तो नेता वही हैं।
हम उन्हें अब नेता ही नहीं मानेंगे, उन्हें तो हम साधु भी मानेंगे जिन्होंने संविधान की रचना कर दी।" ठीक-ठाक बात करो। क्या कर रहे हो ये? बेशक वो इज़्ज़त के हकदार हैं, लेकिन जो जिस कोटी का है, उसको उसी कोटी में रखो भाई। ट्रेन बहुत ज़ोर से भागेगी तो प्लेन थोड़े ही हो जाएगी। हाँ, बुलेट ट्रेन है, तो उसको नमस्कार है। क्या भागती है, बहुत तेज़ भागती है। लेकिन कितना भी तेज़ भाग ले, वो ज़मीन की चीज़ है; अध्यात्म आसमान की चीज़ है। बुलेट ट्रेन भी हवाई जहाज़ नहीं हो जानी है। इसी तरीक़े से संविधान ज़मीन की शायद श्रेष्ठतम चीज़ है—बिलकुल बुलेट ट्रेन है। लेकिन आसमान की चीज़ नहीं हो सकता वो। समझ में आ रही है बात?
और आप कहेंगे, "हमें आसमान चाहिए ही नहीं।" आपको आसमान इसीलिए नहीं चाहिए क्योंकि आपने अपना मुँह ही ज़मीन में गाढ़ रखा है। और इसीलिए आप भीतर से इतने जल रहे हैं, इतने दुःखी हैं, इतना बुखार है भीतर से। आदमी ऐसा है कि उसको लगातार एक आंतरिक अशांति बनी ही रहती है। और वो आंतरिक अशांति जब तक मिटेगी नहीं तब तक बाहर की व्यवस्था कितनी भी साफ़़-सुथरी कर दी जाए, बाहर आपको कितना भी न्याय दे दिया जाए, आप भीतर से अतृप्त ही रहेंगे।
कोई ये सोचे अगर कि सामाजिक न्याय मिल जाएगा या आर्थिक न्याय मिल जाएगा, तो बस मज़ा आ गया, जीवन के सब उद्देश्यों की पूर्ति हो गई, तो वो पगला है। हमें दोनों चाहिए। बाहर की दुनिया में हमें वो सब कुछ चाहिए जो हमें संविधान देता है—सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय। वो सारे अधिकार जो एक मुक्त नागरिक के एक मुक्त समाज में होने चाहिए, हमें वो सब निस्संदेह चाहिए। हमारे लिए संविधान बहुत आवश्यक है। लेकिन साथ-ही-साथ हमें वो सब चाहिए जो हमें भीतर से भी तृप्ति देगा, जो भीतर की ज्वाला को शांत करेगा। हमें दोनों ही चाहिए। बात समझ में आ रही है?
इन दोनों में से कोई भी दूसरे का विकल्प नहीं हो सकता। कोई ये कहे कि संविधान मात्र रखूॅंगा और आत्मज्ञान में कोई रुचि नहीं—खुद को नहीं जानना, मन को नहीं जानना, जीवन को नहीं जानना—तो उसका जीवन बाहर से हो सकता है कि ठीक-ठाक लगे, अंदर-ही-अंदर उसकी हालत बड़ी ख़राब रहेगी। और भूलिएगा नहीं कि बाहर-बाहर आप भले ही समाज के साथ जीते हों, लेकिन अंदर-अंदर चौबीस घंटे आप अपने साथ जीते हैं। अगर आप अपने साथ स्वस्थ नहीं हैं, तो स्वस्थ-से-स्वस्थ सामाजिक माहौल भी आपके बहुत काम नहीं आएगा।
अब आते हैं इस बात पर कि बाहरी माहौल और भीतरी माहौल में से ज़्यादा महत्वपूर्ण कौन-सा है। चलिए, फिर उन्हीं के पास चले चलते हैं जिन्होंने हमें संविधान दिया। कोई एक व्यक्ति नहीं था वो, पूरी-की-पूरी कमिटी (समिति) थी, और बहुत ज़बरदस्त लोग थे उसमें जो बैठे थे। उन्होंने ये सब मूल्य संविधान में नींव की तरह क्यों रखे?
कहिए, समता, न्याय, अधिकार, ये सब क्यों रखे? क्या वजह थी? बाहर की दुनिया में आपको कुछ मौलिक अधिकार मिलें, ऐसी व्यवस्था उन्होंने क्यों करी? कहिए। जो समाज का पिछड़ा और उपेक्षित वर्ग रहा है, उसको बड़े प्यार से हाथ थामकर ऊपर उठाना है, ऐसी व्यवस्था उन्होंने क्यों करी? कहिए। क्योंकि उनके दिल में करुणा थी।
तो बाहर की दुनिया के लिए भी आप एक अच्छा संविधान रच सकें, इसके लिए दिल में करुणा होनी चाहिए। और करुणा संविधान का नहीं, धर्म का विषय है। माने अंदर से अगर आप ठीक होंगे तभी आप बाहर के लिए भी एक अच्छा आदर्श रच पाएँगे। संविधान एक बहुत अच्छा आदर्श है। तो जो लोग संविधान के निर्माता थे, फ़र्क नहीं पड़ता कि वो अपने आप को किस रुप में चित्रित कर रहे हैं या अपना परिचय किस तरह से दे रहे हैं, इतना सुन्दर संविधान रचने के लिए आवश्यक है कि वो लोग मूल रूप से धार्मिक रहे हों। क्योंकि अगर आप धार्मिक नहीं हो, तो आप दूसरे की मदद क्यों करना चाहोगे? बोलो।
ये मत कह दीजिएगा कि ये तो बस मानव मूल्य हैं; मानव मूल्य कुछ नहीं होते। दो ही चीज़ें होती हैं: या तो प्राकृतिक मूल्य या दैवीय मूल्य। प्राकृतिक मूल्य वो होते हैं कि अपने जिस्म कि बचाओ, मज़े करो, खाओ-पियो, संतान पैदा करो और ज़िंदगी जियो। ये प्राकृतिक मूल्य हैं, ये जंगल के मूल्य हैं। प्राकृतिक मूल्य ये होते हैं कि अगर एक-दूसरे से किसी तरीक़े का मेल या गठबंधन करना भी है, कोऑपरेशन (सहकार्यता) करना भी है, तो वो इसीलिए करना है ताकि आपस में लाभ हो सके। जैसे शेरों का एक झुंड शिकार करने निकले, तो वो सब आपस में क्या कर रहे हैं? कोऑपरेशन कर रहे हैं। पर वो कोऑपरेशन क्या प्रेम के नाते है? वो किसलिए है? कि शिकार करने में मदद मिलेगी। तो ये प्राकृतिक मूल्य होते हैं। प्रकृति में भी ऐसा होता है कि ज़रा भई ठीक-ठाक चलें, ऐसा है, वैसा है।
जानते हो, शेर शिकार करने जाता है—या कई अन्य जंगली जीव भी—तो जो प्रजातियाँ होती हैं जिनको मारकर खाया जाता है, अगर ये अहसास होने लगता है शिकारी जीवों को कि उन प्रजातियों की तादाद घट रही है, तो उनका शिकार करने में सकुचाते हैं। तुम्हें क्या लग रहा है, ये करुणा के नाते है? इसी तरीक़े से शिकार अगर करने जा रहे हैं, तो वो पहली वरीयता देते हैं प्रौढ़ जानवरों को। जो शावक होते हैं, नन्हे बच्चे, मान लो हिरण वगैरह के, उनको नहीं मारना चाहते।
ये ना प्रेम है ना करुणा है, ये प्रकृतिगत स्वार्थ है। क्योंकि भाई अगर सारे ही मार दिए, तो खाने को क्या पाओगे? इसीलिए उतने ही मारो जितने में तुम्हारे शिकार का भी वंश चलता रहे। "फल तोड़ो, पेड़ मत काट दो, अगर फल लगातार चाहिए तो," वही वाली मानसिकता है। तो ये प्राकृतिक मूल्य होते हैं। या तो इन प्राकृतिक मूल्यों पर चल लो।
दैवीय मूल्य दूसरे होते हैं। दैवीय मूल्य मानव मूल्य नहीं कहे जा सकते; दैवीय मूल्य परामानव मूल्य हैं, वो धार्मिक मूल्य हैं। दैवीय मूल्य आपको यूँ ही नहीं मिल जाएँगे। आप कहेंगे, "वो तो हम पैदा हुए हैं, तो हमें पता है ना कि दूसरों को इज़्ज़त देनी है।" नहीं साहब, आप बच्चे को मत सिखाइए कि इज़्ज़त देनी होती है, वो इज़्ज़त देना नहीं जानेगा। प्राकृतिक मूल्य नहीं है सम्मान देना ज्ञान को। ये बात तो धर्म सिखाता है। हाँ, आप कह सकते कि, "पर मैंने तो कभी धार्मिक शिक्षा ली नहीं, उसके बाद भी मैं प्रेम जानता हूँ, करुणा जानता हूँ, सम्मान देना जानता हूँ।" हो सकता है कि आपने औपचारिक रूप से धार्मिक शिक्षा ना ली हो, लेकिन आप पर किसी-न-किसी तरीक़े से धार्मिक प्रभाव पड़े हैं, तभी आप जानते हैं दूसरे की भलाई के लिए अपने आप को समर्पित कर देना। प्रकृति में ऐसा नहीं होता।
इंसान भी है तो एक चिंपांज़ी, लंगूर ही न, जंगल का बाशिंदा ही न। और जंगल में ऐसा नहीं होता कि तुम दूसरे की भलाई के लिए अपना उत्सर्ग कर दो, ना। हाँ, जंगल में ममता होती है, प्रेम नहीं होता। इतना आप देखेंगे कि एक छोटा छौना है, वो अगर ख़तरे में है तो उसके बचाने के लिए उसकी जो माँ है वो अपने आप को ख़तरे में डाल देगी, पर इसका नाम प्रेम नहीं है। ये तो प्राकृतिक संस्कार हैं, ये तो शरीर में बसे हुए संस्कार हैं। समझ में आ रही है बात?
तो जिनको आप ह्यूमन वैल्यूज़ (मानव मूल्य) कहते हैं ना, वो कुछ नहीं होते, वो वास्तव में धार्मिक मूल्य ही हैं। लेकिन ये हमारी गहरी एहसान फ़रामोशी है कि हमने धर्म से मूल्य भी ले लिए और धर्म को उसका क्रेडिट (श्रेय) भी नहीं देते। हम ये मानने को तैयार नहीं हैं कि वो धार्मिक मूल्य हैं। वो स्पिरिचुअल वैल्यूज़ (धार्मिक मूल्य) हैं, हम ऐसा नहीं कहते। हम उनको क्या कहने लग जाते हैं? *ह्यूमन वैल्यूज़*।
ये तो मानव मूल्य हैं। मानव मूल्य कुछ नहीं होते, ये बात अच्छे से समझ लीजिए। आदमी के बच्चे को अगर आप धार्मिकता नहीं सिखाएँगे, तो वो जानवर निकलेगा, जानवर से भी बदतर निकलेगा क्योंकि उसके पास एक बहुत घातक अस्त्र है, बुद्धि। और बुद्धि धर्म का निर्माण नहीं कर सकती, बुद्धि स्वयं या तो धर्म पर चलती है या अधर्म पर चलती है। धर्म बुद्धि से गहरा है, धर्म बुद्धि के पीछे है। बुद्धि दोनों तरह की हो सकती है: धार्मिक और अधार्मिक। अगर आप धर्म में प्रवीण नहीं करेंगे बच्चे को, तो बुद्धि तो उसकी चलेगी पर फिर अधार्मिक तरीक़े से चलेगी, या आप कह सकते हैं कि प्राकृतिक तरीक़े से चलेगी। समझ रहे हो?
तो संविधान में भी जो इतने श्रेष्ठ मूल्य आपको देखने को मिलते हैं—भाईचारा, बंधुत्व—ये सब वास्तव में धार्मिक मूल्य ही हैं। लेकिन ये हमने गलत काम कर रखा है कि हम मानते भी नहीं कि ये धार्मिक मूल्य हैं। मेरी ये बात सुनकर कई लोगों को बड़ा झंझट हो रहा होगा। वो कहते हैं कि धर्म तो किसी काम की चीज़ है नहीं, जैसा कि ये जो प्रश्नकर्ता हैं, इनका भाव है। ये कह रहे हैं, "जब संविधान है, तो गीता की ज़रूरत क्या है?" भाई, गीता ना होती, तो संविधान भी नहीं होता। संविधान में जो उदात्तता है, संविधान में जो ऊँचाई है, वो क्या जंगल से आयी हैं? बोलो। संविधान में ये जो बड़प्पन का भाव है, वो आया कहाँ से है? वो धर्म से ही तो आया है, और कहाँ से आया है?
खेद की बात ये है कि जिस पीढ़ी ने संविधान की रचना की, उसमें महात्मा गांधी के अलावा कोई नहीं था जिसने धर्म को बराबर श्रेय दिया हो। कोई नहीं था, या कम थे। तिलक थे, गोखले थे, पर जब तक आज़ादी आयी तब तक वो थे नहीं। आज़ादी के समय जो बड़े नेता थे, उनमें से बहुत कम थे जो साफ़-साफ़ धर्म को उसका श्रेय देने को तैयार थे।
और तो और छोड़ दो, मोहम्मद अली जिन्ना जिन्होंने धर्म के आधार पर ही बटवारा कराया भारत का, वो तक धर्म को श्रेय देने को तैयार नहीं थे। जिन्होंने उनके जीवन को करीब से पढ़ा है, वो जानते होंगे कि जिन्ना करीब-करीब स्वयं एक नास्तिक थे। अब इसमें नेहरू की क्या बात करें, अम्बेडकर की क्या बात करें। बहुत ऊँचे लोग थे ये, लेकिन धर्म को श्रेय नहीं दे पाए कभी। जबकि जो ये कर रहे थे वो काम धार्मिक ही था।
और धार्मिक काम, याद रखिए, आप यूँ ही नहीं करने लग जाते। ऐसा नहीं होता कि किसी आदमी को आप धर्म से दूर रखो, दूर रखो, उसको ना वेदांत पढ़ने दो, ना भजन गाने दो, और वो यकायक धर्म में पारंगत हो जाएगा। नहीं, ऐसा नहीं होता। धर्म की भी शिक्षा देनी पड़ती है। और मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आप रीति-रिवाज़ो में किसी को संस्कारित कर दें, तो इसका नाम धार्मिक शिक्षा है। धार्मिक शिक्षा का मतलब होता है मन के क्रियाकलापों के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण। ये होती है धार्मिक शिक्षा।
जीवन में हमें और बाकी जितनी शिक्षा मिलती है, वो मिलती है बाहर की दुनिया को देखने की, है ना? धार्मिक शिक्षा का मतलब ये नहीं है कि आपको सिखा दिया गया कि आरती कैसे करनी है या दिन में नमाज़ कितने दफ़ा पढ़नी है। ये नहीं धार्मिक शिक्षा है। मैं इसकी बात नहीं कर रहा हूँ। धार्मिक शिक्षा का अर्थ होता है उस तक पहुँचना, वो जो भीतर बैठा हुआ है और हमें चैन नहीं लेने देता। और ये हर आदमी की कहानी है कि नहीं है? सब बेचैन रहते हैं कि नहीं रहते हैं? तो धर्म का मतलब है अपनी बेचैनी की जड़ों तक पहुँचना और अपनी बेचैनी की जड़ पे जब पहुँच जाता है, कहते हैं कि बेचैनी से निजात पा जाता है। ये धार्मिक शिक्षा है। बात समझ में आ रही है?
तो धर्म की जड़ें जितनी मज़बूत होंगी, उतना ज़्यादा संभव हो पाएगा भारत के संविधान जैसे एक ख़ूबसूरत फूल का खिलना। भारत का संविधान एक बहुत सुंदर फूल है, लेकिन वो जिस पेड़ पर लगा है न, वो धर्म का पेड़ है। उस फूल का रस धर्म की जड़ों से आ रहा है। उस फूल की खुशबू वास्तव में धार्मिक ही है। लेकिन बहुत सारे नौजवान वगैरह होते हैं या थोड़े भीतर से कम विकसित लोग, अल्प-अर्ध विकसित लोग, उन्हें लगने लगता है कि ये फूल ऐसे ही आ गया कहीं से। बिना पेड़ के ही फूल आ गया है। वो कहते हैं, "संविधान बनाओ बढ़िया, संविधान बनाओ बढ़िया, धर्म की ज़रूरत क्या है?" ये ऐसी सी बात है कि "फूल लाओ बढ़िया, फूल लाओ बढ़िया, पेड़ की ज़रूरत क्या है?" धर्म का पेड़ नहीं होगा, तो संविधान जैसा सुंदर फूल लगेगा कहाँ? समझ में आ रही है बात?
आदमी के दिल में, संविधान के रचयिता के दिल में अगर करुणा का भाव नहीं होगा, तो वो संविधान में वो सारे प्रावधान रखेगा क्यों जो आप पाते हैं आज वहाँ पर? इसी तरीक़े से समझिए कि अगर भारत की आबादी ही धार्मिक ना होती, तो जितनी बातें संविधान में कई गई थीं उनका पालन क्यों करतीं? आप बना लो संविधान, काला अक्षर ही तो है। बोलो।
पर पिछले सत्तर साल से कभी थोड़ा कम, कभी थोड़ा ज़्यादा, ये देश संविधान के प्रति निष्ठापूर्ण तो रहा है। डिगता रहा है भीतर, इधर-उधर, लेकिन इसने कभी भी संविधान को उठाकर फेंक नहीं दिया, अपमानित नहीं करा, तिरस्कार नहीं कर दिया। कुछ संशोधन करे हैं, वो समाय की माँग है। लेकिन फिर भी जो संविधान की मूल भावना है, उसके साथ कभी दुर्व्यवहार नहीं करा इस देश ने। करना चाहता ही नहीं है ये देश। क्यों नहीं करना चाहता? क्योंकि सत्तर साल पहले भी जब ये देश अशिक्षित था, गरीब था, हर तरीक़े से पिछड़ा हुआ था, तो भी धार्मिक था। चूँकि ये देश धार्मिक था इसीलिए ये देश उस संविधान को स्वीकार कर पाया। समझ में आ रही है बात?
तो संविधान भी बिना धर्म के नहीं चल सकता। आप क्या समझते हैं, देश की आबादी सारी खड़ी हो जाए और कहे, "नहीं साहब, हमें तो हिन्दू-मुस्लिम दंगे करने ही करने हैं और हमें तो जात-पात माननी ही माननी है और हम तो नहीं मानते कि दक्षिण वाले हमारे भाई हैं कि पूरब वाले हमारे भाई हैं। हम उनको नहीं भाई-वाई मानते। हम पंजाब के हैं, हम बस पंजाबी हैं, हमें और नहीं कुछ पता है।"
तो आपको क्या लगता है, पुलिस हो कि फ़ौज हो, वो देश को एक रख पाएगी? अगर देश का आम आदमी ही भीतर से जानवर हो जाए बिलकुल, तो संविधान काम आएगा क्या? कहिए, बोलिए। कितनी पुलिस है? कितनी फ़ौज है? क्या करोगे? देश के नागरिकों पर ही बम गिराओगे? कैसे उनको काबू में रख लोगे अगर वो अंदर से स्वयं ही आत्मानुशासित नहीं है? बोलो, रख पाओगे क्या उनको काबू में? एक सौ चालीस करोड़ लोग अराजक हो गए, फ़ौज रोकेगी उनको? दुनिया की कौन-सी फ़ौज एक सौ चालीस करोड़ लोगों को बस में कर सकती है? कर सकती है क्या? तो इस देश के लोग, जो संविधान का सम्मान करते आए हैं, दिल से उसको मानते आए हैं, वो इसीलिए मानते आए हैं क्योंकि इस देश की जड़ें धार्मिक हैं।
इस देश की जड़ें इतनी धार्मिक हैं कि जब तुम इन धार्मिक लोगों को कहते हो धर्मनिरपेक्षता, तो वो उसको मान लेते हैं। क्योंकि धर्म ही है जो आपको बताता है कि अक्षर से बड़ा दिल होता है। धर्म ही है जो आपको बताता है कि एक अलफ़ पढ़ो छुटकारा है। तो इसलिए इस देश के एक अशिक्षित किसान को भी जब बोला गया कि "देखो भाई, सरकार लिंगभेद, रंगभेद नहीं करेगी, जात-पात के आधार पर, धर्म के आधार पर अंतर नहीं करेगी," तो ये बात वो तत्काल समझ गया, चुटकी बजाते ही समझ गया। बोला, "ये तो बिलकुल ठीक बात है क्योंकि धर्म ने ही तो हमें बता रखा है कि बंदा और बंदा एक हैं, तो भेद-भाव कैसा?"
आप क्या सोच रहे हो, ये बात हमें संविधान ने सिखाई है कि पड़ोसी का गला मत काटो? ये बात किसने सिखाई है? ये धर्म ने सिखाई है, भाई। और धर्म ने नहीं सिखाई होती, तो संविधान कुछ नहीं कर पाता। कई लोगों को ऐसी गलतफहमी है कि भारतीय तो करीब-करीब एक जंगली कौम है। और उनको संविधान के हंटर ने किसी तरीक़े से अभी अनुशासित कर रखा है। उनको ये समझ में ही नहीं आ रहा कि भारत की ज़मीन पर ही संविधान जैसा फूल खिल सकता था। हमें संविधान ने अनुशासित नहीं कर रखा, संविधान हमारी पैदाइश है। हम धार्मिक हैं इसलिए हमने एक ख़ूबसूरत संविधान रचा है।
संविधान धर्म का ही फूल है। संविधान धर्म के ख़िलाफ़ कैसे इस्तेमाल कर लोगे भाई तुम? पर लोग आजकल ये कर रहे हैं। वो नारे लगाएँगे, ये करेंगे, वो करेंगे, वीडियो तक चल रहे हैं। वो रामचरितमानस जला रहे हैं, गीता जला रहे हैं, और कह रहे हैं, "ये सब हटा दो। राम, शिव, कृष्ण ये सब मूर्तियाँ तोड़ दो। जय संविधान, जय संविधान।" ये पागलपन है। ये ऐसी सी बात है कि तुम बाप को जूता लगाकर के बेटे को माला पहना रहे हो। तुम जिनकी मूर्तियाँ तोड़ रहे हो वो बाप हैं संविधान के। उन्हीं के द्वारा दी गई शिक्षा, उन्हीं के द्वारा दिए गए मूल्यों से ही तो ये संविधान रचा हुआ है। बात समझ में आ रही है?
तो ये सब बातें जो चलने लगी हैं मूर्खतापूर्ण, इनसे ज़रा बचकर रहिएगा, कि "ज़रूरत क्या है वो सब बैलगाड़ी के ज़मानों के पिछड़े ग्रंथों को पढ़ने की?" ये और वो। "आधुनिक मूल्य हैं ना; आधुनिक मूल्यों पर चलते हैं ज़िंदगी खुशहाल रहेगी।" आधुनिक मूल्यों पर चल लो और फिर जब डिप्रैशन होता है, तो संविधान से पूछ लेना इलाज। बता दो मुझे कि संविधान के कौन-से आर्टिकल, कौन-से अनुच्छेद में तुम्हारी मानसिक बीमारियों का इलाज लिखा हुआ है? बताओ, बोलो।
किस पदाधिकारी के पास जाकर गुहार मारोगे कि, "अरे, मेरे भीतर अशांति है, उसके कारण मैं मनोरोगी हो गया हूँ। रात में नींद नहीं आती। आईना देख के कुछ ना कुछ बकता रहता हूँ।" तब क्या बोलोगे, आर्टिकल दो सौ बानवे? कर लो समाधान, कर लो। पर हाँ, भगवद्गीता के पास जाओगे, तो ये जो मनोरोग हैं, उस से मुक्ति पा जाओगे। मैं नीचा नहीं दिखा रहा हूँ संविधान को, इतनी बात तो समझ में आ रही है ना? नारेबाज़ी मत शुरू कर दिजीयेगा। आजकल वही है, कोई कुछ कह दे, "अरे…।" क्या है ना, अहंकार बड़ी ऊँचाइयों पर है, और जितनी ऊँचाइयों पर है उतना ही अब उसको समझ में आ रहा है कि विफल हो रहा है। आज दुनिया के सामने जो बड़ी-से-बड़ी समस्याऍं हैं, उनका समाधान अहंकार के पास है ही नहीं; आध्यात्मिक मूल्यों में ही समाधान है।
इतना सारा आण्विक असलहा इकट्ठा कर लिया है, न्यूक्लियर आर्सेनल , *फिसाइल मैटेरियल*। तुम कौन-सा विज्ञान लगाकर दो देशों के राष्ट्राध्यक्षों को समझा दोगे कि न्यूक्लियर बटन नहीं दबाना है, बताओ? फ़िज़िक्स का कौन-सा सिद्धांत लगाओगे डोनाल्ड ट्रंप या बोरिस जॉन्सन को समझाने के लिए कि नहीं ये बटन नहीं दबाना है, बताओ? वो बटन ना दबे, इसके लिए तो आध्यात्मिक सिद्धांत ही हो सकता है ना, करुणा का? बोलो।
इसी तरीक़े से ये जो क्लाइमेट चेंज है, उसका कुल कारण आदमी की भोगप्रियता है। "हमें भोगना है, भोगना है।" जितना भोग रहे हो, उतना कार्बन रिलीज़ हो रहा है, उत्सर्जित हो रहा है, बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है। तुम कैसे मनाओगे एक आम आदमी को कि तू भोग कम कर? वो कहेगा, "मुझे मज़े लेने दो ना। मेरी बीस-तीस साल की ज़िन्दगी है, उसमें मैं मज़े ले लूँगा, बाद में क्या होता है, मुझे क्या फ़र्क पड़ता है?" तुम कैसे राज़ी करोगे उसको कि भोग कम कर? और बच्चे कम पैदा कर? ये कैसे करोगे, बोलो? अहंकार के पास कोई समाधान नहीं है; समाधान आध्यात्मिक मूल्यों के पास ही है।
तो जितने अहंकारवादी हैं, इन सब को साफ़ दिख रहा है कि अब एक ही चीज़ है जो बहुत बड़ा खतरा बनके सामने खड़ी हुई है, सप्रमाण खतरा बनकर सामने खड़ी हुई है, और वो है अध्यात्म। तो आज के समय पर अध्यात्म पर ज़बरदस्त तरीक़े के हमले किए जा रहे हैं। एक पूरी पीढ़ी तैयार कर दी गई है। ये जो आज की नस्ल है पूरी, जो धर्म से किसी भी तरह का ताल्लुक़ रखना शर्म की बात समझती है। इन्होंने धर्म शब्द को ही गाली बना लिया है। और ये सबकुछ एक सोची-समझी साजिश के तहत किया गया है।
लोगों को धर्म से बिल्कुल काट दिया गया है। धर्म को एक गंदा शब्द बना दिया गया है। कह दिया गया कि धर्म का तो मतलब ही है शोषण, धर्म का तो मतलब ही है अवैज्ञानिक और कुतर्की बातें, धर्म का तो मतलब ही है अंधविश्वास। ऐसी बातें खासतौर पर आज की पीढ़ी के मन में कूट-कूट कर भर दी गई हैं। ताजुब्ब नहीं कि प्रश्नकर्ता, जिन्होंने ये सवाल पूछा, वो भी युवा ही हैं। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था धर्म को एक समस्या की तरह देखती है। " रिलीजियस प्रॉब्लम (धार्मिक समस्याएँ)! रिलीजियस प्रॉब्लम! अरे, धर्म की वजह से आतंकवाद है, धर्म की वजह से ये दिक्कत है, वो दिक्कत है।"
ये धर्म के विरुद्ध जो ज़बरदस्त प्रचार किया गया है, प्रोपगेंडा , वो सिर्फ़ कुल इसलिए है क्योंकि अहंकार झुकना नहीं चाहता। बहुत ऊँचा हो गया हो अहंकार तब तो और मुश्किल हो जाता है उसके लिए झुकना। और आज बहुत लोग हैं ऐसे जिनकी गर्दनें बिल्कुल अकड़ी हुई हैं। उनके सर झुकने को राज़ी नहीं है। सर उनका ना झुके, इसके लिए वो पूरी दुनिया की बलि देने को तैयार हैं। वो अपने आप को बुद्धिजीवी बोलते हैं, कभी वो अपने आप को लिबरल (आज़ाद ख्याल) बोलते हैं। ले-देकर के उनकी मूल पहचान ये है कि उनका कुल भरोसा सिर्फ़ अपनी बुद्धि पर है, जो कि बुरी बात नहीं हैं, लेकिन बुद्धि भी वो पूरी चलाते नहीं कभी।
तार्किकता को, बुद्धि को, लॉजिक (तर्क) को भी वो कभी निष्कर्ष पर पहुंचने का मौका नहीं देते। बुद्धि का भी वो दुरुपयोग करते हैं, अहंकार को संभाले रखने और बढ़ाने के लिए। वो बुद्धिजीवी नहीं हैं, वो वास्तव में अहंजीवी हैं, क्योंकि बुद्धि भी उनकी केंद्रीय पहचान नहीं है। बुद्धि तो उनका उपकरण है, औेज़ार है। उस औेज़ार का उपयोग वो मूल काम के लिए कर रहें हैं और मूल काम है अहं को बचाकर रखना और बढ़ाना—वो अहंजीवी हैं। इन अहंजिवियों ने अध्यात्म को बड़ा तिरस्कृत कर दिया है, बलित्कृत कर दिया है बल्कि। ऐसा दुर्व्यवहार मानव इतिहास में कभी नहीं हुआ।
आज आप को अपने-आपको किसी सार्वजनिक जगह पर धार्मिक घोषित करते हुए थोड़ी-सी हिचक होगी, खासतौर पर अगर उस जगह पर बहुत पढ़े-लिखे लोग बैठे हो। यूट्यूब पर अपने वीडियज़ जाते हैं, और बात चूंकि उनमें खरी कही जाती है, तो बहुत लोगों को बहुत चुभ जाती है। उनको और तो कोई तर्क मिलता नहीं हमारे ख़िलाफ, तो लिख देंगे, "बाबा कहीं का।" बाबा कहीं का माने? "बाबा कहीं का।" बाबा शब्द ही गाली हो गया। बाबाओं का बड़ा मुरीद मैं भी नहीं हूँ, लेकिन ये बाबा शब्द गाली कैसे हो गया भाई? जानते हो बाबा शब्द का वास्तविक अर्थ क्या होता है? बाप। पूर्व में और बंगाली भाषा में बाबा माने बाप होता है। "बाबा कहीं का" गाली कैसे हो गया? अब उसमें कुछ काम तो आजकल के बाबाओं का भी है, जो हैं ऐसे कि जिनकी हस्ती को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाए, लेकिन फिर भी। और अगर अंग्रेज़ी का वीडियो हो तो उसमें लिखा आएगा, " वाई शुड आइ हियर फ्रोम अ ब्लडी बाबा ? (मैं एक बाबा की बातें क्यों सुनूँ?)" देवी जी, अंग्रेज़ी हमें भी आती है लेकिन ये क्या अदाऍं हैं, "*ब्लडी बाबा*।"
(श्रोतागण हँसते हैं)
हम हँस सकते हैं इसपर, पर ये हँसी वैसी ही है जैसी किसी पागल आदमी को देखकर आती है। कोई पागल दिख जाता है, तो उसको देखकर भी हँसी छूट जाती है ना? तो हँसना तो ठीक है लेकिन जब एक पागल को देखो, तो उसपर दया भी तो आती है। तुम्हारी ये हालत कर किसने दी। जीवन के श्रेष्ठतर मूल्यों से तुम्हारा नाता ही काट दिया गया।
आज की पूरी बातचीत पर हम कोई और बात ना करें। जितनी बात अभी तक हुई है, आप उतनी भी समझ लें तो ठीक है। इस बात को लेकर किसी के कुछ संदेह हों तो मैं उनको लेना चाहूँगा।
प्र: प्रणाम आचार्य जी, आपने कहा कि संविधान के मूल में धर्म है, पर *बंच ऑफ बोरोईंग * (उधार का गुच्छा) है संविधान हमारा। कुछ आईरिश कॉन्स्टिट्यूशन (आयरलैंड के संविधान) से उठाए डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स (निर्देशक तत्व), कुछ फंडामेंटल राइट्स (मौलिक अधिकार) यूके से, कुछ यूएस से।
आचार्य प्रशांत: क्यों उठाए?
प्र: क्योंकि अम्बेडकर साहब उन्हीं को…
आचार्य प्रशांत: उन्हीं को क्यों उठाया? कुछ और क्यों नहीं उठा लिया?
प्र: इंग्लिश सिस्टम में पढ़े-लिखे थे।
आचार्य प्रशांत: इंग्लिश सिस्टम में भी सौ चीज़ें हैं जो उठा सकते थे, वहीं चीज़ें क्यों उठायीं? किस आधार पर निर्णय हो रहा था? ये कह रहें है कि भारत के संविधान के बहुत सारे तत्व आयातित हैं, ठीक है? दुनिया के दूसरे संविधानों को देखा गया और जिसमें जो चीज़ बढ़िया लगी, वो सब स्वीकार कर ली गयी। जहाँ जो बढ़िया हो उसको स्वीकार करो, ये मूल्य प्राकृतिक है या धार्मिक? बात नहीं समझ में आ रही? ये बात भी तो धर्म ही बताएगा ना कि सर झुकाओ और जहाँ पर भी जो कुछ अच्छा दिखे उसको ग्रहण करो; अपना पूर्वाग्रह, अपना प्रिजुडिस बीच में मत लाने दो—ये धार्मिक मूल्य है भाई।
प्र: फौरन कंट्रीज़ (विदेशों) के पास पहले धर्म? जबकि उपनिषद् और ऋषि-मुनि, ये सब भारत कि धरती पर हुए। उनको पहले धर्म की जानकारी कैसे हो गई?
आचार्य प्रशांत: किसने कह दिया कि उनको पहले हो गई? ये कहाँ से आ रही है बात?
प्र: तभी तो वहीं से उठाया।
आचार्य प्रशांत: अरे, तो उन्नीस सौ सैंतालीस में वहाँ भी था, यहाँ भी था। इसमें ये कहाँ हो रहा है कि उनको पहले हो गई? हाँ, उनका संविधान पहले का है क्योंकि वो आज़ाद पहले से हैं, भाई। जब तुम उन्नीस सौ सैंतालीस में ही राजनैतिक आज़ादी पा रहे हो, तो तुम्हारा संविधान भी तो उन्नीस सौ पचास में ही आएगा। इसका ये अर्थ थोड़ी है कि उनके धर्मग्रंथ तुम्हारे वेदों से पुराने हैं।
प्र: प्रणाम आचार्य जी, इस विषय पर जैसा आपने कहा कि ये एक साजिश है जिसके तहत अपने धर्म से हमारे को दूर कर दिया जाता है, मैंने भी वर्ल्ड वॉर टू (दूसरे विश्व युद्ध) के बाद काफ़ी रिसर्च वर्क करा है, वैस्टर्न वर्ल्ड (पश्चिमी दुनिया) के ऊपर भी और हमारे यहाँ पर भी, कि वैस्टर्न कंट्रीज (पश्चिमी देशों) से भी क्रिश्चियनिटी (ईसाईयत) को काफ़ी दूर कर दिया गया है। इसकी वजह से जो लोग होते हैं वो फर्टाइल (संस्कारग्राही) हो जातें है कि आप जो बदलाव लाना चाहो उनके ऊपर वो ला सको, क्योंकि वो अपनी जड़ से अब दूर हो चुके हैं।
आपसे इतना जानना चाह रहा था कि आपके हिसाब से ये जो साजिश है ये कौन कर रहा है? इतना बड़ा चेंज या इतना बड़ा परिवर्तन एक ऑर्गेनाइज्ड (संगठित) तरीक़े से ही हो सकता है। ये ट्रेंड (प्रवृत्ति) इंडिया में भी है और वैस्टर्न कंट्रीज़ में भी।
आचार्य प्रशांत: नहीं, इतना बड़ा कोई एक आदमी नहीं होता, ना ही कोई संस्था होती है जो इतना विश्वव्यापी परिवर्तन ला सके या साजिश कर सके। मैंने जब साजिश शब्द का इस्तेमाल किया था, तो मैं किसी व्यक्ति की या संस्था की बात नहीं कर रहा था, मैं किसी देश की भी बात नहीं कर रहा था; मैं उसकी बात कर रहा था जो सब साजिशों की अम्मा है, कौन? माया। उसकी साजिश है।
देखो हुआ क्या था, हुआ ये था कि जो मध्ययुगीन यूरोप था वो बहुत पिछड़ी हुई जगह था, ज़बरदस्त पिछड़ी हुई जगह था, ज़बरदस्त। और वहाँ पर बड़ा घमासान मचा रखा था चर्च ने। चर्च जितनी तरह के ज़्यादतियाँ करता था, वो ज़्यादतियाँ भारत ने तो कभी देखी भी नहीं हैं। हम बात करते हैं ना कि भारत में धर्म के आधार पर ये हो गया, शोषण हो गया। जो कुछ तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के फ्रांस में हो रहा था धर्म के नाम पर। आज आप कहते हो ना कि पेरिस तो बड़ी लिबरल जगह है, दुनिया की लिबरल राजधानी है पेरिस। आप तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी के पेरिस की कहानियाँ सुनोगे तो आपका दिल दहल जाएगा। ठीक है।
प्र: चर्च वगैरह, उनका ही शासन था।
आचार्य प्रशांत: हाँ, शासन था, और वो शासन क्या करवा रहा था, वो बातें बड़ी हृदय विदारक हैं। औरतों को पकड़ लिया जाता था कि ये चुड़ैल है, जला दो, और जला दिया। पूरे-के-पूरे गांव-के-गांव खाली करा दिए जाते थे, कि यहाँ ये हो रहा है, यहाँ वो हो रहा है। प्लेग फैला था, तो प्लेग से यूरोप की आबादी का एक बड़ा हिस्सा ही साफ़ हो गया था, और उसमें काफ़ी बड़ा हाथ चर्च द्वारा फैलाए गए अंधविश्वास का था। अब उस वक्त इतना कोई जानता भी नहीं था कि प्लेग एक आदमी से दूसरे आदमी में जाता कैसे है, तो जितने पादरी वगैरह होते थे, ये तरह-तरह की कहानियाँ बता देते थे, अफ़वाहें बता देते थे। उस तरह के कुछ काम भारत में अभी भी हो रहें हैं कि कुछ कहानी बता दो किसी चीज़ को लेकर।
तो फिर आया वहाँ पर दौर रेनिसां (पुनर्जागरण काल) का और रेनिसां के बाद एनलाइटेनमेंट (जागरण काल) का। एनलाइटेनमेंट वैल्यूज़ (जागरण मूल्य) जो थीं, जो वहाँ पर जागरण काल आया यूरोप में, बहुत सुंदर मूल्य थे। वो कह रहे थे कि हमें धार्मिक सत्ता नहीं चाहिए; हम समझना चाहतें हैं, हमारी जिज्ञासा प्राथमिक है, हम सबसे ज़्यादा महत्व अपनी जिज्ञासा को देंगे। तो फिर वो जो भाव था, जिज्ञासा का, समता का, न्याय का, प्रामाणिकता का, उससे यूरोप को बड़ी मदद मिली। और वो जो मूल्य थे, वो यूरोप से निकलकर पूरी दुनिया में फैल गए। जनतंत्र उन्हीं मूल्यों की पैदाइश है।
लेकिन हुआ क्या कि वो जो पूरा काल था यूरोप में जागरण का, वो धर्म द्वारा प्रेरित शोषण के ख़िलाफ़था चूंकि, इसीलिए बहुत लोगों को ये गलतफ़हमी हो गई कि धर्म ही अपने-आपमें घटिया चीज़ है। जबकि उस समय के जो दार्शनिक थे, विचारक थे, खासतौर पर फ्रांस के जो विचारक थे, उनका ये नहीं इरादा था कि धर्म को ही ख़ारिज कर दें। वो वास्तव में धर्म द्वारा पोषित संकुचन, संक्रमण और मूर्खताओं के ख़िलाफ़ थे। वो आदमी के मन को विस्तार देना चाहते थे, जो कि बहुत सुंदर बात है। लेकिन हुआ ये है कि जिसको हम कहते हैं आदमी के मन का विस्तार, वो भी एक जगह जाकर अटक गया है, और वो कह रहा है कि मुझे आध्यात्मिक जिज्ञासा स्वीकार नहीं है। वो एक तरीक़े से पूरी तरह से पदार्थवादी हो गया है।
समझना, दो तरह की सत्ता चलती थीं सोलहवीं शताब्दी के, सत्रहवीं शताब्दी के यूरोप में। सत्ता के दो केंद्र थे। एक था राजा, ठीक है? जिसका आदेश तुम्हें मानना ही पड़ेगा— ऑथोरिटी (सत्ता)। और सत्ता का दूसरा केंद्र था चर्च, ठीक है? एनलाइटेनमेंट ने कहा कि मुझे सत्ता के दोनों ही केंद्र स्वीकार नहीं है, बिल्कुल नहीं चाहिए; इन दोनों को हटाओ। ये दोनों केंद्र सत्ता के बाहर के थे ना: राजा बताता तुम्हें कि कैसा आचरण करना है, कितना तुमको कर देना है, टैक्स देना है, कैसे नियम बनेंगे, ये सब होता था। और तुम राजा को चुनौती नहीं दे सकते थे। और पादरी तुम्हें बताता था कि व्यक्तिगत जीवन में तुम्हें क्या करना है, क्या सोचना है, क्या पाप है, क्या पुण्य है, तो पादरी को भी चुनौती नहीं दे सकते थे। तो तुम्हें बाहर से निर्देशित किया जा रहा था कि झुको, झुको, झुको। जो यूरोपियन एनलाइटनमेंट था, इसने तुमको सिखाया कि बाहर किसी के भी सामने झुकना नहीं है, और ये बहुत ही सुंदर बात थी, पर ये आधी बात थी।
यूरोप में जो एनलाइटनमेंट हुआ, हम उसकी बात क्यों कर रहे हैं? क्योंकि वही वो केंद्र बिंदु है जहाँ से आज हम उस सवाल तक पहुँच गए हैं जो कह रहा है कि गीता की क्या ज़रूरत है, संविधान है तो। इस सवाल का, जो हुआ सत्रहवीं शताब्दी के फ्रांस में, उसमें बड़ा गहरा ताल्लुक़ है। दोनों बातों को एक साथ समझना पड़ेगा।
तो उस समय के विचारकों ने, दार्शिनिकों ने बाहर की सारी सत्ता को ख़ारिज कर दिया। उन्होंने कहा, " वी विल नॉट एक्सेप्ट एनी ऑथोरिटी (हम किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करेंगे)। नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।" ठीक है? अच्छी बात करी, लेकिन मैं कह रहा हूँ, आधी बात करी। क्योंकि एक सत्ता थी जिसको वो ख़ारिज करना भूल गए, वो दिखाई नहीं पड़ी। क्यों नहीं दिखाई पड़ी? क्योंकि वो अंदर होती है। वो अंदर वाली सत्ता का क्या नाम है? अहंकार।
तो हुआ क्या कि बाहर वाली सत्ता तो हटा दी और अच्छा किया की हटा दी। बड़े बेकार लोग थे ये, बड़े हिंसक, बड़े मगरूर लोग थे ये—उस समय के राजा और ज़ार, और ये सब। और उस समय जो चर्च की पूरी शोषक व्यवस्था थी, भला किया कि उसमें आग लगा दी। लेकिन जिस ईमानदारी के साथ और जिस दृढ़ता के साथ बाहर की सत्ता का सामना किया गया, उसी दृढ़ता के साथ जो भीतर सत्ता बैठी है, सत्ताधारिणी—क्या नाम है उसका? माया—उसका नहीं सामना किया गया।
तो आज के आदमी की हालत ये हो गयी है कि बाहर से तो वो किसी की बात सुनने को राज़ी है नहीं। आज की पीढ़ी देखी है? "डोंट टेल मी (मुझे मत बताओ)।" बाहर से किसी की नहीं सुननी, और भीतर से अपनी कोई वृत्ति उठ रही हो, कोई भाव चल रहा हो, तो उसके पीछे-पीछे गुलाम की तरह चल देते हैं क्योंकि भीतर जो ऑटोक्रेट बैठा है, भीतर जो ऑथोरिटी बैठी है, उसके ख़िलाफ़ विद्रोह करना सिखाया ही नहीं गया।
तो नारेबाज़ी में सबसे आगे, लेकिन सारी नारेबाज़ी किसके ख़िलाफ? कभी सरकार के ख़िलाफ, कभी इसके ख़िलाफ, कभी उसके ख़िलाफ। "नहीं चलेगा! इंकलाब ज़िंदाबाद!" ये और वो। और इनमें सबसे आगे-आगे जवान लोग रहते हैं, "नहीं चलेगा, नहीं चलेगा," ये-वो। भाई, कभी अंदर वाले को भी तो बोल दो कि नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। अंदर वाला तो जो भी करवाना चाहता है तुमसे करवा लेता है, और उसके सामने तो तुम बिल्कुल कुत्ते की तरह दो हाथ दो पांव पर जीभ निकाले दुम हिलाते गले में पट्टा डाल चल देते हो। तब नहीं बोलते इंकलाब ज़िंदाबाद। तब कहाँ चली गई तुम्हारी लिबरल वैल्यूज़ ? तब तुम अथॉरिटी के आगे झुक जाते हो, सरेंडर कर देते हो।
हाँ, बाहर राजनीति में अगर किसी को पाओ कि वो सत्ता का केंद्र बना जा रहा है, तो तुम कहते हो, "नहीं चलेगा! विकेंद्रीकरण चाहिए!" बाहर अगर तुम पाओ कि कोई शंकराचार्य हुआ जा रहा है, या कोई मौलवी मस्जिद में फ़तवा जारी कर रहा है, तो उसके ख़िलाफ़ तुम तुरंत खड़े हो जाते हो, "नहीं, नहीं, नहीं चलेगा।" मैं कहता हूँ, बहुत बढ़िया बात है कि उनकी तुम नहीं सुनते, लेकिन भीतर भी तो एक बैठा है जो फ़तवे जारी करता रहता है, उसकी तुम क्यों सुनते हो? उसको तो तुम बोलते हो, " यू नो, दैट्स माई थॉट (ये मेरा विचार है)।" ये इसलिए हो रहा है क्योंकि धार्मिक रूप से अनपढ़ हो। ये शिक्षा ही नहीं दी गई है कि "मेरी मर्ज़ी" या " माई थॉट " का मतलब क्या है। तो भीतर वाले के ख़िलाफ़ विद्रोह करना जानते ही नहीं।
अभी अंग्रेज़ी में एक अपना वीडियो प्रकाशित हुआ है जिसमें मुझसे ये सवाल पूछा गया था कि महिलाऍं अक्सर ये जो तनउघेड़ू वस्त्र पहनकर घूमती हैं, इसके बारे में कुछ बोलें। मैंने बोला। तो उसपर भारत की आधुनिक पीढ़ी ने बिल्कुल रेला लगाकर विद्रोह कर दिया, क्रांति। "हमारी जो मर्ज़ी है हम वो पहनेंगे, तुम होते कौन हो बोलने वाले? हमारी मर्ज़ी, हमारी मर्ज़ी।" देवी जी, जिसको आप 'अपनी' मर्ज़ी कह रही हैं, वो आपकी मर्ज़ी है ही नहीं। वो आपके भीतर कोई बैठा हुआ है जो आपसे ये सब करवा रहा है और आपको ये बात समझ में ही नहीं आ रही। कह रही हैं, "मेरी जो मर्ज़ी होगी, मैं जैसा चाहूँगी वो करूँगी, तुम होते कौन हो?" जिसको आप 'अपनी' चाहत कह रही हैं, जिसको आप 'अपना' विचार कह रही हैं, जिसको आप 'अपना' भाव कह रही हैं, वो सब आपकी हैं ही नहीं। वो उतनी ही बाहरी हैं जितना बाहर खड़ा कोई ऑटोक्रेट (तानाशाह), या शोषक, या कोई तानाशाह है। हाँ, वो बाहर खड़ा हो, तो आप तुरंत बुलंद आवाज़ लगा देती हैं, "इंकलाब ज़िंदाबाद! इंकलाब ज़िंदाबाद!" इंडिया गेट पर खड़े हो जाएँगे और मोमबत्तियाँ लेकर निकल पड़ेंगे। बहुत सुंदर बात है, मैं उसके ख़िलाफ़ नहीं हूँ। लेकिन मैं चाहता हूँ कि कभी कोई रैली, कभी कोई कैंडल लाइट विजल ऐसी भी हो जिसमें तुम कहो कि आज मैं अपने ख़िलाफ़हूँ। अपने ख़िलाफ़ होना क्यों नहीं सीख रहे?
दुनिया की सारी सत्ताओं के ख़िलाफ़ हुए जा रहे हो, और सबसे बड़ी सत्ता तुमने किसको बना लिया? अपने अहंकार को। सबसे बड़ी सत्ता तुमने किसको बना लिया? अपने ही भीतर के अंधेरे को। उसके हमेशा पक्ष में खड़े हो जाते हो। उसकी बात नहीं करना चाहते। देखना ही नहीं चाहते कि तुम्हें जो विचार उठते हैं वो क्या हैं, तुम कहते हो "*माय थॉट, माय थॉट *(मेरा विचार, मेरा विचार)।"
ज़रा सी भी अगर तुममें ईमानदारी हो, अन्तर्दृष्टि हो, तो तुम्हें दिख जाएगा कि तुम्हारा विचार तुम्हारा है ही नहीं। वो विचार तुममें ठोक-ठोक के, बजा-बजा के घुसेड़ा गया है। तुमने ये जो पिक्चरें देखीं हैं बचपन से आज तक, तुमने जो शिक्षा ग्रहण करी है, तुम जिस माहौल में रहे हो, जो किताबें पढ़ ली हैं, जो शब्द कान में पड़े हैं, उनके कारण तुम्हारे विचार वैसे हो गए हैं जैसे हैं। पर समझना ही नहीं चाहते इस बात को।
अपने प्रति ऐसा अंधापन आ गया है कि कह रहे हो कि, "नहीं, ये तो हमारी मर्ज़ी है, हम किसी और के लिए थोड़े ही अंग प्रदर्शन करते हैं, हम तो अपने लिए करते हैं, अपने लिए करते हैं।" वाकई? वाकई? अपने लिए करते हो? कहते हैं, "नहीं, हमें किसी और को नहीं दिखाना, हम तो अपने लिए।" वाकई? पर ईमानदारी का ताल्लुक़ तो अपने-आपसे होता है ना, अपने-आपसे। वो सब गया, गया। तो वो साजिश किसी संस्था ने नहीं करी है, साजिश करने वाला हमारे ही भीतर बैठा है। ये खतरनाक बात है क्योंकि बाहर की कोई ताकत होती जो हमें दबा रही होती, जो हमारा उत्पीड़न कर रही होती, तो हम उसकी पहचान करके उसको गिरा देते। हम कहते, "ये है, मारो इसको।"
पर जब हमारा दुश्मन हमारे ही भीतर बैठा हो, और भीतर ही नहीं बैठा हो, उसने नाम भी हमारा ही ले लिया है, तो उसका सामना करना बड़ा मुश्किल हो जाता है। चूंकि उसने हमारा ही नाम ले लिया है इसीलिए उसका सामना करना ऐसा हो जाता है जैसे अपना ही सामना करना, अपने ही ख़िलाफ़ जाना। और अपने ही ख़िलाफ़ जाना कष्ट देता है। हम वो कष्ट उठाने को तैयार नहीं। अब उसमें भी बात क्या है? कष्ट उठाना भी एक धार्मिक मूल्य है, जिसका नाम है साधना। बात समझ रहे हो? अपने ख़िलाफ़ जाना, ये आपको कौन सिखाएगा? प्रकृति में कोई अपने ख़िलाफ़ नहीं जाता। प्रकृति में तो आप वो करते हो जो चीज़ आपको सुविधाजनक होती है, सहूलियत पड़ती है।
अपने ही ख़िलाफ़ जाना, मन कुछ कह रहा है लेकिन हम मन के ख़िलाफ़ जाऍंगे, ये बात तो धर्म ही सिखाता है न? और जहाँ धर्म नहीं है, वहाँ आप मन के ख़िलाफ़ नहीं जा सकते, वहाँ आप मन का अवलोकन भी नहीं कर सकते, वहाँ आप मन को समझ भी नहीं सकते; वहाँ आप बस मन के गुलाम हो जाते हो, आप मनचले हो जाते हो। और जो मनचला हो गया उसका जीवन कैसा? बर्बाद।
प्र: आपने कहा कि आज के जितने भी लिबरल चिंतक इत्यादि है, वो कोई भी पराभौतिक हस्ती को पूर्णतः नकार देते हैं और कहते हैं कि जो भी है यहीं आँखों के सामने है। भगत सिंह ने भी कहा कि दुनिया में ईश्वर नाम की कोई चीज़ नहीं है। पेरियार ने भी ऐसा ही कहा। मार्क्स ने भी इसी तरफ़ इशारा किया। तो क्या आप आज के लिबरल चिंतकों को और भगत सिंह, पेरियार, मार्क्स को एक तल पर रखकर तुलना कर रहें हैं?
आचार्य प्रशांत: अगर कुछ नहीं है पराभौतिक, तो जो है वो है सिर्फ़ भौतिक, ठीक? फिर तो मूल्य अगर किसी चीज़ का है, तो बस भौतिकता का है। भौतिकता माने पार्थिवता, शारीरिकता, ठीक? अगर पराभौतिक कुछ नहीं है, तो एक ही चीज़ कीमती बची ना, क्या? ये शरीर। और अगर सिर्फ़ शरीर ही कीमती है, तो भगत सिंह ने शरीर का त्याग करना क्यों स्वीकार किया? समझ में नहीं आ रहा क्या कि जब भगत सिंह कहते थे कि वो नास्तिक हैं, तो वो वास्तव में परंपरागत धर्म, सड़े-गले धर्म, संस्थागत धर्म को नकार रहे थे। नहीं तो एक ऊँचे आदर्श के लिए शरीर की आहुति दे देने से बड़ा धार्मिक काम क्या होगा? अगर कोई नौजवान सच्चे अर्थों में धार्मिक हुआ है, तो वो तो भगत सिंह स्वयं हैं।
मुझे बताओ, तुम अपना प्राणोत्सर्ग कर रहे हो, तुमने तो पूरी भौतिकता ही खो दी ना अपनी—अगर जान चली गई तो ज़रा भी भौतिकता बची? तो कुछ तो होगा ना जो भौतिकता से ऊँचा होगा, जिसके लिए तुम अपनी भौतिकता न्योछावर कर रहे हो। माने तुम मान रहे हो ना कि इस भौतिक शरीर से ऊँचा कुछ होता है? भगत सिंह ने उस ऊँचे लक्ष्य को नाम दिया था आज़ादी। फ़र्क नहीं पड़ता तुम क्या नाम दे रहे हो, इतना मानना काफ़ी है कि तुम्हारी शारीरिक सत्ता से ज़्यादा कीमत किसी और चीज़ की है।
भगत सिंह का जीवन ही इस बात का प्रमाण है। 22-23 साल में वो कह रहे हैं, "नहीं चाहिए बाकी की पूरी ज़िन्दगी।" अभी 60-70 साल और जीते। बोले, "नहीं जीना है। शरीर की हैसियत क्या है?" ये तो संतो वाली बात हो गई ना बिल्कुल। नहीं जीना, शरीर की हैसियत क्या है? आज़ादी बड़ी चीज़ है, आज़ादी चाहिए। अगर वो, दोहरा रहा हूँ, अगर वो शारीरिकता मात्र में विश्वास रखते, तो जान देने को क्यों राज़ी हो जाते? शरीर गँवाने को क्यों राज़ी हो जाते अगर शरीर ही अंतिम सत्य होता उनका, बोलो? आ रही है बात समझ में?
लेकिन फिर भी, चाहे वो मार्क्स हों, पेरियार हों, भगत सिंह हों, कई अन्य विचारक हों, इन सब लोगों ने धर्म को ना सिर्फ़ नकारा बल्कि धर्म को अपशब्द भी कहे। मैं उनसे सहानुभूति रखता हूँ। उन्होंने जिस धर्म को नकारा वो था ही इस लायक कि उसे लात मार दी जाए। जो उन्होंने करा, मैं भी वही करना चाहूँगा। पर भूलिए नहीं कि वो किस धर्म को नकार रहे थे।
मार्क्स उस धर्म को नकार रहे थे जिसके बारे में कहते थे कि नशा है, अफ़ीम है। जो धर्म नशा बन जाए, अफ़ीम बन जाए, उसको तो तुरंत त्याग ही देना चाहिए। अभी थोड़ी देर पहले हम लोग क्या बात कर रहे थे? कि धर्म के नाम पर क्या-क्या चल रहा है। अगर वो सब जो धर्म के नाम पर चल रहा है, वो धर्म है, तो मैं भी कह रहा हूँ, लात मारो धर्म को। पर धर्म उसके अतिरिक्त भी कुछ है, बहुत कुछ है, बहुत मूल्यवान है। उसका सम्मान करना सीखिए।
अंग्रेज़ी में एक मुहावरा है: *डोंट थ्रो द बेबी आउट विद बाथ वाटर*। सिर्फ़ इसलिए कि धर्म में कुरीतियाँ आ गई है, सिर्फ़ इसलिए कि धर्म का पूरा क्षेत्र बेवकूफ़ और बेईमान लोगों ने गंदा कर दिया है, तुम क्या धर्म को ही उठाकर बाहर फेंक दोगे? और धर्म को उठाकर बाहर फेंक दिया तुमने, तो जियोगे कैसे? बिना प्रेम के, बिना करुणा के, बिना बोध के, बिना सरलता के जी कैसे लोगे? और प्रेम, बोध, करुणा, सरलता तुम्हें विज्ञान तो सिखाएगा नहीं। तो धर्म तो ज़रूरी है। धर्म गंदा हो गया हो, तो प्रार्थना है मेरी कि उसको साफ़ करें। ये थोड़े ही है कि हीरा गंदा हो गया है, उसपर बहुत तहें जम गई हैं कचरे की, मिट्टी की, तो तुमने उठाकर हीरा ही बाहर फेंक दिया। दुश्मनी कचरे से रखो ना, हीरे से नहीं, भाई। ये परम मूर्खता हो गई।
एक तो मूर्ख लोग वो थे जिन्होंने हीरे को गंदा होने दिया, और एक मूर्ख ये हैं जिन्होंने गंदगी के साथ-साथ हीरा ही फेंक मारा बाहर। ये मत करो। पहले वाली गलती से ज़्यादा बड़ी गलती ये हो जाएगी। जिन्होंने हीरे को मलिन किया, गंदा किया, वो एक तल के गुनाहगार है, और तुम उस गंदगी के चलते हीरा ही उठाकर फेंक दो, तुम उनसे ज़्यादा बड़े गुनहगार हो जाओगे। ये मत होने दो; सफ़ाई करो, सफ़ाई। आदमी को, धर्म को हमेशा सफ़ाई की जरूरत पड़ती रही है। रिफॉर्म्स (सुधार) आवश्यक रहे हैं। क्रांतियाँ और सुधार हमें चाहिए होते हैं।
बुद्ध और महावीर क्या कर रहे थे? वैदिक धर्म का पुनरुद्धार ही तो कर रहे थे, जगा ही तो रहे थे। हाँ, कालांतर में वो जो शाखाऍं थी वैदिक धर्म की, वो अलग पंथ, अलग परंपराऍं ही बन गई, वो अलग चीज़ है, वरना वो तो सुधार ही कर रहे थे। उन्होंने कहा कि उपनिषदों की जो वाणी है वो लालची-लोभी कुछ पंडितों ने बड़ी खराब कर दी। अब वो वेदों का हवाला देकर अपने न्यस्त स्वार्थों की पूर्ति कर रहे हैं ब्राह्मण लोग। तो उन्होंने कहा कि नहीं, देखो, सुधार करना पड़ेगा। जो लोग गड़बड़ कर रहे थे, वो उनके ख़िलाफ़ थे ना बुद्ध-महावीर; उपनिषदों के ख़िलाफ़ थोड़े ही थे बुद्ध। बुद्ध की जो बात है वो उपनिषदों की बात के विरुद्ध क्या है, शत-प्रतिशत मेल खाती है, शब्दों का अंतर है बस।
इसी तरीक़े से और आगे आ जाओ। आचार्य शंकर क्या कर रहे थे? बुद्ध अपने पीछे जो पंथ छोड़कर गए, हज़ार साल बीतते-बीतते वो भी मलिन और विकृत हो गया। तो फिर जैसे बुद्ध को सफ़ाई करनी पड़ी थी वैदिक धर्म की, वैसे ही फिर आचार्य शंकर को आकर सफ़ाई करनी पड़ी बौद्ध धर्म की। जो भी बात एक समय पर नई, ताज़ी और साफ़ और जीवनदाई होती है, प्राणों से ओतप्रोत होती है, वो कालांतर में गंदी हो जाती है क्योंकि सत्य कोई बात तो होता नहीं ना। सत्य को तुम बात बनाओगे, समय उसको धूमिल कर देगा।
थोड़ा और आगे बढ़ो। उसके बाद 12वीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी तक जो पूरा भक्ति कार्यक्रम चला, और क्या था? अधिकांश संत जो भक्ति मार्ग से जुड़े हुए हैं, जो अग्रणी रहे उसमें, वो सब तथाकथित पिछड़े वर्ग और निचली जातियों से थे। वो भी एक सुधार कार्यक्रम था। और सुधार कार्यक्रम का सबसे बड़ा उदाहरण, जो सबसे निकट का भी है, वो है सिख पंथ। जब पाया गया कि गंदगी ही गंदगी चारों तरफ फैली हुई है, तो नानक साहब से शुरू होकर एक पूरी श्रृंखला आई गुरुओं की, जिन्होंने कहा है, "जो कुछ साफ़ है, सुंदर है, उसको ले आओ, उसको संकलित करेंगे। धर्म का एक इनसाइक्लोपीडिया (विश्वकोश) बनाऍंगे। उन सब चीज़ों को रखेंगे जो बहुत बढ़िया वाली हैं। वो जिस भी दिशा से मिल रही है, रखो, रखो, रखो, उनको रख लो। और बाकी सब कुछ नहीं रखेंगे। वो जो ज़बरदस्त धार्मिक कोष बनाया गया, उसका नाम है आदि ग्रंथ या गुरु ग्रंथ साहिब।
तो ये सब चीज़ें समय-समय पर चाहिए होती है, सुधार, सफ़ाई। ये थोड़े ही चाहिए होता है कि तुम धर्म को उठाकर कचरे में डाल दो। आज इस तरह की हवा बह रही है कि नहीं-नहीं, सफ़ाई नहीं करेंगे, धर्म को ही कचरे में डाल देंगे। सफ़ाई चाहिए, भाई, सफ़ाई करो। और सफ़ाई का हम सब के लिए जो सबसे सुलभ तरीक़ा है, वो ये है कि कम से कम अपनी निजी ज़िन्दगी में धर्म के जो विकृत रूप और अर्थ है, उनको प्रवेश न करने दें; अगर प्रवेश कर गए हो, तो उनको उठाकर बाहर फेंक दें। आ रही है बात समझ में?
प्र: आचार्य जी, आपने बताया भगत सिंह के बारे में भी कि वो नास्तिक थे। लेकिन जैसे ही हम इतिहास को देखते हैं, जितने भी नास्तिक हुए हैं उनके शायद कार्य धार्मिकता कि दिशा में बहुत सकारात्मक थे। तो नास्तिकता की परिभाषा क्या हो सकती है?
आचार्य प्रशांत: नास्तिकता कौन-सी वाली? असली नास्तिकता या वो नास्तिकता जो भगत सिंह की थी? ये दो अलग-अलग नास्तिकताऍं हैं।
प्र: जो भगत सिंह जैसी नास्तिकता है।
आचार्य प्रशांत: भगत सिंह की नास्तिकता है कि मैं नहीं मानूॅंगा उन सब बातों को जो धर्म के नाम पर प्रचारित हैं। ये नास्तिकता है। भगत सिंह कह रहे हैं 'न अस्ति', वो किस चीज़ को कह रहें हैं नहीं है (न अस्ति माने नहीं है)? वो कह रहे हैं ये जितना जो आडंबर खड़ा किया गया है धर्म और भगवान के नाम पर, वो सच्चा नहीं है—न अस्ति—मैं उसके प्रति अस्वीकार रखता हूँ। ये उनकी नास्तिकता है; ये सच्ची नास्तिकता है।
आज से 7-8 साल पहले मैंने बोला था—उसपर क्वोटेशन भी बना दी, पोस्टर वगैरह भी चल रहे हैं—कि धर्म वास्तव में सच्ची नास्तिकता का विज्ञान है। तुम धार्मिक हो पाओ, इसके लिए पहले आवश्यक है कि तुम नास्तिक होना सीखो क्योंकि अगर तुम नास्तिक नहीं हो, तो तुम सस्ते आस्तिक हो। सस्ता आस्तिक कौन होता है? कि तुमको बता दिया गया कि "भगवान जी है।" "हाँ, भगवान जी।" "बोलो, जय।" "जय!"
हो गया। ये तुम्हारी सस्ती आस्तिकता है। और ये जो सस्ती आस्तिकता है, इसी ने धर्म का बंटाधार कर रखा है, अध्यात्म का बेड़ा गर्क कर रखा है। पहले नकली धर्म को नकारना सीखो, पहले नकली धर्म के प्रति नास्तिक होना सीखो, बहुत अच्छी बात है। जब नकली धर्म के प्रति नास्तिक हो जाओगे, तो फिर सच्चे अर्थों में धार्मिक हो जाओगे।
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