प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपको सुनता हूँ, तो आपके कथन सहजता से समझ आ जाते हैं, पर जब उपनिषद को पढ़ने बैठता हूँ, तो उसके कथन समझने में कठिनाई महसूस करता हूँ, इन दोनों में क्या अंतर हैं?
आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं, वो एक भाषा है, वो एक तरीका है, वो एक बड़ा पांडित्यपूर्ण तरीका है, विद्वानों का तरीका है, मँझा हुआ तरीका है कुछ बाते कहने का। उन्हीं बातों को सन्तों ने और ज़मीन की भाषा में कहा है। तुम्हारा चित्त ऐसा हो जो पांडित्यपूर्ण भाषा को ज़्यादा आसानी से समझता हो, तो उपनिषद् हैं तुम्हारे लिए; तुम्हारा चित्त ऐसा हो जो आम बोल-चाल की भाषा को समझता हो, आम बोल-चाल के प्रतीकों से ज़्यादा तत्व ग्रहण करता हो, तो संतो की भाषा है तुम्हारे लिए; और भी तरीकों के चित्त होते हैं साधकों के, उनके लिए और भी तरीकों के ग्रन्थ होते हैं, गुरुओं की और भी विधियाँ होती हैं। उपनिषद् जो बात कह रहे हैं वो कोई कठिन, क्लिष्ट, जटिल बात नहीं है, उस समय का माहौल ऐसा था, साफ-सुथरा उठा हुआ कि वो सब बातें बड़ी विद्वतापूर्वक कही गई हैं, तो अब जब तुम उन्हें देखते हो तो तुम्हें लगता है कि, "अरे! ये क्या कह दिया।" नहीं, कुछ नहीं कह दिया, बात बहुत सीधी-साधी ही कही है। तुम कह सकते हो, ये एक अभिजात्य तरीका है बात को कहने का, एक इलीट (अभिजात्य) तरीका है।
प्र: मुझे भय हो रहा है, तो क्या उसको छोड़ दूँ?
आचार्य: नहीं, छोड़ नहीं दो, संतो के पास चले जाओ। वहाँ यही बात जब समझ जाओगे, तो फ़िर इसमें वापस आ सकते हो। यही बात जब समझ जाओगे, तो फिर इसमें वापस आ सकते हो।
प्र: तब तक अपना वो आत्मानुशासन वाला या ये होगया…
आचार्य: हाँ-हाँ, बिलकुल-बिलकुल। जेईई की तैयारी करी है तुमने, उसमें आम तैयारी की किताबें भी होती हैं, रेसनिक हैलिडे भी होती है, आई ई इरोडोव भी होती है, सबका अपना-अपना महत्व है। तुम्हें अपने स्तर के अनुसार जो किताब अनुकूल लगे, उसके साथ आगे बढ़ो।
प्र: तो बस एक चीज़ कि इन्हें पढ़ कर फिर अपने से लड़ने की आवश्यकता नहीं, मैं कभी- कभार वो कर बैठता हूँ।
आचार्य: तुम्हारी कोशिश रहती है कि हावी हो जाओ, तुम उनसे समर्पित होने तो जा ही नहीं रहे। तुम अगर ये मान कर जाओ कि वो घर के बूढ़े दादा जी हैं, तो फिर तुम पहले से ही तैयार रहोगे कि इनकी आधी बाते तो समझ में आनी ही नहीं है। तुम तो उनको ऐसे मान कर जा रहे हो कि जैसे तुम्हारे ही तल के हों। तो फ़िर तुम्हारे अहंकार को ठेस लगती है कि, "अरे! इन्होंने कुछ कहा और हमें समझ में नहीं आया।" भाई ! वो जो कुछ कहेंगे, उसमें से तुम्हें बहुत कुछ समझ में नहीं आएगा। वो परपितामह हैं, वो बहुत बूढ़े हैं और उनकी बातें बहुत गहराई से आ रही हैं, तो जब उनके पास जाओ तो पहले ही ऐसे (नतमस्तक होकर) जाओ, कि, "इनके पास मैं इसलिए आया हूँ कि प्रेम है मुझे इनसे, इनके पास मैं इसलिए आया हूँ कि इनका आशीर्वाद मिल जाये, और मैं इस तैयारी के साथ आया हूँ कि बहुत कुछ मेरे पल्ले नहीं पड़ेगा", फ़िर तुम्हें उपनिषदों से लाभ होना शुरू होगा। उपनिषदों को सम्मान तो दो। तुमने अगर ये अपेक्षा रख ली कि, "एक-एक श्लोक का मैं अर्थ भी कर लूँगा और उसे व्यवहार में तुरंत उपयोगी भी बना लूँगा", तो तुम्हें हार मिलेगी।
इरोडोव के पाँच में एक भी सवाल अगर तुमने हल कर लिया, तो अच्छा लगता था न? कि पाँच आज़माए और एक कर लिया, तो अच्छा लगता था न? तो उपनिषदों का भी ऐसा ही है, एक-आध श्लोक भी अगर तुमको खुल गया, चमक गया, तो समझ लो बात बन गई। आजकल का तो पता नहीं पर हमारे ज़माने में तो जेईई का भी ऐसा ही था, पाँच-सात सवाल आते थे तीन घण्टे में करने के लिए जेईई-मेंस पेपर में, उसमें से जिसने एक कर लिया, उसका सिलेक्शन (चयन) हो गया; तो उपनिषदों जैसा ही मामला है।
(श्रोतागण हँसते हैं)
सब कुछ करो, ज़रूरी नहीं है, यहाँ चीज़ इतनी नायाब है कि पाँच में से एक भी अगर तुमने साध लिया, तो तुम तर गए। इसीलिए गुरु शिष्यों के कान में मन्त्र फूँकते थे, ग्रन्थ नहीं फूँकते थे, शिष्यों के कान में ग्रन्थ नहीं पूरा फूँका जाता था कि, "जा तू पूरा पढ़ के आ, सिलेबस (पाठ्यक्रम) दे दिया है।" एक मंत्र दिया जाता था कि, "बेटा! हम तुम्हें भी जानते हैं और तुम्हारी हैसियत को भी जानते हैं, ये जो तुम्हें हम दो शब्द कान में फूँक रहे हैं, तुम बस इन पर महारथ हाँसिल कर लो, तुम तर जाओगे, इन दो शब्दों से तर जाओगे।" कई बार दो भी नहीं चाहिए, एक चाहिए, राम और शिष्य वाकई में तर जाता था।
तुम एक श्लोक को अपना जीवन बना लो, तुम तर जाओगे, पूरा ग्रन्थ तो चाहिए भी नहीं। ज्ञान विस्तार पर पलता है, बोध को गहराई चाहिए। ज्ञान कहता है, "बहुत सारा हो, ये भी हो, वो भी हो, ये भी चाहिए, वो भी चाहिए।" बोध को बहुत सारा नहीं चाहिए, बोध को एक चीज़ चाहिए और वहाँ पर गहराई, जैसे कुँआ खोदा जा रहा हो; जगह एक है, गहराई चाहिए, फ़िर पानी।