कबिरा तेरी झोपड़ी गलकटियन के पास।
जैसी करनी वैसी भरनी, तू क्यूँ भया उदास।।
कबीर
वक्ता: उदासी, दो तरह की होती है। एक उदासी होती है सुख चाहने वाले मन की, अहंकारी मन की, क्षुद्र मन की; वो सिर्फ़ एक वजह से उदास हो सकता है- ‘मैं दुखी हूँ। मेरा कुछ छिन रहा है। मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं हो रही।’ उदास होता है, जम कर होता है, पर उसकी सारी उदासी संकीर्ण होती है। एक दूसरी उदासी होती है कबीर की। कबीर भी उदास होते हैं, संतों ने खूब आँसूं बहाए हैं दुनिया की दुर्दशा पर। कबीर भी उदास होते हैं, कबीर भी चिंतित होते हैं, पर उनकी उदासी अपने लिए नहीं होती। उनका कुछ नहीं है जो छिन सकता है अब। उनकी उदासी करुणावश आती है, उनकी उदासी आती है संसार का हाल देख कर के।
सुखिया सब संसार है, खाए और सोए।
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोए।।
खूब दुखी हैं। कबीर खूब रोते हैं। पर इसलिए नहीं रोते कि उनकी कोई रुपए-पैसे, मान-सम्मान की हानि हो गई है। वो रोते हैं संसार के लिए। लेकिन कबीर करें तो करें क्या? उनकी जो झोपड़ी है, जैसा वो कह रहे हैं गलकटियन के पास है, ज़्यादा बोलेंगे तो ये कबीर की ही गरदन काट देंगे। कहानियों में एक कहानी ये भी है कि कबीर की हत्या की गई थी। जन-श्रुति ही है। हाथी से कुचलवा दिया गया था। वो भी बुड्ढ़े 96 साल के कबीर को। ऐसे गलकटियन। कोई नहीं जानता इसमें तथ्य कितना है, पर कहानी कहीं से तो आती है। विरोध खूब रहा होगा कबीर का। मारा भले ही ना गया हो, पर प्रताड़ित तो खूब किया गया होगा, इस तरीके से नहीं तो उस तरीके से। तो ऐसों के बीच में…
जो पूछा था विभीषण से यहाँ लंका में कैसे रह गए? तो उसने कहा था, “जैसे बत्तीस दाँतों के बीच में ज़बान रहती है।” किसी तरीके से, कभी भी कट सकती है। तो कबीर को ऐसे ही रहना होता है, अजीब है कबीर का काम। एक तरफ़ तो उनके आस-पास के जितने हैं वो उन्हीं का सर काटने को तैयार रहते हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ कबीर का ही सर काटना है, वो आपस में भी एक दूसरे के प्रति हिंसक हैं। क्रूर हैं हीं, क्योंकि जहाँ अज्ञान है वहाँ हिंसा आएगी ही आएगी। और हिन्सक चित्त चुन-चुन के हिंसक नहीं होता, वो समष्ट सृष्टि के प्रति हिंसक रहता है। इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि वो कबीर के प्रति भी हिंसक रहता है।
संत की बड़ी इच्छा रहती है कि उसके माध्यम से सब तर जाएँ। जो बोधी सत्व की पूरी धारणा है, वो है ही यही कि मैं आख़िरी होऊँगा जो नाव में बैठूँगा। “जब सब बैठ जाएँगे, तब मैं बैठूँगा। जब तक सब पार नहीं हो जाते, मुझे पार होने का कोई हक़ नहीं है। मैं हूँ ही दुनिया में इसीलिए। मैं तब तक नहीं छोड़ूँगा, जब तक सब तर नहीं जाते।”
तो हिंसा झेलता है, क्रूरता झेलता है, अपमान झेलता है, पत्थर झेलता है संत, लेकिन फिर भी करुणावश संसार के लिए ही वो लगा रहता है, मौजूद रहता है। उदासी जब बढ़ने लगती है तो कबीर मानो अपने ऊपर ही व्यंग्य करते हैं कि “अरे! कबीर तू कार्य-कारण का चक्र तोड़ देगा क्या? जैसी करनी वैसी भरनी। ठीक तेरी बड़ी इच्छा है पर ये जो अपने पापों की गठरी अपने सर पर लेकर चल रहे हैं, तू कैसे उसे हटा देगा। और हटा तू दे भी, ये तो अपनी उसी गठरी से जुड़े हुए हैं, इन्हें अपने बंधनों से ही मोह हो गया है। तू कर क्या लेगा रे? तू इनके घर पर खटखटाएगा, ये घर के दरवाज़े बंद कर देंगे। तू इनसे इनके बंधन छीनेगा, ये तुझे ही मारेंगे, गालियाँ देंगे। तू कब तक उदास रहेगा?” और ये कह कर के शायद कबीर हँस दिए होंगे कि “जैसी करनी, वैसी भरनी, तू क्यों भया उदास? ये पगले हैं, अपना कर्म-फल भोग रहे हैं, और इन्हें भोगना पड़ेगा। कर्म के सिद्धांत को कबीर तू भी नहीं काट सकता। तू कोशिश कर ले, ठीक है, लेकिन जब ये तेरी कोशिश में सहभागी भी होने को तैयार नहीं हैं, तो तू क्या जादू कर लेगा?”
कबिरा तेरी झोपडी गलकटियन के पास।
जैसी करनी वैसी भरनी, तू क्यूँ भया उदास।।
अजीब होती है संत की करुणा। कोई संत नहीं है जिसको उसके आस-पास के लोगों ने गाली न दी हो। गाली नहीं पड़ रही है तो जान लेना कि संत ही नहीं है। पहचान ही यही है कि बिलकुल गरमा-गरम गालियाँ निकलती हैं दिल से, और पत्थर, शक, संदेह, सब। विचित्र मूर्खता! जैसे कोई डूब रहा हो और कोई उसे हाथ बढ़ा के सहारा दे रहा हो और अपने सहारे के लिए आते हाथ को आप गालियाँ दें। कल्पना करिये। उस मूढ़ की कल्पना करिये और उसकी ओर सहारे के लिए जो हाथ बढ़ रहा है वो उसको बिलकुल चुनिन्दा गालियाँ दे रहा है- “तू मुझे डुबोने के लिए आ रहा है?” – जैसे कोई जलते हुए घर में कैद हो और कोई उसकी मदद करना चाह रहा है और वो उसी को पत्थर फ़ेंक-फ़ेंक के मारे कि घुसना नहीं इस घर में। ये मेरा पसंदीदा घर है। “और कौन कहता है कि घर में आग लगी हुई है? अरे! ये तो रोशनी है। उज्जवल घर है मेरा।” लाज़मी है थोड़ी उदासी तो आएगी कबीर पर, पर फिर वो यही कह के अपने-आप को चुप हो जाते हैं- “जैसी करनी, वैसी भरनी; तू क्यूँ भया उदास”।
अन्य जगहों पर भी कहा है-
हार जले ज्यों लाकडी, केस जले ज्यों घास।
सब जग जलता देख कर, कबीर भया उदास।।
सिर्फ़ मृत्यु की दशा का वर्णन नहीं कर रहे हैं कि लकड़ी की तरह जल रहे हो और केश जल रहे हैं; पूरे जीवन में प्रतिपल और क्या हो रहा है? सुलग ही तो रहे हो। कबीर उदास होते हैं क्यूँकि उन्हें मालूम है कि जीवन ऐसा हो ये आवश्यक नहीं था, तुम्हें जन्म इसलिए नहीं मिला था की तुम इतनी सड़ी-गली तरह से इसको बिता दो, धुआँ-धुआँ हो तुम, इस खातिर नहीं जन्मे थे, जानते हैं कबीर। जानते हैं कि बेकार ही जा रहा है-
“हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाए”
तो उदास हो जाते हैं, साफ़-साफ़ दिखता है कबीर को कि जो उन्हें मिला है वो दूसरों को भी प्राप्त है, पर मिल नहीं पा रहा है, और थोड़ी सी बेवकूफ़ी की वजह से ही नहीं मिल रहा है तो उदास हो जाते हैं। उसी उदासी में कबीर का डंडा भी चलता है। उसी करुणा से कबीर बड़ी तीखी चोट भी करते हैं। और गलकटियन पे जब तीखी चोट करोगे तो क्या होगा?
श्रोता:
कबिरा खड़ा बाज़ार में, ले लुकाठी हाथ।
जो घर बारे आपना, चलो हमारे साथ।।
वक्ता: अरे! ये तो छोड़ ही दीजिये कि “जो घर बारे आपना, चले हमारे साथ”, घर के सामने ही, थोडा हमारे साथ चल लो, इतने में भी गलकटियन को बड़ी समस्या है।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।