योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः। स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।
जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ५, श्लोक २४
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, चरण वंदन। अंतरात्मा में स्थित बने रहने के लिए निरंतरता चाहिए, पर जीव के रूप में अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संसार में जाना ही पड़ता है और यदि स्वयं को विरक्त कर भी लें तो दायित्व विरक्त नहीं रहने देंगे। कृपया इस सम्बन्ध में कुछ स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: अगर अपनी न्यूनततम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही संसार में जा रहे हैं तो आप जा ही नहीं रहे हैं। वह कर्म फ़िर कर्म नहीं कहलाता; वह अकर्म है। बस आवश्यकताएँ न्यूनतम ही होनी चाहिए, यह ना हो कि न्यूनतम की परिभाषा शरीर ने नहीं बताई, आपने तय कर दी।
और आप अगर तय करेंगे तो मन तो चालाक है, वह न्यूनतम को अधिकतम कब बना देगा, आपको पता ही नहीं चलेगा। वो अधिक, अधिक, और अधिक को भी नाम न्यूनतम का ही दिए रहेगा, और आप यही कहेंगे कि, “मैं तो बस अपनी न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति कर रहा हूँ।“ क्या है न्यूनतम आवश्यकता? “चार कोठियाँ तो होनी चाहिए न!” न्यूनतम आवश्यकता है? इस बारे में सतर्क रहिए। न्यूनतम माने न्यूनतम।
फ़िर कह रही हैं कि स्वयं को विरक्त कर भी लें तो दायित्व विरक्त नहीं रहने देंगे। दायित्व की बात मत करिए, प्रेम की बात करिए। जिनके प्रति आपका दायित्व है, उनको कुछ अच्छा ही देना चाहते हैं न? तो वही दीजिए जो अच्छा है।
आमतौर पर दायित्वों की पूर्ति के नाम पर दूसरों को जो दे रहे होते हैं, वो आपके ही कभी काम नहीं आया होता, दूसरों के क्या आएगा! दायित्वों की पूर्ति, ज़िम्मेदारी पूरी करने के नाम पर आप दूसरों को जो दे रहे होते हैं, क्या वो आपके कभी काम आया? आप यह तो देखिए कि आपके काम की कौन सी वस्तु है, आपको वास्तव में कौन सी चीज़ फलेगी। जो आपको फलता हो, वही दूसरों को देने की बात करें न।
बिलकुल ठीक कहा आपने कि रहना इसी संसार में है। रहना इसी संसार में, तो फ़िर संसार का रोना क्यों रोना? शांति पाना, मुक्ति पाना अगर इतना मुश्किल ही होता, तो किसी ने बात ही क्यों की होती? असंभव नहीं है, मुश्किल भी नहीं है; नीयत होनी चाहिए, कला सीखनी चाहिए। सर्वप्रथम तो नीयत, नीयत है तो कला भी सीख ही लेते हैं।
प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। श्रीकृष्ण जो कुछ भी कह रहे हैं, वह ख़ुद में कहीं नज़र नहीं आता। ना शांति है, ना समता है, ना स्थिरता है, प्रिय से आसक्ति है और अप्रिय से द्वेष है। बस कभी-कभी कुछ झलक सी दिखाई पड़ती है। ख़ुद को योगी होने के पात्र रूप में देखना भी नामुमकिन लगता है, निराशा होती है।
जब मन, इन्द्रियाँ भी वश में नहीं और कर्मफल भी कृष्ण को समर्पित नहीं, ऐसे में क्या किया जाए? अभी तो ज्ञान, कर्म और संन्यास के मेल में काम करना उचित लगता है शुरुआत में। क्या एक ही मार्ग पर चलना सही है या मिश्रित? आचार्य जी, कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य: यह भी नहीं, वह भी नहीं, तो फ़िर आचार्य जी से प्रश्न पूछने का क्या लाभ? प्रश्न पूछ करके ही आप यह सिद्ध कर रही हैं न कि इच्छा है योग की, प्राप्ति की। शुरुआत आपने कर ही दी न।
योग की इच्छा ही योग की पात्रता बनती है।
वास्तव में पात्र तो सभी हैं। पात्र माने क्या? पात्र माने वह जो खोखला है, पात्र माने वह जो खाली है और अभिलाषी है भरे जाने का। ऐसा ही होता है न पात्र? तो पात्र तो सभी हैं न, क्योंकि सभी खाली और खोखले और अपूर्ण हैं। अहम् पात्र है ही योग का। योग के पात्र सभी हैं।
कमी किसी की पात्रता की नहीं होती, कमी इच्छा की होती है।
खोखलापन है तो पात्रता है। अब उसको भरने की इच्छा है या नहीं? जैसे ही आपने मुझे यह प्रश्न भेजा, आपने इच्छा दर्शा दी न। आपमें योग की कोई इच्छा ना होती तो आप यह सवाल इत्यादि क्यों लिखती? सब तो नहीं पूछते सवाल।
बाकी जो आप बातें कह रही हैं कि ना शांति है, ना समता है, ना स्थिरता है, प्रिय से आसक्ति है और अप्रिय से द्वेष है। अपनी कठिनाइयाँ इतनी भी बढ़ाकर मत बताइए। ना होती आपके पास बिलकुल शांति, ना होती बिलकुल समता, तो इतनी बातें आप लिख कैसे पातीं? थोड़ा सा विनम्र रहिए, थोड़ा कृतज्ञ रहिए। आप अभी जानती नहीं हैं कि जो लोग पूर्णतया अशांत हो जाते हैं, उनकी क्या दुर्दशा होती है।
आपको बहुत शांति मिली हुई है। मत कहिए कि ‘मेरे पास शांति है ही नहीं’; शांति है। जो शांति मिली है, बस उसके लिए आपके मन में धन्यवाद का भाव नहीं है। उसके प्रति थोड़ी कृतज्ञ हो जाएँगी तो और शांति पाने के दरवाज़े खुलेंगे। अभी तो आप कह रही हैं, “यह भी नहीं मिला, वह भी नहीं मिला। हाय! मैं योग कैसे कर लूँ?” अरे! भाई, बहुत कुछ मिला है, पहले उसको अभिस्वीकृति दो, सिर झुका करके मानो कि देने वाले ने दे तो रखा ही है, फ़िर पता चलेगा कि आगे जो नहीं मिल रहा, उसके ना मिलने के लिए ज़िम्मेदार कौन है, पाने वाला या देने वाला।
पात्र जब पचास ऐसी चीज़ों से भरा हो जिनकी उसको ज़रूरत ही नहीं तो फ़िर अमृत वर्षा भी हो, पात्र को कुछ मिलता नहीं न। यही फ़िर अपात्रता कहला जाती है। अपात्रता खालीपन का भाव नहीं है, अपात्रता है उस खालीपन को व्यर्थ वस्तुओं और विषयों से भर देना।
देखो, जहाँ खालीपन है, खोखलापन है, वहाँ निश्चित ही कुछ तो आ करके उस खालीपन को भरेगा। प्रश्न यह है कि तुमने किस चीज़ से भर लिया है अपने खालीपन को। भरने में कोई बुराई नहीं, किस चीज़ से भर लिया है? जिस चीज़ से भर लिया है, वह वास्तव में तुम्हारे काम की है? “आचार्य जी, क्या परिभाषा है उन चीज़ों की जो काम की होती हैं?” तुम जानते हो। आचार्य जी से क्या पूछ रहे हो?
जो तुम्हारा साथ ना छोड़े, जो तुम्हें धोखा ना दे, जो जैसा दिखता है वैसा ही हो, जो वास्तव में तुम्हारी तृष्णा शांत कर दे, जो तुम्हारी चेतना को और ऊँचा कर दे, जो तुम्हारे भय हर ले, जो तुम्हारा तनाव, तुम्हारी चिंताएँ, तुम्हारी कठिनाइयाँ बिलकुल न्यून कर दे। यही सब तो ज़िन्दगी के ज़हर होते हैं न? जो कुछ इनको शांत कर दे, वह तुम्हारे काम का है।
फ़िर कह रही हैं, “अभी तो ज्ञान, कर्म और संन्यास आदि के मेल में काम करना उचित लगता है शुरुआत में। एक ही मार्ग पर चलना सही है या मिश्रित?"
तीन, चार, पाँच रास्तों की बात करना अच्छा लगता है, क्योंकि फ़िर किसी रास्ते पर चलना नहीं पड़ता, है न? कोई ऐसा काम करती पकड़ी गईं जो घोर अज्ञान का है, और किसी ने कहा, “यह क्या कर रही हैं? यह तो बड़े अज्ञान का काम है।” तो कह दो, “हम तो कर्मयोगी हैं, हम ज्ञानयोगी हैं ही नहीं। अगर हम ज्ञानयोगी होते तब तुम्हारी निंदा जायज़ होती। ज्ञानयोगी को कहो कि तू अज्ञान का काम कर रहा है, तो तुमने सही निंदा करी। पर हम तो ज्ञानयोगी हैं ही नहीं, हम तो कर्मयोगी हैं।”
अब आलस में पकड़े गए या व्यर्थ कर्म करते पकड़े गए, और किसी ने कहा, “यह क्या कर रहे हो? ये बेकार के काम हैं।” तो तुमने कहा, “अरे! हम ज्ञानयोगी हैं। हम तो आत्मा हैं। आत्मा तो करती ही नहीं। तो कोई भी कर्म हम पर लागू होता ही नहीं।”
ना ज्ञान, ना कर्म। पकड़े गए मोह में, आसक्ति में, किसी ने कहा, “यह कर रहे हो? यह तो मोह है, आसक्ति है।” तो बोलो, “हम प्रेम योगी हैं।”
तो पाँच-छः रास्ते पकड़ लेने से यह सुविधा रहती है कि किसी रास्ते पर नहीं चलना पड़ता। जिस रास्ते पर पकड़े जाओ, उस रास्ते पर बता दो कि हम तो दूसरे रास्ते के हैं।
स्वयं कृष्ण ने जो मार्ग अनुमोदित किया है, उस पर चल लीजिए। थोड़ा सा चलने के बाद स्पष्ट होने लग जाता है कि सब मार्ग एक ही दिशा में जा रहे हैं—और एक अर्थ में सारे मार्ग एक ही हैं—कि सब मार्गों में अहम् की शांति होती है। थोड़ा चलिए तो पता चलता है कि सब मार्ग ऊपर-ऊपर से अलग हैं, अंदर-अंदर काम एक ही चल रहा है।
हमेशा कुछ-न-कुछ करती रहती हैं, ज़िम्मेदारियाँ निभाती रहती हैं, तो कहिए कि “फ़िर ठीक है, अपनी वास्तविक ज़िम्मेदारी निभाऊँगी।“ “बहुत आसक्ति है” आपने लिखा है, “प्रिय से आसक्ति, अप्रिय से द्वेष है।” तो कहिए कि “जब राग करना ही है, द्वेष करना ही है तो उससे राग करुँगी जो वास्तव में काम का है और जो कुछ व्यर्थ है, निरर्थक है, उससे द्वेष करुँगी।“
“सगे सम्बन्धी हैं, घरवालें हैं, बच्चे हैं, परिवारवाले हैं, उनसे मैं बार-बार कहती हूँ कि बड़ा जुड़ाव है, बड़ा मोह है।“ ठीक है, उनसे जुड़ाव है, मोह है; तो फ़िर उनके काम आइए न। प्रेम का तकाज़ा तो यही है, उन्हें कुछ ऐसा दे करके जाइए जो चलेगा; उन्हें कुछ ऐसा दे करके जाइए जो उन्हें वास्तविक तृप्ति दे देगा; उन्हें कुछ ऐसा देकर जाइए जो जीवनभर और जीवन से आगे भी काम आएगा।
जहाँ आप हैं, शुरुआत आपको वहीं से करनी है। नीयत बस साफ़ रखिएगा।