प्रश्नकर्ता: संसार में इतनी हिंसा और क्लेश क्यों है?
आचार्य प्रशांत: संसार में इतनी हिंसा और क्लेश क्यों है? हममें क्यों है? ‘संसार में क्यों है?’ ऐसा पूछते हो, तो लगता है कोई बहुत बड़ी बात पूछ ली। अब इसका फिर उत्तर भी बहुत बड़ा चाहिए। फिर उत्तर में तुम चाहोगे कि बड़ी संस्थाओं की बात हो, व्यवस्थाओं की बात हो, राष्ट्रों की बात हो, इतिहास की बात हो, वृहद तंत्रो की बात हो।
मैं साधारण किए देता हूँ। मैं पूछ रहा हूँ, तुममें क्यों है हिंसा और क्लेश? क्यों है? और अगर तुम में है; तुममें (श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए) है, तुममें है, तुममें है, तुममें है, तुममें है, तुममें है, तो संसार में हो गया कि नहीं हो गया? हाँ? तो यही बता दो कि तुममें क्यों है हिंसा और दुख? क्यों है? बोलो।
न बता पाने के दो ही कारण हो सकते हैं, तीन बार पूछा, बता नहीं रहे हो। न बता पाने के दो कारण होते हैं, ‘एक अज्ञान, दूसरा अविश्वास।’ कुछ तो तुमको पता नहीं है, और दूसरा जो तुमको पता है, उस पर तुमको भरोसा नहीं है कि बोल कैसे दें। यही है न? इसीलिए तो नहीं बोल रहे न?
कुछ तो ये बात कि क्या पता कि हमें दुख क्यों है। इतने होशियार ही होते, इतना पता ही होता, तो दुखी क्यों होता। तो पहली बात तो ये कि तुम्हें लगता है कि पता नहीं है। और दूसरी बात ये कि जितना तुमको पता है, उस पर तुमको भरोसा नहीं है। तो बस यही दो कारण हैं दुख के, ‘अज्ञान और अविश्वास। अज्ञान और अविश्वास।’
जिन वज़हों से एक आदमी दुखी है, उन्हीं वज़हों से पूरी दुनिया दुखी है, चाहे कोई भी हो। आदमी हो और आदमी का दर्द अलग-अलग नहीं है। बच्चे और बूढ़े का दर्द अलग-अलग नहीं है। ऊपर-ऊपर से लगेगा कारण अलग हैं, स्थितियाँ अलग हैं, गहराई में दर्द, दर्द एक है।
जिस वज़ह से तुम दुखी हो उसी वज़ह से तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे पिता, तुम्हारा पड़ोसी, और पड़ोसी देश, और दूसरे ग्रह-उपग्रह, प्रजातियाँ सब एक ही वज़ह से दुखी हैं। दुख के यही मूल कारण हैं। न जानना ‘अज्ञान’, और न झुकना ‘अविश्वास।’
एक दफ़े मैंने कहा था, नो योर हेड एंड कीप इट डाउन। (अपने सिर को जानें और इसे नीचे रखें।) नो योर हेड (अपने सिर को जानें) का अर्थ हुआ ‘जानना’, कीप इट डाउन (इसे नीचे रखें) का अर्थ हुआ ‘झुकना'। इन दो के अलावा कोई तीसरी चीज़ होती नहीं। इन्हीं को कुछ लोगों ने ज्ञान और भक्ति कहा है। ‘जानो और झुको।’ और जो जान गया, वो स्वयं भी झुक भी जाएगा। अभी न बोलकर के आपने यही दिखाया कि ज्ञान नहीं है, तो बोले कैसे। और भरोसा नहीं है, तो बोले कैसे।
न ज्ञान मार्ग है, न भक्ति मार्ग है, तो दुख और क्लेश है। क्या जाना जाता है? ये जाना जाता है कि ये जो चल रहा है, ये सब है क्या। जानने की ज़रूरत क्या है? ज़रूरत का नाम है दुख। जो चल रहा है उसमें अगर मौज़ हो, तो तुम कुछ न जानो।
थोड़ी देर पहले मैंने कहा, ‘बड़ा भला हो अगर तुम अपना नाम भी भूल जाओ, नाम भी न जानो अपना।’ और मौज़ की इंतहा हो जाती है जब आदमी को अपना नाम भी जानने की ज़रूरत नहीं रहती। बड़ी भली बात है। जब सबकुछ ही ठीक चल रहा है, तो ज्ञान का बोझ क्यों लेना? लेकिन तुम्हारे साथ तो ऐसा है नहीं कि सब ठीक चल रहा है। जब सब ठीक नहीं चल रहा, तो जानो।
तुम्हारी गाड़ी मस्त चल रही होती है, तुम इंजन की छानबीन करने जाते हो क्या? जाते हो क्या? लेकिन गाड़ी अगर घर्र-घर्र, खट-खट करती हो, धुँआ-ही-धुँआ फेंकती हो, तेल-ही-तेल पीती हो, काबू में न आती हो, तब तो जाँच-पड़ताल करनी पड़ेगी। कि नहीं करोगे? तब भी कहोगे कि बोनट नहीं खुलेगा?
तो ज्ञान का अर्थ होता है अपना बोनट खोलो, और देखो कि तुम्हारी गाड़ी इतना धुँआ क्यों मारती है, इतना तेल क्यों पीती है। तुम कहीं और को चलाते हो, किसी और दिशा में क्यों भागी जाती है। अपने ही जीवन को देखना ज्ञान है, इसी को कहते हैं ‘आत्मज्ञान'।
अब जब मैं कह रहा हूँ अपने ही जीवन को देखना ज्ञान है, तो इसका अर्थ ये नहीं है कि तुम दुनिया को देखना बंद कर दोगे। क्योंकि तुम अपने आप को जान ही नहीं सकते।
प्रश्नकर्ता: बिना दुनिया के।
आचार्य प्रशांत: बिना दुनिया के। सारा आत्मज्ञान दुनिया के संदर्भ में होता है। अपने आप को क्या जानोगे? तभी तो अपना पता चलेगा न जब गाड़ी खटखट कर रही है। तो अपने को जाना गाड़ी के संदर्भ में। कोई तुम्हारे सामने आता है और तुम्हारे भीतर से लपटें उठती हैं, तो तुमने अपने को जाना उस व्यक्ति के संदर्भ में। वो व्यक्ति न होता, तुम्हें अपना कुछ पता ही न चलता, आग छुपी रह जाती।
अपने आप को तभी जान पाओगे जब संसार से संपर्क में आओगे। संसार तुम्हारे भीतर मौजूद है वृत्तियाँ बनकर के। वो वृत्तियाँ प्रकट लेकिन तभी होती हैं जब बाहर से इशारे आते हैं। जब बाहर से स्थितियाँ बनती हैं। तो अपने को जानने के लिए बहुत ज़रूरी होगा जानना दुनिया को भी।
मान लो कि तुम्हें दुनिया का कुछ नहीं पता, तो गाड़ी का बोनट उठा भी दोगे, तो क्या जान पाओगे? उसमें से तेल चू रहा है, अब तेल गाड़ी से पैदा तो नहीं हुआ न, तेल तो संसार का है, और तुम्हे संसार का कुछ पता नहीं, तो उस चूते तेल को तुम क्या जान पाओगे? या जान पाओगे?
तुम्हें तेल का पता होना चाहिए, तब तुम गाड़ी को जान सकते हो। तुम्हें संसार का पता होना चाहिए, तब तुम अपने आप को जान सकते हो। ठीक उसी तरीके से अगर तुम अपने आप को नहीं जानते, तो संसार को भी नहीं जान पाओगे। क्योंकि सांसारिक ज्ञान भी सारा होता अपने ही परिप्रेक्ष्य में है, वस्तुगत ज्ञान कुछ नहीं होता।
विज्ञान भी सब्जेक्टिव (व्यक्तिपरक) होता है। लगता हमें यही है कि विज्ञान में कहाँ सब्जेक्टिविटी (आत्मीयता) है, वो भी पूरा-का-पूरा सब्जेक्टिव ही है। तो बाहर की दुनिया को जानना है अपने आप को जानना पड़ेगा। अपने आप को जानना है, तो बाहर की खबर रखनी पड़ेगी।
छोटी-छोटी बातें पूछूँ तुमसे, तुम्हें कुछ पता नहीं होगा। तुम किसी खास रंग की ओर क्यों आकर्षित हो, तुमने परखने की कोशिश की? तुमने जानने की कोशिश की कि रोज़ सवेरे आईने के सामने खड़े होकर के तुम क्यों दाढ़ी बना लेते हो? ये सब बातें हमसे बेहोशी में हुई जा रही हैं, हम कर नहीं रहे। तुम किसी दिशा को चल पड़ते हो, तुम किसी स्त्री-पुरुष की ओर आकर्षित हो जाते हो। तुमने समझना भी चाहा कि उसमें क्या है जो तुम्हें खींच रहा है, और तुम्हारे किस बिंदु को खींच रहा है?
तुमने जानना चाहा कि यदि तुम्हें बंद कमरे में डर लगता है, तो इससे तुम्हारे बारे में क्या पता चलता है? तुमने जानना चाहा कि तुम यदि एक खास शहर में रहते हो, और उसमें एक खास घर में रहते हो, तो उसी शहर में क्यों हो? और उसी घर में क्यों हो? तुम्हें अपनी ही गाड़ी का कुछ पता नहीं। इसीलिए दुख है।
समझ में आ रही है बात?
ये पहली बात हुई अज्ञान की कि तुमने जानने की कभी कोशिश नहीं की। अब दूसरी बात पर आते हैं कि विश्वास नहीं है हममें। उससे आशय क्या है मेरा कि विश्वास नहीं है हमें।
तुमने कुछ क्यों नहीं बोला जब मैंने तुमसे पूछा कि बोलो कि तुम क्यों हो दुखी? मैं बताता हूँ तुमने क्यों नहीं बोला। तुम्हें भरोसा नहीं था कि तुम बोल दोगे, तो तुम्हारी खिल्ली नहीं उड़ जाएगी, या कि तुम्हारी छवि नहीं मलिन हो जाएगी। तुम्हें भरोसा नहीं था इन सब लोगों पर जो यहाँ बैठे हैं, और तुम्हें भरोसा नहीं था मुझ पर भी। अन्यथा तुमने बोल दिया होता, क्योंकि ऐसा नहीं हो सकता कि अपने दुख का तुम्हें कुछ-न-कुछ अनुमान न हो, पर तुम नहीं बोले। इसको कहते हैं डर।
हमारी गाड़ी टूटी-फूटी हुई है, धुँआ देती है, शोर मचाती है, चलती नहीं, तमाम दुर्घटनाएँ करवाती है, लेकिन फिर भी हम उस गाड़ी की न तो मरम्मत को तैयार है, न उससे उतरने को राजी हैं, क्योंकि डरे हुए हैं। हमें लगता है जैसी भी है अभी कुछ तो है, इसको अगर बदल दिया, तो कहीं ऐसा न हो कि जितनी है उतनी भी न रह जाए। हमें अविश्वास है, इसीलिए हम घटिया-से-घटिया हालत को भी बर्दाश्त किए जाते हैं।
लोग अपने दुखों से सहमत क्यों हैं। आप देखेंगे लोग बुरी-से-बुरी हालत में भी जिए जा रहे हैं, बदलने को राजी नहीं है। पूछिए क्यों। वो कहते हैं, ‘अभी जैसी भी हालत है, कुछ तो है। अगर बदल दिया, तो क्या पता कुछ भी न रह जाए।’ ये डर है।
डर इसलिए है क्योंकि श्रद्धा नहीं है कि आप जैसे हो, उसके आगे भी जीवन है। आप कहते हो, ‘ये टूटी गाड़ी है, भले ही टूटी है, पर मेरी है, ये मैं हूँ। और प्रमाण क्या है कि इसके आगे कुछ है? ये गाड़ी अभी तो साक्षात है न, उपलब्ध है न, प्रमाणिक है। टूटी भले है, पर उपलब्ध है, प्रमाणिक है। आप कहते हो, ए बर्ड इन द हैंड? (हाथ में एक पक्षी?)
प्रश्नकर्ता: बेटर देन इन टू द बुश। (दो झाड़ियों से बेहतर है।)
आचार्य प्रशांत: बेटर देन इन टू द बुश। ये टूटी गाड़ी है, लेकिन है तो। मेरा घर सड़ा-गला है, लेकिन है तो! अगर इस घर की मरम्मत करवाई, अगर इस घर को बदलने की चेष्टा की, या अगर इस घर से मैं बाहर ही आ गया, तो क्या भरोसा है कि दूसरा कोई घर होगा, उसका तो कोई प्रमाण नहीं। जो प्रत्यक्ष होता है, उसका तो प्रमाण होता है।
जो आगत होता है, उसका कोई प्रमाण नहीं हो सकता, उसके प्रति सिर्फ़ श्रद्धा हो सकती है। एक अकारण भरोसा हो सकता है कि देखो, गर्त में जीना हमारी नियति तो नहीं हो सकती, तो निश्चित सी बात है कि इसको अगर छोड़ा, तो कुछ-न-कुछ और आ जाएगा। क्या आ जाएगा, हम अभी नहीं जानते, पर कुछ-न-कुछ आएगा ज़रूर। परमात्मा इतना निष्ठुर तो नहीं हो सकता कि हमें यूँही कष्ट में ढकेल दे। वो हमारे पास नहीं है।
तो मैं आपसे जब सवाल पूछता हूँ, तो आप कहते हैं कि अभी चुपचाप बैठा हूँ। एक झूठी ही सही शांति तो है। आप अभी जैसे बैठे हो, कोई आकर के देखेगा, तो कहेगा, ‘देखो, शांत लोग बैठे हुए हैं।’ फौरी ही सही, ऊपरी ही सही, शांति है न?
आप मेरी बात का उत्तर दे दें, मैं आपसे सवाल करूँ। और अगर खिल्ली उड़ गई, तो आप कहते हैं, ‘ये ऊपरी शांति भी चली जाएगी।’ आप इस संभावना के लिए तैयार नहीं होते कि ऊपरी शांति चली जाएगी, लेकिन आपको उत्तर देने के कारण फिर जो शुरू होगा, उससे आपको कोई गहरी शांति मिल सकती है। आपको उस गहरी शांति की उम्मीद ही नहीं है, आपका भरोसा टूट चुका है।
आप कहते हो, ‘हल्की-फुल्की ही सही है, थोड़ी सी सही है। अरे, ज़्यादा का लालच मत करो, परम शांति का क्या पता। ये चवन्नी शांति मिली है, यही ले लो। बता गए हैं ये सब गुरु लोग कि होती है कोई परम शांति। वो हम नहीं जानते, हमको ये पाँच पैसे वाली मिली है। हमारा इससे काम चल रहा है, तो चलने दो न।’
इसे कहते हैं अश्रद्धा। इसे कहते हैं अश्रद्धा। अश्रद्धा, अज्ञान एकसाथ चलते हैं। पूछो कैसे? अगर तुमको ज्ञान हो जाए कि तुम कितनी खराब हालत में हो, तो तुम विवश हो जाओगे अपनी हालत को छोड़ने के लिए। तुम कहोगे, ‘भाई! हमें नहीं पता बाहर क्या है, पर अभी जो है, वो इतना खराब है, उसका ज्ञान हो गया; वो इतना खराब है कि उसे छोड़ना पड़ेगा। ठीक वैसे जैसे कि अगर कोई जलते हुए घर में हो, और उसे कुछ पता न हो कि उसके घर से बाहर क्या है, तो भी उसे जलते हुए घर से बाहर आना पड़ेगा।’
पर तुम जलते हुए घर में हो और आग जितनी बढ़ती है, तुम्हें लगता है, ‘वाह! कोई सेंक रहा है। और सो।’ ये अजीब हालत है। देखए, आप एक घर में हो और आग लग गई हो, तो आग आपके लिए दो काम कर सकती है। या तो आपको जगा सकती है या आपको जला सकती है।
आप घर में थे और सो रहे थे, घर में आग लग गई। आग दो ही काम करेगी। अगर आप बिल्कुल ही मूर्छित नहीं है, तो आपको जगा देगी। आपको आँच लगेगी, आप जग जाओगे। आग दुख है।
जो बिल्कुल ही मूर्छित नहीं है, दुख उसे जगा देता है, जैसे बुद्ध को जगाया था। और जो बिल्कुल ही मूर्ख है, दुख उसे जला देता है, उसे नष्ट कर देता है। कुछ ऐसे होते है धुरँधर! जिनकी ज़िंदगी दुख से भरी होती है, पर वो जगने को राजी नहीं होते। उनकी फिर एक ही नियति होती है, पूर्ण विध्वंस। इसी में तो फिर उनका कल्याण भी है न, और क्या होगा? तुम जगने को राजी नहीं, तो अच्छा है कि मिट जाओ। जगकर के मिटते हैं, कुछ जलकर के मिटते हैं।
ज्ञान यदि आपको हो जाए कि आपकी गाड़ी कितनी खराब हालत में है, तो आप कहोगे, ‘माफ़ करो भाई।’ फिर आपको जबरन श्रद्धा रखनी पड़ेगी, ज्ञान का अनुशासन आपको श्रद्धा में ढकेल देगा। पर चूँकि हमारा ज्ञान अधूरा है, इसीलिए हमारी श्रद्धा भी अधूरी है।
बात को समझ रहे हो न?
तुम्हें पता चल जाए अपने घर का कि उसमें आग लगी हुई है, तुम्हें पूरा ज्ञान हो जाए, तो तुम्हें दरवाज़े के बाहर जो है, उस पर श्रद्धा करनी पड़ेगी, तुम्हारी मजबूरी हो जाएगी। पर तुम्हें अपने घर की लपटों का कुछ पता नहीं, इसीलिए तुम बाहर वाले पर श्रद्धा करने को मजबूर भी नहीं होते।
यही दो कारण हैं दुनिया के दुख के, क्लेश के, ‘अज्ञान और अश्रद्धा,’ और दोनों जुड़े हुए हैं। दुख कोई बुरी चीज़ थोड़े ही है, दुख तो संकेत है। दुख कहता है सुधर जाओ। दुख क्या कहता है?
प्रश्नकर्ता: सुधर जाओ।
आचार्य प्रशांत: सुधर जाओ। कुछ करा है तुमने जिसके कारण दुख पा रहे हो, अपने दुख के निर्धाता तुम स्वयं हो। तुमने ही कुछ करा है कि दुख पा रहे हो। दुख तो जैसे तुम्हें एक चेतावनी आती है। जैसे कोई तुम्हारा हितैशी हो और तुमको कँधे पर थपथपा के कह रहा हो, सुधर जाओ। दुख ऐसा है।
हम तब भी सुधरने को राजी नहीं होते। सुधरने का अर्थ यही होता है कि बोनट खोलो और देखो गाड़ी को। हम बोनट खोलने को राजी नहीं होते। बोनट खोलने का क्या अर्थ है? मन में झाँककर के देखना, जीवन में झाँककर के देखना, हम तैयार ही नहीं हैं।
हम बिल्कुल नहीं चाहते कि हमारी सूरत क्यों इतनी उतरी हुई रहती है। हम नहीं देखना चाहते कि आँखें क्यों अश्रुओं से आप्लावित हैं। अपनी शक्ल देखने के इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि आईने में जब वो पिचके पपीते जैसी चीज़ दिखाई पड़ती है, तो भी हम पूछते नहीं कि ऐसा तो कोई नहीं बच्चा पैदा होता, हम ऐसे कैसे हो गए।
अपने बचपने की तस्वीर उठाएगा, और फिर आईने में अपने आप को देखिएगा, और पूछिएगा, ‘क्या कर लिया ये मैंने?’ और कुछ चाहिए नहीं, आईना सबसे बड़ा ग्रंथ है, उसको पढ़ लीजिए। यही है बोनट का खोलना, ‘जीवन को देखो।’
एक खबर आती नहीं है कभी अखबार पर, कभी टीवी पर, हिल जाते हो। एक फ़ोन कॉल आती नहीं है कि डगमगा जाते हो। कहीं से कुछ दिख नहीं गया कि बेहोश होकर के नाचना शुरू कर देते हो। और इतनी ज़ोर नाचते हो कि फिर झड़ जाते हो। लोग लगते हैं झाडू लेकर के बटोरने के लिए। लेकिन दावा अभी भी यही है, ‘लॉन्ग ड्राइव जाएँगे, फुल स्पीड जाएँगे, कहीं रुकेंगे ना हम। गाना-बजाना, खाना-पीना गाड़ी में होगा सनम।’
(बाहर से एक व्यक्ति की आवाज़ आती हुई।)
ये देखो, म्यूजिक सिस्टम भी है गाड़ी में। वो ऐसे ही अनायास बज उठता है बीच-बीच में। कि ब्रेक मारा और संगीत उठा। दो बार बज चुका है आज म्यूजिक सिस्टम। ऐसी गाड़ी है।
कबीर साहब ने कहा था, “इस जर्जर नाव में सवार होकर के कैसे पार हो पाओगे?” और आगे गए थे, बोले थे, “नाव ही नहीं जर्जर है, नाविक बेखबर है।” तुम भवसागर पार कर जाओगे, उसी गाड़ी की बात कर रहा हूँ। कौन है नाविक? तुमने मन को नाविक बना रखा है, और तुम्हारा मानना है कि तुम तर जाओगे।
ज्ञान है नाव की स्थिति को साफ़-साफ़ जानना, और श्रद्धा है उस स्थिति को स्वीकारना, और नाव से मुक्त होने की प्रार्थना करना।
अक्सर जो नाव से मुक्त होकर के डूब ही जाते हैं, वो तर जाते हैं। ऐसी नाव पर होने से तो भला है कि तुम डूब जाओ। कबीर साहब ही कह रहे हैं, “जो डूबा, वो तरा।”
प्रश्नकर्ता: मन में शंका क्या है?
आचार्य प्रशांत: तुम बताओ न क्या अभिप्राय है? जिसके लिए तुम परेशान हो, उसको ही तरना कहते है। अपने बाल क्यों नोचते हो? दुनिया से क्यों झँझट में उलझे रहते हो? क्यों किसी पर गुस्सा करते हो? क्यों किसी की ओर तुम्हें मोह लगता है? ये सबकुछ जिसके वास्ते है, उसको कहते हैं तरना।
प्रश्नकर्ता: ये मोह है।
आचार्य प्रशांत: जो भी बोल लो। तुम्हारे साथ है, तुम बताओ न। तुम व्याकुल हो तरने के लिए। कि नहीं व्याकुल हो? नहीं व्याकुल हो, तो यहाँ काहे के लिए आए हो? यहाँ पर हम सलाद तो बेच नहीं रहे।
प्रश्नकर्ता: अज्ञानता दूर करने के लिए।
आचार्य प्रशांत: उसी को तरना कहते हैं। उसी को तरना कहते हैं। जो कुछ भी तुम करने निकलते हो रोज़ सुबह, वो जिसकी उम्मीद में कर रहे हो, उसको ही तरना कहते हैं।
किसी के प्रेम में पड़ते हो, तरने के लिए। पैसा कमाते हो, तरने के लिए। कहीं जाने से बचते हो, कहीं को भागे जाते हो, तरने के लिए। सुंदर दिखना चाहते हो, तरने के लिए। ज्ञान बढ़ाना चाहते हो, तरने के लिए। समस्त इच्छाओं के पीछे जो इच्छा है, उसे कहते हैं ‘तरना।’