संसार जीवन और सच || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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संसार जीवन और सच || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, जीवन में मन, सत्य और संसार आपस में कैसे सम्बन्धित हैं?

आचार्य प्रशांत: इन तीन को आप हर जगह पाएँगे। ये एक मन है, संसार है, और सत्य है। मन कौन हुआ इन तीन पात्रों में? जिसे जो चोट लगी है, जो घायल है।

प्र: चोट लगी है।

आचार्य: संयोग नहीं है कि जो घायल है वो मन है। मन की प्रकृति ही है लगातार घायल हालत में रहना। और मन और संसार का रिश्ता कुछ ऐसा है कि संसार ही मन को चोट देता है और संसार ही ये वादा देता है कि चोट ठीक कर देगा, या चोट के कष्ट से मुक्ति दे देगा, मनोरंजन दे देगा। वही मन को बिगाड़ता है और वही मन को बहलाने का भरोसा भी देता है। आत्मा या सत्य कौन है?

प्र: ए ट्रू फ्रेंड (एक सच्चा मित्र), जो केयर (देखभाल) करता है।

आचार्य: इसके बारे में कुछ बातों पर आपने गौर कर ही लिया होगा। पहली बात, उसका होना सूक्ष्म है। वो अपने होने का एहसास नहीं दिलाता। दूसरी बात, उसके कर्म हितकारी होते हैं; मनभावन हों ये आवश्यक नहीं है। हित तो देते हैं, आकर्षण देंगे या नहीं, इसका कोई भरोसा नहीं है।

आपको वो आकर्षक लगता है या नहीं, ये उस पर नहीं आप पर निर्भर करता है। तो उसमें कभी चकाचौंध नहीं होगी, उसमें कभी झटके से खींच लेने वाला ज़ोर नहीं होगा। पुकार होगी उसकी, लेकिन मन्द। बुलाएगा, बोलेगा, सहारा देगा, मदद देगा, पर ज़बरदस्ती से नहीं। उपस्थित रहेगा, पर अपनेआप को आरोपित नहीं करेगा। रहेगा, पर मालिक नहीं बनेगा।

और अगली बात ये है कि उसका अपना कोई अर्थ नहीं सिद्ध होता रहने में। सत्य के साथ रिश्ते में और संसार के साथ रिश्ते में ये ही एक मूलभूत फ़र्क है — संसार के साथ आपके जो भी रिश्ते हैं, उसमें कहीं-न-कहीं अर्थ, मतलब शामिल है दोनों ओर से — आपकी ओर से भी और संसार के ओर से भी।

सत्य कुछ ऐसा हुआ जो आपको दे तो बहुत कुछ जाता है पर आपसे कुछ लें नहीं सकता, क्योंकि वो अपनेआप में सर्वथा पूर्ण है। जो पूर्ण है, वो आपसे क्या लेगा! तो इसी कारण जब उसकी आवश्यकता नहीं रह जाती आपको, तो वो कहीं नज़र भी नहीं आता। फिर आप उसे खोजते रहते हैं, वो कहीं दिखाई नहीं देता। क्योंकि खोजते हम सत्य को नहीं हैं, सत्य के उस रूप को हैं जिसको हम सत्य कहते हैं। उस रूप में तो वो प्रकट ही इसीलिए हुआ था क्योंकि उस समय उस रूप में उसकी आवश्यकता थी। उस रूप का कार्य सिद्ध हुआ कि नहीं, कि उसका प्रकट होना बन्द हो जाएगा। कहीं चला नहीं जाएगा, रहेगा, पर वैसे नहीं रहेगा जैसे आपने सोचा, जैसे आपने खोजा। इसीलिए खोज व्यर्थ साबित होगी।

हमारी सारी खोजें सत्य को लेकर के व्यर्थ इसीलिए साबित होती हैं क्योंकि सत्य को नहीं, सत्य के किसी रूप को खोज रहे होते हैं। हर रूप आकस्मिक होता है, हर रूप औपचारिक होता है, हर रूप किसी अवसर की माँग होता है। वो अवसर गया, वो रूप गया, अब वो दोबारा मिलेगा नहीं। हाँ, अरूप, अचिन्त्य, अकाल अवश्य मिलेगा, पर फिर वो ऐसे नहीं मिलेगा जैसे खोज़ा जा रहा था। बाहर खोज-खोजकर, इधर-उधर दौड़कर नहीं मिलेगा। वो तो फिर शान्त हो जाएँगे तो मिल जाएगा। फिर वो अपने भीतर ही मिल जाएगा।

जिसको आपसे कुछ चाहिए होगा, वो आपको कुछ देने के बाद और ज़्यादा रूकेगा क्योंकि दे दिया है, अब वसूली का वक्त है, रूको। देकर के गायब हो जाना तो बेवकूफ़ी हुई। दिया है, तो अब वापस भी तो लेंगे। इसी को कसौटी समझिएगा, इसी पर कस लिया करिए सत्य को और संसार को, इसी पर कस लिया करिए नित्य को और अनित्य को।

देने का काम तो कई बार संसार भी कर देता है। पर वो यदि देता है, तो ब्याज़ समेत वापस भी लेता है। जो लेने की इच्छा से दे, वो संसार; जो बिना इच्छा के दे, वो सत्य। मिल तो हमें संसार से भी जाता है। व्यर्थ ही थोड़े हम संसार के साथ लगे रहते हैं, मिल तो वहाँ से भी जाता है।

ये बहुत साधारण सी स्थिति को लेकर के इसीलिए ये दो-चार मिनट का नाटक किया गया कि ये ऐसी ही स्थिति है जो हम सभी के सामने आती ही रहती है। आशय ये था कि हम देख पायें कि कोई गूढ़ वक्तव्य नहीं चाहिए, कोई गूढ़ ज्ञान नहीं चाहिए शास्त्रों का, पुस्तकों का, कोई धीर-गम्भीर अध्ययन नहीं चाहिए। जीवन की, आम जीवन की जो रोज़मर्रा की परिस्थितियाँ हैं, उन्हीं में सत्य लगातार उद्घाटित होता रहता है। ज़रूरी नहीं है कि आप कोई ग्रन्थ खोलकर पढ़ें; आँख खोलकर देखिए आस-पास क्या चल रहा है, वही ग्रन्थ है।

और साधारण-साधारण बात, बहुत साधारण बात, किसी को चोट लगी है, वो खेलना चाहता है। कौन साथ आता है, कौन नहीं आता है, क्या कर्म है, क्या व्यवहार है, क्या नीयत है, और क्या नियती है, इसी में सब दिख जाना है।

जिन्होंने किताबें भी कहीं, उन्होंने और कहीं से थोड़े ही कहीं, वो भी इसी संसार के वासी थे। उन्हें भी जीवन वैसे ही उपलब्ध था जैसे हमें है। उन्होंने भी जीवन को ही देखा और जीवन को ही देखकर के वो सबकुछ कहा जिसे आज हम पवित्रतम शब्द कहते हैं।

पुस्तकों का अपना मूल्य है, निश्चित रूप से है, लेकिन पुस्तकें भी तो आप अपनी दृष्टि से ही पढ़ेंगे। और दृष्टि यदि ऐसी है कि ये संसार को नहीं पढ़ सकती, तो पुस्तक को कैसे पढ़ लेगी? ये हमें बड़ा भ्रम रहता है कि हम दुनिया को नहीं जानते, स्वयं को नहीं जानते, संसार को नहीं जानते, लेकिन किताब को जान जाएँगे। पढ़ने वाले, देखने वाले तो हम ही हैं न!

जो आदमी अपनेआप को, अपने परिवार, समाज, पड़ोसी को, अपनी परिस्थितियों को नहीं समझ सकता, वो किताब में लिखे गहन शब्द को कैसे समझ लेगा! वो वहाँ भी धोखा ही खाएगा। बस ये है कि किताब कभी पलटकर ये कहने नहीं आती है कि तुमने अर्थ का अनर्थ कर लिया है, तुमने गलत समझा है। तो हम अपनेआप को दिलासा दिए रहते हैं कि हमने जान लिया, हमने समझ लिया, हमें शास्त्रों का ज्ञान हो गया।

जीवन में वो ठाठ कभी उपलब्ध नहीं होता, जीवन तो ठोकर दे देगा, किताब कभी ठोकर नहीं देती। आप गलत समझेंगे कि सामने पत्थर है या नहीं, गड्ढा है या नहीं, जीवन तुरन्त ठोकर दे देगा। जीवन तुरन्त बता देगा कि देखो, तुम गलत सोच रहे थे। तुमने जो कल्पना की उसका यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं है। शास्त्र का आप अनर्थ कर लेंगे तो भी शास्त्र आप को पलटकर ये नहीं कहेगा कि अरे! क्या सोच रहे हो, क्या अर्थ कर लिया, क्या माने बैठे हो, हम तो वो कह ही नहीं रहे जो तुम सोचते जाते हो? इसीलिए अक्सर शास्त्रों का साथ ले लेना बहुत आसान है और जीवन का साथ छोड़ देना उतना ही सहज।

जीवन को पढ़ना सीखिए, लगातार ग्रन्थ कहे जा रहे हैं, सत्य लगातार अपनी बात कह ही रहा है, लेकिन — जैसा हमने शुरू में ही कहा था कि — वो चिल्लाकर नहीं बोलता।

हर तरफ़ बोल रहा है, लगातार बोल रहा है, चिल्लाने लगेगा तो थक जाएगा। और आपको सुनने में कुछ खास मज़ा भी नहीं आएगा। इसीलिए कहते हैं कि मौन है, हल्के से फुसफुसाता है। जैसे पार्श्व में कोई मधुर संगीत बज रहा हो, हल्के-हल्के-हल्के-हल्के वीणा की झंकार, बहुत सुमधुर और उतनी ही सूक्ष्म। सुनिए, सब सुनाई देगा।

जो आपने अभी देखा, वो रोज़ हमारे घरों में हो रहा है, रोज़ हमारे घरों के सामने हो रहा है। तीन बच्चे मिलते नहीं कि हो जाता है, तीन बड़े मिलते नहीं है कि हो जाता है। तो कहीं दूर जाना नहीं है, सबकुछ सामने है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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