संगति का प्रभाव तो होगा ही || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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संगति का प्रभाव तो होगा ही || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: गुरुजी, जब भी हमारे गुरुभाई, गुरुबन्दगी की बात करते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि हम भी पूरी बन्दगी कर सकते हैं। अकेले बैठकर भी ऐसा लगता है कि उनकी संगति में ही हूँ, पर जब अकेले नितनेम या गुरुबन्दगी करने बैठने लगते हैं, तो कठिनाई महसूस होती है।

कई बार हमारा मन ये भी कहता है कि अब क्या बन्दगी करता है? गुरुभाई के पास बैठ तो आया, हो गया तेरा नितनेम तो। अर्थात्, गुरुभाई के साथ रहने में एक ऊर्जा थी जिससे हम सिमरन (ध्यान) कर पाते हैं, वो सिमरन हम अकेले में क्यों नहीं कर पाते? गुरूजी कृपया निवारण बताऍं।

आचार्य प्रशांत: ये तो तुमने सीधे-सीधे संगति के असर की बात कर दी है। मन प्रभावों का संकलन है, हम कहीं के नहीं हैं, हम जहाँ के हैं, हम वहीं के हैं। आप अभी यहाँ मेरे सामने बैठे हो तो देखो कैसे हो। और याद करना वो पिछला विवाहोत्सव जिसमें शिरकत करके आये हो, उसमें कैसे थे? अच्छा ठीक है, पूछ लेता हूँ, कौन-कौन है जो कभी-न-कभी घोड़ी के आगे नाचा है? ईमानदारी से बताना? तब कैसे लगते हो?

अच्छा वो जो वहाँ जगह है खाली (एक ओर इशारा करते हुए), ठीक अभी वहाँ नाचने लग जाओ, जैसे घोड़ी के सामने नाचे थे तो कितना साफ़ हो जाएगा न, कितने खौफ़नाक तरीक़े से उद्घाटित हो जाएगा न कि हम कितने सारे चेहरे रखते हैं, हम बहुचित्तवान हैं, हम बहुमुखवान हैं, हम बहुमनवान हैं। देखो वहाँ पर अपनेआप को घोड़ी के सामने। और तुम कहते हो कि तुम, तुम हो, तुम अपनी हस्ती में एक सातत्य की बात करते हो।

अगर तुम्हारा नाम है निखिल प्रसाद, तो तुम कहते हो निखिल प्रसाद ही था जो घोड़ी के सामने नाचा था और निखिल प्रसाद ही है जो अभी सत्संग में शान्त और मौन बैठा है। क्या वास्तव में? नाम एक है और नाम बड़ा भ्रामक है। वो आदमी ही बिलकुल दूसरा था जो नशे में घोड़ी के सामने, ढोल की थाप पर, सड़क पर, उजड्ड बनकर नाच रहा था। वो आदमी ही बिलकुल दूसरा था न? ऐसा कैसे हो जाता है कि कभी तुम लफंगे हो जाते हो और कभी साधक? माहौल की बात है।

आदमी पूरे तरीक़े से माहौल पर चलता है क्योंकि आदमी ने अपनेआप को अपने हृदय से बहुत दूर कर लिया है। हृदय के करीब होते तो किस पर चलते? हृदय पर चलते, पर हृदय से तो बहुत दूर हो गये हो। तो हमें चलाने वाले अब दूसरे होते हैं, हमें बहाने वाली अब हवाऍं होती हैं, जिधर को हवा बह रही होती है, हम उधर को ही बहने लग जाते हैं। ये आवश्यक नहीं है।

दिल से अगर कोई नाता होता हमारा, तो हवाएँ हमें ऐसे नहीं बहा ले जा पातीं, पर दिल से नाता हम तोड़ आये, तो अब तो जहाँ के होते हैं वहीं के हो जाते हैं। जब आचार्य जी के सामने हैं तो आचार्य जी-आचार्य जी-आचार्य जी। अभी दो दिन बाद देखना, ‘आचार्य जी?’ (मज़ाकिया अन्दाज़ में) अच्छा! आचार्य जी! ओ, हाँ-हाँ वो हैं एक। (श्रोतागण हॅंसते हैं) अब इस बात पर या तो रो लो या इसी बात को इस्तेमाल कर लो।

साधना का मतलब होता है, अपनी कमज़ोरियों को ही इस्तेमाल कर लेना। क्योंकि इस्तेमाल करने के लिए तुम्हारे पास और है क्या? आदमी माने कमज़ोरियों का पुतला। दीनता है तुम्हारे पास, या तो जगत के सामने दीन बन जाओ, या उसी दीनता को मालिक को समर्पित कर दो कि झुक गया तेरे आगे। निपुण योद्धा वही है जो अपने टूटे-फूटे शस्त्रों का भी इस्तेमाल करके लड़ जाए, कि कमज़ोरियाँ ही खूबियाँ बन गयीं।

अब एक बार तुम्हें पता चल गया कि तुम माहौल के ग़ुलाम हो तो तुम्हें अपनी इसी वृत्ति का इस्तेमाल करना पड़ेगा, तुम्हें अपनी इसी कमज़ोरी को अपने हक़ में, अपने पक्ष में इस्तेमाल करना पड़ेगा। हम कौन हैं? माहौल के ग़ुलाम। तो ठीक, फिर माहौल एक ही तरह का थोड़े ही होता दूसरा भी तो दे सकते हैं, दूसरा दे लेते हैं। और सही माहौल कौनसा? सही माहौल वो जो एक दिन तुम्हें तमाम तरह के माहौलों की गुलामी से आज़ादी दिला दे। ग़लत और सही माहौल में अन्तर ऐसे ही कर लेना, कुसंगति और सुसंगति में भी ऐसे ही अन्तर कर लेना।

कुसंगति तुम्हें और ज़्यादा आश्रित करती है कुसंगति पर। तुम तड़प जाओगे कुसंगति और नहीं मिली तो और सुसंगति तुमको धीरे-धीरे हर प्रकार की संगति से आज़ाद कर देती है, यहाँ तक कि वो तुमको अन्ततः सुसंगति से भी आज़ाद कर देती है। और कुसंगति तुमको सुसंगति में तो नहीं ही जाने देती और साथ-ही-साथ वो तुमको अपनेआप में और गिरफ़्तार कर लेती है। तो यही वजह है कि जब किसी साधक के साथ रहते हो तो साधना सहज-सरल हो जाती है, त्वरित रूप से हो जाती है और जब अकेले पड़ जाते हो, तो आलस घेर लेता है दुनियाभर के झंझट पकड़ लेते हैं। अकेले वास्तव में तुम होते नहीं, अकेला तो अहम् रह ही नहीं सकता न, अहम् का मतलब ही है चिपकने वाली गोंद। ऐसी वृत्ति जो अकेलापन बर्दाश्त ही नहीं कर सकती।

तो जिसको तुम कहते हो अपना अकेलापन; वो अकेलापन नहीं होता, उसमें भी तुम संगति में होते हो, वैचारिक संगति में। तुम दूसरों के प्रभाव की संगति में होते हो और वो प्रभाव सब कुप्रभाव ही होते हैं। तो इसीलिए जब अकेले पड़ते हो, तो एक ओंकार भूल जाता है, नितनेम भूल जाता है।

हमारा अकेलापन घातक है क्योंकि हमारा अकेलापन नकली है। जब तुम कहते हो कि तुम अकेले हो, तब तुम अकेले नहीं हो, तुम्हारे खोपड़े में आधी दुनिया बैठी हुई है। तुम दस-बीस के बिना तो रहते ही नहीं, यारों के यार हो, बड़े दिलदार हो। ‘साहब, हम जहाँ भी जाते हैं, बीस को साथ लेकर जाते हैं, गुसलखाने में भी।’ नहाते समय कोई तुम्हें कैवल्य मिल जाता है? तुम नहा भी रहे होते हो तो विचारग्रस्त होते हो। होते हो कि नहीं?

श्रोता: ज़्यादा होते हैं।

आचार्य: ज़्यादा होते हो। तो तुम गुसलखाने में भी बीस के साथ हो कि नहीं? ऐसी तो हालत है। और सपनों में तो पूछो ही नहीं कि कितने मौजूद हैं। हम संगति के लिए तड़पते रहते हैं, कोई मिले पकड़ लें। अपनी इसी कमज़ोरी को अपना हथियार बना लो। कह दो कि जब क़िस्मत में दूसरे को पकड़ना ही लिखा है, तो क्यों न किसी ऐसे को पकड़ लें जिसको पकड़ने में सार है।

भाई, आज़ादी तो लिखी ही नहीं है, अकेलापन तो बदा ही नहीं है। हम तो पैदा ही हुए हैं, भीड़ में और अपने साथ भीड़ लेकर के, तो ये दावा तो हम ठोकेंगे ही नहीं कि तक़लिया, अभी अकेलापन चाहिए। एकान्त जैसा शब्द ही झूठा है हमारे लिए। न हम एक जानते हैं, न हम अन्त जानते हैं। जब साथ ही ले लेना है तो बढ़िया है कि गुरुभाई का ले लो। “जो सुख साधु संग में, सो बैकुंठ न होए”

लेकिन किसी के भी साथ बैठने को नितनेम का विकल्प मत बना लेना। मन की चाल बड़ी टेढ़ी होती है, माया की मार बड़ी सूक्ष्म होती है, ये न हो कि तुम गुरुभाई की संगति को, शास्त्रों का विकल्प ही बना लो।

किसी रूमी को शोभा देती है, जब शम्स के लिए बोलते हैं। तुम आसानी से मत बोल देना, तुम मन्दिर जाते रहना। ये न हो कि यार को, माशूका को, ख़ुश करने के लिए बता आये, “मैं मन्दिर क्यों जावाॅं, मेरा यार ख़ुदा है।” और सुनने वाला भी फूलकर कुप्पा हो गया, कहे, क्या बात है! तो अच्छी बात है कि तुम्हे सुसंगति नसीब हो रही है। सुसंगति अगर वास्तव में सुसंगति ही है, तो तुम्हें मन्दिर से दूर नहीं ले जाएगी, मन्दिर की तरफ़ ही ले जाएगी।

प्र२: आचार्य जी, क्या जानवरों के भी संचित कर्म होते हैं?

आचार्य: हाँ सबके होते हैं। जहाँ जीव है, जहाँ जिस्म है, वहाँ जिस्म से जुड़ी हुई एक बहुत पुरानी कहानी है, वही सब संचित मामला है। ये और थोड़े ही कुछ है, इसका नाम है इतिहास, ये एक कहानी है (हथेली दिखाते हुए)। हाँ, वो कहानी निन्यानवे प्रतिशत सबकी एक जैसी है, तो अपनेआप को अद्भुत मत समझ लेना कि मेरी तो कहानी ख़ास है। तुम्हारी कहानी, इनकी कहानी, मेरी कहानी, इनकी कहानी, जिस्म के तल पर सबकी कहानी निन्यानवे दशमलव नौ-नौ प्रतिशत एक जैसी है और कहानी सबकी अधूरी है। जिस्म पैदा ही इसलिए हुआ है कि चिल्ला-चिल्लाकर कहे कि कहानी पूरी कर दो भाई! कब तक भटकाओगे?

प्र: आचार्य जी, क्या आपका कहानी से यहाँ आशय वृत्तियों से है?

आचार्य: हाँ, बस वही है। अच्छा लगता है मुझे जब कोई बात को बिलकुल सीधे रख देता है क्योंकि अहम् गोलमोल खेलता है, वो सीधी बात को भी उलझाकर रखना चाहता है क्योंकि बात बिलकुल सीधी हो गयी, तो निशाना लग जाएगा। साफ़ दिख गया कि चीज़ क्या है और कहाँ पर है तो फिर उसको उड़ा ही दोगे न? तो अहम् सीधी बात को भी उलझाकर रखना चाहता है ताकि तुम यही सोचते रह जाओ कि अभी तो बात पूरी तरह समझ में आयी नहीं और चूँकि अभी समझ में आयी नहीं तो अभी कुछ कर नहीं सकते।

प्र३: आचार्य जी, आज सुबह ओशो जी की एक रीडिंग पढ़ी; उसमें था कि अहम् तो अस्तित्व ही नहीं रखता, फिर हम इसकी इतनी चिन्ता क्यों कर रहे हैं?

आचार्य: तुम कौन हो?

प्र: मैं।

आचार्य: अहम् तो है ही नहीं?

प्र: तो ओशो जी की जो रीडिंग थी, उसमें था कि अहम् तो अस्तित्व रखता ही नहीं है।

आचार्य: अपने लिए कह रहे होंगे, तुम्हारे लिए नहीं कह रहे। तुम कौन हो? अगर अहम् नहीं है तो तुम कौन हो, ब्रह्ममूर्ति?

प्र४: आचार्य जी, स्त्री-पुरुष शारीरिक तल पर तो अलग-अलग होते ही हैं, क्या वे बौद्धिक तल पर भी अलग-अलग होते हैं?

आचार्य: हाँ तो प्रकृति ने थोड़ा अन्तर रखा ही है न, पर इतना नहीं है कि तुम उसको बहुत बड़ी बात बना लो, इतना नहीं है कि तुम कोई बहुत स्थूल भेदभाव ही करना शुरू कर दो। आदमी और आदमी में भी अन्तर होता है, स्त्री और स्त्री में भी अन्तर होता है। हाँ स्त्री को प्रकृति ने एक ऐसा उद्देश्य भी दिया है जो पुरुष को नहीं दिया है तो उस उद्देश्य के अनुसार उसका मस्तिष्क भी थोड़ा सा अलग होता है, थोड़ा सा ही, बहुत ज़्यादा नहीं।

प्र५: आचार्य जी, इस्कॉन मन्दिर वाले कहते हैं कि पुरुष हो या स्त्री, सभी गोपियाँ ही हैं,केवल कृष्ण ही एकमात्र पुरुष हैं, इसका अर्थ क्या है?

आचार्य: नहीं, वो ठीक बोलते हैं, वो बात ठीक है। वो यही कह रहे हैं कि पुरुष हो या स्त्री हो, वास्तव में सब प्रकृति ही हैं और पुरुष एक ही है। कृष्ण को परम पुरुष कहते हैं। कहते हैं, उसके सामने गोपियाँ हैं।

प्र६: आचार्य जी, ये कैसे होता होगा? कहते हैं कि जब आत्मा वस्त्र बदलती है, तो शरीर बदलते हैं।

आचार्य: ये तुम नहीं कहते, दूसरे लोग कहते हैं। दूसरे लोग कहते हैं, तुमने पकड़ लिया है।

प्र: क्या ऐसा वास्तविकता में होता होगा?

आचार्य: हाँ, होता है। वस्त्र आते-जाते रहते हैं, आत्मा नहीं कहीं आती-जाती। तुमने ऐसा सोच लिया है कि जैसे, एक वस्त्र यहाँ है, एक वस्त्र यहाँ है, एक वस्त्र यहाँ, एक वस्त्र यहाँ है (अलग-अलग दिशाओं को दिखाते हुए)। यहाँ लुंगी है, यहाँ पाजामा है और आत्मा लुंगी में से निकली और पाजामे में घुस गयी। (श्रोतागण हॅंसते हैं)

तो तुमने जो मानसिक तल पर नमूना बना लिया है वो ऐसा है कि आत्मा वस्त्र बदल रही है। वस्त्र नहीं है पहली चीज़ कि वस्त्र तो हैं पर आत्मा कभी एक कपड़े में घुसती है, कभी रजाई में घुसती है, कभी कहीं और घुस जाती है। आत्मा नहीं इधर-उधर कहीं घुस रही। आत्मा है, निरन्तर है, उसे कहीं नहीं घुसना। अब आसमान अपने रूप बदल रहा हो तो ये थोड़े ही कहोगे कि अभी-अभी आकाश ने बादल बदल दिये।

फिर कह देते हो, आत्मा ने वस्त्र बदल दिये, ऐसे ही कह दिया करो कि आकाश ने बादल बदल दिये। आकाश बादलों में थोड़े ही समाया हुआ है, ठीक उसी तरह से आत्मा किन्हीं भी वस्त्रों में नहीं समा सकती, वो अनन्त है। समझ में आ रही है बात? पर वो जो अनन्त आकाश है, वो तुम्हें कभी इस बादल से अच्छादित दिखता है, कभी उस इन्द्रधनुष के पीछे दिखता है, कभी नीला दिखता है और कभी बिलकुल काला दिखता है। न जाने कितने रूप-रंग हो सकते हैं आकाश के, है न? उन सब रूप-रंगों के पीछे आकाश एक है, निरन्तर, शाश्वत, अपरिवर्तनीय, अव्यय, अविनाशी।

प्र७: आचार्य जी, आजकल एक पद्धति प्रचलन में है, जिसमें पुराने जन्म में ले जाते हैं,क्या ऐसा सम्भव है?

आचार्य: कोई पुरानी बात क्यों नहीं करते कभी, ये नयी-नयी बातें कहाँ से खोजते हो? क्यों में इतनी रुचि है तुम्हारी? अब सवाल ये करो कि आचार्य जी मेरी रुचि समय द्वारा उत्पादित कचरे में ही क्यों है, जो समयातीत रत्न हैं, उनमें मेरी रुचि क्यों नहीं है?

समुद्र को आदमी ही गन्दा कर देता है, जानते हो? फिर लहरें उस कचरे को वापस फेंक जाती हैं, तट पर। तुम उसमें रुचि रखोगे या समुद्र की गहराई में जो मोती है, उसमें रूचि रखोगे? समुद्र की सतह पर तो कचरा तैर रहा है और वो कचरा तुम्हीं ने डाला है उसमें, पर वो कचरा आसानी से उपलब्ध हो जाता है, उसके लिए तुम्हें मेहनत नहीं करनी पड़ती, लहरें ख़ुद ही उस कचरे को तुम्हारे मुँह पर फेंक जाती हैं। मोती पाने के लिए जोख़िम उठाना पड़ता है, गोता मारना पड़ता है, तो उस मोती की तुम तलाश करते नहीं, उसके बारे में तुम कोई प्रश्न पूछते नहीं। नये-नये तरीक़े का आधुनिक कचरा जो है उसकी बात करते हो और आदमी जितना आगे बढ़ रहा है, कचरा उतना ज़्यादा पैदा कर रहा है। अध्यात्म में इतना प्लास्टिक मत लेकर आओ।

प्र८: आचार्य जी, ओशो जी कहते थे कि मैं जिस राम की बात कर रहा हूँ, वो दशरथ पुत्र राम नहीं हैं। ये राम में भेद से क्या आशय है?

आचार्य: तो ये भेद ओशो ने थोड़े ही करा है, ये भेद तो कबीर साहब स्वयं कर गये हैं, ये भेद तो स्वयं तुलसीदास ने भी किया हुआ है। कबीर साहब के साफ़-साफ़ दोहे हैं, जिसमें वो कहते हैं कि साकार राम वो, जो दशरत के ऑंगन खेले और निराकार राम वो जो कबीर साहब के हृदय में खेलते हैं।

प्र९: आचार्य जी, ऐसा लगता है कि कुछ तो है, जो जीवन की किसी भी परिस्थिति में नहीं बदलता। वो क्या है?

आचार्य: वो जिसका हम अनुभव करते हैं कि नहीं बदला वो तो मैं भाव ही है। वो जो वास्तव में नहीं बदलता, उसको सत्य कहते हैं। हमारे जीवनकाल में, जो लगातार हमारे साथ रहता है, साॅंस की तरह, वो तो अहम् भाव ही है। उसको चाहे साँस बोल दो, चाहे रीढ़ की हड्डी बोल दो, जो बोलना हो बोल दो। वो जब तक तुम हो, तुम्हारे साथ रहेगा, चाहे दिल की धड़कन बोल दो, वो तो अहम् भाव ही है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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