कबीर क्षुधा कूकरी , करे भजन में भंग
वाकूं टुकड़ा डारि के , सुमिरन करूँ सुरंग
~ संत कबीर
प्रश्न: मैं खा रहा हूँ या शरीर अपना काम कर रहा है?
वक्ता: संवेदनशीलता का अर्थ ही यह है कि ‘मैं’ बीच में न आए। जहाँ ‘मैं’ बीच में आ जाता है, वहाँ संवेदनशीलता नष्ट हो जाती है। ये सवाल कि यदि सिर्फ़ शरीर हो तो वो क्या करेगा? मैं माँग रहा हूँ या वाकई शरीर की प्रक्रिया है? और शरीर की जो प्रक्रिया होती है, उसमें इकट्ठा करने जैसा होता नहीं कुछ विशेष। शरीर जानता है उसे कितना चाहिए। भोग का जो भी लक्ष्य है, जिस भी चीज़ का भोग कर रहे हो, उसमें सवाल एक ही पूछने वाला है: ‘’मैं यदि न सोचूँ भोग के बारे में तो भी क्या भोग की आवश्यक्ता रहेगी?’’
उदाहरण देता हूँ: तुम न सोचो कि साँस लेनी है, पर फिर भी साँस लेने की ज़रूरत रहेगी। पर तुम्हारे सामने दस तरीके के पकवान रखे हैं, और तुम एक बार सोचो कि तुम्हें ये खाने की ज़रूरत नहीं है, तुम्हें खाने की ज़रूरत नहीं रहेगी। अभी निर्विचार पर बड़ा मज़ेदार प्रयोग हुआ। तैरने जाता हूँ, तो पहले तो जो वहाँ दीवार है, उसको पकड़ के ही पाँव चला रहा था। कहा गया छोड़ दो, नहीं छोड़ा। दूसरे दिन भी आधे समय तक पकड़े ही था। उसमें कुछ तरकीबें लगाईं, कुछ जुगाड़ लगे, वो सब लगा चुकने के बाद भी शरीर कुछ अभ्यस्त था पाँव पर खड़ा होने का कि उसको छोड़ते ही तुरंत पाँव पर आ जाता था। तैरता नहीं था, फ्लोट नहीं करता था।
एक छोटा सा काम किया कि क्या सोचने की ज़रूरत है, तो बिलकुल माहौल बदल गया। अचानक से तैर गया। ये (एक श्रोता को इंगित करते हुए) छोड़ कर गया था, दीवार पकड़ा हुआ और वापिस आया तो मैं तैर रहा था। अब ये बोलता है कि सर बहुत तेज़ी से सीख लिया आपने, चार दिन में लोग इतनी तेज़ी से सीखते नहीं। वो कुछ नहीं था बस इतना ही था कि इस मौके पर मेरी ज़रूरत है क्या? क्यूँकी वो बार-बार यही कहता रहता था कि फ्लोटिंग में जितना छोड़ दो, उतना तैरते रहोगे। तो बस इस सवाल से सारा काम हो गया कि, ‘’मेरी ज़रूरत है क्या? नहीं है तो बस शांत रहो।’’ तो क्यों उसमें कोशिश करनी है कुछ और सतर्कता की, डिफेन्स की।
पहले तो मैंने यहाँ तक योजना बनाई कि पहले तो मैं ये तैयार करता हूँ कि डूबने से बचना कैसे है, फिर बचेंगे। तो मैंने कई बार ये कोशिश की कि जब डूबने लगूंगा तो खड़ा कैसे होना है ये कर लेते हैं। चार फीट पानी में! वो सब कुछ नहीं आया काम, अंत में बस यही काम आ गया कि, ‘’मेरी ज़रूरत है क्या?’’ और अगर मैं हट जाऊं तो भी क्या खाने–पीने की ज़रूरत रहेगी? आपके हटने पर भी जो हो जाए, उसे होने दीजिये। पर उसके लिए बड़ा साहस चाहिए। अब आप किसी के समीप बैठे हो, प्रेम का क्षण है तो आप तो प्रेम करना चाहते हो न? अब इस वक़्त ये बड़ी ऊबाऊ बात लगेगी कि तुम हट जाओ। अरे! हम ही हट गए अगर तो फिर मज़े कौन लेगा?
आप देख रहे हैं यहाँ पर फँस कहाँ रहा है मामला? मज़ा आता ही तब है, जब तुम हट जाओ। तब मन क्या कहता है कि, ‘’हम हट गए, तो हमें ही तो मज़े लेने थे, अब मज़े कौन लेगा?‘’ जिस टुकड़े की बात कर रहे हैं कबीर, ‘’वाकूं टुकड़ा डारि के, सुमिरन करूँ सुरंग,’’ वो वही है। क्षुधा को टुकड़ा डालना बिलकुल वही प्रक्रिया है, जो सुमिरन की होती है। अपनेआप को हटाना, एक ही बात है। शरीर को टुकड़ा डालना बिलकुल वही प्रक्रिया है, — बस कहीं और से देखी जा रही है – जो सत्संग की होती है। अपनेआप को हटाना। हाँ, क्षुधा को भोगना बिलकुल दूसरी चीज़ है।
संवेदनशीलता का अर्थ ही यही है कि जो मन की स्थूल, ज़ोर की आवाजें है, उनको ज़रा चुप रहने को बोल देना ताकि सूक्ष्म सुनाई दे सके।
संवेदनशीलता का अर्थ ही यही होता है: सूक्ष्म आवाजें सुन पाना।
आप बोलोगे कि ये रिकॉर्डर संवेदनशील है? जब वो हल्की से हल्की आवाज़ को भी सुन ले। और सूक्ष्मतम आवाज़ को तब सुन पाएगा न जब भारी, स्थूल आवाजों से उसको मुक्ति मिले। वो कर्कश आवाज़, अहंकार की आवाज़ है। ज्यों ही वो नहीं रहती, वहीं आपको सूक्ष्म आवाजें सुनाई देने लग जाती हैं। आप जान जाते हो कब पानी पीना है, कब खाना खाना है। बिना अहंकार के बताए भी आप सब जान जाते हो। सच तो यह है कि आप नहीं जान जाते, प्रक्रिया अपनेआप घट जाती है बिना आपके जाने। जैसे साँस अपनेआप हो जाती है बिना आपके जाने। प्रक्रिया अपनेआप हो जाएगी, आपको उसमें दखल देने की ज़रूरत है नहीं।