प्रश्नकर्ता: जैसे हम कहते हैं कि सम पीपल ब्रिंग आउट द बेस्ट इन मी, सम पीपल ब्रिंग आउट द वर्स्ट इन मी (कुछ लोग मुझमें से सर्वश्रेष्ठ को बाहर लाते हैं, कुछ लोग मेरे अंदर से सबसे बुरे को बाहर लाते हैं), इस तरह की स्टेट्मेंट्स (कथन) हम कहते रहते हैं और फिर हमारी कोशिश यही होती है कि वी ट्राई टू अवॉइड पीपल हू ब्रिंग आउट द वर्स्ट इन मी एंड आइ वुड लाइक टू बी इन द कम्पनी ऑफ पीपल हू आर गुड टू बी विद मी ( हम उन लोगों से बचने की कोशिश करते हैं जो हमारे अंदर की सबसे ख़राब अभिव्यक्ति को सामने लाते हैं और मैं उन लोगों के साथ रहना पसंद करूँगी जो मेरे लिये अच्छे हैं) और बात ये है भी कि जिस संगति में रहेंगे वैसे ही तो… अगर हर तरफ़ आइना ही है, अगर वो भी आइना ही है जो हमारे अंदर के शैतान को जगा रहे हैं, वो भी उतने ही ज़रूरी ही हैं। और उस, क्या, तो क्या ये अपने आप के उस शैतान को देखने के लिए उस आइने तक जाते रहना चाहिए क्योंकि मन तो नहीं करता, मन तो वहाँ से भागने को करता है, तो जाना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: जब तक देख पा रहे हैं तब तक ज़रूर जाना चाहिए।
प्र: जब तक देख पा रहे हैं?
आचार्य प्रशांत: जब तक देख पा रहे हैं। यदि किसी स्थिति में आप उत्तेजित होते हैं, क्रोधित होते हैं, तो उस स्थिति से बचते रहना मात्र एक आरम्भिक चरण हो सकता है, परंतु यदि आप उससे बचते ही रह गये तो आप अपने आप को पंगु बना लेंगे। ये ऐसी ही सी बात है कि आपके हाथ में दर्द हो और आप कहें कि इससे वजन नहीं उठाना है। ये कुछ दिनों के लिए हो सकता है पर अगर आप इसको नियम या आदत ही बना लें कि इस हाथ का अब प्रयोग ही नहीं करना है क्योंकि कुछ वजन उठाता हूँ तो दर्द होता है, चोट लगती है, बुरा लगता है, तो जल्दी ही आपका हाथ निष्प्राण हो जाएगा। समझ में आ रही है बात?
तांत्रिकी साधना इसीलिए आप से कहती है कि वो सब कुछ जो आपने वर्जित कर रखा हो जीवन से, उसके करीब जायें। ये तो हम भलीभाँति जानते हैं और हम से खूब कहा गया है कि मोह बुरा है, अभी आप बात घृणा की कर रहे हैं, जिससे घृणा उठती हो, क्या उस के भी करीब जायें? हाँ बिलकुल। उसी का तो जो आखिरी रूप आपको दिखाई देता है वो ये है कि (अस्पष्ट आवाज़) सड़ी हुई लाश को खाता है, कि जिससे गहनतम घृणा उठती हो उसके भी करीब जाओ, उसमें भी शिव को देखो और अगर तुम ये कर पाते हो कि जो से गर्हित से गर्हित, कुत्सित से कुत्सित हो, जिससे सड़ांध उठती हो, तुम उसके भी निकट जा सको और उसमें भी शिव को ही पाओ तो अब तुमने भेद करना छोड़ दिया है।
अब तुम पूरे तरह से निरपेक्षता में जी रहे हो। देखिए, एक बात तो ये हुई कि जो आपको आकर्षित करता है उससे बचे, कि वो आकर्षित कर रहा था, कर रहा था और हमने जीत लिया आकर्षण को। उसका विपरीत भी तो देखिए न। जो खींच रहा था उसकी ओर न जाना यदि साधना है तो जो आप को दूर भगाता हो, जिससे जुगुप्सा उठती हो, जो घृणास्पद लगता हो, उससे न बचना भी तो साधना ही हुई, कि नहीं हुई?
इसको तो हम साधना मान लेते हैं कि आकर्षण से बचो, पर विकर्षण से बचो ये भी तो साधना ही है, क्योंकि आकर्षण-विकर्षण, राग-द्वेष दोनों एक ही द्वैत तो हैं। जितना ज़रूरी ये है कि ये आदत न पाल लो कि जो अच्छे लगते है उन्हीं के पास ही जाते रहना है, उतना ही जरूरी ये भी है कि ये आदत भी न पाल लो कि जो बुरे लगते हैं उनके करीब नहीं जाना है।
आईने हैं दोनों, बहुत करीब चले जाओ तो आईने से कुछ दिखाई नहीं देता, बहुत दूर चले जाओ तो भी कुछ दिखाई नहीं देता। दोनों ही परिस्थितियों में लेकिन आँख खुली रखना। ये न हो कि बहुत करीब चले गये और आँख बंद कर ली। अगर आँख खुली हुई है तो अपने भीतर अगर क्रोध को और निंदा को और घृणा को उठते हुए देख रहे हो तो कुछ ऐसा जान जाओगे जो अन्यथा नहीं जान पाते।
और यदि आँख खुली हुई है और अपने भीतर आकर्षण को, उत्सुकता को, मोह को उठते हुए देख रहे हो तो कुछ ऐसा जान जाओगे जो अन्यथा नहीं जान पाते। जो कुछ तुम्हें आकर्षित करता है उसके करीब गये ही नहीं तो आकर्षण से परिचय कैसे होगा तुम्हारा? जो तुम्हें दूर भगाता है उसके करीब अगर गये ही नहीं तो जुगुप्सा से परिचय कैसे होगा तुम्हारा? और इनसे परिचय यदि नहीं हुआ तो फिर इनके गुलाम ही रह जाओगे।
प्र: तो इससे मुक्ति तब मिलेगी जब ऐसी स्थिति में पहुँच कर के भी घृणा उठनी बंद हो जाये?
आचार्य प्रशांत: ऐसी स्थिति में पहुँच करके घृणा को उठते देखो, बस। उसके बाद उठनी बंद होगी या नहीं, इसकी चिंता नहीं करनी है। उठती है तो उठे। संचित घृणा है, जितना उसका ज़ोर है वो तो उठेगा। जब तक तुम वो हो जिसने घृणा पाली, जब तक तुमने अपनी पहचान घृणा से जोड़ रखी है तब तक तो वो उठेगी। तो इतनी जल्दी अपेक्षा मत करना कि घृणा उठेगी ही नहीं। घृणा का उठना दो ही स्थितियों में बंद होगा, या तो ये कि जितना उसका संचित बल था वो चुक जाए, एग्ज़ॉस्ट (समाप्त) हो जाये या ऐसे कि तुम वो बचे ही नहीं जो घृणा करता था। तुम घृणा से अपना नाता तोड़ लो, तुम घृणा से अपनी पहचान तोड़ लो। इन्हीं दोनों स्थितियों में घृणा उठनी बंद होती है।
पर ये स्थितियाँ आयें चाहे न आयें, दमन, पलायन कभी समाधान नहीं होते, कभी भी नहीं। इस बात को लेकिन कुसंग से जोड़ करके मत देख लेना। कुछ है जिससे डर उठता है या कोफ्त उठती है, मैं कह रहा हूँ उस डर को देखो। कुछ है जो कुत्सित लगता है, मैं कह रहा हूँ उसको देखो। मैं ये नहीं कह रहा हूँ उसकी संगति में पड़ जाओ।
इन दोनों बातों में अंतर है। संगति का अर्थ हुआ उससे नाता जोड़ लिया। मैं नाता जोड़ने की बात नहीं कर रहा। मैं उसके अवलोकन की बात कर रहा हूँ। मैं उसके साक्षी हो जाने की बात कर रहा हूँ। नाता जोड़ने में तो तुम उससे बंध गये। मैं उससे बंधने की बात नहीं कर रहा।
प्र: आचार्य जी, जब भी मैं कुछ कर रहा होता हूँ या किसी अवस्था में होता हूँ तो दिमाग में ये रहता है कि एक मेरी अभी की स्थिति है और एक आदर्श स्थिति है जो होनी चाहिए। तो दिमाग में ऐसा ही चलता रहता है कि जो आदर्श स्थिति है वही लक्ष्य है और उस तक पहुँचना है।
आचार्य प्रशांत: ठीक है, समस्या क्या है?
प्र: जो चल रहा होता है उस पर ध्यान नहीं दे पाता।
आचार्य प्रशांत: तो पहुँच जाओ न जो तुम्हारी आइडियल सिचुएशन (आदर्श स्थिति) है वहाँ तक।
प्र: डिपेंडेसी (निर्भरता) दूसरों पर हो जाती है।
आचार्य प्रशांत: और पता है कि दूसरे हमारे मुताबिक तो चलेंगे नहीं। दूसरों पर डिपेंडेंट (निर्भर) हो जाओ, वो हमारे मुताबिक चलेंगे नहीं तो हमें कुछ करना नहीं, हमें कहीं पहुँचना नहीं है। आदर्श बना लो जो साकार हो ही नहीं सकता। अब करने को कुछ बचा नहीं। आदर्श क्या है?
आदर्श ये है कि बिलकुल इक्कीस डिग्री तापमान हो, न ज्यादा भीड़ हो न कम भीड़ हो, ठीक साढ़े अट्ठाईस इंच का टेबल हो, जिस पर कुल सत्रह शीर्षकों की किताबें रखी हों, मेरे साथ मेरा मन पसंद साथी हो, उस दिन होगी बिक्री। ये स्थितियाँ कभी बनेंगी नहीं, तो दायित्व कभी आयेगा नहीं। ‘भई, क्यों नहीं हुआ?’ ‘देखिए साहब, स्थितियाँ अनुकूल नहीं थी। जिस दिन आदर्श स्थितियाँ मिलेंगी उस दिन काम हो जाएगा।’ या कि ये कि, ‘नहीं, हम तो पूरी कोशिश कर रहे थे स्थितियों को आदर्श बनाने की क्योंकि आदर्श हम सिर्फ़ रखते नहीं हैं, हम आदर्शों की तरफ बढ़ना भी चाहते हैं, पर पहुँच नहीं पाये।’
कोई आदर्श तुम्हें कभी मिलेगा नहीं। जो है सो है। कैसा है? सामने है, उसी में जो कर सकते हैं वो करो, जो धर्म है तुम्हारा उसका पालन, और धर्म ये नहीं कहता कि अंततोगत्वा तुम्हें किसी आदर्श तक पहुँच जाना है। धर्म बस ये कहता है कि तुम्हें अभी क्या करना है, वो ये नहीं कहता है कि आखिर में क्या होना है। जो अभी कर सकते हो वो करो न, आदर्श तक क्या पहुँचना है? जैसे कि अभी कुछ किये बिना आदर्श तक यूँ ही पहुँच भी जाओगे। आदर्शों से न शुरुआत हो सकती है क्योंकि आदर्श स्थितियाँ कभी होती नहीं है, न आदर्शों पर अंत हो सकता है क्योंकि अंत की बात करना ही बताता है कि अभी में नहीं हूँ। तो कर क्या रहे हो आदर्शों के साथ?
और आदर्शों के खेल और भी हैं। आदर्श कहते हैं कि पहुँचना है एक लाख तक, एक लाख तक पहुँचना है चार घंटे में। अब दो घंटे बीत गये हैं और हम बैठे हैं दो हज़ार पर , तो दिख रहा है कि एक लाख तो हो नहीं सकता, आदर्शों की पूर्ति तो हो नहीं सकती, वहाँ तक तो पहुँच नहीं पाएँगे, तो अब छोड़ो न। भई, अब चाहे दस पहुँचो, चाहे बीस पहुँचो, चाहे पचास पहुँचो, आदर्श तक तो नहीं पहुँचे न? आदर्श क्या था?
श्रोता: एक लाख।
आचार्य प्रशांत: तो वहाँ तक तो पहुँचे नहीं तो इससे अच्छा है कि आज रहने ही दो, अब किसी दूसरे दिन कोशिश की जाएगी, जिस दिन ज़रा संभावना हो आदर्श को साकार करने की। आदर्श बड़े उपयोगी होते हैं, अहंकार के लिए, आलस के लिए, अंधेरे के लिए। सत्य आदर्श नहीं होता। आदर्श उन के लिए हैं जिन्होंने आँखें बंद कर रखी हैं। सूरज को जीपीएस (ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम) की ज़रूरत नहीं पड़ती।
प्र: इस सेलिब्रेशन (उत्सव) में, जिसमें अभी बैठे हैं, इसमें आने के लिए हमने जिन चीज़ों का इस्तेमाल किया वो उसी संग से ही आ रही थीं, उसी माया से ही आ रही थीं, जैसे कि तैयार होना, यहाँ तक आना। हम खुशी सत्य की जब मनाते हैं तो हम वापस उन्हीं चीजों का इस्तेमाल क्यों करते हैं जो हमें संसार में वापस खींचने के लिए बतायी गयीं थीं कि....
आचार्य प्रशांत: संसार में कुछ वापस नहीं खींचता।
प्र: मतलब क्यों ज़रूरी है कि हम तैयार हों? क्यों मन किया कि आज तैयार हो कर जाना है? वैसे तो तैयार नहीं होंगे लेकिन...
आचार्य प्रशांत: क्योंकि अभी जो हमारी स्थिति है उसमें हमने खुशी को, उत्सव को इन चीज़ों से जोड़ रखा है। कोई समय आ सकता है जब आप न जोड़ो। अभी मैं सुबह उठा सोकर, तो मैं रात में जैसे सोया था, मैंने कहा उठ के बैठ जाता हूँ यहाँ पर, तो, मेरी काफ़ी भर्त्सना की गयी। मुझसे कहा गया कि इसमें से तमाम प्रकार की रात वाली खुशबुएँ उठ रही हैं, सब को पता चल जाएगा, इत्यादि इत्यादि। शर्म करो, कपड़े बदलो। ठीक है, बदले। फिर उसके बाद गया तो मैंने ये कुर्ता डाला जिसमें आधी बाँह थी, फिर घोर निंदा हुई। कह रहे हैं, ‘लोग आये हैं, दीवाली का उत्सव है। सबने कुर्ते पहन रखे हैं, तुम ऐसे जाकर बैठ जाओगे, तरीका है?’ तो, फिर ये पहन लिया। ठीक है, कोई बात नहीं। कोई दिन ऐसा आ सकता है जब किसी को इस बात से कोई अंतर न पड़े तो हम भी यूँ ही आकर बैठ जाएँगे।
YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=8SV4NgtG4Mo