समय का मन और समय के पार || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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समय का मन और समय के पार || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्नकर्ता: सर, मुझे ये समझ नहीं आता है, टाइम (समय) ख़त्म हो जाने की बात जब हम करते हैं न बार-बार। ये मुझे एक बार भी समझ नहीं आया। आई कैन अन्डर्स्टैन्ड (समझना) कि जब वो किसी चीज़ को अप्रीशीऐट (सराहना) कर रह हैं तो उस मोमेन्ट पर कोई थॉट (विचार) नहीं होता है। दैट इज़ सम्थिंग (वह कुछ है) जो उस समय बिलकुल एकदम फ्रेश (ताज़ा) ही हम देख रहे हैं। हम किसी कान्सेप्ट (अवधारणा) से नहीं देख रहे उसको। तो बाय एन्ड ऑफ़ टाइम डू वी मीन दैट मोमेन्ट (क्या समय के अंत से हमारा तात्पर्य उस क्षण से है)?

आचार्य प्रशांत: आप ये चाहते हैं कि समय ख़त्म हो जाये उसके बाद क्या होगा वो आपको पता चल जाए। अगर वो आपको पता चल जाए तो आप शांत हो जाएँगे, ठीक? सारी दिक्क़त यही होती है कि किसी ने कहा एन्ड ऑफ़ टाइम और हमारे लिए बिलकुल पहेली बन जाती है ये बात, क्योंकि हम क्या कहते हैं, 'ठीक है समय रुक गया, अब क्या होगा?' मन थोड़ा तलाशने लगता है, मन चाहता है कि किसी तरह की कोई मूर्ति बन जाए। एक इमेज (तस्वीर) उभरकर आनी चाहिए कि समयातीत क्या है, समय के ख़त्म होने के बाद क्या है।

तो देखिए आप क्या चाहते है, समझिएगा। आप कह रहे हैं, घड़ी चल रही है, घड़ी चल रही है, घड़ी चल रही है, घड़ी चल रही है और यहाँ पर आकर घड़ी रुक गयी, *एन्ड ऑफ़ टाइम*। और आप कह रहे हो, 'अब समय रुक गया, अब इसके बाद क्या?' अरे, घड़ी तो रुक गयी, अब उसके बाद क्या है! पर मन अब भी यही चाह रहा है कि समय के बाद क्या है। अरे! समय के बाद घड़ी ही नहीं चल रही है तो क्या होगा। यही हो रहा है न?

प्र: जी।

आचार्य: हम जब भी कहते हैं, द एंडिंग ऑफ़ टाइम , हमने अपने संसार में जब भी कोई अंत देखा है तो उसके बाद सदा एक प्रारंभ देखा है। बात आप समझ रहे हैं? ये कमरा यहाँ अंत होता है तो इसके बाद एक दूसरी जगह शुरू होती है। जहाँ पर आप ख़त्म होते हैं वहाँ पर ख़ाली जगह शुरू होती है।

कुछ भी जब ख़त्म होता है वहाँ से कुछ-न-कुछ शुरू ज़रूर होता है। तो जब भी कोई कहता है एन्ड ऑफ़ टाइम तो हम अपनी आदत से मजबूर होकर कहते हैं — फिर क्या शुरू होता है?

आप समझ रहे है न, हम उसको भी द्वैत के भीतर रखना चाहते हैं कि इसका अंत हो रहा है तो कुछ-न-कुछ और शुरू ज़रूर होगा। वो शुरू और अंत दोनों का अंत है।

प्र: पर उसको तो मन पर्सीव (महसूस) ही नहीं कर सकता।

आचार्य: पर बहुत अच्छा है न वो मैं को पहेली की तरह लगता है। वही मन का संकल्प बनेगा। मन को जब तक ये लग रहा है कि सब कुछ तो मैं जान ही गया तब तक तो मन बड़ा सेटल्ड (स्थिर) है। तब ठीक है।

इस तरह की जब पहेलियाँ बल्कि कहिए रहस्य जब मन के सामने आते हैं तब उसको थोड़ी असुविधा होती है कि यार ये क्या चीज़ हो गयी, एन्डिंग ऑफ़ टाइम , समय ख़त्म हो गया। अब वो कोशिश कर रहा है उसको पकड़ने की। जैसे कुत्ता कोशिश कर रहा हो अपनी पूँछ पकड़ने की, और गोल-गोल घूम रहा है, घूम रहा है, घूम रहा है। बेचारे मन का क्या हाल होगा! यूँ गोल घूम-घूम कर, घूम-घूम कर थक जाएगा। फिर कहेगा, कोई और साधन चाहिए, ऐसे गोल-गोल घूम-घूम कर कोई फ़ायदा हो नहीं रहा है।

अच्छा है कि ऐसे सवाल आते हैं, 'ये मामला क्या है?' एन्डिंग ऑफ़ टाइम ही क्यों फिर आप एन्डिंग ऑफ़ स्पेस भी कहिए न। और आप देखिए मन क्या करेगा। आप ऐसी जगह ज़रा सोचने की कोशिश करिए जहाँ स्पेस नहीं है। मन कोई जगह ढूँढेगा जो ख़ाली है।

अभी-अभी जो ईमेल डिस्कशन (चर्चा) हो रहा था उसमें कुछ वो एक्ज़िएम्स (सिद्धांत) लिखे थे जो कितनी साधारण सी बात है पर फिर भी लिखने पड़े थे। मैंने लिखा था कि *व्हाट इज़ इन स्पेस कैन नॉट बी आउटसाइड स्पेस*। अब ये तो आठ साल का बच्चा भी समझ जाए कि ये आपने कौन सी बड़ी बात लिख दी कि जो स्पेस में है वो स्पेस से बाहर नहीं हो सकता। पर हमारा मन यही नहीं समझता है।

जब आप ये कल्पना भी करते हैं कि अब स्पेस ख़त्म हुआ तो आप एक नये स्पेस की कल्पना करना शुरू कर देते हैं। कल्पना होगी कैसे, सारी कल्पना का आधार ही स्पेस है। आकाश के बिना, फैलाव के बिना कल्पना कैसे हो जाएगी।

प्र: वो पिछले कैंप के अंत में बात साइंस पर जाकर अटकी थी कि अब साइंस भी अजीब-अजीब तरह की हरकतें करने लगा है।

आचार्य: साइंस नहीं साइन्टिस्ट

प्र: हाँ, साइन्टिस्ट। हम जब इस तरह की बाते समक्ष पाते हैं तो हम जो पढ़ते हैं वो तो साइन्टिस्ट की ही लिखी बाते पढ़ते हैं या सुनते हैं। तो हम उसके ऊपर कितना ज़्यादा भरोसा कर सकते हैं?

आचार्य: नहीं, वो साइन्टिस्ट की बात बिलकुल ठीक है जबतक वो ऑब्जेक्ट (पदार्थ) से डील कर रहा है। आप बिलकुल उसकी बात पढ़िए कोई दिक्क़त नहीं है। जहाँ वो अपना क्षेत्र छोड़कर इधर-उधर भटके, तब समझ जाइए कि गड़बड़ कर रहा है।

साइंस ने अपने लिए एक दायरा तय किया है वो दायरा ये है कि जो कुछ भी ऑब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ) है मैं उसको जानूँगा। ठीक। और उसके लिए साइंस के पास अपने उपकरण हैं, अपने तरीक़े हैं, बढ़िया हैं। और उसके अलावा अगर कुछ दायें-बायें बात होगी तो फिर वहाँ पर यू आर ट्रैन्ज़्ग्रेसिंग (आप हद पार कर रहे हैं), वो नहीं।

प्र२: सर, इज़ देयर एनीथिंग ऑब्जेक्टिव (क्या कुछ वस्तुनिष्ठ है)?

आचार्य: एज़ लौंग एज़ देयर इज़ ए सब्जेक्ट। एज़ लौंग देयर इज़ पर्सीविंग ईगो। सो व्हाट वी आर सेइंग इज़ दैट फॉर साइंस टू एग्ज़िस्ट ईगो मस्ट एग्ज़िस्ट। सी, फ़ॉर मी टू से दैट देयर इज़ ए पेन्डुलम एंड आई वान्ट टू फ़ाइंड दी टाइम-पीरियड ऑफ़ दैट पेन्डुलम, दैट देयर इज़ ए मोलेक्यूल एंड आई वान्ट टू ब्रेक दैट मोलेक्यूल दैट देयर इज़ ए वे; फ़ॉर मी टू से ऑल दिस देयर हैज़ टू बी ए मी। (जब तक विषय को जानने वाला विषयी है। जब तक ये सब जानने वाला अहंकार है। तो, हम क्या कह रहे हैं कि विज्ञान के अस्तित्व के लिए अहंकार का अस्तित्व होना चाहिए। देखिए, मेरा यह कहना कि एक पेन्डुलम है और मैं पेन्डुलम का आवर्तकाल ज्ञात करना चाहता हूँ, कि एक अणु है और मैं उस अणु को तोड़ना चाहता हूँ जो सम्भव है; मेरे लिए यह सब कहने के लिए मेरे 'मैं' का होना ज़रूरी है।)

प्र: कैन वी से सम्वेर साइंस इज़ ऐक्चूअली स्ट्रेंगथनिंग ईगो (क्या हम कह सकते हैं कि दरअसल विज्ञान अहंकार को पुष्ट करती है)?

आचार्य: दैट वे, दी वर्ल्ड इज़ स्ट्रेंगथनिंग ईगो नॉट साइंस। दी मोमन्ट यू से यू मे नॉट बी ए साइन्टिस्ट, यू मे बी ए पेन्टर। बट यू आर सेइंग देयर इज़ ए ट्री। इवन दो दी ट्री टू बी देयर, देयर हैज़ टू बी ए मी। सो, इट इज़ नॉट ए क्वेस्चन ऑफ़ साइंस। इट्स ए क्वेस्चन ऑफ़ साइन्टिफिक; दी मांइड ऑफ़ दी साइन्टिस्ट, ऑर दी माइंड ऑफ़ दी पेन्टर, ऑर दी माइंड ऑफ़ दी कारपेंटर, ऑर दी माइंड ऑफ एनीबडी; सो, साइंस इज़ वंडरफुल बट इट हैज़ टू बी रीमेम्बर्ड दैट व्हैन यू आर टॉकिंग ऑफ एन ऑब्जेक्ट देयर हैज़ टू बी ए यू हू टॉक्स अबाउट दैट ऑब्जेक्ट। एंड दैट ऑब्जेक्ट इज़ योर डोमैन एंड यू स्टिक टू दैट डोमैन। (उस तरह संसार से अहंकार मज़बूत हो रहा है, विज्ञान से नहीं। यदि आप वैज्ञानिक नहीं हैं तो आप चित्रकार हो सकते हैं। जब आप कह रहे हैं कि एक पेड़ है, तो पेड़ के होने से पहले आपका होना ज़रूरी है। तो, यह विज्ञान का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह बात ही एक वैज्ञानिक तथ्य है, चाहे वह वैज्ञानिक का दिमाग हो, चित्रकार का दिमाग, बढ़ई का दिमाग या किसी का भी दिमाग। तो, विज्ञान अद्भुत है लेकिन यह याद रखना होगा कि जब आप किसी वस्तु के बारे में बात कर रहे हो तो उससे भी पहले आप हो, जो उस वस्तु के बारे में बात कर रहा है। और वह वस्तु ही आपके ज्ञान अथवा कार्य का क्षेत्र है और आप उसी क्षेत्र से चिपके रहते हैं।)

प्र: जब पैदा होते हैं ईगो नहीं होती है?

आचार्य: होती है, क्यों नहीं होगी। फिज़िकल कन्डिशनिंग है न वो आपकी। अहंकार ही पैदा होता है। क्या पैदा हुआ है? अहंकार पैदा हुआ है। और कौन पैदा होता है।

प्र: ओशो कहते हैं कि समाज की गतिविधियों से ईगो क्रिएट होती है।

आचार्य: समझा रहे हैं। देखिए समझाया इसीलिए जा रहा क्योंकि जो पैदा होती है ईगो उससे निजात पाना बहुत मुश्किल है। जो समाज ने दी है उससे निजात पाना फिर भी आसान है। तो इसीलिए बात ही सिर्फ़ उसकी करी जाती है जो सामाजिक है। पर जो शारीरिक है वो भी अहंकार ही है, वृत्ति तो वो भी है, अहम् की ही है।

प्र३: ओशो ग्रेजूअल एवोलूशन (क्रमिक विकास) की बात करते हैं। हम लोग दुनिया में देखते हैं कि सारी चीज़ें ग्रेजूअल ही इवॉल्व होती हैं। तो उसका क्या अर्थ है?

आचार्य: टाइम हैव अ सर्टन स्पीड इन ऑवर माइंड (हमारे मन में समय की एक निश्चित गति होती है)। ठीक? जैसे ग्रामोफोन का रिकॉर्ड होता है वो साठ आरपीएम, नब्बे आरपीएम, एक सौ बीस आरपीएम का होता है। ठीक है। जो साठ आरपीएम पर कोडेड है अगर वो एक सौ बीस आरपीएम पर बजा दें तो आपको अजीब सा लगेगा।

समय की भी एक गति निर्धारित है हमारे मन में। फ़ास्ट-फॉरवर्ड पर आप एक मूवी देखिए तो आप कहेंगे, ये क्या है फ़ालतू। आप जिसको ग्रेजूअल बोलते हैं वो किसी के लिए बहुत तेज़ हो सकता है। और ये सबकुछ पर्सनल (वैयक्‍तिक) बात है।

हमने एक बार चर्चा करी थी कि बरसाती कीड़े कई ऐसे भी होते हैं जो एक घंटा जीते हैं बस। आपको क्या लगता है कि उन्हें अफ़सोस है कि वो एक घंटा ही जी रहे हैं। नहीं, उनके मन में समय की गति अलग है। वो पूरा जीवन जी रहे है। उन्हें कोई अफ़सोस नहीं है। एक घंटा जो आपके लिए एक घंटा है वो उनके लिए नहीं है एक घंटा।

वो एक-एक क्षण में ज़िन्दगी जिये जा रहे हैं। तो जिसको आप ग्रेजूअल बोलते हो, या वो जिसको आप तेज़ बोलते हो वो सबकुछ आपके सन्दर्भ में है। वो सबकुछ आपके कान्टेक्स्ट (प्रसंग) में है। वो सबकुछ आपको सेन्टर (केंद्र) में रखकर है। और जब आप सेन्टर में हैं तो क्या सेन्टर में है?

प्र: *ईगो*।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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