प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब हम अपनी समस्याओं को छोड़ देते हैं तो एक ऐंप्टिनेस (खालीपन) आ जाती है, उसे फ़िल (भरने) के लिए फिर हम खुद समस्या के पास जाते हैं।
आचार्य प्रशांत: बढ़िया बात बोली न इसने। तुम्हारी समस्या ये है कि हमें समस्याहीन होना सुहा नहीं रहा। हमारी समस्या ये है कि हमें समस्याएँ चाहिए। हम ऐसे अभ्यस्त हो गये हैं। कोई समस्या न हो तो हम खड़ी करेंगे। जीवन में कुछ रहे न? तनाव नहीं रहता तो लगता है मुर्दा हो गये। तनाव रहता है तो कम-से कम जीवन को उद्देश्य मिला रहता है। सुबह उठे हैं, उद्देश्य है, आज किसी का सिर फोड़ना है या उद्देश्य है कि आज अपनी तशरीफ़ बचानी है।
कुछ उद्देश्य ही नहीं बचा तो क्या करोगे?
तनाव चला गया तो उद्देश्य चले गये, अब करोगे क्या? प्रेम हम जानते नहीं। प्रेम भी एक बड़ा उद्देश्य होता है पर वो तो है नहीं हमारे पास। तो हमारे पास तो जीने का एक ही उद्देश्य होता है, या तो बचानी है या बजानी है। दोनों ही काम हिंसा के हैं — बचाना और बजाना।
प्रश्नकर्ता: तो वो जो ऐंप्टिनेस आती है उसके साथ…
आचार्य प्रशांत: वो ऐंप्टिनेस... हाँ चलो, बोलना चाहते हो…
प्रश्नकर्ता: जो खालीपन लगता है कि एक कुछ करना है तो उससे कैसे डील करें?
आचार्य प्रशांत: जैसे इतने दिनों तक तुमने बड़ी ताकत दिखा कर सत्य का विरोध कर लिया, वैसे ही अब थोड़ी सी ताकत दिखा करके असत्य का विरोध कर लो। जब तक असत्य में जीते थे तब तक तो तुम बड़े धुरन्धर थे। सत्य का विरोध करे जाते थे। तब बड़ी ताकत थी तुममें। अब जब सत्य सामने आ रहा है तो कह रहे हो कि वो बड़ा खाली-खालीपन लगता है और क्या करें? अरे भई, उस खालीपन का विरोध कर लो।
वो जो भावना उठ रही है कि कुछ करो। खालीपन सता रहा है, उस दुख का भी विरोध कर लो। विरोध करना तो तुम जानते ही हो न? जीवन भर विरोध किया है, किसका?
प्रश्नकर्ता: सत्य का।
आचार्य प्रशांत: अब जब सत्य पास आ रहा है और असत्य का जाना खल रहा है तो इस खलने का विरोध कर लो। ये तुम्हारी सारी चौधराहट बस सच्चाई की खिलाफ़त करने के लिए है। जब सच्चाई की खिलाफ़त करनी होती है तब तो बड़ी जान आ जाती है और जब झूठ की खिलाफ़त करनी होती है तो मिमियाना शुरू कर देते हो।
जितनी उद्दण्डता से, जितनी ऊर्जा से, जितने द्वेग से उछल-उछलकर ज़िन्दगी भर तुमने सच का मुकाबला करा है, मुकाबला ही नहीं करा है, सच को पछाड़कर रखा है, उसकी आधी ऊर्जा और आधा उत्साह भी अगर तुम झूठ से लड़ने में दिखा दो तो सदा के लिए जीत जाओगे।
लोग होते हैं, बड़े कष्ट के मारे आते हैं, ‘हाय-हाय हाय-हाय हाय-हाय!’ अब एक कष्ट वो होता है जो सच से दूर रह कर मिलता है। वो बहुत-बहुत-बहुत बड़ा कष्ट है। एक कष्ट वो भी होता है जो सच की तरफ़ आने में मिलता है। वो भी कष्ट है लेकिन ज़रा छोटा कष्ट है। बड़ा कष्ट तुम झेले जा रहे थे, झेले जा रहे थे, फिर आये मेरे पास। बड़ा कष्ट हटाने के लिए तुम्हें छोटा कष्ट दिया।
अब जो छोटा कष्ट है, उसको कहते हो, ‘ये गवारा नहीं हो रहा। बड़ा दुख दे दिया है गुरु जी। बड़े कष्ट में जी रहे हैं, पीट दिया!’ गुरु जी ने पीट दिया, तुम्हें बड़ी चोट लग गयी। और जो जीवन भर ज़माने से जूते खाए हैं उसका क्या हिसाब है? तब नहीं बुरा लगता था?
या तुम कष्ट को लेकर भी पक्षपाती हो? कि दुनिया से जूते पड़ेंगे तो झेल लेंगे लेकिन सच की राह चलेंगे और काँटा भी चुभेगा तो हाय-हाय करेंगे। और ये मैं बता रहा हूँ, सच की राह में भी काँटे हैं। चोट वहाँ भी लगती है। दुख वहाँ भी है। पर वो दुख शुभ है, उसको झेलो। और जो दुख तुम दुनिया के साथ पाते हो वो दुख बड़ा अशुभ है, उससे बचना। सच के साथ अगर दुख पाओगे तो वो दुख शनैः-शनैः क्षीण होता जाएगा , मिटेगा। और दुनिया के साथ जो तुम दुख पाओगे वो दुख समय के साथ और प्रबल होगा।
तो दुख तुम्हें मिलेगा सच की तरफ़ जाने में भी, सच के साथ चलने में भी। पर उस दुख के खिलाफ़ विद्रोह मत कर देना, उसको झेलना। उसको प्रसाद की तरह ग्रहण करना, सर झुका देना।
और ये खूब होता है जैसी बात तुम कर रहे हो, लोग आऐंगे और कहेंगे, ‘आपकी बतायी हुई विधि का पालन किया, सब किया, लेकिन कलेजे में हुक सी उठती थी। ज़रा दर्द सा होता था। तो फिर हमने छोड़ दिया।’
कलेजे में हूक उठी तो तुमने मेरी बात माननी छोड़ दी। और जूता-ही-जूता पड़ा था, तब नहीं हूक उठती थी?
बचपन से लेकर आज तक इतिहास क्या है हमारा? आदमी नहीं हैं हम, शू स्टैंड हैं। जूते-ही-जूते ही रखे गये हैं हम पर। तब नहीं हूक उठी? और अब कहते हो कि आपकी बात पर चले तो वो कलाई में ज़रा मोच आ गयी। तो इसीलिए हमने आपकी बात माननी छोड़ दी। मेरी बात से कलाई में मोच आ गयी, तुम्हें बड़ा दर्द हो गया। दुनिया ने तुम्हारी जो बाँह मरोड़ रखी थी, तब नहीं दर्द होता था।
कोई कीमत ही देने को तैयार नहीं है। कलाई की मोच भी गवारा नहीं है। सच इतना सस्ता है कि एक काँटा भी न लगे और पूरी प्राप्ति हो जाए। यही है न तुम्हारी शर्त? कि बेवकूफ़ी के साथ रहने के लिए हम कोई भी कीमत देने को तैयार हैं लेकिन सच तो मुफ़्त चाहिए। वहाँ ज़रा सा दुख हुआ नहीं कि सच को ही छोड़ देंगे। सच की ज़रा सी कीमत अदा करनी नहीं पड़ी कि सच को ही छोड़ देंगे। सच तो इतनी सस्ती, इतनी चीप चीज़ है।
दुख तो होगा। झेलने को नहीं तैयार हो तो भाग जाओ।
हाँ, इतना ही बता सकता हूँ कि ये दुख, पहली बात, छोटा दुख है। और दूसरी बात, ये दुख धीरे-धीरे कम होगा, बढ़ेगा नहीं। दुनिया के साथ जो दुख तुम्हें मिलता है वो समय के साथ और बढ़ेगा। गुरु के साथ जो दुख मिलता है वो धीरे-धीरे कम होगा। अब तुम चुन लो तुम्हें कौन सा दुख चाहिए। पिटना तो है ही। जूता किसका होगा ये तुम तय कर लो।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ऐसा क्यों है कि बाय नेचर (स्वभाव से) हमें पता है कि ये कष्ट छोटा है तब भी हम ज़्यादा सफ़रिंग को फेस करने के लिए तैयार हैं लेकिन सत्य के मार्ग…
आचार्य प्रशांत: डरे हुए हो, बहुत डरे हुए हो।
प्रश्नकर्ता: किस चीज़ से? किस चीज़ से?
आचार्य प्रशांत: डरने के लिए कोई चीज़ थोड़े ही चाहिए होती है। डरने के लिए डर चाहिए। एक होता है, स्टॉकहोम सिंड्रोम, जानते हो क्या होता है?
प्रश्नकर्ता: सुना था मैंने पहले कहीं।
आचार्य प्रशांत: स्टॉकहोम सिंड्रोम ये होता है कि जिसने तुम्हें डरा रखा हो बहुत दिनों तक, तुम उससे मोहित हो जाते हो। एक विमान का अपहरण हुआ था — ये नाम ही वहाँ से आया है, स्टॉकहोम सिंड्रोम — एक विमान का अपहरण हुआ था तो अपहरणकर्ताओं ने उसके यात्रियों को बड़े समय तक कष्ट में रखा, जो कि होगा ही, हाईजैक (अपहरण) हुआ है।
अन्ततः जब उन यात्रियों को मुक्ति मिलने लगी तो उनमें से बहुतों ने ऐसा दर्शाया जैसे कि उन्हें अपहरणकर्ताओं से प्रेम हो गया हो। और ये बड़ी चौंकाने वाली बात थी। जिसने आपको इतनी तकलीफ़ में रखा, मार-पीटकर भी रखा, भूखा-प्यासा रखा, हर तरह के अपमान में रखा, आप उसके प्रति प्रेम की भावना कैसे व्यक्त कर रहे हो?
तो मनोविश्लेषकों ने इसके बारे में कहा कि अहंकार मानना नहीं चाहता कि दुश्मन से पिटा है। तो वो जिससे पिटा है उसको प्रेमी का नाम दे देता है। समझना इस बात को, अगर तुम ये बोलो कि मैंने किसी से लड़ाई करी और जूते खाए तो अहन्ता को चोट लगेगी।
लगेगी कि नहीं?
कि गये थे लड़ने और जूते खाकर आ गये। तो मन उससे बचने के लिए जो डिफेंस मैकेनिज़्म (रक्षात्मक प्रतिक्रिया) निकालता है, वो ये होता है कि पिट तो रहे ही हो, ऐसे दर्शाओ जैसे जिससे पिट रहे हो, वो. .
प्रश्नकर्ता: प्रेमी है
आचार्य प्रशांत: प्रेमी है। अब मन बेचारे की मजबूरी ये है कि जो धोखा वो दूसरों को देना चाहता है वो धोखा वो अपनेआप को दे लेता है।
तो दिखाना तो दूसरों को चाहता था कि मैं दुश्मन से नहीं पिट रहा। ये तो प्रेमी के साथ यूँही किलोलें चल रही हैं, क्रीड़ा! खेल रहे हैं। पर वो इस बात को खुद ही मानने भी लग गया कि ये तो प्रेमी है मेरा, ये स्टॉकहोम सिंड्रोम है। कि तुम जिनसे आतंकित हो, तुम जिनसे त्रस्त हो, तुम उन्हीं को अपने प्रेमियों का नाम दिये हुए हो।
तुम आँख खोलकर देख भी नहीं पाते कि उस व्यक्ति का, उस घटना का, उस जगह का तुम्हारे जीवन में बस एक योगदान है कि उसने तुम्हारे जीवन को नर्क कर रखा है।
सेक्टर-बासठ में नोएडा में रात में ढाबे खुले रहते हैं। तो एक बार मैं रात में गया कुछ खाने-पीने तो वहाँ पुलिस की गाड़ी रुकी। ढाबे पर बहुत सारे लोग बैठे हुए थे। पुलिस वाले आये और ढाबे वाले को दे-दना-दन लाठी! और उसको लाठियाँ पड़ रही हैं और वो मुस्कुरा रहा है। और वो मुस्कुराते-मुस्कुराते व्यवहार भी ऐसा कर रहा है जैसे पुलिस वाले उसके दोस्त हैं, ‘अरे ठाकुर जी, अरे दरोगा साहब… अरे, क्या करते हो?’
और जब वो उसको पीट-पाटकर और धमकी देकर चले गये कि फटाफ़ट बन्द कर दे। तो बाकी लोगों से बोल रहा है, ‘ये तो यार हैं मेरे, दोस्त हैं मेरे। ये तो ऐसे ही आते हैं मज़ाक करने। ये इनका तरीका है मज़ाक करने का।’
ये देख रहे हो न क्या किया जा रहा है? ये अहंकार को बचाया जा रहा है। ये दिखाने की कोशिश की जा रही है कि मैं पिटा थोड़े ही हूँ। ये सब तो प्रेमोत्सव चल रहा है। मैं पिटा थोड़े ही हूँ। ‘ये तो पुलिस वाले हैं और मेरे यार हैं। और ये इनका तरीका हैं चुम्मी देने का।’
तो वैसे ही हमारी हालत रहती है।