समाज नहीं, सामाजिकता है रोग || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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समाज नहीं, सामाजिकता है रोग || आचार्य प्रशांत (2014)

वक्ता: एक मुक्ति होती है कि मुझे किसी एक समाज से मुक्ति चाहिए। वह तब चाहिए होती है जब समाज आपकी रुचि का नहीं होता। मेरा जैसा मन है उससे वो समाज मेल नहीं खा रहा, तो मैं कहता हूँ कि मुझे इस समाज से मुक्ति चहिये। एक ऐसी मुक्ति होती है जो किसी ख़ास समाज से नहीं, समाज से ही मुक्ति चाहिए होती है। वहाँ आप यह नहीं कह रहे हैं कि यह समाज नहीं, कोई दूसरा समाज। क्योंकि अगर आप यह कह रहे हो कि यह समाज नहीं कोई दूसरा समाज, तो आपके मन में भूख बाकि है, सामाजिक होने की इच्छा अभी बाकि है। हाँ, एक विशिष्ट प्रकार का समाज आपको भाता नहीं है और एक दूसरे विशिष्ट प्रकार का समाज है जो आपको भाता है, पर इच्छा तो पूरी ही बनी हुई है। यह वैसा है जैसे की मन अभी भी किसी भी प्रकार की भूख में जी रहा है, बस भोजन का प्रकार बदलना है। तो यह वाला समाज नहीं, एक दूसरे प्रकार का समाज चहिये। तो एक हुई ‘फ्रीडम फ्रॉम अ सोसाइटी’ और दूसरी हुई ‘फ्रीडम फ्रॉम सोसाइटी इटसेल्फ’। तो यह जो दूसरी है, यह बड़ी ख़ास बात है और कहीं-कहीं देखी जाती है। पहले वाली मुक्ति चाहने वाले बहुत लोग मिल जाएँगे। अगर आपको अपने घर-परिवार वाले लोग ही नहीं अच्छे लगते, तो वह भी एक प्रकार के समाज से विद्रोह ही है। घर एक प्रकार का छोटा-सा समाज है। तो पहले प्रकार की कामना तो करीब-करीब सब में मिल जाएगी। जो दूसरी बात है कि, मुझे समाज से ही मुक्ति चाहिए, यह बात दूर तक जाती है। वह हमें नहीं चाहिए होती है।

आप अगर गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि जिन्हें मुक्ति चाहिए होती है, उन्हें मुक्ति नहीं चाहिए, उन्हें बस एक वस्तु विशेष से दूर होना है। दोनों बातों में ज़मीन-आसमान का अंतर है। मुक्ति मन की एक अवस्था है और वस्तु विशेष से दूर होना उस वस्तु पर निर्भर करता है। बहुत हो गया, ‘माई फ्रीडम’। आप यही कहते हो कि स्थितियाँ बदल जाएँ, पर किसी दूसरी प्रकार की स्थिति से आपका मन लगा हुआ है। आपको एक प्रकार का मनोरंजन अच्छा नहीं लगता है तो आप दूसरे प्रकार के मनोरंजन की तरफ चले जाते हो, पर मन है अभी भी वस्तु-केंद्रित। मनोरंजन के प्रकार बहुत अलग-अलग दिख सकते हैं पर है सब एक ही। आप पहले अपने आपको थोड़ा ज़्यादा संसारी बोलते थे तो आप मूवी देखने चले जाते थे, नाचने चले जाते थे, तो मनोरंजन था। और अब आप क्या कर सकते हो?

श्रोता: अकेले बैठ सकते हो।

वक्ता: अकेले बैठ सकते हो। अपने विचारों के साथ मस्त रह सकते हो, या फूल-पौधे हैं, या कोई छोटा बच्चा है या खेल कूद है। देखने में ऐसा लगेगा की इसकी ज़िन्दगी बदल गयी है। पहले तो यह हर दिन नाचता नज़र आता था और अब यह प्रकृति करीब रहता नज़र आता है। वास्तव में कुछ बदला नहीं है बस इतना हुआ है की एक गतिविधि से उठ कर, दूसरे में संलग्न हो गए हो। कुछ बदला नहीं है क्योंकि मन वही है वस्तु बदल गयी है। ‘द ऑब्जेक्ट हैज़ चेंज्ड’। मन पहले जिसको पकड़ कर बैठा था अब उसे छोड़कर किसी और को पकड़ कर बैठ गया है, और यह बहुत आसान है। इससे धोखे में मत आ जाईयेगा। मन की बहुत मज़ेदार चाल होती है, एक चीज़ से छूटेगा दूसरी चीज़ को पकड़ लेगा। जैसे समझ लीजिये शरीर पर भिनभिनाती हुई मक्खी है, आप एक जगह से उसे उड़ाइये तो वह दूसरी जगह जाकर बैठ जाती है, पर वो जाती नहीं है। ज़ार ने बड़ी तानाशाही कर रखी थी। क्रांति हुई १९१७ की, दूसरा समाज आ गया। कौन सा? कम्युनिस्ट आ गये। समाज कहाँ गया? समाज कहीं नहीं गया। समाज है, बस प्रकार बदल गया है क्योंकि मन अभी भी सामाजिक है, क्योंकि मन में अभी कोई मूलभूत क्रांति नहीं हुई है। जो यह कह रहे हैं, ‘इनर साइकोलॉजिकल रेवोलुशन’ वह नहीं हुआ है। मन वही है। तो आप समाज के प्रकारों से छेड़खानी करते रहिये, उससे कुछ होगा नहीं। यह वैसा ही है कि ज़िन्दगी सड़ी हुई है, कमरे के पेंट का रंग बदलते रहो। उससे क्या मिल जाएगा?

श्रोता: सर जैसे सब्जेक्ट वही रहे और ऑब्जेक्ट्स बदलते जायें।

वक्ता: हाँ! और सब्जेक्ट इतना चालाक है कि वह अपने आप को न बदलने के लिए, सारे ऑब्जेक्ट्स बदल देगा। आपका ब्रेक-अप होता है, एक के बाद दूसरा व्यक्ति आ जाता है जीवन में। व्यक्ति नहीं भी आया, तो कोई दूसरी रूचि आ जाती है जीवन में। कई बार व्यक्ति की जगह जानवर आ जाएगा जीवन में, पर आपको कोई तो चाहिए। हो सकता है किताबें ही आ जाएँ, पर आपको कोई तो चाहिये। हो सकता है कुछ और आ जाए, पर खाली रहने से मन डरेगा, उसे कुछ न कुछ चाहिये। ऑब्जेक्ट अगर हट गया, तो सब्जेक्ट को मरना पड़ेगा। अहंकार खुद वह सब्जेक्ट है, वह अपनी मौत को बर्दाश्त नहीं करेगा। अपना होना वह कभी नहीं छोड़ सकता। इसलिए जब भी यह लगे कि जीवन में बदलाव हुआ है, तो देखियेगा कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि केंद्र अपनी जगह है और ‘मैं” सिरे पर ही घूम रहा हूँ, जैसे कोल्हू का बैल, उसकी ज़िन्दगी में लगातार बदलाव आते रहते हैं। कोल्हू का बैल आपने देखा है? वह लगातार चल रहा है। बदलाव लगातार आ रहा है। पर कुछ बदल रहा है क्या? वह बहुत खुश हो रहा है, ‘आज ज़िन्दगी बदल गयी, पहले सूरज पीछे था, आज सूरज आँखों के सामने है। देखो मैंने १८० डिग्री से जीवन बदल दिया’। मगर वास्तव में कुछ बदला नहीं है क्योंकि तुम्हारा केंद्र वही है। तुम वही हो। तुम उसी से बंधे हुए हो अभी और जब तक वह केंद्र नहीं टूटेगा तुम पीड़ा से गुज़रते ही रहोगे। तुम्हारे जीवन में सिवाए पीड़ा के और दुःख के कुछ नहीं रहेगा। तुम्हें अपने केंद्र से हटना गंवारा हो नहीं रहा है, और यह केंद्र अहंकार का केन्द्र है।

श्रोता: पर वह तो आसान है।

वक्ता: किसके लिए?

श्रोता: मेरे लिये।

वक्ता: ‘मेरे’ मतलब किसके लिए?

श्रोता: क्या मन इस अवस्था में नहीं पहुँच सकता?

वक्ता: किसका मन पहुँच सकता है? यह मैंने कई बार कहा है की सवाल करने से पहले यह बता दिया करिये कि वह सवाल कौन कर रहा है। आप अपने आपको क्या मान कर सवाल पूछ रहे हैं? आप ऐसे ही बैठे रहिये जैसे बैठे हैं, अब बताइये कि आपके लिए कितना आसान है वह बोतल उठाना (जो आपसे ३ मीटर दूर रखी है)? आप ज़मीन पर बैठे हैं, आपके लिए कितना आसान है वो बोतल उठाना जो आपसे एक दूरी पर राखी है ? आपके लिए असंभव है। कब तक? जब तक मुझसे यह ज़मीन पर बैठा व्यक्ति पूछ रहा है। तो आप कौन हैं अभी? अभी आप ज़मीन पर पालथी मार कर बैठे हुए व्यक्ति हैं। क्या इस व्यक्ति के लिए संभव है बोतल उठाना? भले ही बोतल सिर्फ तीन मीटर की दूरी पर है। खड़े हो जाइये, बहुत आसान है। तो बताइये, आप कौन हैं? वो जो पालथी मार कर बैठा रहेगा या वो वो जो खड़ा हो जाएगा। आप कौन हैं?

श्रोता: जो खड़ा हो जाएगा।

वक्ता: तो आसान है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप कौन हैं। हाँ आपको सुख मिलता हो पालथी मार कर बैठने में, तो अलग बात है और कई बार हमारे बड़े स्वार्थ जुड़े होते हैं पालथी मार कर बैठने में । एक प्रकार से जीने में, एक प्रकार की मुद्रा अपनाए रहने में, एक पहचान बनाए रखने में हमें बड़ा सुख मिलता है। आप को अगर उसमे सुख मिल रहा होगा तो बड़ा मुश्किल है कि आप उठकर बोतल उठा पाएँ, असंभव है। तो आप देखिये न की आप कहाँ पर अपने सुखों को बाँध कर बैठे हुए हैं। जिसको पीड़ा में ही सुख मिलने लगा हो, उसे दुख का पता नहीं चलेगा। जिसको पीड़ा में ही सुख मिलने लग गया हो, उससे आप मुक्ति के विषय में पूछिये, वह यह कहेगा कि दुःख से मुक्ति असंभव है। तो आप कौन हैं? क्या आप पीड़ा प्रेमी हो गए हैं? फिर तो असंभव है कि दुःख कभी भी आपके जीवन से जाएगा। जानिए, ‘आप कौन हैं?’

ज्ञान सेशन पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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