समाज के दबाव से बचना है? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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समाज के दबाव से बचना है? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बहुत सारे काम समाज के दबाव में करने पड़ते हैं, इस दबाव से कैसे बचूँ?

आचार्य प्रशांत: जब वो सारे लालच जो बाध्य करते हैं किसी दबाव को बर्दाश्त करने को, बड़े लगने बंद हो जाएँ। मजबूत आदमी हो, एथलीट आदमी हो, कौन तुम से ज़बरदस्ती कुछ करा सकता है? ज़बरदस्ती कोई किसी से कुछ नहीं कराता।

प्र२: छात्र जीवन में ज़बरदस्ती पढ़ाई करवाई जाती थी।

आचार्य: अब नहीं हो न बच्चे, आज कौन तुम्हारे साथ ज़बरदस्ती कर सकता है? जब तक कि तुम्हारे भीतर जो बैठा हुआ है निर्णेता, वह यह निर्णय न करे कि दबाव सहना आवश्यक है किसी तरीक़े के नफ़े के लिए। दबाव तो आप तभी बर्दाश्त करते हो जब उसमें मुनाफ़ा दिख रहा हो। मुनाफ़ा जिसको चाहिए वह वही है जो सोचता है कि अभी कुछ कमी है।

सत्र के आरंभ में ही हमने कहा था कि अहंता की परिभाषा ही यही है कि वो हमेशा कुछ-न-कुछ कम पाती है, उसे कहीं कुछ-न-कुछ खोट नज़र आती है। जहाँ कमी दिखेगी, जहाँ अपूर्णता दिखेगी, वहाँ लालच का आना लाज़मी है। अब कोई भी तुम्हारा मालिक बन सकता है। जो ही तुमको यह आश्वासन दे देगा कि जिस चीज़ की तुम्हारी ज़िंदगी में कमी है, वह मैं पूरी कर दूँगा, वही तुम्हारी नकेल पकड़ लेगा।

फिर तुम कहोगे उसने तुम पर दबाव डाल दिया है। दबाव कोई किसी पर नहीं डाल सकता। तुम जब तक स्वयं न चुनो ग़ुलामी, तब तक कोई तुम्हें ग़ुलाम बना नहीं सकता। और आगे सुनना, कि तुम जब भी चुनोगे, ग़ुलामी ही चुनोगे —चुनना ही ग़ुलामी है। अपनी नज़र में तो हर कोई मुक्ति ही चुन रहा होता है, आज तक किसी ने जानते-बूझते ग़ुलामी नहीं चुनी।

हम सब होशियार लोग हैं, हम ग़ुलामी यदि चुनते भी हैं तो एक माध्यम की तरह, हम कहते हैं आज ग़ुलामी चुन लो, इसके माध्यम से कल बड़ी आज़ादी मिल जाएगी। हम बड़े अक़्ल-मंद हैं, हम बड़ी योजनाएँ जानते हैं, चुनते हम ही हैं फिर हम कहते हैं, ‘यह क्यों हो रहा है?’

याद रखना अगर कुछ भी ऐसा हो रहा है — सूत्र की तरह पकड़ लो इसको — जीवन में अगर कुछ भी ऐसा हो रहा है जो कष्ट का कारण बन रहा है, तो तुमने उसको चुना है। और जीवन में जो भी है, जो तुम्हें मुक्ति देना चाहता है, आराम देना चाहता है, वो तुम्हारे बावजूद है। तुम्हारा बस चलता तो तुमने उसको कब का मिटा दिया होता। तुम्हारा बस चलता, तो या तो तुम भाग गए होते या उसे भगा दिया होता। तो जब भी कुछ बुरा लगे, पूछा ही मत करो, जान जाया करो, ‘मेरी ही करतूत है, मैंने ही किया होगा।’ और जब भी कहीं विश्राम मिले, तब भी पूछना ही मत, कहना, ‘बड़ा चमत्कार है, मेरे रहते मुझे विश्राम मिल गया!’

शिकायतें तो वही करे न जिसने कुछ किया हो। तुम कहते हो, ‘नहीं साहब भुगत रहे हैं, इसलिए शिकायत कर रहे हैं।’ कर्ता हुए बिना भोक्ता कैसे हो गए तुम? तुम भुगत रहे हो, इसी से प्रमाणित हो जाता है कि पहले तुमने?

श्रोतागण: कुछ किया था।

आचार्य: कुछ किया ज़रूर था, जो करेगा वही तो भुगतेगा। तो शिकायत ही प्रमाणित करती है कि कहीं पर तुम बन के बैठे थे राजा, कि मैं हूँ सिंहासन पर, मेरा काम है निर्णय लेना। ख़ूब अपने जीवन पर आदेश पारित कर रहे थे, ‘अब यह होना चाहिए, अब ऐसा करेंगे, चलो अब वहाँ ज़मीन खरीदते हैं, चलो अब उससे दोस्ती बढ़ाते हैं, चलो अब उससे दुश्मनी करते हैं, चलो फ़लानी जगह नौकरी करें, चलो वहाँ जा कर ब्याह कर लें।’ यह सब कर आए तब तो तुम ही राजा थे, अब कहते हो, 'जीवन में कुछ नहीं है, हाय! जीवन।'

पर अभी भी निवृत्ति बहुत आसान है। वही मत रहे आओ जिसने करा था। समझो इस बात को।

भुगतता वही है जो करता है, वही मत रहे आओ जिसने करा था, भुगतना बंद हो जाएगा। अगर भुगत रहे हो, इसका मतलब अभी भी वही हो जो कर रहा था। पुराना जितना किया-धरा है सब साफ़ हो जाएगा, सारे कर्म से मुक्ति मिल जाएगी, बस वही मत रहे आओ जिसने किया था।

मुक्ति के लिए तुम्हें बदलना नहीं है, तुम्हें मिटना है। मैं वह हूँ ही नहीं जिसने किया था, जब मैं वह हूँ ही नहीं जिसने किया था, तो मैं क्यों भुगतूँ? जब तक तुम दावा करते रहोगे, ‘साहब मैंने ही तो किया था,’ तब तक कर्मों का जो फल है वो भी फिर तुम्हें ही आकर पड़ता रहेगा। पर तुम्हें अपने करने में बड़ा अभिमान है — ‘हमारी पसंद थी साहब इसलिए किया था।’ मान लो न साफ़-साफ़ कि तुमने नहीं किया था, हो गया था।

ग़ुसल-ख़ाने में फिसल जाते हो, तो कहते हो क्या कि हमने किया था? (श्रोतागण हँसते हैं) जीवन हमारा ऐसा ही है, ग़ुसल-ख़ाने में फिसलना, नंग-धड़म-धड़ाम, चित्त पड़े हुए हैं। फिर कहते हो कि चुनाव किया है? ग़ौर से अगर आप देखेंगे, तो जीवन में वह सबकुछ जो बड़ा-बड़ा लगता है, जो पारिभाषिक लगता है, जिसने जीवन की दिशाएँ ही उलट-पुलट दी हैं, वह सबकुछ ग़ुसल-ख़ाने में फिसलने जैसा ही तो है। कहीं जा रहे थे फिसल गए, अब पूरा ख़ानदान चल पड़ा है। पप्पू पूछ रहा है, ‘पापा हम कहाँ से आए?’ उसका सच्चा जवाब एक ही है, ‘बेटा ग़ुसल-ख़ाने में फिसल गए थे, उस दिन न फिसलते तो यह पूरा ख़ानदान ही न खड़ा होता।’

अब उसके साथ तुमने अपना कर्ताभाव जोड़ रखा है, उसके साथ तुमने अपना होना जोड़ रखा है, उसके साथ पूरी पहचान जोड़ रखी है। हम हैं कौन? पप्पू के पापा। सीधे-सीधे हाथ जोड़ लो, माफ़ी माँग लो, हो गया। बाज़ार में जा रहे थे, मन ख़राब था, किसी से लड़ लिए, अब क्यों मुक़दमे-बाज़ी में पड़े हुए हो? गुस्सा तुमने किया था, वास्तव में, या बस हो गया था? जवाब दो?

श्रोतागण: हो गया था ।

आचार्य: बस हो गया था न। अगर हो गया था तो पल्ला झाड़ लो उससे, कह दो कि भाई पता नहीं क्यों, कैसे हो गया था, हमें करनी ही नहीं मुक़दमे-बाज़ी । न हमने गुस्सा किया था, न हमें मुक़दमा करना है। मुक़दमा तो तब करें न जब गुस्सा हमने किया हो। जब कर्म ही नहीं हमारा, तो कर्मफल पर क्या दावा? बात ख़त्म।

प्र२: लेकिन फिर रिपीट (दोहराना) हो जाता है।

आचार्य: फिर हाथ झाड़ लो। ग़ुसल ख़ाने हैं ही ऐसे, फिसलोगे तुम बार-बार, बस कोई फिसलना आख़िरी न हो। (हँसते हैं)

जो पूरी संरचना है ग़ुसलख़ानों की, और तुम्हारे तलवों की, यह है ही इस तरह कि जब यह दोनों मिलेंगे तो करीब-करीब एक रासायनिक प्रक्रिया होगी, जिसमें आवाज़ भी उठेगी, जिसमें ऊर्जा भी बहेगी, जिसमें चोट भी लगेगी।

अतीत से और कोई मुक्ति नहीं हो सकती, हाथ जोड़कर माफ़ी माँग लो, धोखे से हो गया था, मुक़दमा वापस लेता हूँ, तुम भी वापस ले लो। और वह न ले वापस, तब भी कहे कि नहीं सज़ा भुगतो, उस दिन बाज़ार में गुस्सा करा था तो अब सज़ा भुगतो, तो सज़ा से गुज़र जाओ। कह दो कि जब हम करने वाले नहीं थे, तो सज़ा से गुज़रने वाले भी तो हम नहीं हो सकते। जिसने किया था वह सज़ा भुगत रहा है, उसे भुगतने दो, हम मौज ले रहे हैं। अब पप्पू है, तो पप्पू के पापा भी होंगे, पप्पू के पापा को झेलने दो पप्पू को, तुम ज़रा हट कर खड़े हो जाओ।

अपने लालच को तलाशो। दासता से, बेड़ियों से, दबाव से मुक्त होना है तो औज़ार मत तलाशो, ताक़त मत तलाशो, लालच तलाशो।लालच कहाँ है? क्या पाने की उम्मीद में अभी भी अटके हुए हो? कर्म हमेशा कर्मफल की उम्मीद में होता है। कर्ता जी ही नहीं सकता बिना उम्मीद के, कर्ता से मुक्त होना है तो उम्मीद से मुक्त होना ही पड़ेगा, उम्मीद तलाशो, कहाँ है लालच? जहाँ लालच है वहाँ जान लो यही है, यहीं फँसा हुआ हूँ। और आगे बढ़ जाओ।

प्र२: वो लालच हटेगा कैसे?

आचार्य: यह देखकर कि वो लालच ही बेड़ियाँ हैं। बेड़ियाँ बुरी लगती हैं अगर तो लालच भी बुरा लगेगा। उससे कुछ मिल रहा हो तो वो बना रहे।

प्र२: ऐसे तो हमारे पास जो कुछ भी है वो सब ही लालच है, किस-किस को हटाएँ?

आचार्य: तुम चुनोगे किस-किस को हटाना है? जिन्हें हटना है, वो ख़ुद हट जाएँगे, तुम पकड़ना बंद करो। तुमने पंद्रह बीस तरीक़े के दस्ताने हाथों में पहन रखे हों, फिर तुम कहो कि इसमें पता नहीं चल रहा है असली कौनसा है, नक़ली कौनसा है, अपना कौनसा है, बेगाना कौनसा है तुम तो उतारते चलो, जब तक दस्ताने होंगे उतरते रहेंगे, जब हाथ आ जाएगा उतरना बंद हो जाएगा। जो पराये हैं वो तो ख़ुद ही उतरने के इच्छुक हैं, तुम कोशिश कर-करके उनको पकड़े रहते हो।

जो अपने हैं वो अपनेआप हटेंगे ही नहीं, तुम कितनी ही कोशिश कर लो हाथ उतारने की, हाथ थोड़े ही उतर जाएगा दस्ताने की तरह। जो उतर सकता है उसे उतर जाने दो। जो अपना है, जो आत्यंतिक है, जो हार्दिक है वो कभी खो नहीं सकता। तो ये सवाल ही मत पूछो कि क्या पकड़ें, क्या छोड़ें; तुम तो सिर्फ़ छोड़ो, जो तुम्हारा अपना है वो तो वैसे भी नहीं छूटेगा, तो तुम तो सिर्फ़ छोड़ो। कमरे में झाड़ू मारते हो, तो यह शक भी हो जाता है कभी कि कहीं ऐसा न हो कि दीवारें भी झाड़ू मार के निकाल दूँ? (श्रोतागण हँसते हैं) अरे, झाड़ू मारोगे तो कचरा ही तो बाहर जाएगा, दीवारें थोड़े ही चली जाएँगी, ज़मीन थोड़े ही चली जाएगी। तो चुनाव थोड़े ही करना है, कि चुन-चुन के झाड़ू मारें। तुम तो मारो, हपक के मारो, सारा कूड़ा बाहर कर दो, जो बचेगा वो सफ़ाई है।

प्र३: कूड़ा तो रोज़ ही आ जाता है ।

आचार्य: तो रोज़ मारो, रोज़ कई काम करते हो। जहाँ कहीं भी मलिनता है, वहाँ मल की सफ़ाई भी रोज़ ही होती है, तो झाड़ू मारने में क्या परहेज़ है? कुछ करने के लिए ही नहीं झाड़ू मारना होता। घर में आप खाना बनाती हैं? जो गंदे बर्तन होते हैं, उनमें खाना बना लेती हैं?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: पहले उन्हें क्या करती है?

श्रोता: साफ़।

आचार्य: साफ़। और बात यहाँ ख़त्म नहीं हो जाती, बर्तन साफ़ करके रखती हैं, साफ़ बर्तन रखे हुए हैं, एक हफ़्ते के बाद आप कैम्प से लौटी हैं, अब आप उन्हीं बर्तनों में खाना बनाएँगी?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: तो आप साफ़ बर्तन को क्यों धो रही हैं?

श्रोता: क्योंकि वो गंदे हो गए दोबारा।

आचार्य: बिना कुछ करे भी गंदगी आ जाती है। कोई ज़रूरी नहीं है कि आपने गंदगी को आमंत्रित किया हो, रखे-रखे भी धूल पड़ जाती है, सफ़ाई रोज़ आवश्यक है। रखे-रखे गंदा हो जाएगा।

जो रोज़ सफ़ाई की प्रक्रिया से गुज़रने को तैयार न हो, उसे फिर मलिनता का दण्ड भुगतना होगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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