समाज फँसाएगा

Acharya Prashant

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समाज फँसाएगा

आचार्य प्रशांत: एक-से-एक फुद्दू लड़के जिस दिन ये होता है कि परिणाम घोषित हुआ। उस दिन वो बादशाह हो जाते हैं। (श्रोतागण हँसते हैं) शहर भर की लड़कियाँ जो उनसे अछूतों सा व्यवहार करती थी कि तुम्हारी छाया भी हमारे ऊपर न पड़े। (श्रोतागण हँसते हैं) वो ख़ुद ले जाकर के अख़बार दिखाना शुरू कर देंती हैं अपने बाप को कि देखो ये है वो। वो निकल गये हैं। उनका हो गया है। और फिर बापराम लड्डू का डब्बा लेकर पहुँच जाते हैं कि देखिए, ‘हें हें हें हें’ (हँसने का अभिनय करते हुए)। हम तो बचपन से ही जानते थे कि फुद्दू सिंह में बड़ी प्रतिभा है।

देख तो लो कि किस दिशा जा रहे हो। कह रहे हो कि मैं अपने पथ से विचलित न हो जाऊँ। किस पथ जा रहे हो कुछ पता भी है? वो तुम्हारा पथ है भी? जिस नौकर को ज़बरदस्ती भेजा गया हो बाज़ार से सौदा लाने के लिए वो कितनी उमंग-तरंग से ख़रीदारी करेगा? अलसाता-अलसाता चलेगा। इधर रुकेगा। उधर रुकेगा। समय व्यर्थ करेगा। आधे घंटे का कम चार घंटे में करके आएगा। वैसे ही तैयारी करते हैं हम प्रतियोगी परीक्षा की। जो आधे घंटे में पढ़ा जा सकता था वो चार घंटे में पढ़ते हैं। तुमने कभी पूछा नहीं कि ये क्यों होता है। क्योंकि वो करने का वास्तव में तुम्हारा कोई लक्ष्य नहीं है। इसीलिए जो भी करने बैठते हो उसमें — ‘ये क्यों हो रहा है? ये क्या है?’

भारत को देखूँ अगर तो अस्सी-नब्बे फ़ीसदी लोगों की ज़िन्दगी का फ़ैसला पच्चीस की उम्र में हो जाता है। पूर्ण विराम। उस पच्चीस की उम्र को ऐसे ही मानो जैसे आख़िरी दिन हो तुम्हारा और उसकी ओर बड़ी तेज़ी से बढ़ रहे हो। और पच्चीस नहीं तो तीस। इशारा समझो। तो जीवन के तुम्हारे पास ऐसा नहीं है कि पचास- साठ वर्ष शेष हैं। अगर तेईस के हो तो दो ही साल अब बचे हैं ज़िन्दगी के। इन दो सालों में या तो मुक्ति का इंतज़ाम कर लो या मौत है।

जो तेईस साल का है वो ये साफ़-साफ़ समझ ले कि जीने के लिए बस दो ही साल बचे हैं अब। इन दो सालों में या तो पक्का प्रबन्ध कर लो मुक्ति का, नहीं तो जीवित मृत्यु है। वो मृत्यु से भी ज़्यादा बुरी होती है। जीवित मृत्यु क्या होती है देखना चाहते हो? किसी विवाह समारोह में चले जाओ, वहाँ तुम्हें बहुत सारे जवान लोग मिलेंगे। उनकी शक्लों को, उनकी हरकतों को, उनके कपड़ों को देखकर तुम समझ जाओगे किसको कहते हैं “जीते जी मर जाना”।

घर की कुँवारी पिंकी पायल छनकाती, जाकर मौसी जी और ताई जी को जब चाय पिलाती है तो उसकी ओर जिस दृष्टि से देखती हैं और जो बात कहती हैं और फिर पिंकी जैसे ज़रा सा शर्मा जाती है। इसको देखो तो सही। और फिर समझ जाओगे कि...।

जाओ किसी तथाकथित संगीत समारोह में, ये आजकल होने लगा है। ये आजकल होने लगा है शादियों में। और देखो वहाँ तुम्हें मिलेंगे। बहुत आधे ऐसे होंगे जो पच्चीस वाले हैं तब समझ जाओगे मौत किसको कहते हैं। अब तुम करा लो पिंकी से अध्यात्म। ये जितने हैं (सन्तों की तस्वीरों की ओर इशारा करते हुए) मैं सबको चुनौती देता हूँ। तुम पिंकी से कराकर दिखाओ। वो भी तब जब ताई जी और मौसी जी सामने हों। तुम श्लोक एक बुलावा लो। तुम दोहा एक बुलवा लो। तुम उसे दो बातें बताकर दिखा दो। कर नहीं सकते। पिंकी गयी (ज़ोर देते हुए)। पिंकी गयी।

और बुरी-से-बुरी बात ये कि किसी को पता नहीं चलेगा। डेथ सर्टिफिकेट (मृत्यु प्रमाणपत्र) भी नहीं मिलेगा। हालाँकि चेहरे पर चस्पा है। जो देखने वाला है, पढ़ने वाला है वो पढ़ सकता है। डेथ सर्टिफिकेट यहाँ पर है (चेहरे की ओर इशारा करते हुए), पूरे शरीर पर है। ऊपर से नीचे तक, नख-शिख। पर समाज को नहीं पता चलेगा। समाज यही कहेगा, ‘ये तो अभी फल-फूल रही है। जवान है।’

उसी विवाह समारोह, उसी संगीत के लिए कलप रहे हो। वो होता ही तभी है जब तुम्हें वो मिल जाए जिसकी तुम तलाश में हो। जिसका नाम तुम दे रहे हो —सक्सेस (सफलता)। लड़का अब सफल हो गया, अब क्या होगा? उसी के लिए तो परेशान हो, उसी के लिए तो कलपते जा रहे हो। और साथ में और चीज़ें भी आएँगी। शादी का मतलब सिर्फ़ लड़की थोड़े ही होता है। शादी का मतलब होता है पैसा। बहुत सारा। नुमाइश लगती है पैसे की। होती ही शादी तभी है जब पैसा पक्का हो कि हाँ भाई, महीने का कितना गिरता है। यही चाहिए और क्या चाहिए? पदार्थ।

स्वभाव नहीं है तुम्हारा — पदार्थ। उसके पीछे दौड़ोगे, जीवन भर कष्ट पाओगे।

जिस राह तुम जा रहे हो तुम्हें पता भी नहीं है कहाँ जाती है। कहने को तुम विद्या अध्ययन कर रहे हो। वास्तव में तुम वासना अध्ययन कर रहे हो। दिल्ली में एक जगह है जिया सराय। उसके बारे में इसलिए जानता हूँ क्योंकि मेरे कैंपस के बिलकुल बगल में थी, आइआइटी के। वहाँ सब लगे रहते हैं परीक्षार्थी। चार-चार, पाँच-पाँच साल। पता नहीं कितने हैं। बहुत सारे हज़ार। दस हज़ार होंगे। जाने पचास हज़ार होंगे। पता नहीं कितने।

तुम्हें क्या लगता हैं उन्हें वास्तव में ज्ञान से कुछ लेना-देना है? सबका एक लक्ष्य है — देह, माँस, भोग, वासना, विलास, पदार्थ। जैसे मक्खी गुड़ के लिए छटपटाती हो। गुड़ के गोदाम का रास्ता मन्दिर से होकर गुज़रता है तो मक्खी मन मारकर मन्दिर से भी गुज़र लेगी। ये मत समझ लेना कि उसमें सत्य की, कि विद्या की, कि अध्यात्म की कोई प्यास है। वो मन्दिर से सिर्फ़ गुज़र रही है उसे पहुँचाना गुड़ के गोदाम तक है। और गुड़ के गोदाम में सबकुछ है। पिंकी, ताई, मौसी, संगीत, करोड़ों की आमदनी, प्रतिष्ठा, चूज़े। (श्रोतागण हँसते हैं) यही है न सफलता?

और ये सफलता तब तुम्हें मिल जाएगी तो देखा है समाज तुम्हें कैसे कन्धों पर बैठाएगा। तुम्हारा जुलूस निकलेगा। जितने तुम भ्रष्ट-से-भ्रष्ट काम में गिरते जाओगे उतना बड़ा तुम्हारा जुलूस निकलेगा। कभी घोड़े पर बैठाकर, कभी घोड़ी पर, कभी...

ज़मीन पर आकर बात करो। आम आदमी को चाहिए क्या होता है? सारी बड़ी-बड़ी बातें। सारे बड़े-बड़े प्रयत्नों के पीछे क्या है? कौन अभिलाषी है सत्य का? किसको जीवन सार्थक करना है? सबको क्या चाहिए? बड़ा एलइडी टीवी। उससे भी आगे की अब कोई तकनीक आ गयी होगी। कौनसी है?

श्रोता: प्लाज़्मा टीवी।

आचार्य प्रशांत: देखा, सब पता है। तो पूरी दीवार बराबर प्लाज़्मा टीवी। दीवार ही पूरी प्लाज़्मा टीवी की बना दो (श्रोतागण हँसते हैं)। आईना भी मत रखो घर में। जिधर देखो उधर कुछ और ही दिखाई दे। ख़ुद को देख लिया तो आफ़त हो जाएगी।

बड़ी-से-बड़ी गाड़ी, पन्द्रह-बीस घर। सीधे-सीधे कमा सकते हो तो भी आड़े-तिरछे तरीक़ों से कमाना। चुराये हुए समोसे की बात दूसरी है। इसके अलावा कुछ चाहिए क्या हमें? अपने मन को टटोलो, ईमानदारी से पूछो, ‘इसके अलावा कुछ चाहिए?’ बढ़िया पैसा कि जिस शॉपिंग मॉल में निकल जाएँ वहाँ अन्धाधुन्ध ख़र्च कर सकें। इसके आगे कोई लक्ष्य है भी? जो तीर साध रहे हो उसका निशाना और क्या है इनके अलावा?

ये ऊँचा उड़ने वालों को देखकर के फ़िक्र मत करना। उन्हें वहाँ रहना ही नहीं है। उन्हें अभी नीचे आना है मरे हुए माँस के पास। जिन परीक्षाओं के लिए परेशान हो रहे हो उनमें जिनका प्रथम स्थान भी आया है उसका अंजाम कुछ और नहीं है, एक ही है, क्या? माँस। थोड़ा माँस, थोड़े चूज़े। दो ही तीन वर्ष बाद ये बात आयी गयी हो जाएगी कि साहब का प्रथम स्थान आया था। दो ही तीन वर्ष बाद उनके जीवन से प्रथम स्थान की स्मृति भी जाती रहेगी। शेष क्या रह जाएगा? माँस और चूज़े। उसमें जीवन बीतेगा। उसमें दिन बीतेगा। पूरा जीवन उसी में बीतना है। पूरा दिन उसी में बीतना है।

कौनसी सफलता? कौनसी परीक्षा? उस पर अतीत की धूल पड़ी। अब जियो इसमें, गुड़ के गोदाम में। सारा यत्न ही इसी के लिए था। फिर जीते तुम उसी में हो। जाना जब सबको मरे हुए चूहे के पास ही है तो सबसे बुरी कहानी तो उस बेचारे की हुई जो इतना ऊँचा उड़कर चूहे के पास आया। अरे, सीधे ही आ जाते। हश्र तो एक ही होना है सबका। काहे इतना लम्बा-चौड़ा घुमावदार रास्ता लेते हो?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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